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[६] कर्म एक विश्लेषण
भगवान महावीर कहते हैं, मानव ! साधक का मोक्षमार्ग जग से निराला होता है । भौतिकता के लुभावने दृष्य साधक को क्षण भर के लिए भी अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर सकते । भौतिक साधनों के प्रति स्नेह का परित्याग ही सच्ची साधना या तपस्या है । अध्यात्म मार्ग में लगा साधक ही मुक्ति की मंजिल पर पहुँच सकता है । जो इस साधना से दूर भौतिक प्रपंचों में उलझा रहता है, उसका इहलोक और परलोक दोनों बिगड़ते हैं एवं उसकी दशा मरीचिका-मुग्ध-मृग जैसी हो जाती है।
भगवान महावीर ने जीवन के स्वरूप की बहुत ही सुन्दर व्याख्या की है। उनका कथन है कि जीव अपने कर्मों के द्वारा ही कभी देव, कभी नरक तो कभी पशुरूप नाना योनियों में परिभ्रमण करता रहता है । जीव का बन्धन स्वकृत है, परकृत नहीं । इस संसार में दिखाई देने वाले विविध प्रकार के सुख-दुःख भी स्वकृत कर्म के ही परिणाम हैं । पर-सुख को ईर्ष्या या द्वेष की नजरों से देखने वालों को यह भली-भाँति जान लेना चाहिए कि वह भी अपने किए का ही फल भोग रहा है । न तो कोई किसी का सुखदाता या न कोई दुःखदाता ही है।
किसी व्यक्ति के द्वारा चोट खाने से जब कोई दुःखी या परेशान हो जाता है, तो दुनिया चोट देने वाले को दोषी समझती है या उस चोट को परकृत मानती है, किन्तु पारमार्थिक दृष्टि से बात ऐसी नहीं है । शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार चोट खाने वाले का कहीं न कहीं कुछ दोष अवश्य है । नहीं तो चोट देने वाले ने किसी दूसरे को चोट न देकर उसे ही क्यों दी, यह यहाँ एक प्रश्न उठता है।
भगवतीसूत्र में गणधर गौतम ने प्रश्न पूछा कि भगवन् ! जीव स्वकृत दुःख भोगता है या परकृत अथवा उभयकृत ? इसके उत्तर में प्रभु ने कहा-गौतम ! जीव