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आध्यात्मिक आलोक.
25 से दूर होता तथा मुनिव्रत सन्यास ग्रहण कर मुक्ति के पथ पर अग्रसर हो जाता था। वस्तुतः जीवन का कल्याण इन्हीं से होता है, धन और भौतिक साधनों से नहीं। सम्राट सिकन्दर ने प्रबल शौर्य प्रदर्शित कर खूब धन संग्रह किया किन्तु जब यहां से 'चला तो उसके दोनों हाथ खाली थे । बड़े-बड़े वैद्य और डाक्टर वैभव के बल से उसको बचा नहीं सके और न उसके सगे सम्बन्धी ही उसे चलते समय कुछ दे सके।
साधना के मार्ग में पैर बढ़ाना कुछ आसान नहीं है । बड़ी-बड़ी विघ्न बाधाएं साधक को विचलित करने के लिए पथ पर रोड़े डालती रहती हैं जिनमें मुख्य मोह
और कामना है। इनमें इतनी फिसलन है कि साधक अगर सजग न रहा तो वह फिसले बिना नहीं रहता । कहा भी है
एक कनक अरु कामिनी, जग में दो तलवार ।
उठे थे हरि भजन को, बीच लिया है मार ।। यदि मोह और कामना पर विजय प्राप्त नहीं हुई तो कीचड़ युक्त मार्ग में चलने वाले यात्री की तरह स्खलित होने का खतरा है । साधक को भूख, प्यास, गाली, तिरस्कार, अपमान आदि अनेक कष्टों को सहना पड़ता है । उसके जीवन में अनेक परीक्षाकाल आते हैं जिनमें कुछ अनुकूल और कुछ प्रतिकूल भी होते हैं । मोह एवं कामना का वातावरण साधक को अन्य कष्टों की अपेक्षा अधिक विचलित करता है । भौतिक पदार्थों की कामना गृहस्थों की तरह सन्यासियों पर भी असर डालती है। और उन्हें भटकाने की चेष्टा करती है । प्रभु महावीर स्वामी का कहना
था कि कामनाओं को असीम बनाकर तथा मोह की परिधि को बढ़ाकर मानव • सुख-शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता। किसी कवि ने ठीक कहा है
मुझे नहीं चाहिए राज्यपद, अथवा भौतिक विभव विलास ।
कष्टोपार्जित प्रजाग्रास, हरने से उत्तम है उपवास ।। मुमुक्षु ज्ञान के प्रकाश में इन बाधाओं पर विजय पा लेता है जो उसकी अपनी दिशा ही बदल देती है । कामना और मोह को समाप्त करना एवं उसके बन्धन से मुक्त होना ही मनुष्य का साध्य है और इसका साधन उपाय साधना है।
कामना और मोह विजय के साथ-साथ साधक में श्रद्धा-विश्वास और रुचि हाना चाहिए। यदि श्रद्धा और विश्वास हो किन्तु रुचि न हो तो साधना के मार्ग में अभीष्ट गति नहीं होगी । जैसे रोगी पथ्य भोजन के प्रति भी रुचि नहीं रखने से स्वास्थ्य लाभ नहीं कर सकता, वैसे साधना के मार्ग में श्रद्धा और विश्वास के होने पर भी रुचि न होने से साधक अपनी साधना में सफल नहीं हो सकता ।