Book Title: Chitta Samadhi Jain Yog
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग वाचनाप्रमुख आचार्य तुलसी सम्पादक डॉ० नथमल टाटिया निदेशक युवाचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती प्रकाशन १९८६ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग वाचनाप्रमुख आचार्य तुलसी सम्पादक डॉ० नथमल टाटिया निदेशक युवाचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती प्रकाशन १९८६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : श्रीचन्द बैंगानी, मन्त्री, जैन विश्व भारती, लाडनूं-३४१३०६ प्रकाशन वर्ष : सन् १६८६ ई० मूल्य : पचीस रुपये मुद्रक : जैन विश्व भारती मुद्रणालय, लाडनूं (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO आशीर्वचन साधना का प्रयोजन है-चित्त-समाधि । चित्त की दो अवस्थाएं होती हैंCo) समाहित और असमाहित । राग-द्वेष या प्रिय-अप्रिय संवेदन चित्त को असमाहित कर देता है । वीतराग-दशा की अनुभूति में चित्त समाहित रहता है । जैन-योग में चित्त को समाहित करने की अनेक पद्धतियां निर्दिष्ट हैं । उन पद्धतियों का विधिवत् वर्णन करने वाले ग्रन्थ काल के अन्तराल में निमग्न हो गए । 'समाधि-शतक' और 'कायोत्सर्ग-शतक' जैसे विरल ग्रन्थ बचे हुए हैं । आगम सूत्रों में ध्यान-पद्धति के प्रकीर्ण बीज उपलब्ध हैं । जैन योग के स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए हमने आगमों के विकीर्ण स्थलों का चयन कर द्विवर्षीय पाठ्यक्रम तैयार किया। प्रस्तुत पुस्तक में वह उपलब्ध है । जैन योग के अध्येताओं को इसमें नयी दृष्टि प्राप्त होगी । थामला (उदयपुर) दिनांक : १६ जनवरी, १९८६ युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जैन योग से सम्बन्धित कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित किए जा चुके हैं, परन्तु उनकी रचना प्रेक्षा-ध्यान की व्याख्या के रूप में की गई थी। लम्बे समय से स्नातकोत्तर अध्ययनार्थ एक प्रतिनिधि ग्रन्थ की आवश्यकता प्रतीत हो रही थी जिसमें एक ही स्थान पर जिज्ञासुओं को जैन साधना विषयक उपादेय सामग्री उपलब्ध हो सके । इस दृष्टि से परमश्रद्धेय युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के निदेशन में पाठ्य-वस्तु का चयन किया गया, जिसे समणी कुसुमप्रज्ञा एवं सुश्री निरंजना द्वारा शुद्ध रूप में लिखवाया गया। वही सामग्री "चित्त समाधि : जैन योग' नामक ग्रन्थ के रूप में इस संस्था द्वारा प्रकाश में लाई जा रही है। इसके प्रकाशन से जैन साधना से सम्बन्धित अत्यन्त महत्त्व की सामग्री का एक संकलन तत्त्व-जिज्ञासुओं को सुलभ होगा और साधना के कई नदघाटित आयाम प्रकाश में आएंगे। इस ग्रन्थ में समाविष्ट अवतरण शास्त्रों की गहराई से खोज निकाले गए हैं जो विद्वानों के लिए मननीय तथ्य प्रस्तुत करते हैं । यही इस प्रकाशन का लक्ष्य है और यही इसकी उपलब्धि है । ___ यह संकलन ज्ञान-पिपासु साधकों को साधना के सिद्धांतात्मक एवं प्रयोगात्मक स्वरूप की झांकी प्रदान करने में सक्षम होगा, ऐसा हमारा सुदृढ़ विश्वास है । लाडनूं (राजस्थान) दिनांक-१ मार्च, १९८६ श्रीचंद बैंगानी मंत्री जैन विश्व भारती Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय "चित्तसमाधि : जैनयोग" में एक ऐसे पाठ्यक्रम का संयोजन किया गया है जिससे जैन साधना पद्धति के कई महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर प्रकाश प्राप्त हो जाता है । जैन आगमिक ग्रन्थों में योग विषयक सामग्री यत्र-तत्र प्रकीर्णक रूप से प्राप्त होती है। साधारण विद्यार्थी के लिये इस सामग्री को पहचानना दुष्कर है। इसलिए प्राथमिक रूप से यह सामग्री चयनित की गई है। लगभग प्रत्येक पाठ-संग्रह के अंत में विस्तृत टिप्पण दिए गए हैं, जो कई अस्पष्ट विषयों को स्पष्ट करते हैं। इस संकलन में कुल १२ ग्रन्थों से पाठ संगृहीत किए गए हैं । जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त 'हठयोग प्रदीपिका' का सम्पूर्ण पाठ मुद्रित किया गया है। आयारो से प्रेक्षाध्यान, अपरिग्रह, अहिंसा, ध्यानासन, समाधिमरण आदि विषयों पर पाठ संकलित किए गए हैं तथा उन पर ६३ टिप्पण लिखे गए हैं। प्रेक्षा-ध्यान एक नवीन विषय है जिस ओर विद्वानों का ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट हुआ है। इस प्रसंग में एक पाठ विशेष महत्त्वपूर्ण है जो इस प्रकार है-'आयतचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहोभागं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ, संधि विइत्ता इह मच्चिएहिं, एस वीरे पसंसिए जे बद्धे पडिमोयए ! जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो, अंतो अंतो पूइ देहंतराणि पासइ पुढो वि सवंताई पंडिए पडिलेहए।" इसमें अशुचि भावना को बताते हुए वैराग्य-साधना का मार्ग स्पष्ट किया गया है। वैराग्य की वृद्धि के साथ-साथ आत्मानुभूति का विकास होता है एवं साधक क्रमशः निर्वाणपथ पर अग्रसर होता है। प्राचीन भारतीय साधना का यह एक गंभीर सूत्र है । आचारांग के अन्तर्गत धुतवाद का एक विशेष स्थान है । प्राचीन बौद्ध साहित्य में भी धुत पर विशेष चर्चा पायी जाती है । धुत साधना को अत्यन्त उत्कृष्ट स्थान प्राप्त था, जिसका आचरण साधारण साधक के लिये अनिवार्य नहीं माना जाता था । समाधिमरण पर संकलित पाठ भी विशेष मननीय हैं। ठाणं जैनदर्शन का एक विश्वकोष है। इससे अनेक पाठ संगृहीत किए गए हैं। चित्तसमाधि की दृष्टि से १० शीर्षकों में ठाणं से पाठ संकलित हुए हैं। असमाधि के प्रभव-स्थान, समाधि के विघ्न, समाधि के मार्ग एवं समाधि के फलों की चर्चा दस विभागों में की गयी है । ठाणं में कई बिखरे हुए विषयों को शीर्षकों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। उदाहरणार्थ-चित्तसमाधि के विघ्न के अन्तर्गत मूर्छा, प्रमाद भयस्थान, अज्ञान, मोह, राग, कामगुण एवं आस्रव से संबंधित पाठ एकत्रित किए गए हैं। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार चित्तसमाधि मार्ग से संबंधित १४ शीर्षक चुने गए हैं, जो इस प्रकार हैंअभ्युत्थान, अनुशासन, दर्शन, दृष्टि, ज्ञान, पंचज्ञान, मतिज्ञान, शरीर, वाणी, मन, क्षयउपशम, सुख, सत्त्व एवं बल । इसी प्रकार इन्द्रियातीत चेतना, मुनिधर्म, अतीन्द्रिय ज्ञान आदि विषयों पर पाठ संकलित किए गए हैं । ___ठाणं का यह पाठ्यक्रम विषयों की दृष्टि से जिज्ञासुओं के लिए काफी उपयोगी सिद्ध होगा। उपर्युक्त आगमों के अतिरिक्त 'उत्तरज्झयणाणि' से भी चार अध्ययन मुद्रित किए गए हैं, जो आध्यात्मिक साधना पर मौलिक प्रकाश डालते हैं। इन अध्ययनों में 'सम्मत्त-परक्कमे का भी समावेश किया गया है। इस अध्ययन को जैन साधना मार्ग का श्रेष्ठ पथ-प्रदर्शक माना जा सकता है। परिशिष्ट में मोक्खपाहुड, समयसार, मनोऽनुशासन तथा हठयोगप्रदीपिका का चयन किया गया है। इन पर टिप्पण नहीं लिखे गए हैं । सूयगडो, भगवई, प्रश्नव्याकरण तथा दशाश्रुतस्कंध के पाठ भी संगृहीत हैं, जिनपर टिप्पण भी लिखे गए हैं। ___इस पाठ्यक्रम को और अधिक समृद्ध बनाने की योजना है। जैन साधना पद्धति के विषय में सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण, हरिभद्र, हेमचन्द्राचार्य, शुभचन्द्र एवं यशोविजयजी का साहित्य उपलब्ध है । प्रस्तुत पाठ्यक्रम में आगमिक ग्रन्थों के समावेश के क्रम में कुछ व्यतिक्रम हुआ है । यह सामग्री विभिन्न स्तरों में संगृहीत की गयी थी, अतः कहीं-कहीं क्रमबद्धता में सामंजस्य नहीं हो पाया है। पाठकवृन्द इस संग्रह का उपयोग इस बात को ध्यान में रखकर ही करेंगे। सामग्री के विषयों में काफी विविधता है जो जैन साहित्य की समृद्धि का द्योतक ___ यह पाठ्यक्रम परमश्रद्धेय युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के निर्देशन में समणी कुसुमप्रज्ञा एवं सुश्री निरंजना जैन ने संकलित किया है । इस दिशा में यह पहला प्रयत्न है । जैन आगमों में ध्यान साधना के तत्त्वों को एकत्र करने का शायद यह पहला प्रयास है । इसकी अपूर्णता को दूर करने के लिए परिपूरक पाठ्यक्रम निर्माण की हमारी योजना है । जैन साधना का सर्वांगीण अध्ययन अपेक्षित है, जिसकी पूर्ति ऐसे ही पाठ्यक्रमों से हो सकेगी। जैन विश्व भारती, लाडनूं दिनांक १४ नवम्बर, १९८५ मथमल टाटिया निदेशक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. आयारो : अप्रमाद, सुप्त o • प्रेक्षा ध्यान १, ० समत्वदर्शन, प्रमाद और जागृत २० काम और अर्थ, ब्रह्मचर्य ३, अपरिग्रह ४, • सत्य, सुख-दुख, अहिंसा ५, ० आस्रव, संवर, कर्मवाद ६, शरीर, जिजीविषा, मुनि, आहार ७, ० अस्वाद, आज्ञा, आचार्य, अनुप्रेक्षा, धुतवाद, ध्यानासन ८, ० एकाकी साधना, समाधिमरण & ० सामूहिक साधना, 0 टिप्पण (१ से ६३ तक ) २. ठाणं : ● चित्त-असमाधि का वलय ० ० संसार चक्र, कषाय, क्रोध - उत्पत्ति २७, ० संज्ञा, आयुष्य-बंध के कारण, पूर्णजीवन और अकालमृत्यु ३२ o अनुक्रमणिका ● चित्त-समाधि के विघ्न मूर्च्छा, प्रमाद, भयस्थान, अज्ञान, मोह, रोग, कामगुण, आस्रव ३४ ● चित्त-समाधि का मार्ग ० O ० कर्म ३०, O २६ – १११ २६ पर्युपासना, अभ्युत्थान, अनुशासन ३६, ० दर्शन ३७, दृष्टि, ज्ञान, पांच ज्ञान ३८, मतिज्ञान, शरीर ३६ वाणी, मन, क्षय-उपशम, सुख, सत्त्व, बल ४० ० इन्द्रियातीत चेतना के सूत्र - १ • आराधना, प्रणिधान, संवर, इन्द्रिय और मन का संवर, संयम ४२, ० निवृत्ति, गुप्ति, धर्म, दश-धर्म, अकिञ्चनता ४३ ० इन्द्रियातीत चेतना के सूत्र - २ • आहार, आसन, सुप्त - जागृत ४५, ० प्रतिक्रमण, प्रतिसंलीनता, प्रायश्चित्त, विनय, सेवा ४६, ० स्वाध्याय, ध्यान ४७, ० लेश्या ४५ १–२५ M ३३ ३५ ४१ ૪૪ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) ४६ ५८ 0 मुनि-धर्म ० स्वाख्यात, प्रियधर्म और दृढ़धर्म, वेष और धर्म, महाव्रत, दुःख-शय्या ५०, ० सुख-शय्या ५१, ० सहिष्णुता का आलम्बन ५२, ० मनोरथ, साधना का तारतम्य ५३, • प्रतिमा, आत्मवान्-अनात्मवान्, शस्त्र, कथा ५४, • आत्म-रक्षक, समाधिमरण, निर्याणमार्ग ५५, ० अंत- क्रिया, छद्मस्थ और केवली ५६ . ० अतीन्द्रिय-ज्ञान . . ० अतीन्द्रिय-ज्ञान, कृश और दृढ़ अतीन्द्रिय-ज्ञान, चक्षुमान् ५६, ० अवधिज्ञान रुक जाता है ६०, ० देशतः सर्वतः ६१ 0 लब्धि और ऋद्धि संभिन्नश्रोतोलब्धि, तेजोलब्धि, विक्रिया ६४ 0 गृहस्थ-धर्म संकल्प, आश्वास, अणुव्रत ६६, ० साधना का तारतम्य ६७ o आचार्य ० आचार्य की अर्हता, आचार्य, गण की ऋद्धि, पांच व्यवहार ६६, ० दिशाबोध, दुष्प्रतिकार ७० ० टिप्पण (१ से ७० तक) ३. उत्तरज्झयणाणि: ११३-१८० • चउविसइमं अज्झयणं : पवयण-माया ० एगूणतीसइमं अज्झयणं : सम्मत्त-परक्कमे • तीसइमं अज्झयणं : तवमग्गगई १२४ ० बत्तीसइमं अज्झयणं : पमायट्ठाणं १२७ ० टिप्पण (१ से ७० तक) १३४ ४. परिशिष्ट : ११८१-२२६ ० मोक्खपाहुड ० समयसार (प्रथम अधिकार) १८६ ० हठयोगप्रदीपिका १६४ ० मनोनुशासनम् २२३ ५. सूयगडो: २३०-२४३ ० संवर, ध्यान और कायोत्सर्ग, भावना, अनित्यानुप्रेक्षा, Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ (६) समता, अहिंसा २३०, ० आत्मानुशासन, वीर्य २३१, • शरीर, निद्रा २३२ 0 टिप्पण (१ से २८ तक) ६. समवाओ: २४४-२४६ ० बत्तीस योग-संग्रह २४४ ७. भगवई: २४७-२६३ ० आठ आत्मा, जीव के मध्य प्रदेश और बन्ध, आत्मा और शरीर २४७, ० आत्मा और भाषा, आत्मा और मन २४८, ० संज्ञा, कामभोग २४६, ० जरा और शोक, वेदना और निर्जरा २५०, ० सुप्त और जागृत, बुद्धि अपौद्गलिक है २५१, ० आत्मशक्ति अपोद्गलिक है, चंचलता, क्रिया और अक्रिया २५२, शैलेशी, सूर्यरश्मि २५३, ० साधना और तेजोलेश्या, चतुर्दशपूर्वी २५४, ० लब्धि और भावितात्मा २५५, ० केवली २६१, ० तेजोलेश्या २६२ ८. प्रश्नध्याकरण : २६४-२७२ ० अहिंसा २६५, ० सत्य २६६, ० अस्तेय २६७, ० ब्रह्मचर्य २६८, ० अपरिग्रह २७० ६. दशाश्रुतस्कन्ध : २७३-२७६ ० चित्तसमाधि २७३ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारो प्रेक्षा-ध्यान आयतचक्खू लोग-विपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ ।। २/१२५ अण्णहा णं पासए परिहरेज्जा ।' २/११८ एस मग्गे आरिएहिं पवेइए । २/११६ जहेत्थ कुसले णोवलिंपिज्जासि त्ति बेमि । २/१२० जे अणण्णदंसी, से अणण्णारामे, जे अणण्णारामे, से अणण् गदंसी । २/१७३ जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणेत्ति मन्नेसी ।। ५/२१ जस्सिमे सदा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति, से प्रायवं नाणवं वेयवं धम्मवंबंभवं । ३/४ तम्हा तिविज्जो परमंति णच्वा, पायंकदंसी ण करेति पावं । ३/३३ अग्गं च मूलं च विगिच धीरे ।' ३/३४ एस मरणा पमुच्चइ । ३/३६ से हु दिट्ठपहे मुगी । ३,३७ लोयंसी परमदंसी विवित्तजीवी उबसंते, समिते सहिते सया जए कालखी परिवए। ३/३८ आगति गतिं परिणाय, दोहिं वि अंहिं प्रदिस्पमाणे । से ण छिज्जइ ण भिज्जइ ण डज्मइ, ण हम्मइ कंचणं सवलोए । ३/५८ अवरेण पुध्वं ण सरंति एगे, किमस्सतीतं ? किं वागमिस्सं ? भासंति एगे इह माणवा उ, जमस्सतीतं प्रागमिस्सं ।10 ३/५६ णातीतमट्ठण य प्रागमिस्स, अळं नियच्छंति तहागया उ । विधत-कप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी ।11 ३/६० का अरई ? के आणंदे ? एत्थंपि अग्गहे चरे । सव्व हासं परिच्चज्ज, आलीण-गुत्तो परिव्वए ।। ३/६१ किमत्थि उवाही पासगस्स ण विज्जइ ? णत्थि । -त्ति बेमि । ३/८७ एतदेवेगेसि महब्भयं भवति, लोगवित्तं च णं उवेहाए ।12 ५/३२ एए संगे अविजाणतो । ५/३३ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५/५० से हुए संविद्धप मुणी, अण्णहा लोगमुवेहमाणे । ३ ५ / विणि कट्टु, परिणाए । ६ / ६८ तम्हा संगति पास 114 ६ / १०८ पुरिसा ! प्रत्ताणमेव प्रभिणिगिज्भ, एवं दुक्खा पमोक्खसि ।15 ३/६४ विरयं भिक्खु रीयंतं, चिररातोसियं, अरती तत्थ किं विधारए ?16 ६/७० संधेमाणे समुट्ठिए ।17 ६/७१ अट्टा विता अदुवा पमत्ता ४ / १४ जे महं बहिणे । ५/११२ उद्देतो पास त्थि । २/७३ समत्व दर्शन अरइं उट्टे से मेहावी 118 २ / २७ खसि मुक्के । २ / २८ सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं णिसामिया । समिया धम्मे, आरिएहि पवेदिते । ५ / ४० संधि समुप्पेहमाणस्स एगायतण - रयस्स इह विप्पमुक्कस्स, णत्थि मग्गे विरयस्स ि बेमि । १५/३० प्रमाद और अप्रमाद संति-मरणं संपेहाए, भेउरधम्मं संपेहाए । २ / ६६ एत्थोवर तं झोसमाणे 'अयं संधी' ति प्रदक्खु 120 ५ / २० रिएहिं पवेदिते । ५ / २२ एस मग्गे उट्टिए णो पमायए । ५ / २३ एवं से अप्पमाएणं, विवेगं किट्टति वेयवी । ५ / ७४ संधि लोगस्स जाणित्ता 121 ३ / ५१ सव्वतो पमत्तस्स भयं सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं । ३ / ७५ कट्टु एवं विजाणां, बितिया मंदस्स बालया ५ / ११ सुप्त जागृत सुत्ता मुणी सया, मुणिणो सथा जागरंति । 22 ३/१ लोयसि जाण अहियाय दुक्खं । ३ / २ पासिय आउरे पाणे अप्पमत्तो परिव्वए 128 ३ / ११ चित्त-समाधि : जैन योग प्रारंभजं दुक्खमिणं त्ति णच्चा । ३ / १३ उवेहमाणो सद्द-रूवेसु, अंजू, माराभिसंकी मरणा पमुच्चति । ३ / १५ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारो काम और अर्थ कामा दुरतिकमा । २/१२१ जीवियं दुष्पविहणं । २/१२२ कामकामी खलु पुरिसे । २ / १२३ से सोयति जूरति तिप्पति पिड्डति परितप्पति । २ / १२४ श्रायतचक्खू लोग - विपस्सी लोगस्स ग्रहो भागं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ 124 २ / १२५ for परिमाणे 125 २ / १२६ जहा अंत तहा बाहिं, जहा बाहि तहा तो | 26 27२/१२६ तो तो देहंतराणि पासति पुढोवि सवंताई 127२/१३० पंडिए पडिलेहाए । २/१३१ से मइमं परिणाय, माय हु लालं पच्चासी । २ / १३२ मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावातए । २ / १३३ काकसे खलु प्रयं पुरिसे, बहुमाई, कडे मूढे पुणो तं करेइ लोभं । २8२ / १३४ वेरं वड्ढेति प्रप्पणी | २/१३५ जमिणं परिकहिज्जइ, इमस्स चेव पडिवूहणयाए । १२/१३६ अमरायइ महासड्ढी | 30 २ / १३७ परिण्णाए कंदति । २/१३६ अण्णा णं पास परिहरेज्जा | 32 २ / ११८ लोभं प्रलोभेण दुगंछमाणे, लद्धे कामे नाभिगाइ । २ / ३६ विणइत्तु लोभं निक्खम्म, एस कम्मे जाणति - पासति । २/३७ कूराणि कम्माणि बाले पकुव्वमाणे, तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ । ५/६ ब्रह्मचर्य से पभूयसी पभूयपरिण्णाणे उवसंते समिए सहिते सया अप्पाणं ।५/७५ किमेस जणो करिस्सति ? ५ / ७६ एस से परमारामो, जानो लोगम्मि इत्थी 35 ५/७७ मुणिणा हु एतं पवेदितं, उब्बा हिज्जमाणे गामधम्मेहिं । ५ / ७८ अवि णिब्बलास 136 ५/७६ अवि श्रोमोयरियं कुज्जा 137 ५/८० अवि उड्ढठाणं ठाइज्जा 133 ५/८१ अवि गामाणुगामं दृइज्जेज्जा 139 ५/८२ ३ जए दठ्ठे विप्पडिवेदेति Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ अवि श्राहारं वोच्छिदेज्जा ।40५/८३ वि च इत्थी मणं 141 ५ / ८४ पुव्वं दंडा पच्छा फासा, पुव्वं फासा पच्छा दंडा । ५/८५ इच्चेते कलहासंगकरा भवंति । पडिलेहाए प्रागमेत्ता प्राणवेज्जा प्रणासेवणाए त्ति बेम | ५ / ८६ से णो काहिए णो पासणिए णो संपसारए णो ममाए णो कयकिरिए वइगुत्ते झप्प संडे परिवज्जए सदा पावं । ५ / ८७ भोगामेव प्रणुसोयंति । २ / ७६ आसं च छंदं च विगिंच धीरे । २ / ८६ तुमं चेव तं सल्लमाहट्टु । २ / ८७ जेण सिया तेण णो सिया । २ / ८८ इणमेव णावबुज्झंति, जे जणा मोहपाउडा | २ / ८६ थीभि लोए पव्वहिए । २ / ६० सततं मूढे धम्मं णाभिजाणइ । २ / ९३ उदाहुवीरे— अप्पमादो महामोहे । २ / १४ अलं कुसलस्स पमाणं । २ / ६५ अलं ते एएहिं । २ / ६८ चित्त-समाधि : जैन योग अपरिग्रह जीवियं पुढो पियं इहमेगेसि माणवाणं, खेत्त-वत्थु ममायमाणाणं । २/५७ प्रातं वित्तं मणिकुंडलं सह हिरण्णे, इत्थियात्र परिगिज्झ तत्थेव रत्ता । २ / ५८ एत्थ तवोवा, दमो वा, नियमो वा दिस्सति । २ / ५६ संपूर्ण बाले जीविकामे लालप्पमाणे मृढे विपरियासुवेइ | २ / ६० से तत्थ गढिए चिट्ठइ, भोयणाए । २ / ६६ तो से एगया विपरिसि संभूयं महोवगरणं भवइ । २ / ६७ पिसे एगया दायाया विभयंति, प्रदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपति, सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से डज्झइ । २ / ६८ इति से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ 142 २ / ६६ एतदेवेगेसि महब्भयं भवति, लोगवित्तं च णं उवेहाए | 13 ५ / ३२ एए संगे प्रविजाणतो । ५ / ३३ सुबुद्धं सूवणीयं ति णच्चा, पुरिसा ! परमचक्खू ! विपरक्कमा । ५ / ३४ एते चैव बंभचेरं ति बेमि 144 ५ / ३५ चावंती के प्रावंती लोयंसि श्रपरिग्गहावंती, एएसु चेव अपरिग्गहावंती ५/३६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायारो सत्य सच्चसि धिति कुव्वह । ३/४० पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । ३/६५ एत्थोवरए मेहावी सव्वं पाव-कम्मं झोसेति । ३/४१ उवेहमाणो अणुवेहमाणं बूया 'उवेहाहि समियाए' । ५/६७ सहिए दुक्खमत्ताऐ पुट्ठो णो झंझाए । ३/६६ संसयं परिजाणतो, संसारे परिण्णाते भवति, संसयं अपरिजाणतो, संसारे अपरिण्णाते भवति । ५/६ सुख-दुःख जाणित्तु दुक्खं पत्तयं सायं । ५/२४ पुढो छंदा इह माणवा, पुढो दुक्खं पवेदितं । ५/२५ से अविहिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्ठो फासे विप्पणोल्लए । ५/२६ अहिंसा आवंती केावंती लोयंसि अणारंभजीवी, एतेसु चेव मणारंभजीवी । ५/१६ अहो य राम्रो य जयमाणे, वीरे सया आगयपण्णाणे। पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते सया परक्कमेज्जासि । —त्ति बेमि । ४/११ जे पासवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते प्रासवा, जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवाएए पए संबुज्झमाणे, लोयं च प्राणाए अभिसमेच्चा पुढो पवेइयं । ४/१२ आघाइ णाणी इह माणवाणं संसारपडिवन्नाणं संबुज्झमाणाणं विण्णाणपत्ताणं । ४/१३ तुमंसि नाम सच्चेव जं 'हंतव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'अज्जावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'परितावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परिघेतव्वं' ति मन्नसि । तुमंसि नाम सच्चेव जं 'उद्दवेयव्वं' ति मन्नसि ।।5 ५/१०१ णिज्झाइत्ता पडिले हित्ता पत्तेयं परिणिव्वाणं ।46 १/१२१ सव्वेसिं पाणाणं, सव्वेसि भूयाणं, सव्वेसि जीवाणं, सव्वेसि सत्ताणं अस्सायं अपरिणिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ति बेमि ।47 १/१२२ तत्थ जे ते पारिया, ते एवं वयासी-से दुद्दिठं च भे, दुस्सुयं च भे, दुम्मयं च भे, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग दुविण्णायं च भे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो दुप्पडिले हियं च भे, जणं तुभे एवमाइक्खह, एवं भासह, एवं परूवेह, एवं पण्णवेह-''सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता हंतव्वा, अज्जावेयव्वा, परिघेतव्वा, परियावेयव्वा, उद्दवेयव्वा । एत्थ वि जाणह णत्थित्थ दोसो।' ४/२२ वयं पुण एवमाइक्खामो, एवं भासामो, एवं परूबेमो, एवं पण्णवेमो-सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परियावेयव्वा ण उहवेयव्वा एत्थ वि जाणह णत्थित्थ दोसो"। ४/२३ आरियवयणमेयं । ४/२४ पुव्वं निकाय समयं पत्तेयं पुच्छिस्सामो-हंभो पावादुया ! किं भे सायं दुक्खं उदाहु असायं ? ४/२५ समिया पडिवन्ने यावि एवं बूया-सव्वेसि पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं असायं अपरिणिव्वाणं महब्भयं दुक्खं । -ति बेमि । ४/२६ प्रानव अपरिण्णाय-कम्मे खलु अयं पुरिसे जो इमानो दिसाप्रो वा अणु दिसानो वा अणुसंचरइ, सव्वानो दिसामो सव्वाप्रो अणुदिसानो सहेति, अणेगरूवारो जोणीअो संधेइ, विरूवरूवे फासे य पडिसंवेदेइ । 48 १/८ तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । १/६ इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं ।49 १/१० संवर एयावंति सव्वावंति लोगसि कम्म-समारंभा परिजाणियव्वा भवंति 150 १/७ लद्धा हुरत्था पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा प्रणासेवणयाए । -त्ति बेमि ५/१२ कर्मवाद कम्मुणा उवाही जायइ ।51 ३/१६ कम्मं च पडिलेहाए । ३/२० Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारो पति कम्मं परिण्णाय, सव्वसो से ण हिंसति । संजमति णो पगब्भति । ५/५१ शरीर जे असत्ता पावेहिं कम्मेहिं, उदाहु ते पायंका फुसंति । इति उदाहु वीरे "ते फासे पुट्ठो हियासए" । ५/२८ से पुव्वं पेयं पच्छा पेयं भेउर-धम्म, विद्धंसण-धम्म, अधुवं, अणितियं, असासयं, चयावचइयं, विपरिणाम-धम्म, पासह एवं रूवं । ५/२६ पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे । ५/१३ आहारोवचया देहा, परिसह-पभंगुरा । ८/३५ जिजीविषा ततो से एगया विपरिसिट्ठ संभूयं महोवगरणं भवति । २/८३ से पासति फुसियमिव, कुसग्गे पणुन्न णिवतितं वातेरितं । एवं बालस्स जीवियं, मंदस्स अविजाणो । ५/५ णत्थि कालस्स णागमो । २/६२ मुनि धर्मवित् पण्णाणेहिं परियाणइ लोयं, मुणीति वच्चे, धम्मविउत्ति अंजू । ३/५ प्रात्मवान् ज्ञानी पावट्टसोए संगमभिजाणति । ३/६ सीप्रोसिणच्चाई से निग्गंथे अरइ-रइ-सहे फरुसियं णो वेदेति ।53 ३/७ जीवनचर्या प्रावीलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुवसंजोगं, हिच्चा उवसमं । ४/४० तम्हा अविमणे वीरे सारए समिए सहिते सया जए । ४/४१ दुरणुचरो मग्गो वीराणं अणियट्टगामीणं । ४/४२ विगिच मस-सोणियं ।56 ४/४३ मुनिचर्या सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं णिसामिया । रामियाए धम्मे, पारिएहिं पवेदिते । ५/४० आहार लद्धं पाहारे अणगारे मायं जाणेज्जा, से जहेयं भगवया पवेइयं । २/११३ पासहेगे सव्विदिएहिं परिगिलायमाणेहिं । 57 ८/३६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ג ओए दयं दयइ 158 ८ / ३७ अस्वाद भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वामा हया दाहिणं हृणुयं हणुयं णो संचारेज्जा प्रासाएमाणे, से प्रणासायमाणे । ८/१०१ लाघवियं आगममाणे । ८ / १०२ तवे से अभिसमन्नागए भवइ ।८ / १०३ जमेयं भगवता पवेइयं, तमेव मभिजाणिया । ८ / १०४ वा पाणं वा खाइमं वा साइमं संचारेज्जा आसाएमाण, दाहिणा श्राज्ञा णाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे निस्वद्वाणा । ५ / १०७ एतं ते मा होउ । ५ / १०८ एयं कुसलस्स दंसणं । ५ / १०६ तट्ठीए तम्मुक्ती तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तन्निवेसणे । ५ / ११० आचार्य श्रभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए, समत्तमेव से बेमि तं जहा, विहरए पडिपुणे, चिट्ठइ समंसि भोमे । वसंतरए सारक्खमाणे से चिट्ठति सोयमज्झ गए 159 ५ / ८६ जहा से दीवे संदीणे, एवं से धम्मे प्रायरिय-पदेसिए । ० ६ / ७२ अणवकखमाणा प्रणतिवाएमाणा दइया मेहाविणो पंडिया । ६ / ७३ एवं तेसि भगवत्र अणुट्ठाणे जहा से दिया-पोए ६ / ७४ अनुप्रेक्षा जुतिमस्स aणे उववायं चवणं च णच्चा 11 ८ / ३४ चित्त-समाधि : जैन योग ध्यानासन विभाति से महावीरे, ग्रासणत्थे कुक्कुए झाणं । उड्ढमहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिण्णे ।। ६/४/१४ धुतवाद एवं तेसि महावीराणं चिरराई पुव्वाइं वासाणि रीयमाणाणं दवियाणं पास हिसि । ६ / ६६ गयपण्णाणा किसा बाहा भवंति, पयणुए य मंससोणिए । ६/६७ वा श्राहारेमाणे णो वा हणुयाओ वामं Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारो सामूहिक साधना संबाहा बहवे भुज्जो-भुज्जो दुरतिक्कमा अजाणतो अपासतो । ५/६५ एयं ते मा होउ । ५/६६ एयं कुसलस्स दंसणं । ५/६७ तद्दिट्ठीए तम्मोत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तन्निवेसणे । ५/६८ इहमेगेसि एगचरिया भवति–से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोहे बहुरए बहुनडे बहुसढे बहुसंकप्पे, पासवसक्की पलिउच्छन्ने, उट्ठियवायं पवयमाणे “मा मे केइ अदक्खू" अण्णाण-पमाय-दोसेणं, सययं मूढे धम्म णाभिजाणइ । ५/१७ एकाकी साधना मोहेण गब्भं मरणाति एति । ५७ गामाणगामं दूइज्जमाणस्स दुज्जात दुप्परक्कतं भवति अवियत्तस्रा भिक्खुणो।७३ ५/६२ उन्नयमाणे य णरे, महता मोहेण मुज्झति । ५/६४ समाधिमरण कायस्स विनोवाए, एस संगामसीसे वियाहिए। से हु पारंगमे मुणी, अवि हम्ममाणे फल गावयट्ठि, कालोवणीते कंखेज्ज कालं, जाव सरीरभेउ । -त्ति बेमि ६/११२ जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति---से गिलानि च खलु अहं इमम्मि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेण परियहित !, से प्राणुपुव्वेणं ग्राहारं संवटेज्जा, प्राणुपुब्वेणं, पाहारं संवट्टेत्ता, कसाए पयणुए किच्चा समाहिअच्चे फलगावयट्ठी, उट्ठाय भिक्खू अभिणिव्वुडच्चे । ८/१२५ टिप्पण--१ १. चित्त को काम-वासना से मुक्त करने का पहला पालम्बन है---लोक दर्शन । (१) लोक का अर्थ है ---भोग्य वस्तु या विषय । शरीर भोग्य वस्तु है। उसके तीन भाग हैं-- (१) अधो भाग-----नाभि से नीचे, (२) ऊर्ध्व भाग-नाभि से ऊपर, (३) तिर्यग् भाग---नाभि-स्थान । प्रकारान्तर से उसके तीन भाग ये हैं--- (१) अधो भाग--प्रांख कागड्ढा, गले का गड्ढा, मुख के बीच का भाग । (२) ऊर्ध्व भाग---घुटना, छाती, ललाट, उभरे हुए भाग । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग (३) तिर्यग् भाग-समतल भाग । साधक देखे—शरीर के अधो भाग में स्रोत है, ऊर्ध्व भाग में स्रोत हैं और मध्य भाग में स्रोत है–नाभि है। मिलाइये ५/११७. शरीर को समग्र दृष्टि से देखने की साधना-पद्धति बहुत महत्त्वपूर्ण रही है । प्रस्तुत सूत्र में उसी शरीर-विपश्यना का निर्देश है। इसे समझने के लिए "विशुद्धिमग्ग" छट्ठा परिच्छेद पठनीय है । (विशुद्धिमग्ग, भाग १, पृ० १६०-१७५) । २. प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या का दूसरा नय है दीर्घदर्शी साधक देखता है-लोक का अधो भाग विषय-वासना में ग्रासक्त होकर शोक आदि से पीड़ित है। लोक का ऊर्ध्व भाग भी विषय-वासना में पासक्त होकर शोक आदि से पीड़ित the लोक का मध्य भाग भी विषय-वासना में प्रासक्त होकर शोक आदि से पीड़ित the ३. प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या का तीसरा नय यह है--- दीर्थदर्शी साधक मनुष्य के उन भावों को जानता है, जो अधो गति के हेतु बनते हैं; उन भावों को जानता है, जो ऊर्ध्व गति के हेतु बनते हैं; उन भावों को जानता है, जो तिर्यग् (मध्य) गति के हेतु बनते हैं। ४. इसकी त्राटक-परक व्याख्या भी की जा सकती है अांखों को विस्फारित और अनिमेष कर उन्हें किसी एक बिन्दु पर स्थिर करना त्राटक है। इसकी साधना सिद्ध होने पर ऊर्ध्व, मध्य और अधर ये तीनों लोक जाने जा सकते हैं। इन तीनों लोकों को जानने के लिए इन तीनों पर ही त्राटक किया जा सकता है। भगवान् महावीर ऊवं लोक, अधो लोक और मध्य लोक में ध्यान लगाकर समाधिस्थ हो जाते थे (पायारो, ६/४/) । इससे ध्यान की तीन पद्धतियां फलित होती हैं(१) अाकाश-दर्शन, (२) तिर्यग् भित्ति-दर्शन, (३) भूगर्भ दर्शन । आकाश-दर्शन के समय भगवान ऊर्ध्व लोक में विद्यमान तत्त्वों का ध्यान करते थे। तिर्यग् भिति दर्शन के समय वे मध्य लोक में विद्यमान तत्त्वों का ध्यान करते थे। भूभर्ग-दर्शन के समय वे अधोलोक में विद्यमान तत्त्वों का ध्यान करते थे । ध्यानविचार में लोक-चिन्तन को प्रालंबन बताया गया है। ऊर्ध्व लोकवर्ती वस्तुओं का चिन्तन उत्साह का पालम्बन है। अधो लोकवर्ती वस्तुओं का चिन्तन पराक्रम का आलम्बन है । तिर्यग् लोकवर्ती वस्तुओं का चिन्तन चेष्टा का आलंबन है । लोक-भावना Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारो में भी तीनों लोकों का चिन्तन किया जाता है। (नमस्कार स्वाध्याय, पृ० २४६). टिप्पण-२ __वस्तु का अपरिभोग और परिभोग--ये दो अवस्थाएं हैं। वस्तु का अपरिभोग एक निश्चित सीमा में ही हो सकता है। जहां जीवन है, शरीर है, वहां वस्तु का उपभोग-परिभोग करना ही होता है। एक तत्त्वदर्शी मनुष्य भी उसका उपभोगपरिभोग करता है और तत्त्व को नहीं जानने वाला भी। किन्तु इन दोनों के उद्देश्य, भावना और विधि में मौलिक अन्तर होता है उद्देश्य भावना विधि तत्त्व को नहीं जानने वाला पौद्गलिक सुख प्रासक्त असंयत तत्त्वदर्शी संयत आत्मिक विकास अनासक्त के लिए शरीर धारण - टिप्पण-३ भगवान् महावीर की साधना का मौलिक अाधार है अप्रमाद-निरंतर जागरूक रहना। अप्रमाद का पहला सूत्र है.---प्रात्म-दर्शन । भगवान् ने कहा- प्रात्मा से आत्मा को देखो-संपिक्खिए अप्पगमप्पएणं (दशवकालिक चूलिका, २/११) अनन्य दर्शन का अर्थ प्रात्म-दर्शन है। जो आत्मा को देखता है, वह प्रात्मा में रमण करता है; जो आत्मा में रमण करता है, वह प्रात्मा को देखता है। दर्शन के बाद रमण और रमण के बाद फिर स्पष्ट दर्शन-यह क्रम चलता रहता है। वासना और कषाय (क्रोध, अभिमान, माया, लोभ) ये प्रात्मा से अन्य हैं। प्रात्मा को देखने वाला अन्य में रमण नहीं करता। आत्मा को जानना ही सम्यग्ज्ञान है। आत्मा को देखना ही सम्यग्दर्शन है। आत्मा में रमण करना ही सम्यग्चारित्र है। यही मुक्ति का मार्ग है । अप्रमाद का दूसरा सूत्र है वर्तमान में जीना--क्रियमाण क्रिया से अभिन्न होकर जीना। वर्तमान क्रिया में तन्मय होने वाला अन्य क्रिया को नहीं देखता। जो अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना में खोया रहता है, वह वर्तमान में नहीं रह सकता। जो व्यक्ति एक क्रिया करता है और उसका मन दूसरी क्रिया में दौड़ता है, तब वह वर्तमान के प्रति जागरूक नहीं रह पाता। जागरूक भाव और तादात्म्य में यही घटित होता है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ टिप्पण –४ सामान्यतः बाहर प्रवाहित करने का महावीर की साधना का मौलिक स्वरूप श्रप्रमाद है । श्रप्रमत्त रहने के लिए जो उपाय बतलाये गये उनमें शरीर की त्रिया और सवेदना को देखना मुख्य उपाय है । जो साधक वर्तमान क्षण में शरीर में घटित होने वाली सुख-दुःख की वेदना को देखता है, वर्तमान क्षण का अन्वेषण करता है, वह अप्रमत्त हो जाता है । यह शरीर दर्शन की प्रक्रिया अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया है । की ओर प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा को अन्तर की ओर प्रथम साधन स्थूल शरीर है। इस स्थूल शरीर के भीतर तैजस् और कर्म - ये दो सूक्ष्म शरीर हैं । उनके भीतर ग्रात्मा हैं । स्थूल शरीर की क्रियाओं और संवेदना को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमश: तेजस् और कर्म शरीर को देखने लग जाता है । शरीर - दर्शन का दृढ़ अभ्यास और मन के सुशिक्षित होने पर शरीर में प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने लग जाता है । जैसे-जैसे साधक, स्थूल से सूक्ष्म की ओर आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे उसका अप्रमाद जाता है । चित्त-समाधि : जैन योग टिप्पण - ५ चूर्णि के अनुसार इस सूत्र का अनुवाद इस प्रकार होता है-जो पुरुष इन - शब्द, रूप, गंध, रस और स्पशों को भली-भांति जान लेता है उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह आत्मवित्, ज्ञानवित्, वेदवित्, धर्मवित्, और ब्रह्मवित् होता है । शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श की आसक्ति आत्मा की उपलब्धि में बाधक बनती है । इनमें ग्रासक्त मनुष्य ग्रनात्मवान् और अनासक्त आत्मवान् कहलाता है । जिसे आत्मा उपलब्ध होती है, उसे ज्ञान. शास्त्र, धर्म और आचार — सब कुछ उपलब्ध हो जाता है । जो आत्मा को जान लेता है, वह ज्ञान, शास्त्र, धर्म और आचार - सब कुछ जान लेता है । टिप्पण - ६ तुलना — “भिक्षु ! यह आशा करनी चाहिए कि दोष में भय मानने वाला, दोष में भय देखने वाला सभी दोषों से मुक्त हो जाएगा । (अंगुत्तरनिकाय, भा० १, पृ० ५१ ) टिप्पण- ७ कुछ दार्शनिक परिणामवादी ( अग्रवादी) होते हैं । वे समस्या के मूल को नहीं पकड़ते । उभरी हुई समस्या को सुलझाने का प्रयत्न करते हैं । भगवान् महावीर मूलवादी थे । वे परिणाम की अपेक्षा समस्या के मूल पर अधिक ध्यान देते थे । भगवान् के अनुसार दुःख की समस्या का मूल-बीज मोह है । शेष सब उसके पत्र - पुष्प हैं । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायारो १३ TFTr माहातात 40 यन टिप्पण-८ भगवान महावीर ने दीक्षा की अवधि जीवनपर्यन्त बतलाई। जो व्यक्ति सही अर्थ में संयम-दीक्षा की साधना कर लेता है, उसका फिर असंयम-जीवन में लौटना संभव नहीं होता; अवधि आरोपित न भाविक है। टिप्पण-8 यस्य हस्तौ च पादौ च, जिह्वाग्नं च सुसंयतम् । इन्द्रियाणि च गुप्तानि, राजा तस्य करोति किम् ? जिसका हाथ, पैर और जिह्वाग्र संयत होता है और इन्द्रियाँ विजित होती हैं उसका राजा क्या बिगाड़ेगा ? टिप्पण-१० व ११ इन की व्याख्या दार्शनिक और साधना दोनों नयों से की गई है। दार्शनिक नय से व्याख्या इस प्रकार है-- कुछ दार्शनिक भविष्य के साथ अतीत की स्मृति नहीं करते। वे अतीत और भविष्य में कार्य-कारण-भाव नहीं मानते कि जीवन का अतीत क्या था और भविष्य क्या होगा। ___ कुछ दार्शनिक कहते हैं- इस जीव का जो अतीत था, वही भविष्य होगा। तथागत अतीत और आगामी अर्थ को स्वीकार नहीं करते । महर्षि इन सब मतों की अनुपश्यना (पर्यालोचना) कर धुताचार के प्रासेवन द्वारा कर्म-शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है। साधना-नय की व्याख्या इस प्रकार है---- कुछ साधक अतीत के भोगों की स्मृति और भविष्य के भोगों की अभिलाषा नहीं करते। कुछ साधक कहते हैं--प्रतीत भोग से तृप्त नहीं हुआ; इससे अनुमान किया जाता है कि भविष्य भी भोग से तृप्त नहीं होगा। अतीत के भोगों की स्मृति और भविष्य के भोगों की अभिलाषा से राग, द्वेष और मोह उत्पन्न होते हैं। इसलिए तथागत (वीतरागता की साधना करने वाले) अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखता—राग-द्वेषात्मक चित्त-पर्याय का निर्माण नहीं करते। जिसका प्राचार राग, द्वेष और मोह को शान्त करने वाला होता हैं वह विघूतकल्प कहलाता है। वह तथागत विधूत-कल्प एयाणुपस्सी होता है-- (१) एतदनुपश्यी---वर्तमान में घटित होने वाले यथार्थ को देखने वाला । (२) एकानुपश्यी-अपनी प्रात्मा को अकेला देखने वाला। (३) एजानुपश्यी-धुताचार के द्वारा होने वाले प्रकम्पनों या परिवर्तनों को देखने वाला। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग वह राग और द्वष से मुक्त रहकर कर्म-शरीर को क्षीण करता है । टिप्पण--१२ जैसे साँसारिक मनुष्य के मन में परिग्रह की सुरक्षा का भय बना रहता है, वैसे ही वस्तु के प्रति मूर्छा रखने वाले साधक के मन में भी सुरक्षा का भय बना रहता है । टिप्पण -१३ रूप और हिंसा में आसक्त मनुष्य मानता है कि रूप जीवन का सार तत्त्व है और हिंसा सब समस्याओं का समाधान है। जिसकी भाव-धारा बदल जाती है.----रूप और हिंसा के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाती है, वह मानता है कि रूप क्षणभंगुर और परिणाम-काल में दुःखद है तथा हिंसा सब समस्याओं का मूल है। विश्व में जितनी समस्याएं हैं, जितने दुःख हैं, वे सब मुलतः हिंसा से उत्पन्न हैं। टिप्पण-१४ "संग' शब्द के तीन अर्थ किए जा सकते हैं--प्रासक्ति, शब्द आदि इन्द्रियविषय और विघ्न। आसक्ति को छोड़ने का उपाय है—ासक्ति को देखना। जो आसक्ति को नहीं देखता, वह उसे छोड़ नहीं पाता। भगवान् महावीर की साधना-पद्धति में जानना और देखना अप्रमाद है, जागरूकता है; इसलिए वह परित्याग का महत्त्वपूर्ण उपाय है । जैसे-जैसे जानना और देखना पुष्ट होता है, वैसे-वैसे कर्म-संस्कार क्षीण होता है। उसके क्षीण होने पर आसक्ति अपने आप क्षीण हो जाती है । टिप्पण--१५ आत्मा शब्द का प्रयोग चैतन्य-पिण्ड, मन और शरीर के अर्थ में होता है । अभिनिग्रह का अर्थ है---समीप जाकर पकड़ना। जो व्यक्ति मन के समीप जाकर उसे पकड़ लेता है, उसे जान लेता है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। निकटता से जान लेना ही वास्तव में पकड़ना है। नियंत्रण करने से प्रतिक्रिया पैदा होती है । उससे निग्रह नहीं होता। धर्म के क्षेत्र में यथार्थ को जान लेना ही निग्रह है। टिप्पण-१६ मनुष्य की इन्द्रियां दुर्बल, चपल और उच्छृखल होती हैं तथा मोह की शक्ति अचिंत्य और कर्म की परिणति विचित्र होती है। इसलिए वे ज्ञानी मनुष्य को भी पथ से उत्पथ की ओर ले जाती हैं । टिप्पण-१७ साधक विषयों को त्यागकर संयम में रमण करता है। साधना काल में प्रमाद, कषाय, आदि समय-समय पर उभरते हैं और उसे विषयाभिमुख बना देते हैं। किन्तु जागरूक साधक धर्म की धारा को मूल-स्रोत (प्रात्मदर्शन) से जोड़कर प्रात्मानुभव करता रहता है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायारो टिप्पण-१८ संयम में रति और असंयम में अरति करने से चैतन्य और आनन्द का विकास होता है। ___ संयम में अरति और असंयम में रति करने से उसका हास होता है; इसलिए साधक को यह निर्देश दिया जाता है कि वह संयम से होने वाली अरति का निवर्तन करे। टिप्पण-१६ जन्म, जरा, रोग और मृत्यु-~ये चार दुःख के मार्ग हैं। विरत के लिए ये मार्ग अबरुद्ध हो जाते हैं। टिप्पण-२० महावीर की साधना का मौलिक स्वरूप अप्रमाद है। अप्रमत्त रहने के लिए जो उपाय बतलाये गये हैं, उनमें शरीर की क्रिया और संवेदना को देखना मुख्य उपाय है। जो साधक वर्तमान क्षण में शरीर में घटित होने वाली सुख-दुःख की वेदना को देखता है, वर्तमान क्षण का अन्वेषण करता है, वह अप्रमत्त हो जाता है ।। यह शरीर-दर्शन की प्रक्रिया अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया है। सामान्यतः बाहर की ओर प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा को अन्तर की ओर प्रवाहित करने का प्रथम साधन स्थूल-शरीर है। इस स्थूल-शरीर के भीतर तैजस् और कर्म-ये दो सूक्ष्मशरीर हैं। उनके भीतर अात्मा है। स्थल-शरीर की क्रियानों और संवेदनों को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमशः तैजस और कर्म-शरीर को देखने लग जाता है। शरीर-दर्शन का दृढ़ अभ्यास और मन के सुशिक्षित होने पर शरीर में प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने लग जाता है। जैसे-जैसे साधक स्थूल से सूक्ष्म दर्शन की ओर बढ़ता है, वैसे-व से उसका अप्रमाद बढ़ता जाता है। टिप्पण-२१ चैतन्य आत्मा का स्वरूप है। उसका अनुभव अप्रमाद है । चैतन्य की विस्मृति हुए बिना प्रमाद नहीं हो सकता । कारागृह की दीवार में हुए छिद्र को जानकर बंदी के लिए प्रमाद करना जैसे श्रेय नहीं होता, वैसे ही मोह के कारागृह की दीवार के छिद्र को जानकर साधक के लिए प्रमाद करना श्रेय नहीं है । टिप्पण-२२ मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं : सुप्त, सुप्त-जागृत, और जागृत। ये अवस्थाएं शरीर की भांति चैतन्य में भी घटित होती हैं। उनका प्राधार चैतन्य-विकास का तारतम्य है : Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग चैतन्य विकास संयम का शुन्य बिन्दु संयम का मध्य बिन्दु संयम का चरम बिन्दु सुप्ति सुप्ति-जागृति जागृति अध्यात्म की भाषा में असंयमी अज्ञानी और संयमी ज्ञानी कहलाता है । टिप्पण-२३ स्वप्न और जागरण सापेक्ष हैं। मनुष्य बाहर में जागता है, तब भीतर में सोता है। वह भीतर में जागता है, तब बाहर में सोता है। बाहर में जागने वाला चैतन्य को विस्मृत कर देता है, इसलिए वह प्रमत्त हो जाता है। प्रमाद का अर्थ है---- विस्मृति । भीतर में जागने वाले को चैतन्य की स्मृति रहती है, इसलिए वह अप्रमत्त रहता है। अप्रमाद का अर्थ है--स्मृति । स्मृति जागरूकता है और विस्मृति स्वप्न टिप्पण-२४ देखिये, टिप्पण क्रमांङ्क-१ टिप्पण-२५ चित्त को काम-वासना से मुक्त करने का दूसरा पालम्बन है---अनुपरिवर्तन के सिद्धांत को समझना। काम के प्रासेवन से उसकी इच्छा शांत नहीं होती। कामी बार-बार उस काम के पीछे दौड़ता है। काम अकाम से शान्त होता है अनुपरिवर्तन के सिद्धांत को समझने वाले व्यक्ति में काम के प्रति परवशता की अनुभूति जागृत होती है और वह एक दिन उसके पाश से मुक्त हो जाता है । टिप्पण-२६ - इसका वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है--साधक जैसा अन्तस् में वैसा बाहर में, जैसा बाहर में वैसा अन्तस् में रहे। कुछ दार्शनिक अन्तस् की शुद्धि पर बल देते थे और कुछ बाहर की शुद्धि पर । भगवान् एकांगी दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने दोनों को एक साथ देखा और कहा—केवल अन्तस् की शुद्धि पर्याप्त नहीं है। बाहरी व्यवहार भी शुद्ध होना चाहिए। वह अन्तस् का प्रतिफल है। केवल बाहरी व्यवहार का शुद्ध होना भी पर्याप्त नहीं है । अन्तस् की शुद्धि के बिना वह कोरा दमन बन जाता है। इसलिए अन्तस् भी शुद्ध होना चाहिए। अन्तस् और बाहर दोनों की शुद्धि ही धार्मिक जीवन की पूर्णता है। चित्त को कामना से मुक्त करने का चौथा पालम्बन है-शरीर की अशुचिता का दर्शन । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायारो १७ एक मिट्टी का घड़ा अशुचि से भरा है। वह अशुचि झर कर बाहर आ रही है। वह भीतर से अपवित्र है और बाहर से भी अपवित्र हो रहा है। यह शरीर-घट भीतर से अशुचि है। इसके निरन्तर झरते हुए स्रोतों से बाहरी भाग भी अशुचि हो जाता है । यहां रुधिर है, यहां मांस है, यहां मेद है, यहां अस्थि है, यहां मज्जा है, यहां शुक्र है । साधक गहराई में पैठकर इन्हें देखता है । देहान्तर--अन्तर का अर्थ है--विवर । साधक अन्तरों को देखता है। वह पेट के अन्तर (नाभि), कान के अन्तर (छेद), दाएं हाथ और पार्श्व के अन्तर तथा बाएं हाथ और पार्श्व के अन्तर. रोम-कपों तथा अन्य अन्तरों को देखता है। इस अन्तर-दर्शन और विवर-दर्शन से उसे शरीर का वास्तविक रूप ज्ञात हो जाता है। उसकी कामना शांत हो जाती है। ___ बौद्ध भिक्षु भी इन अशुभ निमित्तों और प्रालंबनों का प्रयोग करते थे। देखेंविशुद्धिमग्ग, भाग १, पृ० १६४-१६५. टिप्पण-२७ देखिये, टिप्पण क्रमाङ्क-२६ टिप्पण-२८ जो व्यक्ति किंकर्तव्यता (अब यह करना है, अब यह करना है, इस चिंता) से पाकुल होता है, वह मूढ़ कहलाता है । मूढ़ व्यक्ति सुख का अर्थी होने पर भी दुःख पाता है। प्राकुलतावश शयनकाल में शयन, स्नान-काल में स्नान और भोजन-काल में भोजन नहीं कर पाता सोउं सोवणकाले, मज्जणकाले य मज्जि लोलो। जेमेउं च वरामो, जेमणकाले न चाएइ ॥ मूढ़ व्यक्ति स्वप्निल जीवन जीता है। वह काल्पनिक समस्याओं में इतना उलझ जाता है कि वास्तविक समस्याओं की ओर ध्यान ही नहीं दे पाता। एक भिखारी था। उसने एक दिन भैस की रखवाली की। भैंस के मालिक ने प्रसन्न हो उसे दूध दिया। उसने दूध को जमा दही बना लिया। दही के पात्र को सिर पर रख कर चला । वह चलते-चलते सोचने लगा-"इसे मथकर घी निकालूंगा। उसे बेचकर व्यापार करूंगा। व्यापार में पैसे कमाकर ब्याह करूंगा। फिर लड़का होगा। फिर मैं भैस लाऊंगा । मेरी पत्नी बिलौनी करेगी। मैं उसे पानी लाने को कहूंगा। वह उठेगी नहीं, तब मैं क्रोध में प्राकर एड़ी के प्रहार से बिलौने को फोड़ डालूंगा। दही ढुल जाएगा।" वह कल्पना में इतना तन्मय हो गया कि उसने ढुले हुए दही को साफ करने के लिए अपने सिर पर से कपड़ा खींचा। सिर पर रखा हुआ दही-पात्र गिर गया। उसके स्वप्नों की सृष्टि विलीन हो गई। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग टिप्पण-२६ ___ काम और भूख-ये दोनों मौलिक मनोवृत्तियां हैं। मनुष्य इनकी संतुष्टि के लिए दूसरों पर अधिकार करना चाहता है । भौतिकशास्त्र इनकी संतुष्टि करने का उपाय बताता है । अध्यात्म-शास्त्र इन्हें सहने की शक्ति के विकास का उपाय बतलाता है । एक अध्यात्म-शास्त्री की वाणी में उस उपाय का निर्देश इस प्रकार मिलता है "शिश्नोदरकृते पार्थ ! पृथिवीं जेतुमिच्छसि । जय शिश्नोदरं पार्थ ! ततस्ते पृथिवी जिता ॥" "राजन् ! काम और भूख की संतुष्टि के लिए तुम पृथ्वी को जीतना चाहते हो । तुम काम और भूख को ही जीत लो। पृथ्वी अपने आप विजित हो जाएगी। भगवान् ने कहा- "काम और भूख की संतुष्टि के लिए दूसरों पर अधिकार करने वाला बैर-विरोधों की शृंखला को बढ़ाता है । सबके साथ मैत्री चाहने वाला ऐसा नहीं करता।" टिप्पण-३० राजगृह में मगधसेना नाम की गणिका थी। वहां धन नाम का सार्थवाह पाया। वह बहुत बड़ा धनी था। उसके रूप, यौवन और धन से आकृष्ट होकर मगधसेना उसके पास गई । वह आय और व्यय का लेखा करने में तन्मय हो रहा था। उसने मगधसेना को देखा तक नहीं। उसके अहं को चोट लगी । वह बहुत उदास हो गई। मगध-सम्राट जरासन्ध ने पूछा-तुम उदास क्यों हो ? किसके पास बैठने पर तुम पर उदासी छा गई ?" गणिका ने कहा- 'अमर के पास बैठने से।" "अमर कौन ?” सम्राट ने पूछा। गणिका ने कहा- 'धन सार्थवाह। जिसे धन की ही चिन्ता है । उसे मेरी उपस्थिति का भी बोध नहीं हुआ, तब मरने का बोध कैसे होता होगा ?" यह सही है कि अर्थलोलुप व्यक्ति मृत्यु को नहीं देखता और जो मृत्यु को देखता है, वह अर्थलोलुप नहीं हो सकता। टिप्पण-३१ ___संग्रह-वृत्ति वाला मनुष्य अर्थ प्राप्त न होने पर आकांक्षा से क्रन्दन करता है और उसके नष्ट होने पर शोक से क्रन्दन करता है । टिप्पण-३२ _देखिये, टिप्पण क्रमाङ्क-२ टिप्पण-३३ अलोभ को लोभ से जीतना—यह प्रतिपक्ष का सिद्धांत है। शांति से क्रोध, मदुता Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायारो १६ से मान और ऋजुता से माया निरस्त हो जाती है, वैसे ही अलोभ निरस्त हो जाता है । जैसे आहार-परित्याग ज्वर वाले के लिए औषधि है, वैसे ही लोभ का परित्याग असंतोष की औषधि है यथाहारपरित्यागः ज्वरतस्यौषधं तथा। लोभस्यैवं परित्यागः असंतोषस्य भेषजम् ॥ कुछ पुरुष लोभ-सहित दीक्षित होते हैं, किन्तु यदि वे अलोभ से लोभ को जीतने का प्रयत्न करते हैं, तो वे वस्तुतः साधक ही होंगे। जो पुरुष लोभ-रहित होकर दीक्षित होते हैं, वे ध्यान के द्वारा अथवा भरत चक्रवर्ती की भांति शीघ्र ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण से मुक्त होकर ज्ञाता और द्रष्टा बन जाते है। टिप्पण-३४ देखिये, टिप्पण क्रमांक-३३ टिप्पण-३५ इसकी तुलना आचार्य कुन्दकुन्द की इस गाथा से होती हैतिमिरहरा जई दिठ्ठी, जणस्स दीवेण णत्थि कादव्वं । तध सोक्खं सयमादा, विसया किं तत्थ कुव्वंति ।। जिसकी दृष्टि तिमिर को हरण करने वाली है, उसे दीप से क्या प्रयोजन ? आत्मा स्वयं सुख है. फिर विषयों से क्या प्रयोजन ? टिप्पण-३६ ___ शक्ति युक्त भोजन करने से शरीर शक्तिशाली होता है। सशक्त शरीर में मोह को प्रबल होने का अवसर मिलता है। शक्तिहीन भोजन करने से शरीर की शक्ति घट जाती है। वैसे शरीर में मोह भी निर्बल हो जाता है। इसलिए वासना को शांत करने का पहला उपाय निर्बल आहार बतलाया गया है। टिप्पण–३७ अति आहार करने वाले को वासना अधिक सताती है। कम खाना वासना को शांत करता है। टिप्पण-३८ ऊर्ध्वस्थान रात को अवश्य करना चाहिए। आवश्यकतानुसार दिन में भी किया जा सकता है। आवश्यकता के अनुसार एक, दो, तीन या चार प्रहर तक ऊर्ध्वस्थान करना वासना-शमन का असाधारण उपाय है। "ऊर्ध्वस्थान" शब्द भगवती सूत्र (१/६) में पाई हुई उड्ढजाणू, अहोसिरे "ऊर्ध्वजानुः अधःशिरा" इस मुद्रा का सूचक है । हठयोग प्रदीपिका में भी "ऊर्ध्वनाभिरधस्तालुः" (३/७६) और "अधः शिराश्चोर्ध्व Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० चित्त-समाधि : जैन योग पादः" (३/८२)-ऐसे प्रयोग मिलते हैं । ऊर्ध्वस्थान मुख्यतः सर्वांगासन और गौणरूप में शीर्षासन, वृक्षासन आदि का सूचक है। इन आसनों से वासना-केन्द्र शांत होते हैं। उनके शांत होने से वासना भी शांत होती है। टिप्पण-३६ सुखशीलता की स्थिति में वासना उभरती है। ग्रामानुग्राम विहार श्रम या कष्टसहिष्णुता का अभ्यास है । इसलिए यह वासना-मुक्ति का सहज उपाय है । ग्रामानुग्राम विहार में 'गमन योग" सहज ही सध लाता है। ग्रामानुग्राम विहार करने वाला परिचय के बन्धन से भी सहज ही मुक्ति पा लेता टिप्पण-४० वासना-शमन के लिए एक उपवास से लेकर दीर्घकालीन तप अथवा आहार का जीवन-पर्यन्त-परित्याग भी विहित है । टिप्पण-४१ वासना को वातावरण उत्तेजित करता है, किन्तु उसे सर्वाधिक उत्तेजना देता है—संकल्प। इसलिए काम को संकल्प से उत्पन्न कहा जाता है । "काम ! जानामि ते मूलं, सकल्पात् किल जायसे । संकल्पं न करिष्यामि, तेन मे न भविष्यति ॥ काम ! मैं तुम्हारे मूल को जानता हूं। तूं संकल्प से उत्पन्न होता है। मैं संकल्प नहीं करूंगा। फलतः तू मेरे मन में उत्पन्न नहीं हो सकेगा। ७६ से ८४ तक के सूत्रों में वासना-शमन के ७ उपाय बतलाए हैं। उनमें तीन आहार से संबंधित तथा ऊर्ध्व-स्थान, शारीरिक क्रिया, ग्रामानुग्राम विहार, श्रम और संकल्प-त्याग मानसिक स्थिरता से संबंधित हैं। ये सभी उपाय हैं, किन्तु जिस व्यक्ति के लिए जो अनुकूल पड़े, उसके लिए वही सर्वाधिक अभ्यास करने योग्य है। चूर्णिकार के मतानुसार यह मोह-चिकित्सा अबहुश्रुत के लिये है। बहुश्रुत की मोह-चिकित्सा उसे स्वाध्याय-अध्ययन-अध्यापन आदि में संलग्न कर करनी चाहिये । टिप्पण-४२ आम का फल जैसे आम कहलाता है, वैसे ही आम का बीज भी प्राम कहलाता है। इसी प्रकार प्रतिकूल संवेदन जैसे दु:ख कहलाता है, वैसे ही प्रतिकूल संवेदन का हेतुभूत कर्म भी दुःख कहलाता है। जो दार्शनिक कार्य और कारण को पृथक्-पृथक् देखते हैं, वे दुःख के मूल को समाप्त नहीं कर पाते। फलतः वह मूल बार-बार फलित Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारो होता है—मनुष्य को मुढ़ बनाता है । टिप्पण-४३ जैसे सांसारिक मनुष्य के मन में परिग्रह की सुरक्षा का भय बना रहता है, वैसे ही वस्तु के प्रति मूर्छा रखने वाले साधक के मन में भी उसकी सुरक्षा का भय बना रहता टिप्पण-४४ ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हो सकते हैं-बस्ति-संयम, गुरुकुलवास और प्राचार । शरीर भी परिग्रह है। जिसकी शरीर में आसक्ति होती है, वह बस्ति-संयम नहीं कर सकता। जिसकी शरीर और वस्तुओं में आसक्ति होती है, वह न गुरुकुलवास (साधुसंघ) में रह सकता है और न अहिंसा आदि चारित्र-धर्म का पालन भी कर सकता। यहां से तीनों अर्थ घटित हो सकते हैं। फिर भी, तीसरा अर्थ अधिक संभावित है। टिप्पण–४५ भगवान् महावीर प्रात्मतुलावाद के प्ररूपक थे। प्रस्तुत सूत्र में प्रात्मा की एकता का प्रतिपादन है । इसका प्रयोजन दो भिन्न आत्माओं की अनुभूति की एकरूपता सिद्ध करना है । “जिसे तू हन्तव्य मानता है, वह तू ही है"- इसका तात्पर्य है-दूसरे के द्वारा पाहत होने पर जैसी अनुभूति तुझे होती है, वैसे ही अनुभूति उसे होती है, जिसे तू आहत करता है। टिप्पण-४६ स्वाद्य, सुख, अभय शौर परिनिर्वाण-ये सुख के पर्यायवाची हैं। अस्वाद्य, दुःख महाभय और अपरिनिर्वाण-ये दुःख के पर्यायवाची हैं । सब प्राणियों को शांति प्रिय है और अशांति अप्रिय है। जो पुरुष इस शाश्वत सत्य को जानता-देखता है, वही अहिंसक हो सकता है । टिप्पण-४७ देखिये, टिप्पण क्रमाङ्क-४६ टिप्पण-४८ भगवान् महावीर के दर्शन का संक्षिप्त सार यह है-- क्रिया (प्रास्रव) अनुसंचरण का और प्रक्रिया (संवर) उसके निरोध का हेतु है । उत्तरवर्ती प्राचार्यों ने इस तथ्य को निम्न श्लोक में प्रकट किया है प्रास्रवो भवहेतुः स्यात्, संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमार्हती दृष्टिरन्यदस्या: प्रपंचनम् ।। ___ आस्रव संसार का हेतु है और संवर मोक्ष का। महावीर की मूल दृष्टि इतनी ही है, शेष सब उसका विस्तार है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ टिप्पण - ४६ १. जीवन की सुरक्षा के लिए मनुष्य विविध प्रौषधियों और रसायनों का सेवन करता है । "जीवो जीवस्य जीवनम् " यह मानकर अपने जीवन के लिये दूसरे जीवों का वध और शोषण करता है । २. प्रशंसा, प्रसिद्धि या कीर्ति के लिए मनुष्य मल्लयुद्ध, तराकी, पर्वतारोहण प्रदि अनेक प्रतियोगितात्मक प्रवृत्तियां करता करता है । ३. सम्मान के लिए मनुष्य धन का अर्जन, बल का संग्रह आदि प्रवृत्तियां करता है । ४. पूजा पाने ( प्रतिदान ) के लिये मनुष्य युद्ध आदि विविध प्रवृत्तियां करता है । ५. जन्म : संतान की प्राप्ति तथा अपने भावी जन्म की चिन्ता से मनुष्य अनेक प्रकार की प्रवृत्तियां करता है । ६. मरण : वैर-प्रतिशोध, पितृ-पिण्डदान आदि प्रवृत्तियां मनुष्य मृत्यु के परिपार्श्व में करता है । चित्त-समाधि : जैन योग ७. मुक्ति मुक्ति की प्ररणा से मनुष्य अनेक प्रकार की उपासना आदि प्रवृत्तियां करता है | : टिप्पण - ५० देखिये टिप्पण क्रमाङ्क - ४८ टिप्पण - ५१ शरीर, श्राकृति, वर्ण, नाम, गोत्र, सुख-दुःख का अनुभव विविध योनियों में जन्म - ये सब प्रात्मा को विभक्त करते हैं इस विभाजन का हेतु कर्म है । कर्मबद्ध आत्मा नाना प्रकार के व्यवहारों (विभाजनों) और उपाधियों से युक्त होती है । कर्ममुक्त आत्मा के न कोई व्यवहार होता है और न कोई उपाधि । टिप्पण – ५२ शरीर अनित्य है, तब मुनि को आहार क्यों करना चाहिए ? यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है । इसके उत्तर में सूत्रकार ने बताया -कर्म-मुक्ति के लिए शरीर धारण आवश्यक है और शरीर धारण के लिए प्रहार आवश्यक है । अतः आहार का निषेध नहीं किया जा सकता है । किन्तु प्रहार करने में अहिंसा की अनिवार्यता बतलाई गई है । टिप्पण - ५३ कष्ट हर व्यक्ति के जीवन में आता है। वाले निर्ग्रन्थ के जीवन में प्राकृतिक कष्ट अधिक आते हैं । अज्ञानी मनुष्य कष्ट का वेदन करता है । ज्ञानी मनुष्य कष्ट को जानता है, उसका अहिंसा और अपरिग्रह का जीवन जीने Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायारो २३ वेदन नहीं करता। वह तितिक्षा को विकसित कर लेता है, इसलिए वह अपने ज्ञान को कष्ट के साथ नहीं जोड़ता। टिप्पण-५४ मुनि जीवन की साधना के लिए दो प्रारंभिक अनुबंध हैं१. सम्बन्ध का त्याग । २. इन्द्रिय और मन की उपशांति । इस स्थिति के प्राप्त होने पर वह साधना की तीन भूमिकाओं से गुजरता है । प्रथम भूमिका प्रवजित होने से लेकर अध्ययन काल तक की है। उसमें वह ध्यान का अल्प अभ्यास और श्रुत-अध्ययन के लिए आवश्यक तप करता है। दूसरी भूमिका शिष्यों के अध्यापन और धर्म के प्रचार-प्रसार की है। इसमें ध्यान की प्रकृष्ट साधना और कुछ लम्बे उपवास करता है। तीसरी भूमिका शरीर-त्याग की है। जब मुनि आत्म-हित के साथ-साथ संघहित कर चुकता है, तब वह समाधि-मरण के लिए शरीर-त्याग की तैयारी में लग जाता है। उस समय वह दीर्घकालीन ध्यान और दीर्घकालीन तप (पाक्षिक, मासिक आदि) की साधना करता है। ध्यान व तप की साधना के औचित्य और क्षमता के अनुपात में ही स्थूल शरीर की आपीडन, प्रपीडन पीर निष्पीडन का निर्देश दिया गया है। कर्म-शरीर का पापीडन, प्रपीडन और निष्पीडन इसी के अनुरूप होगा। शरीर से चेतना के भेदकरण की भी ये तीन भूमिकाएं हैं। टिप्पण-५५ भगवान् महावीर ने जीवन-कालीन संयम का विधान किया था। रुचिकर विषयों को छोड़कर जीवन-पर्यन्त उनकी आकांक्षा न करना बहुत कठिन मार्ग है, इस पर चलना सरल नहीं है; अतः इसको दुरनुचर कहा है। टिप्पण-५६ मांस और रक्त का उपचय मैथुन संज्ञा उत्पन्न होने का एक कारण है। इसलिए मुनि को उनका उपचय नहीं करना चाहिए। प्रश्न होता है कि मांस और रक्त शरीर के आधारभूत तत्त्व हैं और शरीर धर्म का आधार है। फिर उनका अपचय क्यों करना चाहिए ? उनके अपचय का अर्थ अत्यन्त अल्पता नहीं है, किन्तु उपचय को कम करना है और उतना कम करना है कि जितना मांस और रक्त मोह की उत्पत्ति का हेतु न बने। सार-रहित आहार करने से रक्त का उपचय नहीं होता। उसके बिना क्रमशः मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य का उपचय नहीं होता। इस प्रकार सहज ही प्रापी Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग डन की साधना हो जाती है। टिप्पण---५७ देखिये, टिप्पण क्रमाङ्क---५२ टिप्पण-५८ देखिये, टिप्पण क्रमाङ्क-५२ टिप्पण--५६ द्रह चार प्रकार के होते हैं१. जिसमें से स्रोत निकलता है, किन्तु मिलता नहीं । २. जिसमें स्रोत मिलता है, निकलता नहीं। ३. जिसमें से स्रोत मिलता भी है और निकलता भी है। ४. जिसमें से न कोई स्रोत निकलता है और न कोई मिलता है। द्रह के रूपक द्वारा प्राचार्य का वर्णन किया गया है। प्राचार्य प्राचार्योचित गुणों से प्रतिपूर्ण, स्वभाव की भूमिका में स्थित, उपशांत मोहवाला, सब जीवों का संरक्षण करता हुआ, श्रुतज्ञान रूपी स्रोत के मध्य में स्थित होता है। श्रुत को लेता भी है और देता भी है। टिप्पण-६० दीव शब्द की "द्वीप" और "दीप" इन दो रूपों में व्याख्या की जा सकती है। दीप प्रकाश देता है और द्वीप आश्वास । ये दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं । १. संदीन-कभी जल से प्लावित हो जाने वाला और कभी पुनः खाली होने वाला द्वीप । अथवा बुझ जाने वाला दीप । २. प्रसंदीन-जल से प्लावित नहीं होने वाला द्वीप। अथवा सूर्य, चन्द्र, रत्न आदि का स्थायी प्रकाश । धर्म के क्षेत्र में सम्यक्त्व आश्वास-द्वीप है। प्रतिपाती सम्यक्त्व संदीन द्वीप और अप्रतिपाती सम्यक्त्व असंदीन द्वीप होता है। ज्ञान प्रकाश-दीप है। श्रुतज्ञान संदीन दीप और आत्म-ज्ञान असंदीन दीप है। ___ धर्म का संघान करने वाले मुनि की संयम-रति असंदीन द्वीप या दीप जैसी होती है। टिप्पण–६१ देखिये, टिप्पण क्रमाङ्क-५२ टिप्पण-६२ बाधाओं को कैसे सहन करना चाहिए, उनके सहन करने या न करने से क्या Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायारो २५ लाभ-अलाभ होता है ? इन सारी स्थितियों को जानने वाला ही उनको समाहित कर सकता है। टिप्पण ६३ शिष्य ने पूछा, “भन्ते ! अव्यक्त कौन होता है ?" प्राचार्य ने कहा, "कुछ व्यक्ति ज्ञान और अवस्था-दोनों से अव्यक्त होते हैं।" "कुछ व्यक्ति ज्ञान से अव्यक्त और अवस्था से व्यक्त होते हैं।" "कुछ व्यक्ति ज्ञान से व्यक्त और अवस्था से अव्यक्त होते हैं।" "कुछ व्यक्ति ज्ञान और अवस्था--दोनों से व्यक्त होते हैं । सोलह वर्ष की अवस्था से ऊपर का व्यक्ति अवस्था से व्यक्त होता है और नवें पूर्व की तीसरी आचार-वस्तु तक को जानने वाला ज्ञान से व्यक्त होता है । जो मुनि ज्ञान और अवस्था दोनों से व्यक्त होता है, वह प्रयोजनवश अकेला विहार कर सकता है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त श्रसमाधि का वलय ० ठाणं ० O कषाय कर्म संज्ञा ० संसार-चक्र Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-चक्र __ चउब्धिहे संसारे पण्णत्ते, तं जहा—णेरइयसंसारे, तिरिक्खजोणियसंसारे, मणुस्ससंसारे, देवसंसारे । ४/२८५ चउन्विहे भवे पण्णत्ते, तं जहा—णेरइयभवे, तिरिक्खजोणियभवे, मणुस्सभवे, देवभवे । ४/२८७ कषाय चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा–कोहकसाए, माणकसाए, मायाकसाए, लोभकसाए । ४/७५ चउपतिट्ठिते' कोहे पण्णत्ते, तं जहा—पातपतिट्ठिते, परपतिट्ठिते, तदुभयपतिट्टिते, अपतिट्टिते। ४/७६ ___ चउपतिहिते माणे पण्णत्ते, तं जहा- आतपतिट्टिते, परपतिट्ठिते, तदुभयपतिहिते, अपतिट्ठिते । ४/७७ चउपतिट्ठिता माया पण्णता, तं जहा—प्रातपतिट्ठिता, परपतिट्ठिता, तदुभयपतिट्ठिता, अपतिट्ठिता । ४/७८ चउपतिट्ठिते लोभे पण्णत्ते, तं जहा–प्रातपतिट्ठिते, परपतिट्टिते, तदुभयपतिट्टिते, अपतिट्ठिते । ४/७६ चउहि ठाणेहिं कोधुप्पत्ती सिता, तं जहा—खेत्तं पडुच्चा, वत्थु पडुच्चा, सरीरं पडुच्चा, उवहिं पडुच्चा। ४/८० क्रोध-उत्पत्ति दसहि ठाणेहिं कोधुप्पत्ती सिया, तं जहामणुण्णाइं मे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाइं अवहरिंसु । अमणुण्णाई मे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाइं उवहरिंसु । मणुण्णाई मे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाइं अवहरइ । अमणुण्णाइं मे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाइ उवहरति । मणुण्णाइं मे सद्द-फरिस-रस-रूव गंधाई अवहरिस्सति । अमणुण्णाई मे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाइं उवहरिस्सति । मणुण्णाई मे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाइं अवहरिंसु वा अवहरइ वा अवहरिस्सति वा । प्रमणुण्णाइं मे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाइं उवहरिंसु वा उवहरति वा उवहरिस्सति वा। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग मणा मे सह-फरिस - रस- रूव-गंधाई श्रवहरिसु वा अवहरति वा प्रवहरिस्सति वा, उवहरिसु वा उवहरति वा उवहरिस्सति वा । २८ अहं च णं आयरिय-उवज्झायाणं सम्मं वट्टामि, ममं च णं आयरिय-उवज्झाया मिच्छं विप्पडिवण्णा । १०/७ चहि ठाणेहि माणुष्पत्ती सिता, तं जहा - खेत्तं पडुच्चा, वत्थं पडुच्चा, सरीरं पडुच्चा, उवहिं पडुच्चा । ४ / ८१ ठाणेहिं मायुप्पत्ती सिता, तं जहा -- खेत्तं पडुच्चा, वत्युं पडुच्चा, सरीरं पडुच्चा, उवहिं पडुच्चा । ४/८२ उहि ठाणेहिं लोभुप्पत्ती सिता, तं जहा - खेत्तं पडुच्चा, वत्थं पडुच्चा, सरीरं पडुच्चा, उवहिं पडुच्चा । ४ / ८३ चउब्विहे कोहे पण्णत्ते, तं जहा - प्रणताणुबंधी कोहे, अपच्चक्खाणकसाए कोहे, पच्चक्खाणावरणे कोहे, संजलणे कोहे । ४ / ८४ चउव्विहे माणे पण्णत्ते, तं जहा - प्रणताणुबंधी माणे, प्रपच्चक्खाणकसाए माणे, पच्चक्खाणावरणे माणे, संजलणे माणे । ४ / ८५ चउव्विहा माया पण्णत्ता, तं जहा - प्रणताणुबंधी माया, अपच्चक्खाणकसाया माया, पच्चक्खाणावरणा माया, संजलणा माया | ४ / ८६ चव्विहे लोभे पण्णत्ते, तं जहा - प्रणंताणुबंधी लोभे, प्रपच्चक्खाणकसाए लोभे, पच्चक्खाणावरणे लोभे, संजलणे लोभे । ४ / ८७ उवि कोहे पण्णत्ते, तं जहा - श्राभोगणिव्वत्तिते, प्रणाभोगणिव्वत्तिते, उवसंते, वसंते । ४ / ८८ विहे माणे पण्णत्ते, तं जहा प्रभोगणिव्वत्तिते, प्रणाभोगणिव्वत्तिते, उवसंते, भणुवसंते । ४ / ८६ चउव्विहा माया पण्णत्ता, तं जहा — प्रभोगणिव्वत्तिता, प्रणाभोग णिव्वत्तिता, उवसंता, अणुवसंता । ४ / ६० चव्विहे लोभे पण्णत्ते, तं जहा प्रभोगणिव्वत्तिते, अणाभोगणिव्वत्तिते, उवसंते, वसंते । ४ / १ चत्तारि राईो पण्णत्तात्र, तं जहा - पव्वयराई, पुढविराई, वालुयराई, उदगराई । एवमेव चउबिहे कोहे पण्णत्ते, तं जहा -- पव्वयराइसमाणे, पुढविराइसमाण, वालुयराइसमाणे, उदगराइसमाणे । १. पव्वयराइसमाणं कोहमणुष्पविट्ठे जीवे कालं करेइ, णेरइएसु उववज्जति, २. पुढविराइममाणं कोहमणुप्पविट्टे जीवे कालं करेइ, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं २६ ३. वालुयराइसमाणं कोहमणुप्पविट्ठ जीवे कालं करेइ, मणुस्सेसु उववज्जति, ४. उदगराइसमाणं कोहमणुप्पविढे जीवे कालं करेइ, देवेसु उववज्जति । ४/३५४ चत्तारि थंभा पण्णत्ता, तं जहा-सेलथंभे अट्ठिथंभे, दारुथंभे, तिणिसलताथंभे।। एवामेव चउविधे माणे पण्णत्ते, तं जहा—सेलथं भसमाणे, अट्टिथंभसमाणे, दारुथंभसमाणे तिणिसलताथ भसमाणे । १. सेलथंभसमाणं माणं अणुपविट्ठ जीवे कालं करेति, णेरइएसु उववज्जति, २. अट्ठिथंभसमाणं माणं अणुप विट्ठ जीवे कालं करेति, तिरिक्खजोणिएसु उवव ज्जति, ३. दारुथंभसमाणं माणं अणुपविट्ठ जीवे कालं करेति, मणुस्सेसु उववज्जति, ४. तिणिसलताथंभसमाणं माणं अणुपविट्ठ जीवे कालं करेति, देवेसु उवव ज्जति । ४/२८३ चत्तारि केतणा पण्णत्ता, तं जहा—वंसीमुलकेतणए, मेंढविसाणकेतणए, गोमुत्तिकेतणए, अवलेहणियकेतणए । एवामेव चउविधा माया पण्णत्ता, तं जहा—वंसीमूलकेतणासमाणा, मेंढविसाणकेतणासमाणा, गोमुत्तिकेतणासमाणा, अवलेहणियकेतणासमाणा। १. वंसीमूलकेतणासमाणं मायमणुपविट्ठ जीवे कालं करेति, णेरइएसु उववज्जति, २. मेंढविसाणकेतणासमाणं मायमणुपविट्ठ जीवे कालं करेति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, ३. गोमुत्तिकेतणासमाणं मायमणुपविट्ठ जीवे कालं करेति, मणुस्सेसु उववज्जति, ४. अवलेहणियकेतणासमाणं मायमणुपविट्ठ जीवे कालं करेति, देवेसु उवव ज्जति । ४/२८२ चत्तारि वत्था पण्णत्ता, तं जहा—किमिरागरत्ते, कद्दम रागरत्ते, खंजणरागरत्त, हलिद्दरागरत्ते। एवामेव चउव्विधे लोभे पण्णत्ते, तं जहा--किमिरागरत्तवत्थसमाणे कद्दम रागरत्तवत्थसमाणे, खंजणरागरत्तवत्थसमाणे, हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणे । १. किमिरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, णेरइएसु उववज्जइ, २. कद्दमरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जइ, ३. खंजणरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, मणुस्सेसु, उववज्जइ, ४. हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, देवेसु उववज्जइ । ४/२८४ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग चत्तारि उदगा पण्णत्ता, तं जहा — कद्द मोदए, खंजणोदए वालुनोदए, सेलोदए एवामेव चउबिहे' भावे पण्णत्ते, तं जहा – कद्द मोदगसमाणे, खंजणोदगसमाणे, वालुोदगसमाणे, सेलोदगसमाणे । ३० १. कद्दमोदगसमाणं भावमणुपविट्टे जीवे कालं करेइ, णेरइएसु उववज्जति, २. खंजणोदगस माणं भावमणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, तिरिक्खजोगिएसु उववज्जति, ३. वालुप्रोदगस माणं भावमणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, मणुस्सेसु उववज्जति, ४. सेलोदगसमाणं भावमणुपविट्टे जीवे कालं करेइ, देवेसु उववज्जति । ४ / ३५५ दुविहेको पण्णत्ते, तं जहा - प्रायपइट्ठिए चेव, परपइट्ठिए चेव । २/४०६ विहेमाणे, दुविहा माया, दुविहे लोभे, दुविहे पेज्जे, दुविहे दोसे, दुविहे कलहे, दुखणे, दुविहे पेसुण्णे, दुविहे परपरिवार, दुविहे अरतिरती, दुविहे मायामोसे, दुविहे मिच्छादंसण सल्ले पण्णत्ते, तं जहा - प्रायपइट्ठिए चेव, परपइट्ठिए चेव । २/४०६ चत्तारि श्रावत्ता पण्णत्ता, तं जहा - खरावत्ते, उष्णतावत्ते, गूढावत्ते, प्रामिसावत्ते । एवामेव चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा—खरावत्तसमाणे कोहे, उष्णतावत्तसमाणे माणे, गूढावत्तसमाणे माया, आमिसावत्तसमाणे लोभे । खरावत्तसमाणं कोहं प्रणुपविट्ठ जीवे कालं करेति णेरइएसु उववज्जति । उण्णतावत्तसमाणं माणं अणुपविट्ठे जीवे कालं करेति णेरइएसु उववज्जति, गूढावत्तसमाणं मायं श्रणुपविट्टे जीवे कालं करेति, इस उववज्जति । श्रमिसावत्तसमाणं लोभमणुपविट्ठ जीवे कालं करेति णेरइएसु उववज्जति । ४/६५३ सहि ठाणेहि ग्रहमंतीति थंभिज्जा, तं जहा - जातिमएण वा, कुलमएण वा, बलमण वा, रूवमएण वा, तवमएण वा, सुतमएण वा, लाभमएण वा, इस्सरियमएण वा, णागवण्णा वा मे प्रतियं हव्वमागच्छंति, पुरिसधम्मातो वा मे उत्तरिए श्राहोधिए णाणदंसणे समुपणे । १० / १२ कर्म जीवा णं चउहि ठाणेहि टुकम्मपगडीम्रो चिणिसु तं जहा – कोहेणं, माणेणं, माया, लोभेणं । ४ / ६३ चत्तारि णिग्गंथा पण्णत्ता, तं जहा १. रातिणिए समणे णिग्गंथे महाकम्मे, महाकिरिए, प्रणायावी प्रसमिते धम्मस्स प्रणाराध भवति । २. रातिणिए समणे णिग्गंथे अप्पकम्मे, अप्पकिरिए, प्रातावी समिए धम्मस्स आराहए भवति । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं ३१ ३. ओमरातिणिए समणे णिग्गंथे महाकम्मे, महाकिरिए अणातावी प्रसमिते धम्मस्स प्रणाराहए भवति । ४. श्रोमरातिणिए समणे णिग्गंथे अप्पकम्मे अप्पकिरिए श्रतावी समिते धम्मस्स राह भवति । ४/४२६ चत्तारि णिग्गंथी पण्णत्ता, तं जहा १. रातिणिया समणी णिग्गंथी महाकम्मा महाकिरिया प्रणायावी प्रसमिता धम्मस्स प्रणाराधिया भवति । २. रातिणिया समणी णिग्गंथी अप्पकम्मा अप्पकिरिया श्रातावी समिता धम्मस्स राहिया भवति । ३. श्रोमरातिणिया समणी णिग्गंथी महाकम्मा महाकिरिया प्रणायावी समिता धम्मस्स प्रणाराधिया भवति । ४. श्रोमरातिणिया समणी णिग्गंथी अप्पकमा श्रप्पकिरिया श्रतावी समिता धम्मस्स राहिया भवति । ४/४२७ चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा — १. राइणिए समणोवासए महाकम्मे महाकिरिए अणायावी श्रसमिते धम्मस्स अणाराध भवति । २. राइणिए समणोवासए अप्पकम्मे अप्पकिरिए आतावी समिए धम्मस्स श्राराहए भवति । ३. श्रमराइणिए समणोवासए महाकम्मे महाकिरिए अणातावी प्रसमिते धम्मस्स अणाराहए भवति । ४. श्रमराइणिए समणोवासए अप्पकम्मे श्रप्पकिरिए श्रातावी समिते धम्मस्स आहए भवति । ४/४२८ चत्तारि समणोवासियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १. राइणिया समणोवासिता महाकम्मा महाकिरिया अणायावी समिता धम्मस्स णाराधिया भवति । २. राइणिया समणोवासिता अप्पकम्मा अप्पकिरिया प्रातावी समिता धम्मस्स राहिया भवति । ३. प्रोमराइणिया समणोवासिता महाकम्मा महाकिरिया प्रणायावी समिता धम्मस्सणाराधिया भवति । ४. श्रमराइणिया समणोवासिता अप्पकम्मा अप्पकिरिया प्रतावी समिता धम्मस्स श्राराहिया भवति । ४/४२६ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ संज्ञा चत्तारि सण्णा पण्णत्ताश्रो, तं जहा - श्राहारसण्णा, भयसण्णा, सणा परिग्गहसण्णा । ४ / ५७८ उहि ठाणेहिं आहारसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा — श्रोमकोट्ठताए, छुहावेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवोगेणं । ४ / ५७६ उहि ठाणेहिं भयसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा - हीणसत्तताए, भयवेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवोगेणं । ४ / ५८० चित्त-समाधि : जैन योग चउहि ठाणेहिं मेहुणसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा — चितमंससोणिययाए, मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवोगेणं । ४/५८१ चउहि ठाणेहिं परिग्गहसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा - प्रविमुत्तयाए, लोभवेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवोगेणं । ४ / ५८२ दस सण्णाश्रो' पण्णत्ताश्रो, तं जहा - प्राहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा, कोहसण्णा, माणसण्णा, मायासण्णा, लोभसण्णा, लोगसण्णा, हसण्णा । १०/१०५ श्रायुष्य-बंध के कारण चउहि ठाणेहिं जीवा णेरइयाउयत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा - महारंभताए, महापरिग्गहयाए, पंचिदियवहेणं, कुणिमाहारेणं । ४ / ६२८ हि ठाणेहिं जीवा तिरिक्ख जोणिय ( प्राउय ? ) त्ताए कम्मं पगरेंति तं जहामाइल्लाए, णिडिल्लताए, अलियवयणेणं, कूडतुलकूडमाणेणं । ४ / ६२६ ठाणेहिं जीवा मणुस्साउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा - पगतिभद्दताए, पगतिविणीययाए, साक्कोसयाए, श्रमच्छरिताए । ४ / ६३० चउहि ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा - 'सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामणिज्जराए । ४ / ६३१ पूर्णजीवन और अकाल-मृत्यु हा पालेंति, तं जहा - देवच्चेव, णेरइयच्चेव । २/२६६ दोहं उ-संवट्टए पण्णत्ते, तं जहा - मणुस्साणं चेव, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव ॥ २/२६७ सत्तविधे" श्राउभेदे पण्णत्ते, तं जहा – प्रज्भवसाण- णिमित्ते, ग्राहारे, वेयणा, पराघाते । फासे, आणापाणू, सत्तविधं भिज्जए आउं । ७ / ७२ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि के विघ्न ० मूर्छा ० प्रमाद . भयस्थान प्रज्ञान • मोह ० रोग ० कामगुण ० प्रास्त्रव Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ मूर्च्छा दुविहा मुच्छा पण्णत्ता, तं जहा - पेज्जवत्तिया चेव, दोसवत्तिया चेव । २/४३२ पेज्जवत्तिया मुच्छा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - माया चेव, लोभे चेव । २/४३३ दोसवत्तिया मुच्छा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- कोहे चेव, माणे चेव । २ / ४३४ प्रमाद चित्त-समाधि : जैन योग अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे गोतमादी समणे णिग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी -- किं भया पाणा ? समणाउसो ! गोतमादी समणा णिग्गंथा समणं भगवं महावीरं उवसंकमंति, उवसंकमित्ता वंदति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - णो खलु वयं देवाणुप्पिया ! एयमट्ठ जाणामो वा पासामो वा । तं जदि णं देवाणुप्पिया ! एयम णो गिलायंति परिकहित्ताए, तमिच्छामो णं देवाणुप्पियाणं अंतिए एयमट्ठ जात्तिए । अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे गोतमादी समणे णिग्गंथे श्रामंतेत्ता एवं वयासीदुक्खभया पाणा समणाउसो ! से णं भंते ! दुक्खे केण कडे ? जीवेणं कडे पमादेणं । से णं भंते ! दुक्खे कहं वेइज्जति ? अप्पमाएणं । ३ / ३३६ छविहे पमाए पण्णत्ते, तं जहा - मज्जपमाए, णिद्दपमाए, विसयपमाए, कसायपमाए, जूतपमाए, पडिलेहणापमाए । ६/४४ भयस्थान सत्त भट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा — इहलोगभए, परलोगभए, प्रादाणभए, कम्हाभए, वेयणभए, मरणभए, असिलोगभए । ७ / २७ प्रज्ञान अण्णा तिविधे पण्णत्ते, तं जहा- देसण्णाणे, सव्वण्णाणे, भावण्णाणे | ३ / ४०६ मोह तिविहे मोहे पण्णत्ते, तं जहा - " णाणमोहे, दंसणमोहे, चरित्तमोहे । ३ / १७८ रोग वह ठाणेह रोगुप्पत्ती सिया, तं जहा - १२ च्चासणयाए, श्रहितासणयाए, अतिणिद्दाए, अतिजागरितेणं, उच्चारणिरोहेणं, पासवणणिरोहेणं, अद्धाणगमणेणं, भोयणपडिकूलताए, इंदियत्थविकोवणयाए । ६ / १३ कामगुण पंच‍ कामगुणा पण्णत्ता, त जहा -- सद्दा, रूवा, गंधा, रसा, फासा । ५/५ श्रास्रव पंच श्रासवदारा पण्णत्ता, तं जहा - मिच्छत्तं, अविरती, पमादो, कसाया, ५/१०६ जोगा । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि का मार्ग : पर्युपासना ० अभ्युत्थान ० अनुशासन ० दर्शन ० दृष्टि • ज्ञान ० पाँच ज्ञान ० मति ज्ञान शरीर ० वाणी ० मन क्षय-उपशम ० सुख सत्त्व बल Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग पर्युपासना तहारूवं णं भंते ! समणं वा माहणं वा पज्जुवासमाणस्स किंफला पज्जुवायणा ? सवणफला। से णं भंते ! सवणे किंफले ? णाणफले । से णं भंते ! णाणे किंफले ? विण्णाणफले । से णं भंते ! विण्णाणे किंफले ? पच्चक्खाणफले । से णं भंते ! पच्चक्खाणे किंफले ? संजमफले । से णं भंते ! संजमे किंफले ? अणण्हयफले । से णं भंते ! अणण्हए किंफले ? तवफले । से णं भंते ! तवे किंफले ? वोदाणफले । से णं भंते ! वोदाणे किंफले ? अकिरियफले । सा णं भंते ! अकिरिया किंफला ? णिव्वाणफला । से णं भंते ! णिव्वाणे किंफले? सिद्धिगइगमण-पज्जवसाण-फले समणाउसो ! अभ्युत्थान अट्टहिं ठाणेहि सम्म४ घडितव्वं जतितव्वं परक्कमितव्वं अस्सि च णं अट्ठ णो पमाएतव्वं भवति १. असुयाणं धम्माणं सम्मं सुणणत्ताए अब्भुट्ठ तव्वं भवति । २. सुताणं धम्माणं ओगिण्हणयाए उवधारणयाए अब्भुट्ठतव्वं भवति । ३. णवाणं कम्माणं संजमेणमकरणताए अब्भुढे यव्वं भवति । ४. पोराणाणं कम्माणं तवसा विगिचणताए विसोहणताए अब्भुढे तव्वं भवति । ५. असंगिहीत परिजणस्स संगिण्हणताए अब्भुट्ठयव्वं भवति । ६. सेहं पायारगोयरं गाहणताए अब्भुढे यन्वं भवति । ८/१११ ७. गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणताए अब्भुट्ठयव्वं भवति । ८. साहम्मियाणमधिकरणंसि उप्पण्णंसि तत्थ अणिस्सितोवस्सितो अपक्खगाही मज्झत्थभावभूते कह णु साहम्मिया अप्पसद्दा अप्पझंझा अप्पतुमंतुमा ? उवसामणताए अब्भुट्ठयव्वं भवति । ८/१११ अनुशासन चउहिं ठाणेहिं संते गुणे णासेज्जा, तं जहा--कोहेणं, पडिणिवेसेणं, अकयण्णुयाए, मिच्छत्ताभिणिवेसेणं । ४/६२१ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं चउहिं ठाणेहिं असंते गुणे दीवेज्जा, तं जहा-अब्भासवत्तियं परच्छंदाणुवत्तिय, कज्जहेउं, कतपडिकतेति वा । ४/६२२ दर्शन तो ठाणा अव्यवसितस्स अहिताए असुभाए अखमाए अणिस्सेसाए अणाणुगामियत्ताए भवंति तं जहा १. से णं मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे संकिते कंखिते वितिगिच्छिते भेदसमावण्णे कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं णो सद्दहति णो पत्तियति णो रोएति, तं परिस्सहा अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवंति, णो से परिस्सहे अभिजुजिय-अभिमुंजिय अभिभवइ । २. से णं मुंडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारितं पव्वइए पंचहि महव्वएहिं संकिते कंखिते वितिगिच्छिते भेदसमावण्णे कलुससमावण्णे पंच महन्वताई णो सद्दहति णो पत्तियति णो रोएति, तं परिस्सहा अभिमुंजिय-अभिजुंजिय अभिभवंति, णो से परिस्सहे अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवति । ३. से णं मुंडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पव्वइए छहिं जीवणिकाएहिं संकिते कंखिते वितिगिच्छिते भेदसमावण्णे कलुससमावण्णे छ जीवणिकाए णो सद्दहति णो पत्तियति णो रोएति, तं परिस्सहा अभिजुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवंति, णो से परिस्सहे अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवइ ।१५ ३/५२३ तो ठाणा ववसियस्स हिताए सुभाए खमाए णिस्सेसाए प्राणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा १. से णं मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिते णिक्कंखिते णिव्वितिगिच्छिते णो भेदसमावण्णे णो कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं सद्दहति पत्तियति रोएति, से परिस्सहे अभिमुंजिय-अभिजुंजिय अभिभवति, णो तं परिस्सहा अभिजुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवंति । २. से णं मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पव्वइए समाणे पंचहिं महव्वएहिं णिस्संकिए णिक्कंखिए णिव्वितिगिच्छिते णो भेदसमावण्णे णो कलुससमावणे पंच महव्वताई सद्दहति पत्तियति रोएति, से परिस्सहे अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवइ, णो तं परिस्सहा अभिमुंजिय-अभिजुंजिय अभिभवंति। ३. से णं मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पव्वइए छहिं जीवणिकाएहिं णिस्संकिते निक्कंखिते णिव्वितिगिच्छिते णो भेदसमावण्णे णो कलुससमावण्णे छ जीवणिकाए सद्दहति पत्तियति रोएति से परिस्सहे अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवंति । णो तं परिस्सहा अभिमुंजिय अभिमुंजिय अभिभवंति। ३/५२४ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ दृष्टि दुविहे सम्म चेव । २ / ८० चेव । २ / ८५ ज्ञान सगसम्म दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - पडिवाइ चेव, पडिवाइ चेव । २ / ८१ अभिगमसम्म दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - पडिवाइ चेव, प्रपडिवाइ चेव । २ / ८२ मिच्छादंसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - प्रभिग्गहियमिच्छादंसणे चेव, अणभिग्गहियमिच्छादंसणे चेव । २ / ८३ अभिग्गहियमिच्छादंसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा -- सपज्जवसिते चेव, अपज्जवसिते चेव । २/८४ भिहियमिच्छादंसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - सपज्जवसिते चेव, अपज्जवसिते चित्त-समाधि : जैन योग दंसणे पण्णत्ते, तं जहा सम्मद्दंसणे चेव, मिच्छादंसणे चेव । २ / ७६ दुविहे पण्णत्त, तं जहा - णिसग्गसम्मदंसणे चेव, अभिगमसम्मदंसणे विहे गाणे पण्णत्ते, तं जहा - पच्चक्खे चेव, परोक्खे चेव । २/८६ पच्चक्खे णाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा – केवलणाणे चेव, णोकेवलणाणे चेव । २ / ८७ केवलणा दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - भवत्थकेवलणाणे चेव, सिद्ध केवलणाणे चेव । २ / ८८ णोकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते तं जहा - प्रोहिणाणे चेव, मणपज्जवणाणे चेव । २/ε५ श्रोहिणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - भवपच्चइए चेव, खप्रोवसमिए चेव । २/६६ जवा दुविहे पण्णत्ते, तं जहा -- उज्जुमति चेव, विउलमति चेव । २ / ६६ परोक्खे णा दुविहे पण्णत्ते, तं जहा – आभिणिबोहियणाणे चेव, सुयणाणे चेव । २/१०० बिहिया दुविहे पण्णत्ते, तं जहा " - सुर्याणिस्सिए चेव, असूयणिस्सिए चेव । २/१०१ सुयणिस्सिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा " — प्रत्योग हे चेत्र, वंजोग हे चेव । २/१०२ असुयणिस्सिते दुविहे पण्णत्ते, तं जहा – प्रत्थोग्गहे चेव । वंजणोग्गहे चेव २ / १०३ विपत्ते, तं जहा - अंगपविट्ठे चेव, अंगबाहिरे चेव । २ / १०४ पांच ज्ञान छव्विा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा - प्रभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, प्रोहिणाणी मणपज्जवणाणी, केवलणाणी, अण्णाणी । ६/११ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं मतिज्ञान छविहा प्रोगहमती पण्णत्ता, तं जहा-खिप्पमोगिण्हति, बहुमोगिण्हति, बहुविधमोगिण्हति, धुवमोगिण्हति, अणिस्सियमोगिण्हति, असंदिद्धमोगिण्हति । ६/६१ । छविहा ईहामती पण्णत्ता, तं जहा—खिप्पमीहती, बहुमीहति, बहुविधमीहति, धुवमीहति, अणिस्सियमीहति, असंदिद्धमीहति । ६/६२ छविधा अवायमती पण्णत्ता, तं जहा–खिप्पमवेति, बहुमवेति, बहुविधमवेति, घुवमवेति, अणिस्सियमवेति, असंदिद्धमवेति । ६/६३ छविधा धारण (मती ?) पण्णत्ता, तं जहा-बहुं धरेति, बहुविहं धरेति, पोराणं घरेति, दुद्धरं धरेति, अणिस्सितं घरेति, असंदिद्धं धरेति । ६/६४ शरीर एगे काय-वायामे । १/२१ एगे काय-वायामे देवासुर-मणुयाणं तंसि तंसि समयंसि । १/४३ मणुस्साणं दो३ सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा—अभंतरए चेव, बाहिरए चेव । अभंतरगे कम्मए, अट्ठिमंससोणियोहारुछिराबद्धे बाहिरए पोरालिए । २/१६० पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-पोरालिए, वेउम्बिए, पाहारए, तेयए, कम्मए । ५/२५ पोरालियसरीरे पंचवण्णे पंचरसे पण्णत्ते, तं जहा—किण्हे, णीले, लोहिते, हालिद्दे, सुक्किल्ले । तित्ते, कडुए, कसाए, अंबिले, महुरे । ५/२६ ___ वेउव्वियसरीरे पंचवण्णे पंचरसे पण्णत्ते, तं जहा—किण्हे, णीले, लोहिते, हालिद्दे, सुक्किल्ले । तित्ते, कडुए, कसाए, अंबिले, महुरे । ५/२७ आहारयसरीरे पंचवण्णे पंचरसे पण्णत्ते, तं जहा—किण्हे, णीले, लोहिते, हालिद्दे, सुक्किल्ले । तित्ते, कडुए, कसाए, अंबिले, महुरे । ५/२८ तेययसरीरे पंचवण्णे पंचरसे पण्णत्ते, तं जहा—किण्हे, णीले, लोहिते, हालिद्दे, सुक्किल्ले । तित्ते कडुए, कसाए, अंबिले, महुरे । ५/२६ कम्मगसरीरे पंचवण्णे पंचरसे पण्णत्ते, तं जहा-किण्हे, णीले, लोहिते, हालिद्दे, सुक्किल्ले । तित्ते, कडुए, कसाए, अंबिले, महुरे । ५/३० सव्वेवि णं बादरबोदिंघरा कलेवरा पंचवण्णा पंचरसा दुगंधा अट्ठफासा । ५/३१ चत्तारि२५ सरीरगा जीवफुडा पण्णत्ता, तं जहा-वेउविए, आहारए, तेयए, कम्मए । ४/४६१ चत्तारि सरीरगा कम्मुम्मीसगा पण्णत्ता, तं जहा—ोरालिए, वेउव्विए, आहारए, तेयए । ४/४६२ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग णव-सोत-परिस्सवा बोंदी पण्णत्ता, तं जहा- दो सोत्ता, दो णेत्ता, दो घाणा, मुहं, पोसए, पाऊ । ९/२४ धम्मणं चरमाणस्स पंच णिस्साद्वाणा पण्णत्ता, तं जहा -- छक्काया, गणे राया, गाहावती, सरीरं । ५ / १९२ वाणी ४० मन गावई । १ /२० एगा" वई देवासुरमणुयाणं तंसि तंसि समयंसि । १ / ४२ तिविहे वयणे पण्णत्ते, तं जहा – तत्रयणे, तदण्णवयणे, गोवयणे । ३/३५५ तिविहे श्रवयणे पण्णत्ते, तं जहा --- णोतव्यणे, णोतदण्णवयणे अवयणे । ३/३५६ सत्त्व गेमणे । १ / १६ एगे मणे देवासुरमनुयाणं तंसि तंसि समयंसि । १ / ४१ तिविहे मणे पण्णत्ते, तं जहा - तम्मणे, तयण्णमणे, णोश्रमणे । ३/३५७ तिविहे श्रमणे पण्णत्ते, तं जहा - गोतम्मणे, णोतयण्णमणे, श्रमणे । ३ / ३५८ क्षय-उपशम दोहि ठाणेहि आता केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, तं जहा - खएण चेव, उवसमेण चेव । २ / ४०३ दोहि ठाणेहि श्राता केवलं बोधि बुज्भेज्जा, केवलं मुंडे भवित्ता प्रगाराम श्रणगारियं पव्वज्जा, केवलं बंभचेरवासमाव सेज्जा, केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेज्जा, केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा, केवलं प्रहिणाणं उप्पाडेज्जा, केवलं मणपज्वणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा - खएण चेव, उवसमेण चेव । २/४०४ सुख दसविधे " सोक्खे पण्णत्ते, तं जहा आरोग्ग दीहमाउं, अड्ढेज्जं काम भोग संतोसे । प्रत्थि सुहभोग क्खिम्ममेवतत्तो प्रणाबाहे || १० / ८३ चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - हिरिसत्ते, हिरिमणसत्ते, चलसत्ते, थिरसत्ते । ४/४८६ बल दसविधे बले पण्णत्ते, तं जहा – सोतिदियबले, चक्खिदियबले, घाणिदियबले, जिब्भिदियबले, फासिंदियबले, णाणबले, दंसणबले, चरितबले, तवबले, वीरियबले । १०/८८ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियातीत चेतना के सूत्र-१ ० अाराधना ० प्रणिधान ० संवर ० इन्द्रिय और मन का संवर ० संयम ० निवृत्ति ० गुप्ति • धर्म ० दस-धर्म ० अकिञ्चनता Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग आराधना तिविहा आराहणा पण्णत्ता, तं जहा—णाणाराहणा, दंसणाराहणा, चरित्ताराहणा । ३/४३४ णाणाराहणा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा—उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा । ३/४३५ दसणाराहणा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा । ३/४३६ चरित्ताराहणा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा–उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा । ३/४३७ तिहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंत संसारकंतारं वीईवएज्जा, तं जहा-अणिदाणयाए, दिट्ठिसंपण्णयाए, जोगवाहियाए । ३/८८ प्रणिधान तिविहे पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा—मणपणिहाणे, वयपणिहाणे, कायपणिहाणे । ३/६६ तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णते, तं जहा-मणसुप्पणिहाणे, वयसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे । ३/६७ संजयमणुस्साणं व सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा-मणसुप्पणिहाणे, वयसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे । ३/६८ तिविहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा—मणदुप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे । ३/६६ संवर पंच संवरदारा पण्णत्ता, तं जहा–संमत्तं, विरती, अपमादो, अकसाइत्तं, अजोगित्तं । ५/११० इन्द्रिय और मन का संवर छबिहे संवरे पण्णत्ते, तं जहा-सोतिदियसंवरे, चक्खिदियसंवरे, धाणिदियसंवरे, जिभिदियसंवरे, फासिदियसंवरे, णोइंदियसंवरे । ६/१५ संयम चउविहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा–मणसंजमे, वइसंजमे, कायसंजमे, उवगरणसंजमे । ४/३५१ दुविहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा—सरागसंजमे चेव, वीतरागसंजमे चेव । २/११० सरागसंजमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—सुहुमसंपरायसरागसंजमे चेव, बादरसंपरायसरागसंजमे चेव । २/१११ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं वीय रागसंजमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—उवसंतकसायवीयरागसंजमे चेव, खीणकसायवीय रागसंजमे चव । २/११४ खीणकसायवीय रागसंजमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—छउमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे चेव, केवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव । २/११६ छउमत्थखीणकसायवीय रागसंजमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीतरागसंजमे चेव, बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीतरागसंजमे चेव । २/११७ ___केवलिखीणकसायवीय रागसंजमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव, अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव २/१२० निवृत्ति तिविधा वावत्ती पण्णत्ता, तं जहा-जाणू, अजाणू, वितिगिच्छा । ३/५०८ गुप्ति तो" गुत्तीग्रो पण्णत्ताओ, तं जहा-मणगुत्ती, वइगुत्ती, कायगुत्ती । ३/२१ धर्म दुविहे धम्मे पण्णत्ते तं जहा—सुयधम्मे चेव, चरित्तधम्मे चेव । २/१०७ सुयधम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—सुत्तसुयधम्मे चेव, अत्थसुयधम्मे चेव । २/१०८ चरित्तधम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—प्रगारचरित्तधम्मे चेव, अणगारचरित्तधम्मे चेव । १/१०६ दस-धर्म दसविधे५ समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा-खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे । १०/१६ अकिञ्चनता ___ चउम्विहा अकिंचणता पण्णत्ता, तं जहा—मणअकिंचणता, वइअकिंचणता, कायअकिंचणता, उवगरणअकिंचणता । ४/३५३ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियातीत चेतना के सूत्र-२ ० आहार ० प्रासन ० सुप्त-जागृत ० प्रतिक्रमण ० प्रतिसंलीनता ० प्रायश्चित्त ० विनय ० सेवा ० स्वाध्याय ० ध्यान ० लेश्या Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाण श्राहार छहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे आहारमाहारेमाणे णातिक्कमति, तं जहा वेणवे यावच्चे, ईरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए, छट्ठ पुण धर्माचिताए । ६/४१ छह ठाणेहि समणे णिग्गंथे प्रहारं वोच्छिदमाणे णातिक्कमति, तं जहाआतंके उवसग्गे, तितिक्खणे बंभचेरगुत्तीए । पाणिदया-तवहेडं, सरीरवुच्छेयणट्ठाए । ६ / ४२ पंच ठाणाई समणेण भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताई णिच्च बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्चं अब्भणुण्णाताई भवंति तं जहाअरसाहारे, विरसाहारे, अंताहारे, पंताहारे, लूहाहारे । ५ / ४० छव्विहे** भोयणपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा – मणुण्णे, रसिए, पीणणिज्जे, बिहणिज्जे, मयणिज्जे, दप्पणिज्जे । ६ / १०६ श्रासन ४५ पंच ठाणाई समणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्च कित्तिताई णिच्चं बुइयाई णिच्च पसत्थाई णिच्च प्रब्भणुण्णाताई भवंति तं जहाठाणातिए, उक्कुप्रासणिए, पडिमट्ठाई, वीरास लिए, सज्जिए । ५ / ४२ - पंच ठाणाई समणेण भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्च कित्तिताई णिच्चं बुइयाइं णिच्चं पसत्थाइ णिच्च प्रब्भणुण्णाताई भवंति तं जहा - दंडातिए, लगंडसाई ", प्रातावए, अवाउडए, कंडूथए । ५ / ४३ पंच णिसिज्जा पण्णत्तात्र, तं जहा — उक्कुड़या, गोदोहिया, समपायपुता, पलियंका, अद्धपलियंका । ५/५० सुप्त-जागृत संजयमणुस्साणं सुत्ताणं पंच जागरा पण्णत्ता, तं जहा – सद्दा, रूवा, गंधा, रसा, फासा । ५/१२५ संजतमणुस्साणं जागराणं पंच सुत्ता पण्णत्ता, तं जहा – सद्दा, रूवा, गंधा, रसा, फासा । ५ / १२६ संजय मणुस्साणं सुत्ताणं वा जागराणं वा पंच जागरा पण्णत्ता, तं जहा - सद्दा, रूवा, गंधा, रसा, फासा । ५ / १२७ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ चित्त-समाधि : जैन योग पंचहिं ठाणेहि सुत्त विबुज्झज्जा, तं जहा—सद्देणं, फासेणं, भोयणपरिणामेणं, णिद्दक्खएण, सुविणदंसणेणं । ५/१६४ प्रतिक्रमण पंचविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते, तं जहा—आसवदारपडिक्कमणे मिच्छत्तपडिक्कमणे, कसायपडिक्कमणे, जोगपडिक्कमणे, भावपडिक्कमणे । ५/२२२ प्रतिसंलीनता पंच पडिसंलीणा पण्णत्ता, तं जहा—सोइदियपडिसंलीणे, चक्खिदियपडिसलीणे, घाणिदियपडिसलीणे, जिभिदियपडिसंलीणे, फासिदियपडिसंलीणे । ५/१३५ प्रायश्चित्त ____ दसविधे" पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा–पालोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विउसग्गारिहे, तवारिहे, छेयारिहे, मूलरिहे, अणवटुप्पारिहे, पारंचिया. रिहे । १०/७३ विनय सत्तविहे २ विणए पण्णत्ते, तं जहा—णाणविणए, दंसणविणए, चरित्तविणए, मणविणए, वइविणए, कायविणए, लोगोवयारविणए । ७/१३० पसत्थमणविणए सत्तविघे पण्णत्ते, तं जहा—अपावए, असावज्जे, अकिरिए, णिरुवक्केसे, अणण्हयकरे, अच्छविकरे, अभूताभिसंकणे । ७/१३१ पसत्थवइविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा--अपावए, असावज्जे, अकिरिए, णिरुवक्केसे, अणण्हयकरे, अच्छविकरे, अभूताभिसंकणे । ७/१३३ पसत्थकायविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा-पाउत्तं गमणं, पाउत्तं ठाणं, पाउत्तं णिसीयणं, आउत्त तुअट्टणं, पाउत्तं उल्लंघणं, पाउत्तं पल्लंघणं, पाउत्तं सम्विदियजोगझुंजणता । ७/१३५ सेवा __पंचहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहाअगिलाए पायरियवेयावच्च करेमाणे, अगिलाए उवज्झायवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए थेरवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए तवस्सिवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए गिलाणवेयावच्चं करेमाणे । ५/४४ पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहाअगिलाए सेहवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए कुलवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए गणवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए संघवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे । ५/४५ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं ४७ स्वाध्याय पंचविहे सज्झाए पण्णत्ते, त जहा- वायणा, पुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा । ५/२२० __ पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं वाएज्जा, तं जहा-संगहट्टयाए, उवग्गहट्टयाए, णिज्जरट्टयाए, सुत्ते वा मे पज्जवयाते भविस्सति, सुत्तस्स वा अवोच्छित्तिणयट्ठयाए । ५/२२३ पंचहि ठाणेहिं सुत्तं सिक्खेज्जा, तं जहा—णाणट्ठयाए, सणट्ठयाए, चरित्तट्टयाए, वुग्गह विमोय णट्टयाए, अहत्थे वा भावे जाणिस्सामीतिकट्ट। ५/२२४ ध्यान ___ चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा- अट्टे झाणे, रोद्दे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे । ४/६० ४"अट्ट झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा१. अमणुण्ण-संपयोग-संपउत्ते, तस्स विप्पयोग-सति-समण्णागते यावि भवति, २. मणुण्ण-संपयोग-संपउत्ते, तस्स अविप्पप्रोग-सति-समण्णागते यावि भवति, ३. आतंक-संपयोग-संपउत्ते, तस्स विप्पभोग-सति समण्णागते यावि भवति, ४. परिजुसित-काम-भोग-संपयोग-संपउत्ते, तस्स अविप्पप्रोग-सति-समण्णागते यावि भवति । ४/६१ अट्टस्स णं माणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा-कंदणता, सोयणता, तिप्पणता, परिदेवणता । ४/६२ रोद्दे झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा–हिंसाणुबंधि, मोसाणुबंधि, तेणाणुबंधि, सारक्खणाणुबंधि ४/६३ रुद्दस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा—ोसण्णदोसे, बहुदोसे, अण्णाणदोसे, आमरणंतदोसे । ४/६४ । __धम्मे झाणे चउन्विहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा—प्राणाविजए, अवायविजए, विवागविजए, संटाणविजए । ४/६५ धम्मस्स णं माणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा--प्राणारुई, णिसग्गरुई, सुत्तरुई, प्रोगाढरुई । ४/६६ धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णता, तं जहा—वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा। ४/६७ धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाप्रो पण्णत्तानो, तं जहा--एगाणुप्पेहा, अणिच्चाणुप्पेहा, असरणाणुप्पेहा संसाराणुप्पेहा । ४/६८ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग " सुक्के झाणे चउव्विहे चउप्पडोमारे पण्णत्ते, तं जहा - पुहत्तवितक्के सवियारी, गत्तवितक्के अवियारी, सुहुमकिरिए श्रणियट्टी, समुच्छिण्ण किरिए अप्पडिवाती । ४ / ६९ सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा – श्रव्वहे, सम्मोहे, विवेगे, विउस्सगे । ४ /७० - ४८ सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि प्रालंबणा पण्णत्ता, तं जहा-खंती, मुत्ती, प्रज्जवे, मद्दवे । ४/७१ सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाम्रो पण्णत्ताओ, तं जहा - श्रणंतवत्तियाणुपेहा, विष्परिणामा गुप्पेहा, प्रसुभाणुप्पेहा, ग्रावाणुप्पेहा । ४ /७२ लेश्या छ लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा – कण्हलेसा, नीललेसा, काउलेसा तेउलेसा, पम्हलेसा, सुक्कलेसा । ६/४७ मस्सा तो लेसा संकिलिट्ठाम्रो पण्णत्तानो, तं जहा – कण्हलेसा, नीललेसा, काउलेसा । ३/६५ मस्सा तो लेसा असं किलिट्ठा पण्णत्तानो, तं जहा – तेउलेसा, पम्हलेसा, सुक्कलेसा | ३/६६ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि धर्म ० स्वाख्यात • प्रियधर्म और दृढ़-धर्म • वेष और धर्म • महाव्रत • दुःख - शय्या ० सुख - शय्या ० सहिष्णुता का श्रालंबन ० मनोरथ • साधना का तारतम्य • प्रतिमा ० श्रात्मवान् श्रनात्मवान् ० शस्त्र ० कथा ० श्रात्मरक्षक • समाधिमरण ० निर्याण मार्ग • अंतक्रिया • छद्मस्थ और केवली Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // स्वाख्यात तिविहे भगवता धम्मे पण्णत्ते, तं जहा- सुप्रधिज्झिते, सुज्झाइते, सुतवस्सिते । जया सुचिज्झितं भवति तदा सुज्झाइतं भवति, जया सुज्झाइतं भवति तदा सुतवस्सितं भवति, से सुप्रधिज्झिते सुज्झाइते सुतवस्सिते सुयक्खाते ४९ णं भगवता घम्मे पण्णत्ते । ३ / ५०७ प्रियधर्म और दृढधर्म चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - – पियधम्मे णाममेगे, णो दढधम्मे, दढधम्मे णाम मेगे, णो पियधम्मे, एगे पियधम्मेवि, दढधम्मेवि एगे, णो पियधम्मे, णो दढघम्मे । ४/४२१ वेष और धर्म चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा —रूवं णाममेगे जहति णो धम्मं, धम्मं णाममेगे जहति णो रूवं, एगे रूवंपि जहति, धम्मंपि, एगे णो रूवं जहति, धम्मं । ४/४१ε णो महाव्रत चित्त-समाधि : जैन योग पंच महव्वया पण्णत्ता, तं जहा – सव्वाम्रो पाणातिवायाम्रो वेरमणं, सव्वाओ मुसावाया वेरमणं, सव्वाम्रो अदिण्णादाणाम्रो वेरमणं, सव्वाश्रो मेहुणा वेरमणं, सव्वा परिग्गहाम्रो वेरमणं । ५ / १ दुःख - शय्या चत्तारि दुहसेज्जा पण्णत्ता, तं जहा १. तत्थ खलु इमा पढमा दुहसेज्जा -- से णं मुंडे भवित्ता प्रगाराम्रो अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावणे संकिते कंखिते वितिगिच्छिते भेयसमावण्णे कलुससमा - वण्णे णिग्गंथं पावयणं णो सद्दहति णो पत्तियति, णो रोएति, णिग्गंथं पावयणं सहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे मणं उच्चावयं णियच्छति, विणिघात - मावज्जति पढमा दुहसेज्जा । २. ग्रहावरा दोच्चा दुहसेज्जा —- से णं मुंडे भवित्ता अगाराम्रो प्रणगारियं पव्वइए सणं लाभेणं णो तुस्सति, परस्स लाभमासाएति पीहेति पत्थेति प्रभिलसति, परस्स लाभमासाएमाणे पीहेमाणे पत्थेमाणे अभिलसमाणे मणं उच्चावयं णियच्छइ विणिघात मावज्जति - दोच्चा दुहसेज्जा । ३. अहावरा तच्चा दुहसेज्जा - से णं मुंडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं पव्वइए Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं दिव्वे माणुस्सए कामभोगे आसाएइ पोहेति पत्थेति अभिलसति, दिव्वे माणुस्सए कामभोगे आसाएमाणे पीहेमाणे पत्थेमाणे अभिलसमाणे मणं उच्चावयं णियच्छति, विणिघातमावज्जति–तच्चा दुहसेज्जा। ४. प्रहावरा च उत्था दुहसेज्जा—से णं मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पव्वइए, तस्स णं एवं भवति--जया णं अहमगारवासमावसामि तदा णमहं संवाहणपरिमद्दण-गातभंग-गातुच्छोलणाई लभामि, जप्पभिई च णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराग्रो अणगारियं पव्वइए तप्पभिई च णं अहं संवाहण-परिमद्दण-गातभंगगातुच्छोलणाई णो लभामि। से णं संवाहणं-परिमद्दण-गातब्भंग-गातुच्छोलणाई प्रासाएति पीहेति पत्येति अभिलसति, से णं संवाहण-परिमद्दणगातब्भंग- गातुच्छोलणाई आसाएमाणे पीहेमाणे पत्थेमाणे अभिलसमाणे मणं उच्चावयं णियच्छति, विणिघात मावज्जति—चउत्था दुहसेज्जा। ४/४५० सुख-शय्या चत्तारि सुहसेज्जापो पण्णत्ताग्रो, तं जहा१. तत्थ खलु इमा पढमा सुहसेज्जा—से णं मुंडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे हिस्संकिते णिखिते णिवितिगिच्छिए णो भेदसमावण्णे णो कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं सद्दहइ पत्तियइ रोएति. णिग्गंथं पावयणं सद्दहमाणे पत्तियमाणे रोएमाणे णो मणं उच्चावयं णियच्छति, णो विणिघातमावज्जति--पढमा सुहसेज्जा। २. अहावरा दोन्जा सुहसेज्जा–से णं मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पव्वइए सएणं लाभेणं तुस्सति परस्स लाभं णो आसाएति णो पीहेति णो पत्थेइ णो अभिलसति, परस्स लाभमणासाएमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे अणभिलसमाणे णो मणं उच्चावयं णियच्छति, णो विणिघातमावज्जति–दोच्चा सुहसेज्जा। ३. अहावरा तच्चा सुहसेज्जा—से णं मुंडे भवित्ता अगारापो अणगारियं पव्वइए दिव्यमाणुस्सए कामभोगे णो प्रासाएति णो पीहेति णो पत्थेति णो अभिलसति, दिव्वमाणुस्सए कामभोगे अणासाएमाणे अपीहेभाणे प्रपत्थेमाणे अणभिलसमाणे णो मणं उच्चावयं णियच्छति, णो विणिघातमावज्जति–तच्चा सुहसेज्जा । ४. अहावरा चउत्था सुहसेज्जा–से णं मुंडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पव्वइए, तस्स णं एवं भवति-जइ ताव अरहंता भगवंतो हट्ठा अरोगा बलिया कल्लसरीरा अण्णयराइं अोरालाई कल्लाणाई विउलाई पयताई पग्गहिताई महाणुभागाई कम्मक्खयकरणाइं तवोकम्माइं पडिवज्जति, किमंग पुण अहं अब्भोक्गमिग्रोवक्कमियं वेयणं णो सम्मं सहामि खमामि तितिक्षेमि अहियासेमि ? ममं च णं अब्भोवगमित्रोवक्कमियं (वेयणं ?) सम्ममसहमाणस्स मक्खममाणस्स Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ चित्त-समाधि : जैन योग अतितिखेमाणस्स अणहियासेमाणस्स किं मण्णे कज्जति ? एगंतसो मे पावे कम्मे कज्जति । ___ ममं च णं अब्भोवगमित्रो वक्कमियं (वेयणं ?) सम्म सहमाणस्स खममाणस्स तितिखेमाणस्स अहियासेमाणस्स किं मण्णे कज्जति ? एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति—चउत्था सुहसेज्जा । ४/४५१ सहिष्णुता का पालम्बन पंचहि ठाणेहिं छउमत्थे णं उदिण्णे परिस्सहोवसग्गे सम्म सहेज्जा खमेज्जा तितिक्खेज्जा अहियासेज्जा, तं जहा १. उदिण्णकम्मे खलु अयं पुरिसे उम्मत्तगभूते । तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिभंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा छविच्छेद करेति वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छिदति वा विच्छिदति वा भिंदति वा अवहरति वा। २. जक्खाइछे खलु अयं पुरिसे । तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिब्भंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबल वा पायपुंछणमच्छि दति वा विच्छिदति वा भिंदति वा अवहरति वा । ३. ममं च णं तब्भववेयणिज्जे कम्मे उदिण्णे भवति । तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिभंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छिदति वा विच्छिदति वा भिंदति वा अवहरति वा । ४. ममं च णं सम्ममसहमाणस्स अखममाणस्स अतितिक्खमाणस्स अणधियासमाणस्स किं मण्णे कज्जति ? एगंतसो मे पावे कम्मे कज्जति । ५. ममं च णं सम्म सहमाणस्स खममाणस्स तितिक्खमाणस्स अहियासेमाणस्स कि मण्णे कज्जति ? एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति । इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं छउमत्थे उदिण्णे परिसहोवसग्गे सम्म सहेज्जा खमेज्जा तितिक्खेज्जा अहियासेज्जा । ५/७३ पंचहि ठाणेहिं केवली उदिण्णे परिसहोवसग्गे सम्मं सहेज्जा खमेज्जा तितिक्खेज्जा अहियासेज्जा, तं जहा १. खित्तचित्ते खलु अयं पुरिसे । तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिभंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा छविच्छेदं करेति वा, Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं ५ पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छि दति वा विच्छिदति वा भिंदति वा अवहरति वा ।। २. दित्तचित्ते खलु अयं पुरिसे। तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिभंछेति वा बंधेति वा रुभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छि दति वा विच्छिदति वा भिंदति वा अवहरति वा। ३. जक्खाइट्टे खलु अयं पुरिसे । तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिभंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छिदति वा विच्छिदति वा भिंदति वा अवहरति वा । ४. ममं च णं तब्भववेयणिज्जे कम्मे उदिण्णे भवति । तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिभंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छिदति वा विच्छिदति वा भिंदति वा अवहरति वा । ५. ममं च णं सम्म सहमाणं खममाणं तितिक्खमाणं अहियासेमाणं पासेत्ता बहवे अण्णे छउमत्था समणा णिग्गंथा उदिण्णे-उदिण्णे परीसहोवसग्गे एवं सम्म सहिस्संति खमिस्संति तितिक्खस्संति अहियासिस्सति । इच्चेतेहिं पंचहि ठाणेहिं केवली उदिण्णे परीसहोवसग्गे सम्म सहेज्जा खमेज्जा तितिक्खेज्जा अहियासेज्जा । ५/७४ मनोरथ तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहा१. कया णं अहं अप्पं वा बहुयं वा सुयं अहिज्जिस्सामि ? २. कया णं अहं एकल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरिस्सामि ? ३. कया णं अहं अपच्छिममारणंतियसलेहणा-झूसणा-झूसिते भत्तपाणपडियाइ क्खिते पायोवगते कालं प्रणबकं खमाणे विहरिस्सामि ? एवं समणसा सवयसा सकायसा पागडेमाणे समणे निग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति । ३/४६६ साधना का तारतम्य चत्तारि णिग्गंथा पण्णता, तं जहा१. रातिणिए समणे णिग्गंथे महाकम्मे, महाकिरिए अणायावी असमिते धम्मस्स प्रणाराधए भवति, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ चित्त-समाधि : जैन योग २. रातिणिए समणे णिग्गंथे अप्पकम्मे अप्पकिरिए आतावी समिए घम्मस्स श्राराहए भवति, ३. ओमरातिणिए समणे णिग्गंथे महाकम्मे महाकिरिए अणातावी प्रसमिते धम्मस्स णाराह भवति, ४. ओमरातिणि समणे णिग्गंथे अप्पकम्मे अप्पकिरिए श्रातावी समिते धम्मस्स राह भवति । ४/४२६ प्रतिमा - चत्तारि पडिमा पण्णत्तात्र, तं जहा – समाहिपडिमा उवहाणपडिमा विवेगपडिमा विउस्सग्गपडिमा । ४ / ८६ चत्तारि पडिमात्र पण्णत्ताप्रो, तं जहा भद्दा, सुभद्दा, महाभद्दा, सव्वतोभद्दा | ४ / ६७ चत्तारि पडिमा पण्णत्ताप्रो, त जहा -- खुड्डियामोयपडिमा महल्लियामोयपडिमा, जवमज्झा, वइरमज्झा | ४ / १८ गरातियं भिक्खुपडिमं सम्मं श्रणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तम्रो ठाणा हिता सुभाए प्रखमाए अणिस्सेयसाए प्रणाणुगामियत्ताए भवंति तं जहा - उम्मायं वालभिज्जा, दीहकालियं वा रोगातंक पाउणेज्जा, केवलीपण्णत्ताओ वा धम्माश्री भंसेज्जा । ३ / ३८८ एराति भिक्खुपडिमं सम्मं प्रणुपालेमाणस्स अणगारस्स तो ठाणा हिताए सुभाए खमाए णिस्सेसाए प्रणुगामियत्ताए भवति, तं जहा - प्रोहिणा वा से समुप्पज्जेज्जा, मणपज्जवणाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, केवलणाणे वा से समुप्पज्जेज्जा | ३/३८६ श्रात्मवान् श्रनात्मवान् छठाणा अणत्तवप्रो अहिताए असुभाए श्रखमाए अणीसेसाए अणाणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा—परियाए, परियाले, सुते, तवे, लाभे, पूयासक्कारे । ६/३२ 1 छाणात्तवतो हिताए सुभाए खमाए णीसेसाए अणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा --- परियार, परियाले, सुते, तवे, लाभे, पूयासक्कारे । ६ / ३३ शस्त्र सविधे सत्थे पण्णत्ते, तं जहा सत्थमग्गी विसं लोणं, सिणेहो खारमंबिलं । दुप्पउत्तोमो वाया, काम्रो भावो य प्रविरति । १० / ९३ कथा ५ च उव्विहा कहा पण्णत्ता, तं जहा - प्रक्खेवणी, विक्खेवणी, संवेयणी, दणी । ४/२४६ णिव्वे. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं अक्खेवणी कहा चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा–प्रायारअक्खेवणी, ववहारप्रक्खेवणी, पण्ण त्तिप्रक्खेवणी, दिट्टिवातप्रक्खेवणी । ४/२४७ विक्खेवणी कहा चउम्विहा पण्णत्ता, तं जहा—ससमयं कहेइ, ससमयं कहित्ता परसमयं कहेइ, परसमयं कहेत्ता ससमयं ठावइता भवति, सम्मावयं कहेइ, सम्मावायं कहेत्ता मिच्छावायं कहेई, मिच्छावायं कहेत्ता सम्मावायं ठावइता भवति । ४/२४८ संवेयणी कहा चउन्विहा पण्णत्ता, तं जहा- इहलोगसंवेयणी, परलोगसंवेयणी, मातसरीरसंवेयणी, परसरीरसंवेयणी । ४/२४६ णिब्वेदणी कहा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा१. इहलोगे दुच्चिण्णा कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति, २. इहलोगे दुच्चिण्णा कम्मा परलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति, ३. परलोगे दुच्चिण्णा कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजत्ता भवंति, ४. परलोगे दुच्चिण्णा कम्मा परलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति । १. इहलोगे सुचिण्णा कम्मा इहलोगे सुहफल विवागसंजुत्ता भवंति, २. इहलोगे सुचिण्णा कम्मा परलोगे सुहफल विवागसंजुत्ता भवंति, ३. परलोगे सुचिण्णा कम्मा इहलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति, ४. परलोगे सुचिण्णा कम्मा परलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति । ४/२५० मात्मरक्षक तमो प्राय रक्खा पण्णत्ता, तं जहा—धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएत्ता भवति तुसिणीए वा सिया, उद्वित्ता वा प्राताए एगंतमंतमवक्कमेज्जा। ३/३४८ समाधिमरण ___दो मरणाइ समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णियाई णिच्चं कित्तियाइ णिच्चं बुइयाइ णिच्चं पसत्थाई णिचं अब्भणुण्णाताई भवंति, तं जहा—पाओवगमणे चेव, भत्तपच्चक्खाणे चेव । २/४१४ ___ पापोवगमणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—णीहारिमे चेव, अणीहारिमे चेव । णियमं अपडिकम्मे । २/४१५ भत्तपच्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—णीहारिमे चेव, अणीहारिमे चेव । णियमं सपडिकम्मे । २/४१६ निर्याण-मार्ग पंचविधे जीवस्स५ णिज्जाणमग्गे पण्णत्ते, तं जहा—पाएहिं, उरूहि उरेणं, सिरेणं, सव्वंगेहिं । पाएहिं णिज्जायमाणे गिरयगामी भवति, उरूहिं णिज्जायमाणे तिरियगामी Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ चित्त-समाधि : जैन योग भवति, उरेणं णिज्जायमाणे मणुयगामी भवति, सिरेणं णिज्जायमाणे देवगामी भवति, सव्वंगेहिं णिज्जायमाणे सिद्धिगतिपज्जवसाणे पण्णत्ते । ५/२१४ अंतक्रिया चत्तारि५६ अंतकिरियानो पण्णत्तानो, तं जहा१. तत्थ खलु इमा पढमा अंत किरिया- अप्पकम्मपच्चायाते यावि भवति । से ण मुंडे भवित्ता अगारासो अणगारियं पव्वइए संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले लूहे तीरट्ठी उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी। तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवति, णो तहप्पगारा वेयणा भवति । तहप्पगारे पुरिसज्जाते दीहेणं परियाएणं सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिणिव्वाति सव्वदुक्खाणमंतं करेइ, जहा-से भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी-पढमा अंतकिरिया। २. अहावरा दोच्चा अंतकिरिया–महाकम्मपच्चायाते यावि भवति । से णं मुंडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पव्वइए संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले लूहे तीरट्ठी उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी। तस्स णं तहप्पगारे तवे भवति, तहप्पगारा वेयणा भवति । तहप्पगारे पुरिसजाते णिरुद्धणं परियाएणं सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिणिव्वाति सव्वदुक्खाणमंतं करेति, जहा-से गयसूमाले अणगारे—दोच्चा अंत किरिया। ३. अहावरा तच्चा अंतकिरिया–महाकम्मपच्चायाते यावि भवति । से णं मुंडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पव्वइए संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले लूहे तीरट्ठी उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी । तस्स णं तहप्पगारे तवे भवति, तहप्पगारा वेयणा भवति। तहप्पगारे पुरिसजाते दीहेणं परियाएणं सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिणिव्वाति सव्वदुक्खाणमंतं करेति, जहा--से सणंकुमारे राया चाउरंतचक्कवट्टी—तच्चा अंतकिरिया । ४. प्रहावरा चउत्था अंतकिरिया--अप्पकम्मपच्चायाते यावि भवति । से णं मुंडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं पव्वइए संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले लूहे तीरट्ठी उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी। तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवति, णो तहप्पगारा वेयणा भवति । तहप्पगारे पुरिसजाए णिरुद्धणं परियाएणं सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिणिव्वाति सव्वदुक्खाणमंतं करेति, जहा-सा मरुदेवा भगवती–च उत्था अंतकिरिया। ४/१ छद्मस्थ और केवली सत्तहिं ठाणेहि छउमत्थं जाणेज्जा, तं जहा—पाणे अइवाएत्ता भवति । मुसं वइत्ता भवति । अदिण्णं आदित्ता भवति । सद्दफरिसरसरूवगंधे प्रासादेत्ता भवति पूयासक्कारं अणुव्हेत्ता भवति । इमं सावज्जति पण्णवेत्ता पडिसेवेत्ता भवति । णो जहावादी तहाकारी यावि भवति । ७/२८ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं ___ सत्तहिं ठाणेहिं केवली जाणेज्जा, तं जहा–णो पाणे अइवाइत्ता भवति। णो मुसं वइत्ता भवति । णो अदिण्णं श्रादित्ता भवति । णो सद्दफरिसरसरूवगंधे प्रासादेत्ता भवति । णो पूयासक्कारं अणुवू हेत्ता भवति । इमं सावज्जति पण्णवेत्ता णो पडिसेवेत्ता भवति । जहावादी तहाकारी यावि भवति । ७/२६ सत्त ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण याणति ण पासति, तं जहा-धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, पागासत्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं सइं, गंधं । एयाणि चेव उप्पण्णणाणं दंसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणति पासति, तं जहा-धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं, सई, गंध । ७/७८ दस ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण जाणति ण पामति, तं जहा-धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, जीवं असरीरपाडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं, सई, गंधं, वातं, अयं जिणे भविस्सति वा ण वा भविस्सति, अयं सव्वदुक्खाणमंतं करेस्सति वा ण वा करेस्सति । एताणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणइ पासइ-- धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, पागासस्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं, सद, गंध, वातं, अयं जिणे भविस्सति वा ण वा भविस्सति, अयं सव्वदुक्खाणमंतं करेस्सति वा ण वा करेस्सति । १०/१०६ छ ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण जाणति ण पासति, तं जहा-धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आयासं, जीवमसरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं, सदं । एताणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली ५ सव्वभावेणं जाणति पा सति, तं जहा–धम्म त्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, प्रायासं, जीवमसरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं, सई । ६/४ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रतीन्द्रिय-ज्ञान ० श्रतीन्द्रिय-ज्ञान • कृश और दृढ़ प्रतीन्द्रिय-ज्ञान • चक्षुष्मान् • श्रवधिज्ञान रुक जाता है ० चक्षु • देशतः सर्वतः Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं अतीन्द्रिय-ज्ञान चउहि ठाणेहि णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अस्सि समयंसि अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जिउकामेवि ण समुप्पज्जेज्जा, तं जहा १. अभिक्खणं-अभिक्खणं इथिकहं भत्तकहं देसकहं रायकहं कहेता भवति, २.५८विवेगेण विउस्सग्गेणं णो सम्ममप्पाणं भाविता भवति, ३. पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि णो धम्मजागरियं जागरइत्ता भवति, ४. फासुयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स सामुदाणियस्स णो सम्म गवेसित्ता भवति इच्चेतेहिं चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अस्सि समयं सि अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जिउकामेवि णो समुप्पज्जेज्जा । ४/२५४ चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा (अस्सि समयसि ?) अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जि उकामे समुप्पज्जेज्जा, तं जहा १. इत्थिकहं भक्तकहं देसकहं रायकहं णो कहेता भवति, २. विवेगेण वि उस्सगेणं सम्ममप्पाणं भावेत्ता भवति, ३. पुव्वरत्तावरत्तकाल समयंसि धम्मजागरियं जागरइत्ता भवति, ४. फासुयस्स एसणिज्जस्स उछस्स सामुदाणियस्स सम्म गवेसित्ता भवति इच्चेतेहिं चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा (अस्सि समयंसि ?) प्रतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जि उकामे समुप्पज्जेज्जा । ४/२५५ कृश और दृढ़ प्रतीन्द्रिय-ज्ञान चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं जहा—किसे णाममेगे किसे, किसे णाममेगे दढे, दढे णाममेगे किसे, दढे णाममेगे दढे । ४/२५१ चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—किसे णाममेगे किससरीरे, किसे णाममेगे दढसरीरे, दढे णाममेगे किससरीरे, दढे णाममेगे दढसरीरे । ४/२५२ ५चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—किससरीरस्स णाममेगस्स णाणदंसणे समुप्पज्जति, णो दढसरीरस्स, दढसरीरस्स णाममेगस्स गाणदंसणे समुप्पज्जति, णो किससरीरस्स, एगस्सकिससरी रस्सवि णाणदंसणे समुप्पज्जति, दढसरीरस्सवि, एगस्स णो किससरीरस्स णाणदंसणे समुप्पज्जति, णो दढसरीरस्स । ४/२५३ चक्षुष्मान तिविहे चक्खू पण्णत्ते, तं जहा–एगवक्खू, बिचक्खू, तिचक्खू । छउमत्थे णं Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग मणस एगचक्खू, देवे बिचक्खू, तहारूवे समणे वा माहणे वा उप्पण्णणाणदंसणधरे तिचक्खुत्ति वत्तव्वं सिया। ३/४६६ अवधिज्ञान रुक जाता है ____ पंचहिं ठाणेहिं ओहिदसणे समुप्पज्जिउकामेवि तप्पढमयाए खंभाएज्जा, तं जहा १. अप्पभूतं वा पुढवि पासित्ता तप्पढमयाए खंभाएज्जा। २. कुंथुरासिभूतं वा पुढवि पासित्ता तप्पढमयाए खंभाएज्जा । ३. महतिमहालयं वा महोरगसरीरं पासित्ता तप्पढमयाए खंभाएज्जा । ४. देवं वा महिड्ढियं महज्जुइयं महाणुभागं महायसं महाबलं महासोक्खं पासित्ता तप्पढमयाए खंभाएज्जा। ५. पुरेसु वा पोराणाइं उरालाई महतिमहालयाई महाणिहाणाइं पहीणसामियाई पहीणसेउयाइं पहीणगुत्तागाराइं उच्छिण्णसामियाई उच्छिण्णसेउयाई उच्छिण्णगुत्तागाराइं जाइं इमाइं गामागर-णगरखेड-कब्बड-मडंब-दोणमुहपट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु णगर-णिद्धमणेसु सुसाण-सुण्णागार-गिरिकंदर-संति-सेलोवट्ठावण-भवणगिहेसु संणिक्खित्ताइं चिट्ठति, ताई वा पासित्ता तप्पढमयाए खंभाएज्जा। इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं प्रोहिदंसणे समुप्पज्जिउकामे तप्पढमयाए खंभाएज्जा । पंचहिं ठाणेहिं केवलवरणाणदंसणे समुप्पज्जिउकामे तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा तं जहा १. अप्पभूतं वा पुढवि पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा । २. कुंथुरासिभूतं वा पुढवि पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा। ३. महतिमहालयं वा महोरगसरीरं पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा । ४. देवं वा महिड्ढियं महज्जुइयं महाणुभाग महायसं महाबलं महासोक्खं पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा। ५. पुरेसु वा पोराणाइं उरालाई महतिमहालयाई महाणिहाणाई पहीणसामियाई । पहीणसे उयाइं पहीणगुत्तागाराइं उच्छिण्णसामियाइं उच्छिण्णसेउयाई उच्छिण्णगुत्तागाराइं जाइं इमाइं गामागर-णगरखेड-कब्बड-मडंब-दोणमुहपट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु सिंघाडग-तिग-च उक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु णगरणिद्धमणेसु सुसाण-सुण्णागार-गिरिकंदर-संति-से लोवट्ठावण-भवणगिहेसु सण्णिक्खित्ताई चिट्ठ ति, ताई वा पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं एज्जा । इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं केवलवरणाणदंसणे समुप्पज्जिउकामे तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा । ५/२२ देशतः सर्वतः दोहिं ठाणेहिं पाया६२ अहे नोगं जाणइ पासइ, तं जहा१. समोहतेणं चेव अप्पाणेणं आया अहेलोगं जाणइ पासइ, २. असमोहतेणं चेव अप्पाणेणं आया अहे लोगं जाणइ पासइ । १, २. आहोहि समोहतासमोहतेणं चेव अप्पाणेणं आया अहेलोगं जाणइ पासइ । २/१६३ दोहिं ठाणेहिं पाया तिरियलोगं जाणइ पासइ, तं जहा१. समोहतेणं चेव अप्पाणेणं आया तिरियलोगं जाणइ पासइ, २. असमोहतेणं चेव अप्पाणेणं पाया तिरियलोग जाणइ पासइ, १, २. आहोहि समोहतासमोहतेणं चेव अप्पाणेणं पाया तिरियलोगं जाणइ पासइ । २/१९४ दोहिं ठाणेहिं पाया उड्ढलोगं जाणइ पासइ, तं जहा-- १. समोहतेणं चेव अप्पाणेणं आया उड्ढ लोगं जाणइ पासइ, २. असमोहतेणं चेव अप्पाणेणं आया उड्ढलोगं जाणइ पासइ, १, २. आहोहि समोहतासमोहतेणं चेव अप्पाणेणं आया उड्ढ नोगं जाणइ पासइ । २/१६५ दोहिं ठाणेहिं आया केवलकप्पं लोगं जाणइ पासइ, तं जहा१. समोहतेणं चेव अप्पाणेणं आया केवलकप्पं लोगं जाणइ पासइ, २. असमोहतेणं चेव अप्पाणेणं पाया केवलकप्पं लोगं जाणइ पासइ, १, २. पाहोहि समोहतासमोहतेणं चेव अप्पाणेणं पाया केवलकप्पं लोगं जाणइ पासइ । २/१६६ दोहिं ठाणेहिं पाया अहेलोगं जाणइ पासइ, तं जहा१. विउवितेणं चेव अप्पाणेणं अाता अहे लोगं जाणइ पासइ, २. अविउवितेणं चेव अप्पाणेणं पाता अहेलोगं जाणइ पासइ, १, २. पाहोहि विउव्वियाविउवितेणं चेव अप्पाणेणं आता अहेलोगं जाणइ पासइ । २/१६७ दोहिं ठाणेहि आता तिरिय लोगं जाणइ पासइ, तं जहा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ चित्त-समाधि : जैन योग १. विव्वितेणं चेव अप्पाणेणं आता तिरियलोगं जाणइ पासइ, २. अबिउब्विणं चैव प्रप्पाणेण श्राता तिरियलोग जाणइ पासई, १, २. प्राहोहि विउब्वियाविउब्वितेणं चेव अप्पाणेणं आता तिरियलोगं जाणइ पासइ | २/१९८ दोहि ठाणेहिं प्राता उड्ढलोगं जाणइ पासइ, तं जहा १. विउव्वितेणं चेव अप्पाणेणं आता उड्ढलोगं जाणइ पासइ, २. अविउब्विणं चेव अप्पाणेणं आता उड्ढलोग जाणइ पासइ, १, २. होहि विउब्वियाविउब्वितेणं चेव अप्पाणेणं श्राता उड्ढलोगं जाणइ पासइ । २ / १९६ दोहि ठाणेहि आता केवलकप्पं लोगं जाणइ पासइ, तं जहा१. विउव्वितेणं चेव अप्पाणेणं आता केवलकप्पं लोगं जाणइ पासइ, २. अविउव्वितेणं चेव प्रप्पाणेणं आता केवलकप्पं लोगं जाणइ पासइ, १ २. प्राहोहि विउब्वियाविउब्वितेणं चेव अप्पाणेण श्राता केवलकप्पं लोगं जाणइ पास | २/२०० -- Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धि और ऋद्धि • संभिन्नश्रोतोलब्धि ० तेजोलब्धि ० विक्रिया Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EX चित्त-समाधि : जैन योग "संभिन्नश्रोतोलब्धि दोहि ठाणेहिं पाया सद्दाइं सुणेति, तं जहा–देसेणवि आया सद्दाइं सुणेति, सम्वेणवि पाया सद्दाइं सुणेति । २/२०१ दोहिं ठाणेहिं आया रूवाइं पासइ, तं जहा—देसेणवि आया रूवाइं पासइ, सव्वेणवि पाया रूवाई पासइ । २/२०२ दोहिं ठाणेहिं पाया गंधाई अग्घाति, तं जहा—देसेणवि पाया गंधाइं अग्घाति, सव्वेणवि पाया गंधाई अग्घाति । २/२०३३ दोहिं ठाणेहिं पाया रसाइं प्रासादेति, तं जहा—देसेणवि पाया रसाइं आसादेति, सव्वेणवि आया रसाइं प्रासादेति । २/२०४ दोहिं ठाणेहिं पाया फासाई पडिसंवेदेति, तं जहा—देसेणवि आया फासाइं पडिसंवेदेति, सव्वेणवि आया फासाइं पडिसंवेदेति । २/२०५ दोहि ठाणेहिं पाया प्रोभासति, तं जहा–देसेणवि आया अोभासति, सव्वेणवि प्राया प्रोभासति । २/२०६ एवं पभासति, विकुव्वति, परियारेति, भासं भासति, आहारेति, परिणामेति, वेदेति, णिज्जरेति । २/२०७ तेजोलब्धि तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे संखित्तविउलतेउलेस्से भवति, तं जहा-पायावणताए, खंतिखमाए, अपाणगेणं तवोकम्मेणं । ३/३८६ विक्रिया तिविहा "विकुव्वणा पण्णत्ता, तं जहा--बाहिरए पोग्गलए परियादित्ता-एगा विकुव्वणा, बाहिरए पोग्गले अपरियादित्ता-एगा विकुव्वणा, बाहिरए पोग्गले परियादित्तावि अपरियादित्तावि-एगा विकुष्वणा। ३/४ तिविहा विकुब्वणा पण्णत्ता, तं जहा–अभंतरए पोग्गले परियादित्ता-एगा विकुव्वणा, अभंतरए पोग्गले अपरियादित्ता–एगा विकुव्वणा, अब्भंतरए पोग्गले परियादित्तावि अपरियादित्तावि-एगा विकुव्वणा । ३/५ । तिविहा विकुम्वणा पण्णत्ता, तं जहा—बाहिरब्भंतरए पोग्गले परियादित्ता-एगा विकुव्वणा, बाहिरभंतरए पोग्गले अपरियादित्ता—एगा विकुव्वणा, बाहिरभंतरए पोग्गले परियादित्तावि अपरियादित्तावि-एगा विकुब्वणा । ३/६ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ-धर्म ० संकल्प प्राश्वास • अणुव्रत • साधना का तारतम्य Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग संकल्प तिहिं ठाणेहिं समणोवासए महाणिज्जरे महापज्जवसाण भवति, तं जहा१. कया णं अहं अप्पं वा बहुयं वा परिग्गहं परिचइस्सामि ? २. कया णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारितं पव्वइस्सामि ? ३. कया णं अहं अपच्छिममारणंतियसंलेहणा-झूसणा-झूसिते भत्तपाणपडियाइक्खिते पामोवगते कालं अणवकंखमाणे विहरिस्सामि ? एवं समणसा सवयसा सकायसा पागडेमाणे समणोवासए महाणिज्जरे महापज्जव साणे भवति । ३/४६७ प्राश्वास भारणं वहमाणस्स चत्तारि पासासा पण्णत्ता, तं जहा१. जत्थ णं अंसानो अंसं साहरइ, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते, २. जत्थवि य णं उच्चारं वा पासवणं वा परिट्ठवेति, तत्थवि य से एगे प्रासासे पण्णत्ते, ३. जत्थवि य णं णागकुमारावासंसि वा सुवण्णकुमारावासंसि वा वासं उवेति, तत्थवि य से एगे प्रासासे पण्णत्ते ४. जत्यवि य णं आवकहाए चिट्ठति, तत्थवि य से एगे पासासे पण्णत्ते । एवामेव समणोवासगस्स चत्तारि पासासा पण्णत्ता, तं जहा१. जत्थवि य णं सीलव्वत-गुणव्वत-वेरमणं-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं पडिवज्जति, तत्थवि य से एगे पासासे पण्णत्ते, २. जत्थवि य णं सामाइयं देसावगासियं सम्ममणुपालेइ, तत्थवि य से एगे प्रासासे पण्णत्ते, ३. जत्थवि य णं चाउद्दसट्ठमुट्ठिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेइ, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते, ४. जत्थवि य णं अपच्छिममारणंतियसलेहणा-झूसणा-झूसिते भत्तपाणपडियाइक्खिते पामोवगते कालमणवकंखमाणे विहरति, तत्थवि य से एगे प्रासासे पण्णत्ते । ४/३६२ प्रणुव्रत पंचाणुध्वया पण्णत्ता, तं जहा–थूलाग्रो पाणाइवायाप्रो वेरमणं, थूलामो मुसावयाप्रो Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणे वेरमणं, थूलामो प्रदिण्णादाणाम्रो वेरमणं, सदारसंतोसे, इच्छापरिमाणे । ५ / २ साधना का तारतम्य १. चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा - राइणिए समणोवासए महाकम्मे हारिणायावी प्रसमिते घम्मस्स प्रणाराघए भवति, २. राइणिए समणोवासए अप्पकम्मे अप्पकिरिए प्रातावी समिए धम्मस्स प्रराहए भवति, १७ ३. प्रोमराइणिए समणोवासए महाकम्मे महाकिरिए अणातावी प्रसमिते घम्मस्स अणाराहए भवति, ४. मराइणिए समणोवासए अप्पकम्मे प्रप्यकिरिए प्रातावी समिते धम्मस्स आहए भवति । ४/४२८ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य • प्राचार्य की महता ० प्राचार्य गण की ऋद्धि • पांच व्यवहार ० दिशाबोध • दुष्प्रतिकार Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं श्राचार्य की श्रर्हता छह ठाणेहि संपणे अणगारे प्ररिहति गणं धारितए, तं जहा - सड्ढी पुरिसजाते, सच्चे पुरिसजाते, मेहावी पुरिसजाते, बहुस्सुते पुरिसजाते, सत्तिमं प्रप्पाधिकरणे । ६ / १ श्राचार्य चत्तारि रुक्खा पण्णता, तं जहा - साले णाममेगे सालपरियार, साले णाममेगे एरंडपरियाए, एरंडे णाममेगे सालपरियाए एरंडे णाममेगे एरंडपरियाए । एवामेव चत्तारि प्रायरिया पण्णत्ता, तं जहा - साने णाममेगे सालपरिवाए, साले णाममेगे एरंड - परियार, एरंडे णाममेगे सालपरियार, एरंडे णाममेगे एरंडपरियाए । ४ / ५४२ चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा - साले णाममेगे सालपरिवारे, साले णाममेगे एरंडपरिवारे, एरंडे णाममेगे मानपरिवारे, एरंडे णाममेगे एरंडपरिवारे । एवामेव चत्तारि प्रायरिया पण्णत्ता, तं जहा – पाले णाममेगे सालपरिवारे, साले णाममेगे एरंडपरिवारे, एरंडे णाममेगे सालपरिवारे, एरंडे णाममेगे एरंडपरिवारे । संग्रहणी - गाहा १. सालदुममज्झयारे, जह सालेणाम होइ दुमराया । इय सुंदररिए, सुंदरसीसे मुणेयव्वे ॥ २. एरंडमज्झयारे, जह साले णाम होइ दुमराया । सुंदररिए, मंगलसीसे मुणेयव्वे || ३. सालदुममज्झयारे, एरंडे णाम होइ दुमराया । इय मंगुलारिए, सुंदरसीसे मुणेयव्वे || ६६ ४. एरंडमज्झयारे, एरंडे णाम होइ दुमराया । इय मंगुलारिए, मंगुलसीसे मुणेयव्वे ॥ ४ / ५४३ चत्तारि फला पण्णत्ता, तं जहा प्रामलगमहुरे, मुद्दियामहुरे, खीरमहुरे, खडमहुरे । एवामेव चत्तारि प्रायरिया पण्णत्ता, तं जहा - ग्रामलगमहुरफल समाणे, मुद्दिया महुरफलसमाणे, खीरमहुरफलसमाणे, खंडमहुरफलसमाणे । ४/४११ गण की ऋद्धि गणिढी तिवा पण्णत्ता, तं जहा - णाणिड्ढी, दंसणिड्ढी, चरित्तिड्ढी | हवागणड्ढी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - सचित्ता, प्रचित्ता मीसिता । ३/५०४ पांच व्यवहार "पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा ग्रागमे, सुते, ग्राणा, धारणा, जीते । जहा से Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० चित्त-समाधि : जैन योग तत्थ प्रागमे सिया, प्रागमेणं ववहारं पट्ठवेज्जा । णो से तत्थ प्रागमे सिया जहा से तत्थ सुते सिया, सुतेणं ववहारं पट्ठवेज्जा । णो से तत्थ सुते मिया जहा से तत्थ प्राणा सिया, प्राणाए ववहारं पट्टवेज्जा। णो से तत्थ आणा सिया जहा से तत्थ धारणा सिया, धार. णाए ववहारं पट्टवेज्जा । णो से तत्थ धारणा सिया जहा से तत्थ जीते सिया, जीतेणं ववहारं पट्ठवेज्जा। इच्चेतेहिं पंचहिं ववहारं पट्ठवेज्जा–आगमेणं सुतेणं आणाए धारणाए जीतेणं । जधा-जधा से तत्थ प्रागमे सुते आणा धारणा जीते तधा-तधा ववहारं पट्ठवेज्जा । से किमाहु भंते ! आगमवलिया समणा णिग्गंथा ? इच्चेतं पंचविधं ववहारं जया-जया जहिं-जहिं तया-तया तहि-तहिं अणिस्सितोवस्सितं सम्मं ववहरमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराधए भवति । ५/१२४ दिशाबोध दो दिसाम्रो अभिगिज्झ कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पव्वावित्तए-पाईणं चेव, उदीणं चेव । २/१६७ "दो दिसाम्रो अभिगिज्झ कप्पति णिग्णंथाण वा णिग्गंथीण वा-मुंडावित्तए सिक्खावित्तए उवट्ठावित्तए संभुंजित्तए संवासित्तए सज्झायमुद्दिसित्तए सज्झायं समुद्दिसित्तए सज्झायमणुजाणित्तए आलोइत्तए पडिक्कमित्तए णिदित्तए गरहित्तए विउट्टित्तए विसोहित्तए प्रकरणयाए अब्भुद्वित्तए अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जित्तए-पाईणं चेव, उदीणं चेव । २/१६८ दो दिसाम्रो अभिगिज्झ कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अपच्छिममारणं तियसंलेहणा-जूसणा-जूसियाणं भत्ताणपणियाइक्खिताणं पायोवगताणं कालं अणक्कंखमाणाणं विहरित्तए, तं जहा—पाईणं चेव, उदीणं चेव । २/१६६ दुष्प्रतिकार तिण्हं दुप्पडियारं समणाउसो ! तं जहा—अम्मापिउणो, भट्टिस्स, धम्मायरियस्स । १. संपातोवि य णं केइ पुरिसे अम्मापियरं सयपागसहस्सपागेहि तेल्लेहिं अब्भंगेत्ता, सुरभिणा गंधट्टएणं उन्नट्टित्ता, तिहिं उदगेहिं मज्जावेत्ता, सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता, मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं भोयणं भोयावेत्ता जावज्जीवं पिट्ठिवडेंसियाए परिवहेज्जा, तेणावि तस्स अम्मापिउस्स दुप्पडियारं भवइ । अहे णं से तं अम्मापियरं केवलिपण्णत्ते धम्मे प्राघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता ठावइता भवति, तेणामेव तस्स अम्मापिउस्स सुप्पडियारं भवति समणाउसो ! २. केइ महच्चे दरिदं समुक्कसेज्जा । तए णं से दरिद्दे समुक्किठे समाणे पच्छा पुरं चणं विउल भोगसमितिसमण्णागते यावि विहरेज्जा। तए णं से महच्चे अण्णया कयाइ दरिद्दीहूए समाणे तस्स दरिदस्स अंतिए हव्वमागच्छेज्जा । तए णं से दरिद्दे तस्स भट्टिस्स सव्वस्समवि दलयमाणे तेणावि तस्स दुप्पडियारं भवति । अहे णं से तं भट्टि केवलिपण्णते धम्मे प्राधवइत्ता पण्णवइत्ता परूव Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं इता ठावइता भवति, तेणामेव तस्स भट्टिस्स सुप्पडियारं भवति ( समणाउसो ! ? ) । ७१ ३. केति तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि प्ररियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा णिसम्म कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णे । तए गं से देवे तं धम्मायरियं दुब्भिवखाओ वा देसाप्रो सुभिक्खं देसं साहरेज्जा, कंतारानो वा णिक्कतारं करेज्जा, दीहकालिएणं वा रोगातंकेणं अभिभूतं समाणं विमोएज्जा, तेणावि तस्स धम्मायरियस्स दुप्पडियारं भवति । ग्रहे णं से तं धम्मायरियं केवलिपण्णत्ताश्रो धम्माम्रो भट्ठ समाणं भुज्जोवि केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्णवइत्ता परुवइत्ता ठावइता भवति, तेणामेव तस्स घम्मायरियस्स सुप्पडियारं भवति ( समणाउसो ! ? ) । ३/८७ टिप्पण १. क्रोध की उत्पत्ति के निमित्तों के विषय में वर्तमान मनोविज्ञान की जानकारी जितनी आकर्षक है, उतनी ही ज्ञानवर्धक है । कुछ प्रयोगों का विवरण इस प्रकार हैव्यक्ति जो कुछ भी करता है, वह चेतन अथवा अवचेतन मस्तिष्क के निर्देश पर ही होता है । साधारणतया हम जब भी मस्तिष्क की बात करते हैं, हमारा तात्पर्य चेतन मस्तिष्क से ही होता है, तार्किक बुद्धि से । पर क्रोध और हिंसा के बीज इस चेतन मस्तिष्क से नीचे कहीं और गहरे हुआ करते हैं । वैज्ञानिकों का कहना है कि चेतन मस्तिष्क-सैरेबियन कोरटेक्स तो मस्तिष्क के सबसे ऊपर की परत है, जो मनुष्य के विकास की अभी हाल की घटना है। इसके बहुत नीचे 'आदिम मस्तिष्क' है— हिंसा और क्रोध की जन्मभूमि । और वैज्ञानिकों का यह कथन जानवरों पर किये गये अनेकानेक परीक्षणों का परिणाम है । मस्तिष्क के वे विशेष बिन्दु खोजे जा चुके हैं, जहां क्रोध का जन्म होता है । इस दिशा में प्रयोग करने वालों में डाक्टर जोस एम० प्रार० डेलगाडो अग्रणी हैं । उन्होंने अपने परीक्षणों द्वारा दूर शांत बैठे बन्दरों को विद्युतधारा से उनके उन विशेष बिन्दुों को छूकर लड़वाकर दिखला दिया है। सचमुच, यह सब जादू का सा लगता है । कल्पना कीजिये -सामने एक बड़े से पिंजड़े में एक बन्दर बैठा केला खा रहा है और आप बिजली का बटन दबाते हैं—अरे यह क्या, बन्दर तो केला छोड़कर पिंजड़े की सलाखों पर झपट पड़ा है। दांत किटकिटा रहा है। हाँ, हिंसक हो गया है । और यह प्रयोग डाक्टर डेलगाडो ने मस्तिष्क के उस विशेष बिन्दु को विद्युत्धारा द्वारा उत्तेजित करके किया है । यही क्यों, उनके सांड वाले प्रयोग ने तो कमाल ही कर दिखाया था । क्रोधित सांड उनकी ओर झपटा और उन तक पहुंचने से पहले ही शांत होकर रुक गया । उन्होंने विद्युतधारा से सांड का क्रोध शांत कर दिया था । पर आदमी जानवर से कुछ भिन्न होता है । 'हम तभी हिंसक होते हैं, जब हम Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ चित्त-समाधि : जैन योग हिंसक होना चाहते हैं ।' क्योंकि साधारण स्थितियों में ही हम अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हैं। पर कुछ लोगों का यह नियंत्रण काफी कमजोर होता है। प्रसिद्ध मनोविज्ञानशास्त्री डाक्टर इविन तथा डाक्टर मार्क के अनुसार, 'ऐसे व्यक्तियों के मस्तिष्क के आदिम हिस्से में कुछ विशेष घटता रहता है।' २. प्राभोगनिर्वतित- जो मनुष्य क्रोध के विपाक आदि को जानता हुआ क्रोध करता है, उसका क्रोध आभोगनिर्वतित कहलाता है। यह स्थानांग के वृत्तिकार अभयदेव सूरि की व्याख्या है। प्राचार्य मलय गिरि ने इसकी व्याख्या भिन्न प्रकार से की है। उनके अनुसार-एक मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य के अपराध को भलीभांति जान लेता है । उन्हें अपराध मुक्त करने के लिये वह सोचता है कि सामने वाला व्यक्ति नम्रता-पूर्वक कहने से मानने वाला नहीं है। उसे क्रोधपूर्ण मुद्रा ही पाठ पढ़ा सकती है। इस विचार से वह जान-बूझकर क्रोध करता है। इस प्रकार का क्रोध आभोगनिवर्तित कहलाता है। प्राचार्य मलयगिरि की व्याख्या अधिक स्पष्ट और हृदयग्राही है। इसकी व्याख्या अन्य नयों में भी की जा सकती है। कोई मनुष्य अपने विषय में किसी दूसरे के द्वारा किये गए प्रतिकल व्यवहार को नहीं जान लेता तब तक उसे क्रोध नहीं पाता। उसकी यथार्थता जान लेने पर उसके मन में क्रोध उभर आता है। यह प्राभोगनिर्वर्तित क्रोध है -स्थिति का यथार्थ बोध होने पर निष्पन्न होने वाला क्रोध है। अनाभोगनिर्वर्तित क्रोध—जो मनुष्य क्रोध के विपाक आदि को नहीं जानता हुआ क्रोध करता है, उसका क्रोध अनाभोगनिर्वतित क्रोध कहलाता है। मलयगिरि के अनुसार--जो मनुष्य किसी विशेष प्रयोजन के बिना गुण-दोष के विचार से शून्य होकर प्रकृति की परवशता से क्रोध करता है, उसका क्रोध अनाभोगनिर्वतित क्रोध कहलाता है। कभी-कभी ऐसा भी घटित होता है कि कोई मनुष्य स्थिति की यथार्थता को नहीं जानने के कारण क्रुद्ध हो उठता है । कल्पना या संदेह जनित क्रोध इसी कोटि के होते हैं। कुछ लोगों को अपने वैभव आदि की पूरी जानकारी नहीं होती। फलतः वे घमंड भी नहीं करते। उसकी वास्तविक जानकारी प्राप्त होने पर उनमें अभिमान करने जैसा कुछ नहीं होता, फिर भी वे अपनी तुच्छ संपदा को बहुत मानते हुए अभिमान करते रहते हैं। उन्हें विश्व की विपुल संपदा का ज्ञान नहीं होता। ये दोनों प्रकार के अभिमान क्रमशः प्राभोगनिर्वतित और अनाभोगनिवर्तित होते हैं। ३. बौद्ध साहित्य में पत्थर, पृथ्वी और पानी की रेखा के समान मनुष्यों का वर्णन मिलता है। भिक्षुप्रो ! संसार में तीन तरह के आदमी हैं । कौन-सी तीन तरह के ? पत्थर पर खींची रेखा के समान प्रादमी, पृथ्वी पर खींची रेखा के समान प्रादमी, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं पानी पर खींची रेखा के समान आदमी। भिक्षुओ! पत्थर पर खींची रेखा के समान आदमी कैसा होता है ? भिक्षुत्रो ! एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका वह क्रोध दीर्घकाल तक रहता है, जैसेभिक्षुओ ! पत्थर पर खींची रेखा शीघ्र नहीं मिटती, न हवा से न पानी से, चिरस्थायी होती है, इसी प्रकार भिक्षुप्रो ! यहाँ एक प्रादमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका वह क्रोध दीर्घकाल तक रहता है । भिक्षुप्रो ! ऐसा व्यक्ति 'पत्थर पर खींची रेखा के समान प्रादमी' कहलाता है। भिक्षुग्रो ! पृथ्वी पर खिची रेखा के समान आदमी कैसा होता है ? भिक्षुत्रो ! एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका वह क्रोध दीर्घकाल तक नहीं रहता, जैसेभिक्षुप्रो ! पृथ्वी पर खींची रेखा शीघ्र मिट जाती है। हवा से या पानी से चिरस्थायी नहीं होती। इसी प्रकार भिक्षुत्रो ! यहाँ एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका क्रोध दीर्घकाल तक नहीं रहता। भिक्षुग्रो ! ऐसा व्यक्ति पृथ्वी पर खिंची रेखा के समान आदमी' कहलाता है। भिक्षुनो ! पानी पर खिंची रेखा के समान आदमी कैसा होता है ? भिक्षुत्रो ! कोई-कोई आदमी ऐसा होता है कि यदि कडुग्रा भी बोला जाय, कठोर भी बोला जाय, अप्रिय भी बोला जाय तो भी वह जुड़ा ही रहता है, मिला ही रहता है, प्रसन्न ही रहता है। जिस प्रकार भिक्षुग्रो ! पानी पर खिची रेखा शीघ्र विलीन हो जाती है, चिरस्थायी नहीं होती, इसी प्रकार भिक्षुप्रो ! कोई-कोई प्रादमी ऐसा होता है, जिसे यदि कडुवा भी बोला जाय, कठोर भी बोला जाय, अप्रिय भी बोला जाय तो भी वह जुड़ा ही रहता है, मिला ही रहता है, प्रसन्न ही रहता है । ४. अनन्तानुबन्धी कषाय के उदयकाल में सम्यक्-दर्शन प्राप्त नहीं होता । अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में व्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में महाव्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती। संज्वलन कषाय के उदयकाल में वीतरागता उपलब्ध नहीं होती। अनन्तानुबन्धी लोभ की कृमिरागरक्त वस्त्र से तुलना की गई है। वृद्ध सम्प्रदाय के अनुसार कृमिराग का अर्थ इस प्रकार है। मनुष्य का रक्त लेकर उसमें कुछ दूसरी वस्तुएं मिलाकर एक बर्तन में रख दिया जाता है। कुछ समय बाद उसमें कृमि उत्पन्न हो जाते हैं। वे हवा की खोज में घूमते हुए, छेदों से बाहर आकर लार छोड़ते हैं । उन्हीं (लारों) को कृमि-सूत्र कहा जाता है । वे स्वभाव से ही लाल होते हैं। दूसरा अभिमत यह है-रुधिर में जो कृमि उत्पन्न होते हैं, उन्हें वहीं मसलकर कचरे को उतार दिया जाता है। उसमें कुछ दूसरी वस्तुएं मिला उसे रञ्जक-रस (कृमिराग) बना लिया जाता है। ५. प्रस्तुत सूत्र में भावों की लिप्तता-अलिप्तता तथा मलिनता-निर्मलता का Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ चित्त-समाधि : जैन योग तारतम्य उदक के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। कर्दम के चिमटने पर उसे उतारना कष्टसाध्य होता है। खंजन को उतारना उससे अल्प कष्टसाध्य होता है। बालुका लगने पर जल के सूखते ही वह सरलता से उतर जाता है। शैल (प्रस्तरखंड) का लेप लगता ही नहीं। इसी प्रकार मनुष्य के कुछ भाव कष्टसाध्य लेप उत्पन्न करते हैं, कुछ अल्प कष्टसाध्य, कुछ सुसाध्य और कुछ लेप उत्पन्न नहीं करते।। कर्दमजल की अपेक्षा खंजनजल अल्प मलिन, खंजनजल की अपेक्षा बालुकाजल निर्मल और बालुकाजल की अपेक्षा शैलजल अधिक निर्मल होता है। इसी प्रकार मनुष्य के भाव भी मलिनतर, मलिन, निर्मल और निर्मलतर होते हैं। ६. इस सूत्र में सूत्रकार ने एक मनोवैज्ञानिक रहस्य का उद्घाटन किया है। एक समस्या दीर्घकाल से उपस्थित होती रही है कि क्रोध का सम्बन्ध मनुष्य के अपने मस्तिष्क से ही है या बाह्य परिस्थितियों से भी है। वर्तमान के वैज्ञानिक भी इस शोध में लगे हुये हैं। उन्होंने मस्तिष्क के वे बिन्दु खोज निकाले हैं, जहाँ क्रोध का जन्म होता है । डाक्टर जोस० एम० आर० डेलगाडो ने अपने परीक्षणों द्वारा दूर शान्त बैठे बंदरों के विद्युत्-धारा से उन विशेष बिन्दुओं को छूकर लड़वा दिया। यह विद्युत्-धारा के द्वारा मस्तिष्क के विशेष बिन्दु की उत्तेजना से उत्पन्न क्रोध है। इसी प्रकार अन्य बाह्यनिमित्तों से भी मस्तिष्क का क्रोध-बिन्दु उत्तेजित होता है और क्रोध उत्पन्न हो जाता है। यह पर-प्रतिष्ठित क्रोध है। आत्म-प्रतिष्ठित क्रोध अपने ही आन्तरिक निमित्तों से उत्पन्न होता है। ७. प्रस्तुत प्रकरण में संज्ञा के दो अर्थ किये गये हैं—प्राभोग (संवेगात्मक-ज्ञान या स्मृति) और मनोविज्ञान । संज्ञा के दस प्रकार निर्दिष्ट हैं। उनमें प्रथम आठ प्रकार संवेगात्मक तथा अंतिम दो प्रकार ज्ञानात्मक हैं। इनकी उत्पत्ति बाह्य और प्रान्तरिक उत्तेजना से होती है । आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञानों की उत्पत्ति के चार-चार कारण चतुर्थ स्थान में निर्दिष्ट हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ-इन चार संज्ञाओं की उत्पत्ति के कारण स्थानांग (४/८०-८३) में प्राप्त होते हैं। प्रोघसंज्ञा-वृत्तिकार ने इसका अर्थ—सामान्य अवबोध क्रिया, दर्शनोपयोग या सामान्य प्रवृत्ति किया है । तत्त्वार्थ भाष्यकार ने ज्ञान के दो निमित्तों का निर्देश किया है। इन्द्रिय के निमित्त से होने वाला ज्ञान और अनिन्द्रिय के निमित्त से होने वाला ज्ञान । स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द का ज्ञान स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्रइन्द्रिय से होता है। यह इन्द्रिय-निमित्त से होने वाला ज्ञान है । प्रनिन्द्रिय के निमित्त से होने वाले ज्ञान के दो प्रकार हैं-मानसिकज्ञान और प्रोघज्ञान । इन्द्रियज्ञान विभागात्मक होता है, जैसे-नाक से गंध का ज्ञान होता है, चक्षु से रूप का ज्ञान होता है । प्रोघज्ञान निविभाग होता है। वह किसी इन्द्रिय या मन से नहीं होता। किन्तु वह चेतना की, इन्द्रिय और मन से पृथक्, एक स्वतंत्र क्रिया है । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं सिद्धसेनगणि ने औघज्ञान को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया है-बल्ली वृक्ष आदि पर आगेहण करती है। उसका यह प्रारोहणज्ञान न स्पर्शन इन्द्रिय से होता है और न मानसिक निमित्त से होता है । वह चेतना के अनावरण की एक स्वतन्त्र क्रिया है। वर्तमान के वैज्ञानिक एक छठी इन्द्रिय की कल्पना कर रहे हैं। उसकी तुलना ओघसंज्ञा से की जा सकती है । उनकी कल्पना का विवरण इन शब्दों में है सामान्यतया यह माना जाता है कि हमारे पाँच ज्ञानेन्द्रियां हैं-अांख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा। वैज्ञानिक अब यह मानने लगे हैं कि इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त एक छठी ज्ञानेन्द्रिय भी है। इसी छठी इन्द्रिय को अंग्रेजी में 'ई-एस.पी, (एक्स्ट्रासेन्सरी पर्सेप्शन) अथवा अतीन्द्रिय अन्तः करण कहते हैं। कई वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि प्रकृति ने यह इन्द्रिय बाकी पांचों ज्ञानेन्द्रियों से भी पहले मनुष्य को उसके पूर्वजों को तथा अनेक पशु-पक्षियों को प्रदान की थी। मनुष्य में तो यह शक्ति जब तब ही प्राकृतिक रूप में पाई जाती है, क्योंकि सभ्यता के विकास के साथ-साथ उसने इसका 'अभ्यास' त्याग दिया। अनेक पशु-पक्षियों में यह अब भी देखने में आती है। उदाहरणार्थ १. भूकंप या तूफान आने से पहले पशु-पक्षी उसका आभास पाकर अपने बिलों, घोसलों या अन्य सुरक्षित स्थानों में पहुंच जाते हैं । २. कई मछलियां देख नहीं सकतीं, परन्तु सूक्ष्म विद्युत् धाराओं के जरिए पानी में उपस्थित रुकावटों से बचकर संचार करती हैं। आधुनिक युग में आदिम जातियों के मनुष्यों में भी यह छठी इन्द्रिय काफी हद तक पायी जाती है । उदाहरणार्थ १. आस्ट्रेलिया के आदिवासियों का कहना है कि वे धुएं के संकेत का प्रयोग तो केवल उद्दिष्ट व्यक्ति का ध्यान खींचने के लिये करते हैं और इसके बाद उन दोनों में विचारों का आदान-प्रदान मानसिक रूप से ही होता है । २. अमरीकी आदिवासियों में तो इस छठी इन्द्रिय के लिये एक विशिष्ट नाम का प्रयोग होता है और वह है 'शुम्फो' । लोकसंज्ञा-वृत्तिकार ने इसका अर्थ-विशेष अवबोध क्रिया, ज्ञानोपयोग और विशेष प्रवृत्ति—किया है। प्रोघसंज्ञा के सन्दर्भ में इसका अर्थ विभागात्मक ज्ञान (इन्द्रियज्ञान और मानसज्ञान) किया जा सकता है । शीलांकसूरी ने प्राचारांग वृत्ति में लोकसंज्ञा का अर्थ लौकिक मान्यता किया है। किन्तु वह मूलस्पर्शी प्रतीत नहीं होता । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग प्राचारांग नियुक्ति में संज्ञा के चौदह प्रकार मिलते हैं-१. आहारसंज्ञा, २. भयसंज्ञा, ३. परिग्रहसंज्ञा, ४. मैथुनसंज्ञा, ५. सुख-दुखसंज्ञा, ६. मोहसंज्ञा, ७. विचिकित्सासंज्ञा, ८. क्रोधसंज्ञा, ६. मानसंज्ञा, १०. मायासंज्ञा, ११. लोभसंज्ञा, १२. शोकसंज्ञा, १३. लोकसंज्ञा, १४. धर्मसंज्ञा। प्रस्तुत प्रसंग में कुछ मनोवैज्ञानिक तथ्य भी ज्ञातव्य हैं। मनोविज्ञान ने मानसिक प्रतिक्रियाओं के दो रूप माने हैं--भाव (Feeling) और संवेग (Emotion) भाव सरल और प्राथमिक मानसिक प्रतिक्रिया है । संवेग जटिल प्रतिक्रिया है । भय, क्रोध, प्रेम, उल्लास, ह्रास, ईर्ष्या आदि को संवेग कहा जाता है। उसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक परिस्थिति में होती है और वह शारीरिक और मानसिक यंत्र को प्रभावित करता है। संवेग के कारण बाह्य और प्रान्तरिक परिवर्तन होते हैं। बाह्य परिवर्तनों में ये तीन मुख्य हैं-१. मुखाकृति अभिव्यंजन, २. स्वाराभिव्यंजन, ३. शारीरिक-स्थिति । प्रान्तरिक परिवर्तन-१. श्वास की गति में परिवर्तन, २. हृदय की गति में परिवर्तन, ३. रक्तचाप में परिवर्तन, ४. पाचनक्रिया में परिवर्तन, ५. रक्त में रासायनिक परिवर्तन, ६. त्वक् प्रतिक्रियाओं तथा मानस-तरंगों में परिवर्तन, ७. ग्रन्थियों की क्रियाओं में परिवर्तन । मनोविज्ञान के अनुसार संवेग का उद्गम स्थान हाइपोथेलेमस माना जाता है । यह मस्तिष्क के मध्य भाग में होता है । यही संवेग का संचालन और नियन्त्रण करता है। यदि इसको काट दिया जाए तो सारे संवेग नष्ट हो जाते हैं । भाव रागात्मक होता है। उसके दो प्रकार हैं-सुखद और दुःखद । उसकी उत्पत्ति के लिये बाह्य उत्तेजना आवश्यक नहीं होती। ८. सरागसंयम-व्यक्ति-भेद से दो प्रकार का होता है सरागसंयम-कषाययुक्त मुनि का संयम । वीतरागसंयम-उपशान्त या क्षीणकषाय वाले मुनि का संयम। वीतरागसंयमी के आयुष्य का बंध नहीं होता। इसीलिये यहाँ सरागसंयम (सकषायचारित्र) को देवायु के बंध का कारण बतलाया गया है । संयमासंयम अांशिक रूप से व्रत स्वीकार करने वाले गृहस्थ के जीवन में संयम और असंयम दोनों होते हैं, इसलिये उसका संयम संयमासंयम कहलाता है। बालतप : कर्म-मिथ्यादृष्टि का तपश्चरण । अकामनिर्जरा-निर्जरा की अभिलाषा के बिना कर्मनिर्भरण का हेतुभूत प्राचरण । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाण ७७ ६. समुच्चयदृष्टि से विचार करने पर प्रायुष्य के दो रूप फलित होते हैंपूर्ण-पायु और अपूर्ण-प्रायु । देव और नैरयिक—ये दोनों पूर्ण-प्रायु वाले होते हैं । मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपूर्ण-पायु वाले भी होते हैं। इनमें असंख्येय वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंच और मनुष्य तथा उत्तम पुरुष और चरम शरीरी मनुष्य पूर्ण-पायु वाले ही होते हैं। १०. षट्प्राभूत में प्रायुः क्षय के कई कारण माने हैं-१. विष का सेवन, २, वेदना, ३. रक्तक्षय, ४. भय, ५. शस्त्र, ६. भूत, पिशाच आदि से ग्रस्त, ७. संक्लेश, ८. आहार का निरोध, ६. श्वापोच्छवास का निरोव । इनके अतिरिक्त—१. हिमअत्यधिक ठंड, २. अग्नि, ३. जल, ४. ऊँचे पर्वत से गिरना, ५. ऊँचे वृक्ष से गिरना, ६. रसों या विधाओं का अविधिपूर्वक सेवन । ये भी अपमृत्यु के कारण होते हैं । ११. प्रस्तुत सूत्र में मोह के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं—ज्ञानमोह, दशनमोह, चारित्रमोह। वृत्तिकार ने ज्ञानमोह का अर्थ ज्ञानावरण का उदय और दर्शनमोह का अर्थ सम्यग्दर्शन का मोहोदय किया है। दोनों स्थलों में बोधि और बुद्ध के निरूपण के पश्चात् मोह और मूड़ का निरूपण है । इससे प्रतीत होता है कि मोह बोधि का प्रतिपक्ष है । यहाँ मोह का अर्थ प्रावरण नहीं, किन्तु दोष है । ___ ज्ञानमोह होने पर मनुष्य का ज्ञान अयथार्थ हो जाता है। दृष्टिमोह होने पर उसका दर्शन भ्रान्त हो जाता है। चरित्रमोह होने पर प्राचार मूढ़ता उत्पन्न हो जाती है। चेतना में मोह या मूढ़ता उत्पन्न करने का कार्य ज्ञानावरण नहीं, किन्तु मोह कर्म करता है। १२. प्रस्तुत सूत्र में रोगोत्पत्ति के नौ कारण बतलाए हैं। उनमें से कुछएक की व्याख्या इस प्रकार है अच्चासणयाए–वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-१. अत्यासन सेनिरन्तर बैठे रहने से । इससे मसे प्रादि रोग उत्पन्न होते हैं। २. अत्यशन से—अति भोजन करने से । इससे अजीर्ण हो जाने के कारण अनेक रोग उत्पन्न हो सकते है । अहियासणयाए-वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किये हैं—१. अहितासन से-- पाषाण आदि अहितकर आसन पर बैठने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं, २. अहित-अशन से-अहितकर भोजन करने से, ३. अध्यसन से—किए हुये भोजन के जीर्ण न होने पर पुनः भोजन करने से-'अजीर्णे भुज्यते यतु तदध्यसनमुच्यते ।' इन्द्रियार्थ-विकोपन-इसका अर्थ है—कामविकार । कामविकार से उन्माद आदि रोग ही उत्पन्न नहीं होते, किन्तु वह व्यक्ति को मृत्यु के द्वार तक भी पहुंचा देता है । वृत्तिकार ने कामविकार के दस दोषों का क्रमशः उल्लेख किया है-१. काम के Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग प्रति अभिलाषा, २. उसको प्राप्त करने की चिन्ता, ३. उसका सतत स्मरण, ४. उसका उत्कीर्तन, ५. उद्वेग, ६. प्रलाप, ७. उन्माद, ८. व्याधि, ६. जड़ता, अकर्मण्यता, १०. मृत्यु । ये दोष एक के बाद एक आते रहते हैं । १३. काम का अर्थ है-अभिलाषा और गुण का अर्थ है-पुद्गल के धर्म । कामगुण के दो अर्थ हैं १. मैथुन-इच्छा उत्पन्न करने वाले पुद्गल । २. इच्छा उत्पन्न करने वाले पुद्गल । १४. प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त कुछ विशेष शब्दों का विमर्श१. संघटना-चेष्टा-अप्राप्त की प्राप्ति । २. प्रयत्न—प्राप्त का संरक्षण । ३. पराक्रम-शक्ति-क्षय होने पर भी विशेष उत्साह बनाए रखना। ४. आचार-गोचर १. साधु के प्राचार-गोचर (विषय) महाव्रत आदि । २. प्राचार-ज्ञान आदि पांच आचार । गोचर-भिक्षाचर्या । १५. प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैंअक्षम-असंगतता। अनानुगामिकता—अशुभ अनुबंध, अशुभ की शृंखला। शंकित-ध्येय या कर्त्तव्य के प्रति संशयशील । कांक्षित-ध्येय या कर्त्तव्य के प्रतिकूल सिद्धान्तों की आकांक्षा करने वाला। विचिकित्सित-ध्येय या कर्तव्य से प्राप्त होनेवाले फल के प्रति संदेह करने वाला। भेदसमापन्न ---संदेहशीलता के कारण ध्येय या कर्तव्य के प्रति जिसकी निष्ठा खंडित हो जाती है, वह भेदसमापन्न कहलाता है। ___ कलुशसमापन्न-संदेहशीलता के कारण ध्येय या कर्त्तव्य को अस्वीकार कर देता है, वह कलुषसमापन्न कहलाता है । १६. दर्शन का सामान्य अर्थ होता है—दृष्टि, देखना । उसके परिभाषिक अर्थ दो होते हैं-सामान्यग्राहीबोध और तत्त्वरुचि । बोध दो प्रकार का होता है---१. विशेषग्राही, २. सामान्यग्राही। विशेषग्राही को ज्ञान और सामान्य ग्राही को दर्शन कहा जाता है। प्रस्तुत प्रकरण में दर्शन शब्द तत्त्वरुचि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । दर्शन दो प्रकार का होता है १. सम्यग्दर्शन-वस्तु-सत्य के प्रति यथार्थश्रद्धा । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं २. मिथ्यादर्शन - वस्तु सत्य के प्रति प्रयथार्थश्रद्धा । उत्पत्ति की दृष्टि से सम्यक्दर्शन दो प्रकार का होता है १. निसर्गसम्यक्दर्शन - श्रात्मा की सहज निर्मलता से उत्पन्न होने वाला । २. अभिगमसम्यक्दर्शन - शास्त्र - अध्ययन अथवा उपदेश से उत्पन्न होने वाला । ७६ ये दोनों प्रतिपाती और प्रतिपाती दोनों प्रकार के होते हैं । मिथ्यादर्शन भी दो प्रकार का होता है - १. श्राभिग्रहिक - प्राग्रहयुक्त, २. अनाभिग्रहिक —— सहज । कुछ व्यक्ति आग्रही होते हैं । वे जिस बात को पकड़ लेते हैं, उसे छोड़ना नहीं चाहते। कुछ व्यक्ति आग्रही नहीं होते, किन्तु अज्ञान के कारण किसी भी बात पर विश्वास कर लेते हैं । प्रथम प्रकार के व्यक्ति न केवल मिथ्यादर्शन वाले होते हैं, किन्तु उनमें यथार्थ के प्रति प्राग्रह भी उत्पन्न हो जाता है। उनकी सत्यशोध की दृष्टि विलुप्त हो जाती है । वे जो मानते हैं, उससे भिन्न सत्य हो सकता है, इस सम्भावना को वे स्वीकार नहीं करते । दूसरे प्रकार के व्यक्तियों में स्व. सिद्धान्त के प्रति आग्रह नहीं होता, इसलिये उनमें सत्य - शोध की दृष्टि शीघ्र विकसित हो सकती है । आग्रह और अज्ञान – ये दोनों काल-परिपाक और समुचित निमित्तों के मिलने पर दूर हो सकते हैं और उनके न मिलने पर वे दूर नहीं होते, इसीलिये उन्हें सपर्यवसित श्रौर पर्यवसित दोनों कहा गया है । निसर्गसम्यग्दर्शन जैसे सहज होता है, वसे अनाभिग्रहिकमिथ्यादर्शन भी सहज ही होता है । अभिगमसम्यग्दर्शन उपदेश या अध्ययन से प्राप्त होता है, वैसे ही प्राभिग्रहिकमिथ्यादर्शन भी उपदेश या अध्ययन से प्राप्त होता है । इन दोनों में स्वरूप भेद है, किन्तु उत्पन्न होने की प्रक्रिया दोनों की एक है । १७. प्रत्यक्ष-परोक्ष- इन्द्रिय प्रादि साधनों की सहायता के बिना जो ज्ञान केवल आत्ममात्रापेक्ष होता है, वह 'प्रत्यक्ष - ज्ञान' कहलाता है । अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान श्रौर केवलज्ञान - ये तीन प्रत्यक्ष ज्ञान हैं । इन्द्र और मन की सहायता से होनेवाला ज्ञान परोक्ष होता है । मति, श्रुत-ये दो ज्ञान परोक्ष हैं । स्वरूप की अपेक्षा सब ज्ञान स्पष्ट होते हैं । प्रमाण के स्पष्ट और अस्पष्ट ये लक्षण बाहरी पदार्थों की अपेक्षा से किए जाते हैं । बाह्य पदार्थों का निश्चय करने के लिये जिसे दूसरे ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती, वह ज्ञान स्पष्ट कहलाता है और जिसे ज्ञानान्तर की अपेक्षा रहती है, वह अस्पष्ट । परोक्ष प्रमाण में दूसरे ज्ञान की आवश्यकता रहती है । जैसे - स्मृतिज्ञान धारण की अपेक्षा रखता है, प्रत्यभिज्ञान अनुभव Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० चित्त-समाधि : जैन योग और स्मृति की, तर्क व्याप्ति की, अनुमान हेतु की तथा आगम शब्द और संकेत आदि की अपेक्षा रखता है, इसलिए वह प्रस्पष्ट है। दूसरे शब्दों में जिसका ज्ञेय पदार्थ निर्णय काल में छिपा हुआ रहता है, उस ज्ञान को असष्ट या परोक्ष कहते हैं । जैसेस्मृति का बिषय स्मृतिकर्ता के सामने नहीं रहता। प्रत्यभिज्ञान का भी 'वह' इतना विषय अस्पष्ट रहता है । तर्क में त्रिकालकलित साध्य-साधन अर्थात् त्रिकालीन सर्व धूम और अग्नि प्रत्यक्ष नहीं रहते । अनुमान का विषय अग्निमान् प्रदेश सामने नहीं रहता। आगम के विषय मेरु आदि अस्पष्ट रहते हैं । __ अवग्रह प्रादि को प्रात्ममात्रापेक्ष न होने के कारण जहाँ परोक्ष माना जाता है, वहाँ उसके मति और श्रुत—ये दो भेद किए जाते हैं और जहाँ लोक-व्यवहार से अवग्रह आदि को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की कोटि में रखा जाता है, वहाँ परोक्ष के स्मृति आदि पांच भेद किये जाते हैं । १८. श्रुत-निश्रित- जो विषय पहले श्रुत शास्त्र के द्वारा ज्ञात हो, किंतु वर्तमान में श्रुत का आलम्बन लिये बिना ही उसे जानना श्रुत-निश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान है, जैसे किसी व्यक्ति ने आयुर्वेदशास्त्र का अध्ययन कर यह जाना कि त्रिफला से कोष्ठबद्धता दूर होती है। जब कभी वह कोष्ठबद्धता से ग्रस्त होता है, तब उसे त्रिफला-सेवन की बात सूझ जाती है। उसका यह ज्ञान श्रुत-निश्रित आभिनिबोधिकज्ञान है । अश्रुत-निश्रित-जो विषय श्रुत के द्वारा नहीं, किन्तु अपनी सहज विलक्षण-बुद्धि के द्वारा जाना जाए, वह अश्रुत-निश्रित प्राभिनिबोधिकज्ञान है। नंदी में जो ज्ञान का वर्गीकरण है, उसके अनुसार श्रुत-निश्रित प्राभिनिबोधिकज्ञान के २८ प्रकार हैं तथा अश्रुत-निश्रित आभिनिबोधिकज्ञान के ४ प्रकार हैं--प्रोत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी । १६. अवग्रह इन्द्रिय से होनेवाले ज्ञान-क्रम में पहला अंग है । अनिर्देश्य (जिसका निर्देश न किया जा सके) सामान्य धर्मात्मक अर्थ के प्रथम ग्रहण को अर्थावग्रह कहा जाता है। अर्थ शब्द के दो अर्थ हैं----द्रव्य और पर्याय अथवा सामान्य और विशेष । अर्थावग्रह का विषय किसी भी शब्द के द्वारा कहा नहीं जा सकता। इसमें केवल 'वस्तु है' का ज्ञान होता है । इससे वस्तु के स्वरूप, नाम, जाति, क्रिया आदि की शाब्दिक प्रतीति नहीं होती। उपकरण इन्द्रिय के द्वारा इन्द्रिय के विषयभूत द्रव्यों के ग्रहण को व्यञ्जनावग्रह कहा जाता है । क्रम की दृष्टि से पहले व्यञ्जनावग्रह, फिर अर्थावग्रह होता है । अर्थावग्रह सभी इन्द्रियों का होता है जबकि व्यञ्जनावग्रह चार इन्द्रियों का होता है। चक्षु और मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं होता। उत्तरवर्ती न्याय-ग्रन्थों में व्यञ्जनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह का उल्लेख किया गया है। नंदी तथा प्रस्तुत सूत्र से उसका व्युत्क्रम मिलता है। यह किस दृष्टि से किया गया, इस विषय में वृत्तिकार ने चर्चा नहीं की है. फिर भी Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं वृत्ति से यह फलित होता है कि अर्थावग्रह प्रत्यक्ष को मुख्य मानकर सूत्रकार ने उसे प्रथम स्थान दिया है। नंदी के अनुसार अवग्रह आदि केवल श्रुत-निश्रित मति के ही प्रकार हैं । स्थानांग के अनुसार अवग्रह दोनों (श्रुत-निश्रित और अश्रुत-निश्रित) का होता है । वृत्तिकार ने अश्रुत-निश्रित मति के दो प्रकार बतलाए हैं-१. श्रोत्र आदि इन्द्रियों से उत्पन्न और २. प्रौत्पत्तिकी आदि बुद्धि-चतुष्टय । प्रथम प्रकार में अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह दोनों होते हैं । दूसरे प्रकार में केवल अर्थावग्रह होता है, क्योंकि व्यञ्जनावग्रह इन्द्रिय-आश्रित होता है। बुद्धि-चतुष्टय मानस ज्ञान है, इसलिये वहाँ व्यञ्जनावग्रह नहीं होता। व्यञ्जनावग्रह की इस अध्यापकता और गौणता को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने प्राथमिकता अर्थावग्रह को दी, ऐसी सम्भावना की जा सकती है। ____ अर्थावग्रह निर्णयोन्मुख होता है, तब यह प्रमाण माना जाता है और जब निर्णयोन्मुख नहीं होता तब वह अनध्यवसाय—अनिर्णायक ज्ञान कहलाता है। अर्थावग्रह के दो भेद और हैं-नैश्चयिक और व्यावहारिक । नैश्चयिक अर्थावग्रह का कालमान एक समय और व्यावहारिक-अर्थावग्रह का कालमान अन्तर्मुहूर्त माना गया है। अर्थावग्रह के छः प्रकार होते हैं । २०. सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान के चार प्रकार हैं--प्रवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। प्रस्तुत चार सूत्रों (६/६१-६४) में एक-एक के छह-छह प्रकार बतलाए हैं, किन्तु उनके प्रतिपक्षी विकल्पों का उल्लेख नहीं है । धारणा के छह प्रकारों में क्षिप्र' और 'ध्रुव' के स्थान पर 'पुराण' और 'दुर्धर' का उल्लेख है । तत्त्वार्थसूत्र की श्वेताम्बरीय भाष्यानुसारिणी टीका में अवग्रह आदि के बारहबारह प्रकार किये गये हैं। इस प्रकार उन चारों के ४८ प्रकार हैं। १. क्षिप्र-शीघ्रता से जानना । २. बहु--अनेक पदार्थों को एक-एक कर जानना। व्यवहारभाष्य के अनुसार इसका अर्थ है--पांच, छह अथवा सात सौ ग्रन्थों (श्लोकों) को एक बार में ही ग्रहण कर लेना। ३. बहुविध-अनेक पदार्थों के अनेक पर्यायों को जानना। व्यवहारभाष्य के अनुसार इसका अर्थ है-प्रनेक प्रकार से अवग्रहण करना। जैसे--स्वयं कुछ लिख रहा है; साथ-साथ दूसरे द्वारा कथित वचनों का अवधारण भी कर रहा है तथा वस्तुओं को गिन रहा है और साथ-साथ प्रवचन भी कर रहा है। ये सभी प्रवृत्तियां एक साथ चल रही हैं। इसका दूसरा अर्थ है-अनेक लोगों द्वारा उच्चारित तथा अनेक वाद्यों द्वारा वादित अनेक प्रकार के शब्दों को भिन्न-भिन्न रूप से ग्रहण करना । वर्तमान में सप्तसंधान नामक अवधान किया जाता है। उसमें अवधानकार के समक्ष तीन व्यक्ति तथा दो व्यक्ति दोनों पावों में और दो व्यक्ति पीछे खड़े होते हैं। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ चित्त-समाधि : जैन योग सामने वाले तीन व्यक्ति भिन्न-भिन्न चीजें दिखाते हैं; एक पार्श्व वाला एक शब्द बोलता है, दूसरे पार्श्व वाला तीन अंकों की एक संख्या कहता है; पीछे खड़े दो व्यक्ति अवधानकार के दोनों हाथों में दो वस्तुओंों का स्पर्श करवाते हैं । ये सातों क्रियाएं एक साथ होती हैं । ४. ध्रुव - सार्वदिक एक रूप जानना । ५. अनिश्रित - बिना किसी हेतु की सहायता लिये जानना । व्यवहारभाष्य में इसका अर्थ है - जो न पुस्तकों में लिखा गया है और जो न कहा गया है, उसका अवग्रहण करना । ६. असंदिग्ध — निश्चित रूप से जानना । २१. कायव्यायाम - जीव की प्रवृत्ति के तीन स्रोत हैं— मन, वचन और काय । इन तीनों को एक शब्द में योग कहा जाता है । श्रागम - साहित्य में प्राय: काययोग शब्द का प्रयोग किया गया है। बौद्ध साहित्य में सम्यक् व्यायाम शब्द का प्रयोग प्राप्त है । उस समय में सामान्य प्रवृत्ति के अर्थ में भी व्यायाम शब्द का प्रयोग किया जाता था । आयुर्वेद के ग्रन्थों में व्यायाम शब्द का प्रयोग काय की एक विशेष प्रवृत्ति के अर्थ में रूढ़ है । २२. शरीर – शरीर पौद्गलिक है । वह जीव की शक्ति के योग से क्रिया करता है । उसके पांच प्रकार हैं १. श्रौदारिक प्रस्थिचर्ममय शरीर । २. वैक्रिय - विविध रूप निर्माण में समर्थ शरीर । ३. प्रहारक — योगशक्ति से प्राप्त शरीर । ४. तेजस् --- तेजोमय शरीर । ५. कार्मण कर्ममय शरीर । इन्हें संचालित करनेवाली जीव की शक्ति को काययोग कहा जाता है । एक क्षण में काययोग एक ही होता । उपयोग ( ज्ञान का व्यापार ) एक क्षण में दो नहीं हो सकते, किन्तु काया की प्रवृत्ति एक क्षण में दो हो सकती हैं । यहाँ उसका निषेध नहीं है । यहाँ एक क्षण में दो काययोगों का निषेध है । क्योंकि जिस जीव-शक्ति से श्रदारिक- शरीर का संचालन होता है, उसी से वैक्रिय शरीर का संचालन नहीं हो सकता । उसके लिये कुछ विशिष्ट शक्ति की अपेक्षा होती है । इस दृष्टि से जब एक काययोग सक्रिय होता है, तब दूसरा काययोग क्रियाशील नहीं हो सकता । शारीरिक दृष्टि से जीव छः प्रकार के होते हैं - पृथ्वीकायिक अपकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक । विकासक्रम के आधार पर वे पांच प्रकार के होते हैं-- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठोणं ___इन्द्रिय और मन से होनेवाला ज्ञान शरीर-रचना से सम्बन्ध रखता है। जिस जीव में इन्द्रिय और मानसज्ञान की जितनी क्षमता होती है, उसी के आधार पर उनको शरीर-रचना होती है और शरीर-रचना के आधार पर ही उस ज्ञान की प्रवृत्ति होती है । प्रस्तुत पालापक में शरीर-रचना और इन्द्रिय तथा मानसज्ञान के विकास का संबंध प्रदर्शित है जीव बाह्यशरीर (स्थूल शरीर) इन्द्रिय ज्ञान १. एकेन्द्रिय (पृथ्वी, अप आदि) प्रौदारिक स्पर्शनज्ञान। २. द्वीन्द्रिय औदारिक (अस्थिमांस शोणित- रसन, स्पर्शनज्ञान । युक्त) ३. त्रीन्द्रिय औदारिक (अस्थिमांस शोणित- घ्राण, रसन, युक्त) स्पर्शनज्ञान । ४. चतुरिन्द्रिय औदारिक (अस्थिमांस शोणित- चक्षु, घ्राण, रसन, युक्त) स्पर्शनज्ञान । ५. पंचेन्द्रिय (तियंच) प्रौदारिक (अस्थिमास शोणित- श्रोत्र, चक्षु. प्राण, स्नायु शिरायुक्त्त) रसन, स्पर्शनज्ञान । ६. पंचेन्द्रिय (मनुष्य) औदारिक (अस्थिमांस शोणित- श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, स्नायु शिरायुक्त) रसन, स्पर्शनज्ञान । २४. शरीर पाँच प्रकार के हैं-- प्रौदारिक शरीर-स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न, रसादि धातुमय शरीर। यह मनुष्य और तिर्यञ्चों के ही होता है । वैक्रिय शरीर-विविध रूप करने में समर्थ शरीर। यह नै रयिकों तथा देवों के होता है। वैक्रिय-लब्धि से सम्पन्न मनुष्यों और तिर्यञ्वों तथा वायुकाय के भी यह होता है। पाहारक शरीर-पाहारक-लब्धि से निष्पन्न शरीर । प्राहारक-लब्धि से सम्पन्न मुनि अपनी संदेह निवृत्ति के लिए अपने प्रात्म-प्रदेशों से एक पुतले का निर्माण करते हैं और उसे सर्वज्ञ के पास भेजते हैं । वह उनके पास जाकर उनसे संदेह की निवृत्ति कर पुन: मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है । यह क्रिया इतनी शीघ्र और अदृश्य होती है कि दूसरों को इसका पता भी नहीं चल सकता। इस क्षमता को पाहारकलब्धि कहते हैं। तैजसशरीर-जिससे तेजोलब्धि (उपघात या अनुग्रह किया जा सके-वह Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग कार्य शक्ति) मिले और दीप्ति एवं पाचन हो, वह शरीर । कार्मणशरीर-कर्म-समूह से निष्पन्न अथवा कर्मविकार को कार्मण शरीर कहते हैं । तैजस और कार्मणशरीर सभी जीवों के होते हैं। २५. शरीर पांच हैं-ौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण । भिन्नभिन्न अपेक्षाओं से इनके अनेक वर्गीकरण होते हैं । स्थूलता और सूक्ष्मता की दृष्टि से - स्थूल सूक्ष्म औदारिक, वैक्रिय, आहारक तैजस, कार्मण । कारण और कार्य की दृष्टि से कारण कार्मण औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस । भवबर्ती और भवान्तरगामी की दृष्टि से-- भववर्ती भवान्तरगामी औदारिक, वैक्रिय. पाहारक तेजस, कार्मण साहचर्य और असाहचर्य की दृष्टि सेसहचारी असहचारी वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण । औदारिक । औदारिक शरीर जीव के चले जाने पर भी टिका रहता है और विशिष्ट उपायों से दीर्घकाल तक टिका रह सकता है । शेष चार शरीर जीव से पृथक होने पर अपना अस्तित्व नहीं रख पाते, तत्काल उनका पर्यायान्तर (रूपान्तर) हो जाता है। २६. निश्रास्थान-निश्रास्थान का अर्थ है-----मालम्बन स्थान, उपाकारकस्थान । मुनि के लिए पांच निश्रास्थान हैं। उनकी उपयोगिता के कुछएक संकेत वृत्तिकार ने दिए हैं, वे इस प्रकार हैं १. षट्काय० पृथ्वी की निश्रा-ठहरना, बैठना, सोना, मल-मूत्र का विसर्जन आदि । • पानी की निश्रा-परिषेक, पान, प्रक्षालन, आचमन आदि । ० अग्नि की निश्रा-प्रोदन, व्यंजन, पानक, प्राचाम आदि । • वायु की निश्रा-अचित्त वायु का ग्रहण, दृति, भस्त्रिका प्रादि का उपयोग । ० वनस्पति की निश्रा--संस्तारक, पाट, फलक, प्रौषव आदि । ० त्रस की निश्रा-चर्म, अस्थि, शृंग तथा गोबर, गोमूत्र, दूध आदि । २. गण-गुरु के परिवार को गण कहा जाता है। गण में रहने वाले के विपुल Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ ठाणे निर्जरा होती है विनय की प्राप्ति होती है, तथा निरंतर होने वाली सारणा वारणा से दोष प्राप्त नहीं होते । ३. राजा-राजा निवास्थान इसलिए है कि वह दुष्टों का निग्रह कर साधुओं को धर्म-पालन में प्रालंबन देता है । अराजकता - दशा में धर्म का पालन दुर्लभ हो जाता है । ४. गृहपति - वसति या उपाश्रय देनेवाला । स्थानदान संयम साधना का महान् उपकारी तत्त्व है । प्राचीन श्लोक में— 'धृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता, गतिस्तेन दत्ता सुखं तेन दत्तम् । गुणी मागितेभ्यो वरेभ्यो मुनिभ्यो मुदा येन दत्तो निवासः ॥' जो मुनिको उपाश्रय देता है, उसने उनको उपाश्रय देकर वस्त्र, अन्न, पान, शयन, प्रासन आदि सभी कुछ दे दिए । ५. शरीर — कालीदास ने कहा है - शरीरमाद्यं खलु धर्म-साधनम् ।' शरीर से धर्म का स्राव होता है, जैसे-पर्वत से पानी का शरीरं धर्म- संयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराच्छ्रवते धर्मः, पर्वतात् सलिलं यथा ॥ में एक ही वचन होता है । जैन न्याय में 'स्यात्' शब्द २७. एकवचन - मानसिक ज्ञान की भांति एक क्षण एक क्षण में कोई भी प्राणी दो भाषाएं नहीं बोल सकता । का प्रयोग इसी सिद्धान्त के आधार पर किया गया । वस्तु अनंत धर्मात्मक होती है । एक क्षण में उसके एक धर्म का ही प्रतिपादन किया जा सकता है । शेष अनंत धर्म प्रतिपादित रहते हैं । इसका तात्पर्य यह होता है कि मनुष्य वस्तु के एक पर्याय का प्रतिपादन कर सकता है, किन्तु समग्र वस्तु का प्रतिपादन नहीं कर सकता । इस समस्या को सुलझाने के लिये 'स्यात्' शब्द का सहारा लिया गया है। 'स्यात्' शब्द इस बात का सूचक है कि प्रतिपाद्यमान धर्म को मुख्यता देकर और शेष धर्मों की उपेक्षा करें, तभी वस्तु वाच्य होती है । एक साथ अनेक धर्मों की अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य हो जाती है । सप्तभंगी का चतुर्थ भंग इसी आधार पर बनता है । २८. एक मन - एक क्षण में मानसिक ज्ञान एक ही होता है । यह सिद्धान्त जैन- दर्शन को श्रागम - काल से ही मान्य रहा है । नैयायिक-वैशेषिक दर्शन में भी यह सिद्धान्त सम्मत है । इस सिद्धान्त के समर्थन में दोनों के हेतु भी समान हैं । जैन-दर्शन के अनुसार एक क्षण में दो उपयोग (ज्ञान-व्यापार ) एक साथ नहीं होते, इसलिये एक क्षण में मानसिक ज्ञान एक ही होता है। एक आदमी नदी में खड़ा है, नीचे से उसके पैरों को जल की ठंडक का संवेदन हो रहा है और ऊपर से सिर को घूप की उष्णता का संवेदन हो रहा है । इस प्रकार एक व्यक्ति एक ही क्षण में शीत और उष्ण दोनों स्पर्शो Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ चित्त-समाधि : जन योग का संवेदन करता है, किन्तु वस्तुतः यह सही नहीं है । क्षण और मन की सूक्ष्मता के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक ही क्षण में शीत और उष्ण दोनों स्पर्शो का संवेदन करता है, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । जिस क्षण में शीत- स्पर्श का अनुभव होता है, उस क्षण में मन शीत- स्पर्श की अनुभूति में ही व्याप्त रहता है, इसलिये उसे उष्ण-स्पर्श की अनुभूति नहीं हो सकती और जिस क्षण में वह उष्ण-स्पर्श की अनुभूति में व्याप्त रहता है, उस क्षण उसे शीत-स्पर्श की अनुभूति नहीं हो सकती । एक क्षण में दो ज्ञानों और दो अनुभूतियों के न होने का कारण मन की शक्ति का सीमित विकास होना है । नैयायिक-वैशेषिक दर्शन के अनुसार एक क्षण एक ही ज्ञान और एक ही क्रिया होती है, इसलिये मन एक है । न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम तथा वैशेषिक दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद मन की एकता के सिद्धान्त के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मन अणु है । यदि मन अणु नहीं होता, तो प्रतिक्षण मनुष्य को अनेक ज्ञान होते। वह अणु है, इसलिये वह एक क्षण में ही इन्द्रिय के साथ संयोग स्थापित कर सकता है । इन्द्रिय के साथ उसका संयोग हुए बिना ज्ञान होता नहीं, इसलिये वह एक क्षण में एक ही ज्ञान कर सकता है । २६. आत्मा का स्वरूप कर्म परमाणुत्रों से आवृत्त रहता है । उनके उपशम, क्षयउपशम और क्षय से वह (आत्म-स्वरूप ) प्रकट होता है । क्षय और उपशम- ये दोनों स्वतन्त्र अवस्थाएं हैं। क्षय-उपशम में दोनों का मिश्रण है। इसमें उदयप्राप्त कर्म के क्षय और उदयप्राप्त का उपशम- ये दोनों होते हैं, इसलिये क्षय-उपशम कहलाता है । इस अवस्था में कर्म के विपाक की अनुभूति नहीं होती । ३०. बौद्ध-परम्परा में तेरह प्रकार के सुख-युगलों की परिकल्पना की गई है। उन युगलों में एक को अधम और एक को श्रेष्ठ माना है । १. गृहस्थ सुख, प्रव्रज्या सुख । २. कामभोग सुख, अभिनिष्क्रमण सुख । ३. लौकिक सुख, लोकोत्तर सुख । ४. सास्रव सुख, अनास्रव सुख । ५. भौतिक सुख, अभौतिक सुख । ६. श्रार्य सुख, अनार्य सुख । ७. शारीरिक सुख, चैतसिक सुख । ८. प्रीति सुख, प्रीति सुख । ६. आस्वाद सुख, उपेक्षा सुख । समाधि सुख, समाधि सुख । १०. ११. प्रीति आलंबन सुख, अप्रीति प्रालंबन सुख । १२. प्रास्वाद प्रालंबन सुख, उपेक्षा ग्रालंबन सुख । १३. रूप श्रालंबन सुख, अरूप आलंबन सुख । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं ८७ ३१. ह्रीसत्त्व और हीमनःसत्त्व- इन दोनों में सत्त्व का अाधार लोक-लाज है । कुछ लोग अान्तरिक सत्त्व के विचलित होने पर भी लज्जावश सत्त्व को बनाए रखते हैं, भय को प्रदर्शित नहीं करते । जो ह्रीसत्त्व होता है, वह लज्जावश शरीर और मन दोनों में भय के लक्षण प्रदर्शित नहीं करता । जो ह्रीमन सत्त्व होता है, वह मन में सत्त्व को बनाए रखता है, किन्तु उसके शरीर में भय के लक्षण—रोमांच, कंपन आदि प्रकट हो जाते हैं। ३२. योगवाहिता-- योगवहन करने वाले मुनि की चर्या को योगवाहिता कहा जाता है । योगवहन का शब्दानुपाती अर्थ है-चित्तसमाधि की विशिष्ट साधना । जैन परम्परा में योगवहन की एक दूसरी पद्धति भी रही है। आगम-श्रुत के अध्ययनकाल में योगवहन किया जाता था। प्रत्येक पागम तपस्यापूर्वक पढ़ा जाता था। आगम के अध्येता मुनि के लिये विशेष प्रकार की चर्या निर्दिष्ट होती थी, जैसे १. अल्पनिद्रा लेना। २. प्रथम दो प्रहरों में श्रुत और अर्थ का बार-बार अभ्यास करना । ३. अध्येतव्य ग्रंथ को छोड़कर नया ग्रंथ नहीं पढ़ना। ४. पहले जो कुछ सीखा हो उसे नहीं भुलाना । ५. हास्य, विकथा, कलह आदि न करना। ६. धीमे-धीमे शब्दों में बोलना, जोर-जोर से नहीं बोलना। ७. काम, क्रोध आदि का निग्रह करना। तपस्या की विधि प्रत्येक शास्त्र-ग्रंथ के लिये निश्चित थी। इसकी जानकारी के लिये विधिप्रपा आदि ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं । - यह योगवहन की पद्धति भगवान् महावीर के समय में प्रचलित नहीं थी। उस समय के उल्लेखों में अंगों के अध्ययन का उल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु योगवहन पूर्वक अध्ययन का उल्लेख नहीं मिलता। अध्ययन के साथ योगवहन की परम्परा भगवान् महावीर के निर्वाण के उत्तरकाल में स्थापित हुई प्रतीत होती है। यदि योगवाहिता का अर्थ श्रुत के अध्ययन के साथ की जानेवाली तपस्या या विशिष्टचर्या हो तो यह उत्तरकालीन संक्रमण है। और, यदि इसका अर्थ चित्त-समाधि की विशिष्ट साधना हो तो इसे महावीरकालीन माना जा सकता है। प्रसंग की दृष्टि से दोनों अर्थ संगत हो सकते हैं । ३३. प्रणिधान-प्रणिधान का अर्थ है--एकाग्रता। वह केवल मानसिक ही नहीं होती, वाचिक और कायिक भी होती है। एकाग्रता का उपयोग सत् और असत् दोनों प्रकार का होता है । इसी आधार पर प्रणिधान के सुप्रणिधान और दुष्प्रणिधानये दो भेद किये गये हैं। ३४. गुप्ति-गुप्ति का अर्थ है--रक्षा। मन, वचन और काय के साथ योग होने पर इसका अर्थ होता है---मन, वचन और काय की अकुशल प्रवृत्तियों में नियोजन । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग यह अर्थ सम्यक्-प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर किया गया प्रतीत होता है। असम्यक् की निवृत्ति हुए बिना कोई भी प्रवृत्ति सम्यक् नहीं बनती, इस दृष्टि से सम्यक्प्रवृत्ति में गुप्ति का होना अनिवार्य माना गया है। सम्यकप्रवृत्ति से निरपेक्ष होकर यदि गुप्ति का अर्थ किया जाए तो इसका अर्थ होगा-निरोध । महर्षि पतञ्जलि ने लिखा है-चित्तवृत्ति निरोधो योगः (योग दर्शन १/१)। जैन-दृष्टि से इसका समानान्तर सुत्र लिखा जाए तो वह होगा 'चित्तवृत्ति निरोधो गुप्तिः। ३५. पांचवे स्थान में दो सूत्रों (३४-३५) में दस धर्मों का उल्लेख मिलता है । वहाँ वृत्तिकार ने उनका अर्थ इस प्रकार किया है १. क्षांति-क्रोध निग्रह। २. मुक्ति-लोभनिग्रह। ३. प्रार्जव–माया निग्रह। ४. मार्दव—माननिग्रह। ५. लाघव-उपकरण की अल्पता; ऋद्धि, रस और सात-इन तीनों गौरवों का त्याग । ६. सत्य-काय ऋजुता, भाव-ऋजुता और अविसंवादनयोग-कथनी-करनी की समानता। ७. संयम-हिंसा आदि की निवृत्ति । ८. तप । ६. त्याग—अपने सांभोगिक साधुओं को भक्त प्रादि का दान । १०. ब्रह्मचर्यवास—कामभोग विरति । वृत्तिकार ने दस धर्म की एक दूसरी परम्परा का उल्लेख किया है, जो तत्त्वार्थसूत्रानुसारी है । उसके अनुसार नाम और क्रम में अन्तर है- १. उत्तम क्षमा, २. उत्तम मार्दव, ३. उत्तम आर्जव, ४. उत्तम शौच, ५. उत्तम सत्य, ६. उत्तम संयम, ७. उत्तम तप, ८. उत्तम त्याग. ६. उत्तम आकिंचन्य, १०. उत्तम ब्रहमचर्य । तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार इनकी व्याख्या इस प्रकार है १. क्षमा-क्रोध के निमित्त मिलने पर भी कलुष न होना। शुभ परि गामों से क्रोध आदि की निवृत्ति । २. मार्दव-जाति, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ प्रादि का मद नहीं करना, दूसरे के द्वारा परिभव के निमित्त उपस्थित करने पर भी अभिमान नहीं करना । ३. आर्जव-मन, वचन और काया की ऋजुता। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं ४. शौच - लोभ की प्रत्यन्त निवृत्ति । लोभ चार प्रकार का है— श्रारोग्यलोभ, इन्द्रियलोभ और उपभोगलोभ । लोभ के तीन प्रकार स्वद्रव्य का प्रत्याग, परद्रव्य का अपहरण, धरोहर की हड़प । ५. सत्य । ६. संयम -- प्राणीपीड़ा का परिहार और इन्द्रिय-बिजय । संयम के दो प्रकार हैंउपेक्षासंयम- राग-द्वेषात्मक चित्तवृत्ति का अभाव । अपहृत संयम - भावशुद्धि, कायशुद्धि श्रादि । ८ ७. तप । ८. त्याग - सचित्त तथा श्रचित्त परिग्रह की निवृत्ति । ६. श्राकिञ्चन्य - शरीर आदि सभी बाह्य वस्तुनों मे ममत्व का त्याग । १०. ब्रह्मचर्य — कामोत्तेजक वस्तुओं तथा दृश्यों का वर्णन तथा गुरु की आज्ञा का पालन । जीवनलोभ, और हैं श्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित 'द्वादशानुपेक्षा' के अन्तर्गत 'धर्म-अनुप्रेक्षा में इन दस घर्मो की व्याख्याएं प्राप्त हैं । वे उपर्युक्त व्याख्याओं से यत्र-तत्र भिन्न हैं । वे इस प्रकार हैं १. क्षमा — क्रोधोत्पत्ति के बाह्य कारणों के प्राप्त होने पर भी क्रोध न करना । २. मार्दव - कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत और शील का गर्व न करना । ३. प्रार्जव - कुटिल भाव को छोड़कर निर्मल हृदय से प्रवृत्ति करना । ४. सत्य- - दूसरों को संताप देनेवाले वचनों का त्यागकर, स्व और पर के लिए हितकारी वचन बोलना । ५. शौच - कांक्षाओं से निवृत्त होकर वैराग्य में रमण करना । ६. संयम --- व्रत तथा समितियों का यथार्थ पालन, दण्ड- त्याग तथा इन्द्रिय-जय । ७. तप-विषयों तथा कषायों का निग्रह कर अपनी आत्मा को ध्यान और स्वाध्याय से भावित करना । ८. त्याग - आसक्ति को छोड़कर पदार्थों के प्रति वैराग्य रखना । ९. किञ्चन्य – निस्संग होकर अपने सुख-दुख के भावों का निग्रह कर निर्द्वन्द्व रूप से विहरण करना । संयम का प्रथम महाव्रत प्राणातिपात विरति में, सत्य का दूसरे महाव्रत मृषावाद विरति में, १०. ब्रह्मचर्य - स्त्री के अंग-प्रत्यंगों को देखते हुए भी उनमें दुर्भाव न लाना । श्रावश्यकचूर्ण के अनुसार इन दसों धर्मों का समवतार मूलगुण ( महाव्रत ) तथा उत्तरगुणों में होता है Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि: जन योग अकिंचनता का तीसरे महाव्रत अदत्त विरति में, ब्रह्मचर्य का चौथे महाव्रत मैथुन विरति में तथा शेष धर्मों का उत्तर गुणों में समावेश होता है । ३६. परिणाम-वृत्तिकार ने परिणाम के चार अर्थ किये हैं-१. पर्याय, २. स्वभाव, ३. धर्म, ४. विपाक । प्रस्तुत सूत्र में परिणाम शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है-पर्याय और विपाक । प्रथम दो विभाग पर्याय के और शेष चार विपाक के उदाहरण हैं। ३७. स्थानायतिक- स्थानांग वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिये हैंस्थानातिद और स्थानातिग। स्थान का अर्थ कायोत्सर्ग है । स्थाना तिद और स्थानातिग—इन दोनों का अर्थ है—कायोत्सर्ग करने वाला। जिस प्रासन में सीधा खड़ा होना होता है, उसका नाम स्थानायतिक है । स्थान तीन प्रकार के होते हैं-उर्ध्वस्थान, निषीदनस्थान और शयनस्थान । स्थानायतिक उर्ध्वस्थान का सूचक है । प्रतिमास्थायी-वृत्तिकार ने प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित रहना किया है । कहीं-कहीं प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग भी प्राप्त होता है । बैठी या खड़ी प्रतिमा की भांति स्थिरता से बैठने या खड़ा रहने को प्रतिमा कहा गया है। यह कायक्लेश तप का एक प्रकार है । इसमें उपवास आदि की अपेक्षा कायोत्सर्ग, प्रासन व ध्यान की प्रधानता होती है। (प्रतिमा की जानकारी के लिये देखें---दशाश्रुतस्कन्ध, दशा सात)। वीरासनिक-सिंहासन पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती है, उसी स्थिति में सिंहासन के निकाल लेने पर स्थित रहना, वीरासन है। यह कठोर आसन है। इसकी साधना वीर मनुष्य ही कर सकता है। इसलिए इसका नाम 'वीरासन' है। विशेष विवरण के लिये देखें-उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ० १४६-५० । नैषधिक-इसका अर्थ है-बैठने की विधि । ३८. प्रातापक-प्रातापना का अर्थ है-प्रयोजन के अनुरूप सूर्य का प्रताप लेना । प्रौपपातिक के वृत्तिकार ने आतापना के प्रासन-भेद से अनेक भेद प्रतिपादित किये हैं । प्रातापना के तीन प्रकार हैं । १. निपन्न-सोकर ली जाने वाली--उत्कृष्ट । २. अनिपन्न-बैठकर ली जाने वाली—मध्यम । ३. उर्ध्वस्थित-खड़े होकर ली जाने वाली-जघन्य । निपन्न आतापन के तीन प्रकार हैं—१. अधोरुकशायिता, २, पार्श्वशायिता, ३, उत्तानशायिता। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं अनिपन्न आतापना के तीन प्रकार हैं-१. गोदोहिका, २. उत्कटुकासनता, ३. पर्यङ्कासनता। उर्ध्वस्थान आतापना के तीन प्रकार हैं-१. हस्तिशौंडिका, २. एकपादिका, ३. समपादिका। ३६. प्रतिक्रमण-प्रतिक्रमण का अर्थ है-अशुभ योग में चले जाने पर पुनः शुभ योग में लौट आना । प्रस्तुत सूत्र में विषय-भेद के आधार पर प्रतिक्रमण के पांच प्रकार किये गये हैं। १. प्रास्रवप्रतिक्रमण—प्राणातिपात प्रादि प्रास्रवों से निवृत्त होना। इसका तात्पर्य है—असंयम से प्रतिक्रमण करना । २. मिथ्यात्वप्रतिक्रमण —मिथ्यात्व से पुनः सम्यक्त्व में लौट पाना । ३. कषायप्रतिक्रमण-कषायों से निवृत्त होना। ४. योग प्रतिक्रमण-मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्त होना, अप्रशस्त योगों से निवृत्ति । ५. भाव प्रतिक्रमण-इसका अर्थ है-मिथ्यात्व आदि में स्वयं प्रवृत्त न होना, दूसरों को प्रवृत्त न करना और प्रवृत्त होने वाले का अनुमोदन न करना । विशेष की विवक्षा करने पर चार विभाग होते हैं-१. मिथ्यात्व प्रतिक्रमण, २. असंयमप्रतिक्रमण ३. कषायप्रतिक्रमण ४. योगप्रतिक्रमण । और उसकी विवक्षा न करने पर उन चारों का समावेश भाव प्रतिक्रमण में हो जाता है। ४०. प्रतिसंलीनता–प्रतिसंलीनता बाह्य तप का छठा प्रकार है। इसका अर्थ है-विषयों से इन्द्रियों को संहृत कर अपने-अपने गोलक में स्थापित करना तथा प्राप्त विषयों में राग-द्वेष का निग्रह करना। उत्तराध्ययन और तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिसंलीनता के स्थान पर विविक्तशयनासन, विविक्तशय्या आदि भी मिलते हैं। प्रतिसलीनता के चार प्रकार हैं--१. इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, २. कषायप्रतिसंलीनता ३. योगप्रतिसंलीनता, ४. विविक्तशयनासन सेवन । प्रस्तुत सूत्र में इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के पाँच प्रकारों का उल्लेख है। विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ० १६२/६३ । ४१. प्रस्तुत सूत्र में दस प्रकार के प्रायश्चित्त निर्दिष्ट हैं । इनका निर्देश दोषों की लघुता और गुरुता के आधार पर किया गया है। कई दोष आलोचना प्रायश्चित्त द्वारा, कई प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त द्वारा है और कई पारांचिक प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होते हैं। इसी आधार पर प्रायश्चित्तों का निरूपण किया गया है। प्राचार्य अकलंक ने बताया है कि जीव के परिणाम असंख्येय लोक जितने होते हैं, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह २ चित्त-समाधि : जैन योग उतने ही अपराध होते हैं और जितने अपराध होने हैं, उतने ही उनके प्रायश्चित्त होने चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है । प्रायश्चित्त के जो प्रकार निर्दिष्ट हैं, वे व्यवहार नय की दृष्टि से पिंडरूप में निर्दिष्ट हैं । दिगम्बर परम्परानुसारी तत्त्वार्थसूत्र तथा उसकी व्याख्या -- तत्त्वार्थ वार्तिक में प्रायश्चित्त के नौ ही प्रकार निर्दिष्ट हैं - १. आलोचना, २ . प्रतिक्रमण, ३. तदुभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. परिहार, ६. उपस्थापना । इनमें दसवें प्रायश्चित्त- पारांचिक का उल्लेख नहीं है । मूल प्रायश्चित्त के स्थान पर 'उपस्थापना' का उल्लेख है । अर्थ एक ही है । तत्वार्थ वार्तिक में 'अनवस्थाप्य' का भी उल्लेख नहीं है, किन्तु उसमें 'परिहार' नामक प्रायश्चित्त का उल्लेख है, जो श्वेताम्बर परम्परा में प्राप्त नहीं हैं । इसका अर्थ है— पक्ष, मास श्रादि काल मर्यादा के अनुसार प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि को संघ से बाहर रखना । अपकृष्ट आचार्य के पास प्रायश्चित्त ग्रहण करना अनुपस्थापन है और तीन प्राचार्यों तक, एक आचार्य से अन्य आचार्य के पास प्रायश्चित्त ग्रहण करने के लिये भेजना पारांचिक है । तत्त्वार्थवार्तिक में प्रायश्चित्त प्राप्ति का विवरण इस प्रकार है १. विद्या और ध्यान के साधनों को ग्रहण करने आदि में विनय के बिना प्रवृत्ति करना दोष है, उसका प्रायश्चित्त है आलोचना | २. देश और काल के नियम से अवश्य करणीय विधानों को धर्म - कथा आदि के कारण भूल जाने पर पुनः करने के समय प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त । ३. भय, शीघ्रता, विस्मरण, अज्ञान, अशक्ति और आपत्ति आदि कारणों से महाव्रतों में प्रतिचार लग जाना ---इसके लिये छेद के पहले के छहों प्रायश्चित्त हैं । ४. शक्ति का गोपन न कर प्रयत्न से परिहार करते हुए किसी कारणवश अप्रासुक के स्वयं ग्रहण करने या ग्रहण कराने में, व्यक्त प्रासुक का विस्मरण हो जाए और ग्रहण करने पर उसका स्मरण हो जाए तो पुनः उत्सर्ग (विवेक) करना ही प्रायश्चित्त है । ५. दुःस्वप्न, दुश्चिन्ता, मलोत्सर्ग, मूत्र का प्रतिचार, महानदी और महाअटवी को पार करने में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है । ६. बार-बार प्रमाद, बहु दृष्ट अपराध, प्राचार्य श्रादि के विरुद्ध वर्तन करना, सम्यग्दर्शन की विराधना होने पर क्रमश: छेद, मूल अनुपस्थापना और पारांचिक प्रायश्चित्त दिया जाता है । प्रायश्चित्त के निम्न निर्दिष्ट प्रयोजन हैं - १. प्रमादजनित दोषों का निराकरण । २. भावों की प्रसन्नता । ३. शल्य रहित होना । ४. अव्यवस्था का निवारण । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणे ५. मर्यादा का पालन । ६. संयम की दृढ़ता । ७. आराधना । प्रायश्चित्त एक प्रकार की चिकित्सा है। चिकित्सा रोगी को कष्ट देने के लिये नहीं की जाती, किन्तु रोग निवारण के लिये की जाती है। इसी प्रकार प्रायश्चित्त भी राग आदि अपराधों के उपशमन के लिये दिया जाता है। निशीथभाष्यकार ने तीर्थंकर की धनवंतरी से, प्रायश्चित्त प्राप्त साधु की रोगी से, अपराधों की रोगों से और प्रायश्चित्त की औषध से तुलना की है। ४२. विनय-विनय का एक अर्थ है-कर्मपुद्गलों का विनयन-विनाश करने वाला प्रयत्न। इस परिभाषा के अनुसार ज्ञान, दर्शन आदि को विनय कहा गया है, क्योंकि उनके द्वारा कर्मपुद्गलों का विनयन होता है । विनय का दूसरा अर्थ हैभक्ति-बहुमान आदि करना। इस परिभाषा के अनुसार ज्ञान-विनय का अर्थ हैज्ञान की भक्ति-बहुमान करना। तपस्या का पूर्णांग एवं व्यवस्थित निरूपण औपपातिक में मिलता है। ४३. दो सूत्रों में दस प्रकार के वैयावृत्त्य निर्दिष्ट हैं। वैयावृत्त्य का अर्थ हैसेवा करना, कार्य में प्रवृत्त होना। अग्लानभाव से किया जाने वाला वैयावृत्त्य महानिर्जरा-बहुत कर्मों का क्षय करने वाला तथा महापर्यवसान-जन्म-मरण का आत्यन्तिक उच्छेद करने वाला होता है। अग्लान भाव का अर्थ है- अखिन्नता, बहुमान । दस प्रकार ये हैं१. प्राचार्य-ये पांच प्रकार के होते हैं--प्रव्राजनाचार्य, दिगाचार्य, उद्देसनाचार्य, समुद्देशनाचार्य और वाचनाचार्य । २. उपाध्याय—सूत्र की वाचना देने वाला । ३. स्थविर-धर्म में स्थिर करने वाले । ये तीन प्रकार के होते है जातिस्थविर—जिसकी आयु ६० वर्ष से अधिक है। पर्यायस्थविरजिसका पर्यायकाल २० वर्ष या अधिक है। ज्ञानस्थविर-स्थानांग तथा समवायांग का धारक । ४. तपस्वी—मासक्षपण आदि बड़ी तपस्या करने वाला। ५. ग्लान-रोग आदि से प्रसक्त, खिन्न । ६. शैक्ष-शिक्षा ग्रहण करने वाला, नवदीक्षित । ७. कुल—एक प्राचार्य के शिष्यों का समुदाय । ८. गण—कुलों का समुदाय । ६. संघ—गणों का समुदाय । १०. सार्मिक-वेष और मान्यता में समानधर्मा । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y ४४. ध्यान शब्द की विशद जानकारी के लिये अनुसार चेतना के दो प्रकार हैं- — चल और स्थिर । चेतना को ध्यान कहा जाता है । चित्त-समाधि : जैन योग ध्यान- शतक द्रष्टव्य हैं । उसके चल चेतना को चित् और स्थिर ध्यान के वर्गीकरण में प्रथम दो ध्यान - आर्त और रौद्र उपादेय नहीं हैं । अन्तिम दो ध्यान – धर्म्य और शुक्ल उपादेय हैं । आर्त और रौद्र ध्यान शब्द की समानता के कारण ही यहाँ निर्दिष्ट हैं । ४५-४६. प्रस्तुत चार सूत्रों (४ / ६१ से ६४ तक ) में आर्त और रौद्र-ध्यान के स्वरूप तथा उनके लक्षण निर्दिष्ट हैं । आर्त्त ध्यान में कामाशंसा और भोगाशंसा की प्रधानता होती है और रौद्र-ध्यान में क्रूरता की प्रधानता होती है । ध्यान- शतक में रौद्रध्यान के कुछ लक्षण भिन्न प्रकार से निर्दिष्ट हैं स्थानांग उत्सन्नदोष बहुदोष श्रज्ञानदोष श्रामरणान्तदोष ध्यान- शतक उत्सन्नदोष बहु दोष नानाविधदोष आमरणदोष इनमें दूसरे और चौथे प्रकार में केवल शब्द भेद है । तीसरा प्रकार सर्वथा भिन्न है । नानाविधदोष का अर्थ है - चमड़ी उखेड़ने, प्रांखें निकालने आदि हिंसात्मक कार्यों में बार-बार प्रवृत्त होना । हिंसाजनित नानाविध क्रूर कर्मों में प्रवृत्त होना ज्ञानदोष से भी फलित होता है | प्रज्ञान शब्द इस तथ्य को प्रकट करता है कि कुछ लोग हिंसा प्रतिपादक शास्त्रों से प्रेरित होकर धर्म या अभ्युदय के लिये नानाविध क्रूर कर्मों में प्रवृत्त होते हैं । ४७-४८. इन आठ सूत्रों (४ / ६५ से ७२ तक ) में धर्म्य और शुक्ल -ध्यान के ध्येय, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षाएं निर्दिष्ट हैं । धर्म्यध्यानधर्म्य ध्यान के चार ध्येय बतलाए गए हैं। ये अन्य ध्येयों के संग्राहक या सूचक हैं | ध्येय अनन्त हो सकते हैं । द्रव्य और पर्याय अनन्त हैं । जितने द्रव्य और पर्याय हैं, उतने ही ध्येय हैं । उन अनन्त ध्येयों का उक्त चार प्रकारों में समीकरण किया गया है । प्रज्ञाविचय प्रथम ध्येय है । इसमें प्रत्यक्ष ज्ञानी द्वारा प्रतिपादित सभी तत्त्व ध्याता के लिये ध्येय बन जाते हैं । ध्यान का अर्थ तत्त्व की विचारणा नहीं है । उसका अर्थ है तत्त्व का साक्षात्कार | धर्म्यध्यान करने वाला श्रागम में निरूपित तत्त्वों का आलम्बन लेकर उनका साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है । दूसरा ध्येय है अपायविचय । इसमें द्रव्यों के संयोग और उनसे उत्पन्न विकार या वैभाविक पर्याय ध्येय बनते हैं । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं तीसरा ध्येय है विपाकविचय । इसमें द्रव्यों के काल, संयोग प्रादि सामग्रीजनित परिपाक, परिणाम या फल ध्येय बनते हैं । चौथा ध्येय है संस्थानविचय | यह आकृति-विषयक प्रालम्बन है। इसमें एक परमाणु से लेकर विश्व के प्रशेष द्रव्यों के संस्थान ध्येय बनते हैं । ६५ घध्यान करने वाला उक्त ध्येयों का प्रालम्बन लेकर परोक्ष को प्रत्यक्ष की भूमिका में अवतरित करने का अभ्यास करता है । यह अध्ययन का विषय नहीं है, किन्तु अपने अध्यवसाय की निर्मलता से परोक्ष विषयों के दर्शन की साधना है । ज्ञान की ध्यान से पूर्व ध्येय का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक होता है । उस प्रक्रिया में चार लक्षणों और आलम्बनों का निर्देश किया गया है । ध्यान की योग्यता प्राप्त करने के लिए चित्त की निर्मलता आवश्यक होती है, अहंकार और ममकार का विसर्जन आवश्यक होता है । इस स्थिति की प्राप्ति के लिए चार अनुप्रेक्षात्रों का निर्देश किया गया है । एकत्वभावना का अभ्यास करने वाला अहं के पाश से मुक्त हो जाता है । अनित्यभावना का अभ्यास करनेवाला ममकार के पाश से मुक्त हो जाता है । धर्म्य ध्यान का शब्दार्थ - जो धर्म से युक्त होता है, उसे घर्म्य कहा जाता है । धर्म का एक अर्थ है आत्मा की निर्मल परिणति मोह श्रौर क्षोभरहित परिणाम । धर्म का दूसरा अर्थ है - सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र | धर्म का तीसरा अर्थ है-वस्तु का स्वभाव । इन अथवा इन जैसे अन्य अर्थों में प्रयुक्त धर्म को ध्येय बनाने वाला ध्यान धर्म्यध्यान कहलाता है । धर्म्यध्यान के अधिकरी — अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयति श्रौर अप्रमत्तसंयति- इन सबको धर्म्यध्यान करने की योग्यता प्राप्त हो सकती है । शुक्लध्यान के अधिकारी - शुक्लध्यान के चार चरण हैं । उनमें प्रथम दो चरणों — पृथक्त्व -सविचारी और एकत्ववितर्क- अविचारी के अधिकारी श्रुतकेवली ( चतुर्दशपूर्वी) होते हैं । इस ध्यान में सूक्ष्म द्रव्यों और पर्यायों का श्रालम्बन लिया जाता है, इसलिये सामान्य श्रुतधर इसे प्राप्त नहीं कर सकते । १. पृथक्त्ववितर्क - सविचारी - जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक दृष्टियों-नयों से चिन्तन किया जाता है और पूर्व श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा जहां शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन और काया में से एक-दूसरे में संक्रमण नहीं किया जाता, शुक्लध्यान की उस स्थिति को पृथक्त्ववितर्क - सविचारी कहा जाता है । २. एकत्व वितर्क - अविचारी- - जब एक द्रव्य से किसी एक पर्याय का प्रभेद दृष्टि से चिन्तन किया जाता है और पूर्व श्रुत का श्रालम्बन लिया जाता है तथा जहाँ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग शब्द, अर्थ एवं मन, वचन, काया में से एक-दूसरे में संक्रमण नहीं किया जाता, शुक्लध्यान की उस स्थिति को एकत्ववितर्क-अविचारी कहा जाता है । ३. सूक्ष्मक्रिय अनिवत्ति- जब मन और वाणी के योग का पूर्ण निरोध हो जाता है और काया के योग का पूर्ण निरोध नहीं होता; श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया शेष रहती है, उस अवस्था को सूक्ष्मक्रिय कहा जाता है। इसका निवर्तन-ह्रास नहीं होता, इसलिये यह अनिवृत्ति है। ४. समुच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाति-जब सूक्ष्म-क्रिया का भी निरोध हो जाता है, उस अवस्था को समुच्छिन्नक्रिय कहा जाता है । इसका पतन नहीं होता, इसलिये यह अप्रतिपाति है। उपाध्याय यशोविजयजी ने हरिभद्रसूरिकृत योगबिन्दु के आधार पर शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों की तुलना संप्रज्ञातसमाधि से की है। संप्रज्ञातसमाधि के चार प्रकार हैं-वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत । उन्होंने शुक्लध्यान के शेष दो चरणों की तुलना असंप्रज्ञातसमाधि से की है। __ प्रथम दो चरणों में पाये हुये वितर्क और विचार शब्द जैन, योगदर्शन और बौद्धतीनों ध्यान-पद्धतियों में समान रूप से मिलते हैं। जैन साहित्य के अनुसार वितर्क का मर्थ श्रुतज्ञान और विचार का अर्थ संक्रमण है । वह तीन प्रकार का होता है १. अर्थविचार-अभी एक श्रुतवचन ध्येय बना हुआ है, उसे छोढ़ पर्याय को ध्येय बना लेना । पर्याय को छोड़ फिर द्रव्य को ध्येय बना लेना अर्थ का संक्रमण है। २. व्यञ्जनविचार-अभी एक श्रुतवचन ध्येय बना हुआ है, उसे छोड़ दूसरे श्रुतवचन को ध्येय बना लेना। कुछ समय बाद उसे छोड़ किसी अन्य श्रुतवचन को ध्येय बना लेना व्यञ्जन संक्रमण है। ३. योगविचार-काययोग को छोड़कर मनोयोग का आलम्बन लेना. मनोयोग को छोड़कर फिर काययोग का पालम्बन लेना योग संक्रमण है। यह संक्रमण श्रम को दूर करने तथा नए-नए पर्यायों को प्राप्त करने के लिये किया जाता है, जैसे—हम लोग मानसिक-ध्यान करते हुए थक जाते हैं, तब कायिक-ध्यान (कायोत्सर्ग, शरीर का शिथिलीकरण) प्रारंभ कर देते हैं । उसे समाप्त कर फिर मानसिक ध्यान प्रारंभ कर देते हैं । पर्यायों के सूक्ष्मचिन्तन से थककर द्रव्य का आलम्बन लेते हैं । इसी प्रकार श्रुत के एक वचन से ध्यान उचट जाए तब दूसरे वचन को मालम्बन बना लेते हैं। नई उपलब्धि के लिए ऐसा करते हैं। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं योगदर्शन के अनुसार वितर्क का अर्थ स्थूलभूतों का साक्षात्कार और विचार का अर्थ सूक्ष्मभूतों और तन्मात्राओं का साक्षात्कार है। बौद्धदर्शन के पनुसार वितर्क का अर्थ आलम्बन में स्थिर होना और विकल्प का अर्थ उस (आलम्बन) में एकरस हो जाना। इन तीनों परम्पराओं में शब्द-साम्य होने पर भी उनके संदर्भ पृथक् हैं ।। आचार्य अकलंक ने ध्यान के परिकर्म (तैयारी) का बहुत सुन्दर वर्णन किया है । उन्होंने लिखा है- 'उत्तमशरीरसंहनन होकर भी परीषहों के सहने की क्षमता का आत्मविश्वास हुए बिना ध्यान-साधना नहीं हो सकती। परीषहों की बाधा सहकर ही ध्यान प्रारंभ किया जा सकता है । पर्वत, गुफा, वृक्ष की खोह, नदी, तट, पुल, श्मशान, जीर्णउद्यान और शून्यागार प्रादि किसी स्थान में व्याघ्र-सिंह, मृग, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि के अगोचर, निर्जन्तु, समशीतोष्ण, अतिवायुरहित, वर्षा, आतप आदि से रहित, तात्पर्य यह है कि सब तरफ से बाह्य-प्राभ्यन्तर बाधाओं से शून्य और पवित्र भूमि पर सुखपूर्वक पल्यङ्कासन में बैठना चाहिये। उस समय शरीर को सम, ऋजु और निश्चल रखना चाहिये। बाएं हाथ पर दाहिना हाथ रखकर न खुले हुए और न बन्द, किन्तु कुछ खुले हुए दांतों पर दांतों को रखकर, कुछ ऊपर किये हुए, सीधी कमर और गंभीर गर्दन किये हुए, प्रसन्न मुख और अनिमिष स्थिर सौम्यदृष्टि होकर निद्रा, आलस्य, कामराग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदि को छोड़कर मन्द-मन्द श्वासोच्छ्वास लेने वाला साधु ध्यान की तैयारी करता है। वह नाभि के ऊपर हृदय, मस्तक या और कहीं अभ्यासानुसार चित्तवृत्ति को स्थिर रखने का प्रयत्न करता है। इस तरह एकाग्रचित्त होकर, राग, द्वेष, मोह का उपशम कर कुशलता से शरीर-क्रियाओं का निग्रह कर मन्द श्वासोच्छ्वास लेता हुअा निश्चित लक्ष्य और क्षमाशील हो बाह्यमाभ्यन्तर द्रव्य-पर्यायों का ध्यान करता हुप्रा वितर्क की सामर्थ्य से युक्त हो अर्थ और व्यञ्जन तथा मन, वचन, काय की पृथक्-पृथक् संक्रान्ति करता है । फिर शक्ति की कमी से योग से योगान्तर और व्यञ्जनान्तर में संक्रमण करता है।" धर्म्यध्यान की विशेष जानकारी के लिये देखें-'अतीत का अनावरण' (पृ० ७६-८६) ध्यान का प्रथम सोपान-धर्म्यध्यान नामक लेख । ४६. प्रस्तुत सूत्र में धर्म के तीन अंगों-अध्ययन, ध्यान और तपस्या का निर्देश है । इनमें पौर्वापर्य का संबंध है। अध्ययन के बिना ध्यान और ध्यान के बिना तपस्या नहीं हो सकती। पहले हम किसी बात को अध्ययन के द्वारा जानते हैं, फिर उसके प्राशय का ध्यान करते हैं । चिंतन, मनन और अनुप्रेक्षा करते हैं। फिर उसका आचरण करते हैं । स्वाख्यात' धर्म का यही क्रम है । भगवान् महावीर ने इसी क्रम का प्रतिपादन किया था। दूसरे स्थान में धर्म के दो प्रकार बतलाए गए हैं—श्रुतधर्म और चारित्रधर्म । यहाँ निर्दिष्ट तीन प्रकारों में से सु-अधीत और सु-ध्यात-श्रुतधर्म के प्रकार हैं और सु-तपस्थित चरित्र धर्म का प्रकार है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग ५०. धर्म की प्रियता और दृढ़ता—ये दोनों क्रमिक विकास की भूमिकाएं हैं । व्यक्ति में पहले प्रियता उत्पन्न होती है, फिर दृढ़ता आती है। इस दृष्टि से कुछ पुरुष प्रियधर्मा होते हैं, दृढ़धर्मा नहीं होते। यह भंग-रचना समुचित है। कुछ पुरुष दृढ़धर्मा होते हैं, प्रियधर्मा नहीं होते। यह दूसरे भंग की रचना संगत नहीं लगती। प्रियधर्मा हुए बिना कोई दृढ़धर्मा कैसे हो सकता है ? इस असंगति का उत्तर व्यवहारभाष्यकार तथा उसके आधार पर स्थानांग वृत्तिकार ने दिया है-कुछ पुरुषों की घृति और शक्ति दुर्बल होती है, किन्तु धर्म के प्रति उनकी प्रीति सहज होती है। इस कोटि के पुरुष धर्म के प्रति सरलता से अनुरक्त हो जाते हैं, किन्तु उसका दृढ़तापूर्वक पालन नहीं कर पाते। वे आपदा के समय में क्षुब्ध होकर स्वीकृत धर्माचरण से विचलित हो जाते हैं। कुछ पुरुषों की धृति और शक्ति प्रबल होती है, किन्तु उनमें धर्म के प्रति प्रीति उत्पन्न करना बहुत कठिन होता है। इस कोटि के पुरुष धर्म के प्रति सरलता से अनुरक्त नहीं होते, किन्तु वे जिस धर्माचरण को स्वीकार कर लेते हैं, जो प्रतिज्ञा करते हैं. उसे अंत तक पार पहुंचाते हैं। बड़ी से बड़ी कठिनाई आने पर भी वे स्वीकृत धर्म से विचलित नहीं होते। इस दृष्टि से सूत्रकार ने दूसरे भंग के अधिकारी पुरुष को दृढ़धर्मा कहा है । उसमें प्रियधर्मा का पक्ष गौण है, इसलिए सूत्रकार ने उसे अस्वीकृत किया है। ५१. महानिर्जरा-निर्जरा नव सद्भाव पदार्थों में एक पदार्थ है। इसका अर्थ है-बंधे हुए कर्मों का क्षीण होना । कर्मों का विपुल मात्र में क्षीण होना महानिर्जरा कहलाता है। महापर्यवसान----इसके दो अर्थ हैं—समाधिमरण और अपुनर्मरण । जिस व्यक्ति के महानिर्जरा होती है, वह समाधिपूर्ण मरण को प्राप्त होता है। यदि सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा हो जाती है तो वह अपुनर्मरण को प्राप्त होता है । जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। ५२. प्रस्तुत सूत्रों (६/३२ से ३३ तक) में प्रात्मवान् और अनात्मवान्--ये दोनों शब्द विशेष विमर्शणीय हैं। प्रत्येक प्राणी प्रात्मवान् होता है, किन्तु यहाँ आत्मवान् विशेष अर्थ का सूचक है । जिस व्यक्ति को प्रात्मा उपलब्ध हो गई है, अहं विसर्जित हो गया है, वह आत्मवान् है। साधना क्षेत्र में दो तत्त्व महत्त्वपूर्ण होते हैं-१. अहं का विसर्जन और २. ममकार का विसर्जन । जिस व्यक्ति का अहं छूट जाता है, उसके लिये ज्ञान, तप, लाभ, पूजा-सत्कार प्रादि-आदि विकास के हेतु बनते हैं। वह आत्मवान् व्यक्ति इन स्थितियों में सम रहता है। अनात्मवान् व्यक्ति अहं को विजित नहीं कर पाता। उसे जैसे-जैसे लाभ या पूजा-सत्कार मिलता रहता है, वैसे-वैसे उसका अहं बढ़ता है और वह किसी भी स्थिति का Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं है अंकन सम्यक् नहीं कर पाता। ये सभी स्थितियां उसके विकास में बाधक बनती हैं। अपने अहं के कारण वह दूसरों को तुच्छ समझने लगता है। १. अवस्था या दीक्षा-पर्याय के अहं से उसमें विनम्रता का अभाव हो जाता है। २. परिवार के अहं से वह दूसरों को हीन समझने लगता है । ३. श्रुत के अहं से उसमें जिज्ञासा का अभाव हो जाता है । ४. तप के अहं से उसमें क्रोध की मात्रा बढ़ती है। ५. लाभ के अहं से उसमें ममकार बढ़ता है । ६. पूजा-सत्कार के प्रहं से उसमें लौकषणा बढ़ती है। ५३. शस्त्र--वध या हिंसा के साधन को शस्त्र कहा जाता है। वह दो प्रकार का होता है---द्रव्य-शस्त्र और भाव-शस्त्र । प्रस्तुत सूत्र में दोनों प्रकार के शस्त्रों का संकलन है । इनमें प्रथम छह द्रव्य-शस्त्र हैं, शेष चार भाव-शस्त्र हैं—प्रांतरिक शस्त्र हैं। ५४. प्रस्तुत आलापक (सूत्र ४/२४६ से २५० तक) में कथा का विशद वर्णन किया गया है। आक्षेपिणी आदि कथा-चतुष्टय की व्याख्या दशकालिक-निर्यक्ति, मूलाराधना, दशवकालिक की व्याख्यानों, स्थानांगवृत्ति, धवला आदि अनेक ग्रंथों में मिलती है। दशवकालिक-नियुक्ति और मूलाराधना में इस कथा-चतुष्टय की व्याख्या समान है । स्थानांग वृत्तिकार ने आक्षेपणी की व्याख्या दशवकालिक-नियुक्ति के आधार पर की है। यह वृत्ति में उद्धत नियुक्ति गाथा से स्पष्ट होता है। धवला में इसकी व्याख्या भिन्न प्रकार से मिलती है। उसके अनुसार नाना प्रकार की एकांत दृष्टियों और दूसरे समयों की निराकरणपूर्वक शुद्धिकर छह द्रव्यों और नव पदार्थों का प्ररूपण करने वाली कथा को आक्षेपणी कहा जाता है। इसमें केवल तत्त्ववाद की स्थापना प्रधान है। __ प्रस्तुत आलापक में प्राक्षेपणी के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं। उनसे दशवकालिकनियुक्ति और मूलाराधना की व्याख्या ही पुष्ट होती है। विक्षेपणी की व्याख्या में कोई भिन्नता नहीं है । स्थानांग वृत्ति कार ने संवेजनी (संवेदनी) की जो व्याख्या की है, वह दशवकालिक-नियुक्ति प्रादि ग्रन्थों की व्याख्या से भिन्न है। उनके अनुसार इसमें वैक्रिय-शुद्धि तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की शुद्धि का कथन होता है। धवला के अनुसार इसमें पुण्यफल का कथन होता है । यह उक्त अर्थ से भिन्न नहीं है। निवेदनी की व्याख्या में कोई भिन्नता लक्षित नहीं होती। धवलाकार के अनुसार इसमें पाप का कथन होता है। प्रस्तुत आलापक में निवेदनी कथा के आठ विकल्प किए गए हैं। उनसे यह फलित होता है कि पुण्य और पाप-दोनों के फलों का कथन करना इस कथा का विषय है । इससे स्थानांग वृत्ति कार कृत संवे जनी की व्याख्या की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० चित्त-समाधि : जैन योग ५५. निर्याणमार्ग-मृत्यु के समय जीव-प्रदेश शरीर के जिन मार्गों से निर्गमन करते हैं, उन्हें निर्याणमार्ग कहा जाता है। यहां उल्लिखित पांच निर्याणमार्गों तथा उनके फलों का निर्देश केवल व्यावहारिक प्रतीत होता है। ५६. अन्तक्रिया-मृत्युकाल में मनुष्य का स्थूलशरीर छूट जाता है। सूक्ष्मशरीर—तैजस और कार्मण उसके साथ लगे रहते हैं। कार्मणशरीर के द्वारा फिर स्थूलशरीर निष्पन्न हो जाता है। अतः स्थूलशरीर के छूट जाने पर भी सूक्ष्मशरीर की सत्ता में जन्म-मरण की परम्परा का अन्त नहीं होता। उसका अन्त सूक्ष्मशरीर का विसर्जन होने पर होता है। जो व्यक्ति कर्म-बन्धन को सर्वथा क्षीण कर देता है, उसके सूक्ष्मशरीर छूट जाते हैं । उनके छूट जाने का अर्थ है-अन्तक्रिया या जन्म-मरण की परम्परा का अन्त । इस अवस्था में प्रात्मा शरीर आदि से उत्पन्न क्रियाओं का अन्त कर अक्रिय हो जाता है। ५७. सर्वभावेन-नंदीसूत्र में केवलज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों का विषय समान बतलाया गया है। दोनों में अन्तर इतना सा है कि केवली प्रत्यक्षज्ञान से जानता है और श्रुतज्ञानी परोक्ष-ज्ञान से। केवनी द्रव्य को सब पर्यायों से जानता है और श्रुतकेवली कुछ एक पर्यायों से जानता है। जो 'सर्वभावेन' किसी एक वस्तु को जानता है, वह सब कुछ जान लेता है। प्राचारांग में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन इस प्रकार हुमा 'जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥ इसी आशय का एक श्लोक न्यायशास्त्र में उपलब्ध होता है'एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥ ५८. प्रस्तुत सूत्र में कुछ शब्द विवेचनीय हैंविवेक-शरीर और आत्मा का भेद-ज्ञान । व्युत्सर्ग-शरीर का स्थिरीकरण, कायोत्सर्ग-मुद्रा। उञ्छ-अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा लिया जाने वाला भक्त-पान । सामुदानिक --समुदान का अर्थ है-भिक्षा । उसमें प्राप्त होने वाले को सामुदानिक कहा जाता है। ५६. प्रस्तुत सूत्र में अतिशायी ज्ञान-दर्शन की उपलब्धि की योग्यता का निरूपण किया गया है। उसकी उपलब्धि के सहायक तत्त्व दो हैं-शारीरिक दृढ़ता और अनासक्ति। और उसके बाधक तत्त्व भी दो हैं-शारीरिक कृशता श्रीर आसक्ति । इसी के आधार पर प्रस्तुत चतुर्भङ्गी की रचना की गई है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठोण १०१ साधारण नियम के अनुसार प्रतिशायी ज्ञान-दर्शन की उपलब्धि उसी व्यक्ति को हो सकती है, जो दृढ़ शरीर और देहासक्ति से मुक्त होता है, किन्तु सामग्री भेद से इसमें परिवर्तन हो जाता है, जैसे-एक मनुष्य अस्वस्थ या तपस्वी होने के कारण शरीर से कुश है, किन्तु देहासक्त नहीं है, इसलिए वह प्रतिशायी ज्ञान दर्शन को प्राप्त हो जाता है । एक मनुष्य स्वस्थ होने के कारण दृढ़ है, किन्तु देहासक्त है, इसलिए वह प्रतिशायी ज्ञान-दर्शन को प्राप्त नहीं होता । एक मनुष्य स्वस्थ होने के कारण शरीर से दृढ है और देहासक्त भी नहीं है, इसलिए वह प्रतिशायी ज्ञान-दर्शन को प्राप्त होता है । एक मनुष्य अस्वस्थ होने के कारण शरीर से कृश है, किन्तु देहासक्त है, इसलिए वह प्रतिशायी ज्ञान दर्शन को प्राप्त नहीं होता । जिसमें देहाशक्ति नहीं होती, उसे प्रतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त हो जाता है, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ । जिसमें देहासक्ति होती है, उसे प्रतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त नहीं होता, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ | इसकी व्याख्या दूसरे नय से भी की जा सकती है। प्रथम व्याख्या में प्रत्येक भंग का दो-दो व्यक्तियों से सम्बन्ध है । इस व्याख्या में प्रत्येक भंग का संबंध एक व्यक्ति की दो अवस्थाओं से होगा, जैसे कोई व्यक्ति कृश शरीर होता है, तब उसमें मोह प्रबल नहीं होता, देहासक्ति दृढ़ नही होती, प्रमाद अल्प होता है, किन्तु जब वह दृढ़ शरीर होता है, तब मांस उपचित होने के कारण उसका मोह बढ़ जाता है, देहासक्ति प्रबल हो जाती है और प्रमाद बढ़ जाता है । इस कोटि के व्यक्ति के लिये प्रथम भंग है । कोई व्यक्ति दृढ़ शरीर होता है तब वह अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का ध्यान आदि साधना पक्षों में नियोजन करता है, मोह विलय के प्रति जागरूक रहता है, किन्तु जब वह कृश शरीर हो जाता है, तब अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का साघना पक्षों में वैसा नियोजन नहीं कर पाता । इस कोटि के व्यक्ति के लिये दूसरे भंग की रचना है । प्रथम कोटि के व्यक्ति के शरीर के कृश होने पर मनोबल दृढ़ होता है और शरीर के दृढ़ होने पर वह कृश हो जाता है । दूसरी कोटि के व्यक्ति का मनोबल शरीर के दृढ़ होने पर दृढ़ होता है और शरीर के कुश होने पर कृश हो जाता है | तीसरी कोटि के व्यक्ति का मनोबल दृढ़ ही रहता है, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ | चौथी कोटि के व्यक्ति का मनोबल कृश ही होता है, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ | ६०. प्रस्तुत सूत्र में अवधि-दर्शन के विचलित होने के पांच स्थानों का निर्देश है । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ चित्त-समाधि : जैन योग विचलन का मूल कारण है-मोह की चतुर्विध परिणति-विस्मय, दया, लोभ और भय का आकस्मिक प्रादुर्भाव । जो दृश्य पहले नहीं देखा था, उसको देखते ही व्यक्ति का मन विस्मय से भर जाता है, जीवमय पृथ्वी को देख वह दया से पूर्ण हो जाता है तथा विपुल धन, ऐश्वर्य आदि देखकर वह लोभ से प्राकुन और अदृष्टपूर्व सर्पो को देखकर वह भयाक्रान्त हो जाता है । अत: विस्मय, दया, लोभ और भय भी उसके विचलन के कारण बनते हैं। इस सूत्र के कुछ विशेष शब्दों की मीमांसा १. पृथ्वी को छोटा सा-वृत्तिकार ने इसके दो प्रर्थ किये हैं-१. थोड़े जीवों वाली पृथ्वी और २. छोटी पृथ्वी । अवधिज्ञान उत्पन्न होने से पूर्व साधक के मन में कल्पना होती है कि पृथ्वी बड़ी तथा बहुत जीवों वाली है, पर जब वह उसे प्रपनी कल्पना से विपरीत पाता है, तब उसका अवधिदर्शन क्षुब्ध हो जाता है । १. शृंगाटक-तीन मार्गों का मध्य भाग । इसका आकार होगा> । २. तिराहा—जहाँ तीन मार्ग मिलते हों । इसका आकार यह होगा। । चौक-चार मार्गों का मध्य भाग। चतुष्कोण भूभाग । चौराहा–जहाँ चार मार्ग मिलते हों। इसका प्राकार + होगा। भिन्न-भिन्न व्याख्या ग्रन्थों में इसके अनेक अर्थ मिलते हैं -१. सीमाचतुष्क । २. त्रिपथभेदी। ३. बहुतर रथ्यात्रों का मिलन-स्थान । ४. चार मार्गों का समागम । ५. छह मार्गों का समागम । स्थानांग वृत्तिकार ने इसका अर्थ पाठ-स्थानों का मध्य किया है । चतुर्मुख-देवकुल आदि का मार्ग । देवकुलों के चारों ओर दरवाजे होते हैं । महापथ-राजमार्ग । पथ-सामान्य मार्ग । नगर निर्द्ध मन—नगर के नाले । शाँतिगृह-जहाँ राजा आदि के लिये शांतिकर्म - होम, यज्ञ आदि किया जाता शैलगृह-पर्वत को कुरेदकर बनाया हुप्रा मकान । उपस्थानगृह–सभामण्डप । भवनगृह-कुटुम्बीजन (घरेलू नौकर) के रहने का मकान । भवन और गृह का अर्थ पृथक् रूप में भी किया जा सकता है। जिसमें चार शालाएं होती हैं, उसे भवन और जिसमें कमरे (अपवरक) होते हैं वह गृह कहलाता है । ६१. प्रस्तुत सूत्र में केवलज्ञान-दर्शन के विचलित न होने के पाँच स्थानों का निर्देश है । अविचलन के हेतु ये हैं-१. यथार्थ वस्तुदर्शन, २. मोहनीय कर्म की Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं १०३ क्षीणता, ३. भय, विस्मय और लोभ का प्रभाव, ४. अति गंभीरता। ६२. अधोवधि-अवधिज्ञान के ११ द्वार हैं-भेद, विषय, संस्थान, आभ्यन्तर, बाह्य, देश, सर्व, वृद्धि, हानि, प्रतिपाति और अप्रतिपाति । इन ग्यारह द्वारों में देश और सर्व दो द्वार हैं। देशावधि का अर्थ है—अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित वस्तुओं के एकदेश को जानना । सर्वावधि का अर्थ है---अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित वस्तुओं के सर्वदेश को जानना। प्रज्ञापना में अवधिज्ञान के ये दो प्रकार मिलते हैं—देशावधि और सर्वावधि । जयधवला में अवधिज्ञान के तीन भेद किए गये हैं-देशावधि, परमावधि, सर्वावधि । देशावधि से परमावधि और परमावधि से सर्वावधि का विषय व्यापक होता है। प्राचार्य अकलंक के अनुसार परमावधि का सर्वावधि में अन्तर्भाव होता है, अतः वह सर्वावधि की तुलना में देशावधि ही है। इस प्रकार अवधि के मुख्य भेद दो ही हैं । अधोवधि देशावधि का ही एक नाम है। देशावधि, परमावधि व सर्वावधि से अधोवर्ती कोटि का होता है, इसलिए यहां देशावधि के लिए अधोवधि का प्रयोग किया गया है । अधोवधिज्ञान जिसे प्राप्त होता है, उसे भी अधोवधि कहा गया है। अघोवधि का फलितार्थ होता है, नियत क्षेत्र को जानने वाला अवधिज्ञानी । ६३. वृत्तिकार ने केवलकल्प के तीन अर्थ किए हैं१. अपना कार्य करने की सामर्थ्य के कारण परिपूर्ण । २. केवलज्ञान की भांति परिपूर्ण । ३. सामयिकभाषा (आगमिक-संकेत) के अनुसार केवलकल्प अर्थात् परिपूर्ण । प्रस्तुत प्रसंग में यह बताया गया है कि अवोवधि पुरुष सम्पूर्ण लोक को जानतादेखता है। तत्त्वार्थवार्तिक में भी देशावधि का क्षेत्र जघन्यतः उत्सेधांगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्टतः सम्पूर्ण लोक बतलाया गया है । ६४. वृत्तिकार ने 'देशेन शृणोति' और 'सर्वेण शणोति' की साधना और विषय के आधार पर अर्थ-योजना की है। जिसका एक कान उपहत होता है, वह देशेन सुनता है और जिसके दोनों कान स्वस्थ होते हैं, वह सर्वेण सुनता है। शेष इन्द्रियों के लिए निम्न यंत्र द्रष्टव्य है-- देशेन सर्वेण एक भाग से स्पर्श करना सम्पूर्ण शरीर से स्पर्श करना रसन जीभ के एक भाग से चखना सम्पूर्ण जीभ से चखना घ्राण एक नथुने से सूंघना दोनों नथुनों से सूंघना एक आंख से देखना दोनों प्रांखों से देखना स्पर्शन चक्षु Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ चित्त-समाधि : जैन योग देशेन और सर्वेण का अर्थ इन्द्रियों की नियतार्थ ग्रहण-शक्ति और संभिन्नश्रोतोल ब्धि के आधार पर भी किया जा सकता है। सामान्यत: इन्द्रियों का काम निश्चित होता है। सुनना श्रोत्रेन्द्रिय का कार्य है। देखना चक्षु-इन्द्रिय का कार्य है । सूघना घ्राण-इन्द्रिय का कार्य है। स्वाद लेना रसनेन्द्रिय का कार्य है और स्पर्श-ज्ञान करना स्पर्शनेन्द्रिय का कार्य है। जिसे संभिन्नश्रोतोलब्धि प्राप्त होती है, उसके लिए इन्द्रियों की अर्थग्रहण की प्रतिनियतता नहीं रहती। वह एक इन्द्रिय से सब इन्द्रियों का कार्य कर सकता है-अांखों से सुन सकता है, कान से देख सकता है, स्पर्श से सुन सकता है, देख सकता है, संघ सकता है, एक इन्द्रिय से पाँचों इन्द्रियों का कार्य कर सकता है । अावश्यकचूर्णिकार ने लिखा है कि—संभिन्नश्रोतोलब्धि सम्पन्न व्यक्ति शरीर के एक देश से पांचों इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण कर लेता है। उन्होंने दूसरे स्थान पर यह लिखा है कि संभिन्नश्रोतोल ब्धि संपन्न व्यक्ति शरीर के किसी भी अंगोपांग से सब विषयों को ग्रहण कर सकता है । विषय की दृष्टि से देशेन सुनने का अर्थ है-श्रव्य शब्दों में से अपूर्ण शब्दों को सुनना और सर्वेण सुनने का अर्थ है-श्रव्य शब्दों में से सब शब्दों को सुनना। यहां दोनों अर्थ घटित हो सकते हैं, फिर भी सूत्र का प्रतिपाद्य संभिन्नश्रोतोलब्धि की जानकारी देना प्रतीत होता है। ६५. विक्रिया-विक्रिया का अर्थ है-विविध रूपों का निर्माण या विविध प्रकार की क्रियाओं का सम्पादन । वह दो प्रकार की होती है—भवधारणीय (जन्म के समय होनेवाली) और उत्तरकालीन । प्रस्तुत सूत्र में विक्रिया के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं—१. पर्यादाय, २. अपर्यादाय, ३. पर्यादाय-अपर्यादाय । भवधारणीय शरीर से अतिरिक्त रूपों का निर्माण (उत्तरकालीन-विक्रिया) बाह्यपुद्गलों का ग्रहण कर की जाती है, इसलिये उसकी संज्ञा पर्यादाय विक्रिया है। भवधारणीय विक्रिया बाह्यपुद्गलों को ग्रहण किये बिना होती है, इसलिये उसकी संज्ञा अपर्यादाय विक्रिया है। ___ भवधारणीय शरीर का कुछ विशेष संस्कार करने के लिये जो विक्रिया की जाती है, उसमें बाह्यपुद्गलों का ग्रहण और अग्रहण-दोनों होते हैं, इसलिये उसकी संज्ञा पर्यादाय-अपर्यादाय विक्रिया है। वत्तिकार ने विक्रिया का दूसरा अर्थ किया है—भूषित करना। बाह्यपुद्गल ग्राभरण आदि लेकर शरीर को विभूषित करना पर्यादाय विक्रिया होती है और बाह्यपुद्गलों का ग्रहण न करके केश, नख आदि को संवारना अपर्यादाय विक्रिया कहलाती Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं १०५ बाह्यपुद्गलों के बिना गिरगिट अपने शरीर को नाना रंगमय बना लेता है तथा सर्प फणावस्था में अपनी अवस्था को विशिष्ट रूप दे देता है। ६६. प्रस्तुत सूत्र में गण धारण करनेवाले व्यक्ति के लिये छह कसौटियां निर्दिष्ट श्रद्धा-अश्रद्धावान् पुरुष मर्यादानिष्ठ नहीं हो सकता। जो स्वयं मर्यादानिष्ठ नहीं होता, वह दूसरों को मर्यादा में स्थापित नहीं कर सकता। इसलिये गणी की प्रथम योग्यता 'श्रद्धा'-मर्यादाओं के प्रति विश्वास है। सत्य-इसके दो अर्थ हैं—१. यथार्थवचन, २. प्रतिज्ञा के निर्वाह में समर्थ । यथार्थभाषी पुरुष ही यथार्थ का प्रतिपादन कर सकता है। जो की हुई प्रतिज्ञा के निर्वाह में समर्थ होता है, वही दूसरों में विश्वास उत्पन्न कर सकता है। गणी दूसरों के लिये विश्वस्त होना चाहिये । इसलिये उसकी दूसरी योग्यता 'सत्य' है। मेधा-पागम-साहित्य में मेधावी के दो अर्थ प्राप्त होते हैं-१. मर्यादावान्, २. श्रुतग्रहण करने की शक्ति से सम्पन्न । जो व्यक्ति स्वयं मर्यादावान् है, वही दूसरों को मर्यादा में रख सकता है और वही व्यक्ति अपने गण में मर्यादानों को अक्षुण्ण रख सकता है । जो व्यक्ति तीक्ष्ण बुद्धि से सम्पन्न होता है, वही श्रुतग्रहण करने में समर्थ होता है। ऐसा व्यक्ति ही दूसरों से श्रुतग्रहण कर अपने शिष्यों को उसका अध्यापन कराने में समर्थ हो सकता है। इस प्रकार वह स्वयं अनेक विषयों का ज्ञाता होकर अपने गण में शिष्यों को भी इसी ओर प्रेरित कर सकता है। इसलिए उसकी तीसरी योग्यता 'मेघा' बहुश्रुतता-जैन परम्परा में 'बहुश्रुत' व्यक्ति का बहुत समादर रहा है। उसे गण का एकमात्र उपष्टम्भ माना है। उत्तराध्ययन सूत्र में 'बहुस्सुयपूमा' नाम का ग्यारहवां अध्ययन है। उसमें बहुश्रुत की महिमा बतलाई गई है। उत्तरवर्ती व्याख्या प्रन्थों में भी बहुश्रुत व्यक्ति के लिये विशेष नियम उपलब्ध होते हैं। प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में बताया गया है कि जो गणनायक बहुश्रुत नहीं होता, वह गण का अनुपकारी होता है। वह अपने शिष्यों की ज्ञानसंपदा कैसे बढ़ा सकता है? जो गण या कुल अगीतार्थ (अबहुश्रुत) की निश्रा में रहता है, उसका विस्तार नहीं होता। प्रगीतार्थ व्यक्ति बालवृद्धाकुलगच्छ का सम्यक् प्रवर्तन नहीं कर पाता। इसलिये उसकी चौथी योग्यता 'बहुश्रुतता' है । शक्ति-गणनायक को शक्तिसंपन्न होना चाहिये । उसकी शक्तिसंपन्नता के चार अवयव हैं १. शरीर से स्वस्थ व दृढ़ संहनन वाला होना। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जन योग 1 २. मंत्र के विधि-विधानों का ज्ञाता तथा अनेक मंत्रों की सिद्धियों से संपन्न । ३. तंत्र की सिद्धियों से संपन्न। ४. परिवार से संपन्न अर्थात् विशिष्ट शिष्यसंपदा से युक्त; विविध विषयों में निष्णात शिष्यों से परिवृत । इसलिये उसकी पांचवी योग्यता 'शक्ति' है । अल्पाधिकरणता- अधिकरण का अर्थ है- कलह या विग्रह । जो पुरुष स्वपक्ष या परपक्ष के साथ कलह करता रहता है, उसका गौरव नहीं बढ़ता। जिसके प्रति गुरुत्व की भावना नहीं होती, वह गण को लाभान्वित नहीं कर सकता। इसलिये गणी की छठी योग्यता 'अकलह' (प्रशान्त भाव) है। ६७. प्रस्तुत सूत्र के दृष्टांत में माधुर्य की तरतमता बतलाई गई है। प्रांवला ईषत् मधुर, द्राक्षा बहुमधुर, दुग्ध बहुतर मधुर और शर्करा बहुमत मधुर होती है।। प्राचार्यों के उपशम आदि प्रशान्त गुणों की माधुर्य के साथ तुलना की गई है। माधुर्य की भांति उपशम आदि में भी तरतमता होती है। किसी का उपशम (शांति) ईषत्, किसी का बहु, किसी का बहुतर और किसी का बहुतम होता है । ६८. पांच व्यवहार- भगवान् महावीर तथा उत्तरवर्ती प्राचार्यों ने संघ-व्यवस्था की दृष्टि से एक प्राचार-संहिता का निर्माण किया। उसमें मुनि के कर्तव्य और अकर्तव्य या प्रवृत्ति और निवृत्ति के निर्देश हैं। उसकी आगमिक संज्ञा 'व्यवहार' है। जिनसे यह व्यवहार संचालित होता है, वे व्यक्ति भी कार्य-कारण की अभेद दृष्टि से 'व्यवहार' कहलाते हैं। प्रस्तुत सूत्र में व्यवहार संचालन में अधिकृत व्यक्तियों की ज्ञानात्मक क्षमता के अाधार पर प्राथमिकता बतलाई गई है। व्यवहार संचालन में पहला स्थान प्रागमपुरुष का है। उसकी अनुपस्थिति में व्यवहार का प्रवर्तन श्रुतपुरुष करता है। उसकी अनुपस्थिति में आज्ञापुरुष, उसकी अनुपस्थिति में धारणापुरुष और उसकी अनुपस्थिति में जीतपुरुष करता है। १. पागम व्यवहार-इसके दो प्रकार हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं- १. अवधिप्रत्यक्ष, २, मनःपर्यवप्रत्यक्ष, ३. केवलज्ञानप्रत्यक्ष। परोक्ष के तीन प्रकार हैं-१. चतुर्दशपूर्वधर, २. दशपूर्वघर, ३. नौपूर्वधर । शिष्य ने यहां यह प्रश्न उपस्थित किया कि परोक्षज्ञानी साक्षात् रूप से श्रुत से व्यवहार करते हैं तो भला वे आगम व्यवहारी कैसे कहे जा सकते हैं ? आचार्य ने कहा-"जैसे केवलज्ञानी अपने अप्रतिहत ज्ञानबल से पदार्थों को सर्वरूपेण जानता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी श्रुतबल से जान लेता है।" जिस प्रकार प्रत्यक्षज्ञानी भी समान अपराध में न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देता है, 0 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं १०७ वैसे ही श्रुतज्ञानी भी पालोचक के राग-द्वेषात्मक अध्यवसायों को जानकर उनके अनुरूप न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देता है। शिष्य ने पुनः प्रश्न किया-प्रत्यक्षज्ञानी आलोचना करने वाले व्यक्ति के भावों को साक्षात् जान लेते हैं; किन्तु परोक्षज्ञानी ऐसा नहीं कर सकते, अतः न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देने का उनका आधार क्या है ? प्राचार्य ने कहा- "वत्स ! नालिका से गिरने वाले पानी के द्वारा समय जाना जाता है। वहाँ का अधिकारी व्यक्ति समय को जानकर, दूसरों को उसकी अवगति देने के लिये, समय-समय पर शंख बजाता है । शंख के शब्द को सुनकर दूसरे लोग समय का ज्ञान कर लेते हैं । इसी प्रकार श्रुतज्ञानी भी आलोचना तथा शुद्धि करने वाले व्यक्ति की भावनाओं को सुनकर यथार्थ स्थिति का ज्ञान कर लेते हैं। फिर उसके अनुसार उसे प्रायश्चित्त देते हैं। यदि वे यह जान लेते हैं कि अमुक व्यक्ति ने सम्यग् रूप से पालोचना नहीं की है तो वे उसे अन्यत्र जाकर शोधि करने की बात कहते हैं। प्रागम व्यवहारी के लक्षण-प्राचार्य के आठ प्रकार का संपदा होती हैप्राचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोगमति और संग्रहपरिज्ञा। इनके प्रत्येक के चार-चार प्रकार हैं । इस प्रकार इसके ३२ प्रकार हैं। चार विनयप्रतिपत्तियां हैं१. आचार विनय-आचार विषयक विनय सिखाना। २. श्रुत विनय-सूत्र और अर्थ की वाचना देना। ३. विक्षेपणा विनय-जो धर्म से दूर हैं, उन्हें धर्म में स्थापित करना; जो स्थित हैं, उन्हें प्रवजित करना; जो च्युतधर्मा हैं, उन्हें पुनः धर्मनिष्ठ बनाना और उनके लिये हित-संपादन करना। - ४. दोष निर्घात विनय-क्रोध-विनयन, दोष-विनयन तथा कांक्षा-विनयन के लिये प्रयत्न करना। जो इन ३६ गुणों में कुशल, आचार आदि आलोचनार्ह आठ गुणों से युक्त, अठारह वर्णनीय स्थानों का ज्ञाता, दस प्रकार के प्रायश्चित्तों को जानने वाला, आलोचना के दस दोषों का विज्ञाता, व्रत षट्क और काय षट्क को जानने वाला तथा जो जाति संपन्न आदि दस गुणों से युक्त है—वह आगमव्यवहारी होता है। शिष्य ने पूछा--'भंते ! वर्तमान काल में इस भरतक्षेत्र में आगम-व्यवहारी का विच्छेद हो चुका है। अतः यथार्थ शुद्धिदायक न रहने के कारण तथा दोषों की यथार्थ शुद्धि न होने के कारण वर्तमान में चारित्र की विशुद्धि नहीं है। न कोई आज मासिक या पाक्षिक प्रायश्चित्त ही देता है और न कोई उसे ग्रहण करता है। इसलिये वर्तमान में तीर्थ केवल ज्ञान-दर्शनमय है, चारित्रमय नहीं। केवली का व्यवच्छेद होने के बाद थोड़े समय में ही चौदह पूर्वधरों का भी व्यवच्छेद हो जाता है। अतः विशुद्धि कराने Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग वालों के अभाव में चारित्र की विशुद्धि नहीं रहती। दूसरी बात यह है कि केवली, जिन आदि अपराध के अनुसार प्रायश्चित्त देते थे, न्यून या अधिक नहीं। उनके अभाव में छेदसूत्रधर मनचाहा प्रायश्चित्त देते हैं, कभी थोड़ा और कभी अधिक। अतः वर्तमान में प्रायश्चित्त देने वाले के व्यवच्छेद के साथ-साथ प्रायश्चित्त का भी लोप हो गया है । प्राचार्य ने कहा-वत्स ! तू यह नहीं जानता कि प्रायश्चित्तों का मूलविधान कहां हुआ है ? वर्तमान में प्रायश्चित्त हैं या नहीं ? प्रत्याख्यानप्रवाद नामक नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु में समस्त प्रायश्चित्तों का विधान है। उस आकर-ग्रन्थ से प्रायश्चित्तों का निर्वृहण कर निशीथ, बृहत्कल्प और व्यवहार-इन तीन सूत्रों में उनका समावेश किया गया है। आज भी विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों को वहन करने वाले हैं। वे अपने प्रायश्चित्तों को विशेष प्रकार के उपायों से वहन करते हैं, अतः उनका वहन करना हमें दृग्गोचर नहीं होता। आज भी तीर्थ चारित्र सहित हैं तथा उनके निर्यापक भी हैं। २. श्रुत-व्यवहार-जो बृहकल्प और व्यवहार को बहुत पढ़ चुका है और उनको सूत्र तथा अर्थ की दृष्टि से निपुणता से जानता है, वह श्रुत-व्यवहारी कहलाता है। यहां श्रुत से भाष्यकार ने केवल इन दो सूत्रों का निर्देश किया है। प्राचार्य भद्रबाहु ने कुल, गण, संघ आदि में कर्त्तव्य-अकर्तव्य का व्यवहार उपस्थित होने पर द्वादशांगी से कल्प और व्यवहार-इन दो सूत्रों का निर्वृहण किया था। जो इन सूत्रों का अवगाहन कर चुका है और इनके निर्देशानुसार प्रायश्चित्तों का विधान करता है, वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है। ३. माज्ञा-व्यवहार-कोई प्राचार्य भक्त प्रत्याख्यान अनशन में व्याप्त है। वे जीवनगत दोषों की शुद्धि के लिये अन्तिम आलोचना के आकांक्षी हैं। वे सोचते हैंआलोचना देने वाले प्राचार्य दूरस्थ हैं। मैं अशक्त हो गया हूं, अतः उनके पास नहीं जा सकता तथा वे प्राचार्य भी यहाँ पाने में असमर्थ हैं, अत: मुझे आज्ञा-व्यवहार का प्रयोग करना चाहिये।' वे शिष्य को बुलाकर उन आचार्य के पास भेजते हैं और कहते हैं'प्रार्य ! मैं आपके पास शोधि करना चाहता हूं।' शिष्य वहां जाता है और प्राचार्य को यथोक्त बात कहता है। प्राचार्य भी वहाँ जाने में अपनी असमर्थता को लक्षित कर अपने मेधायी शिष्य को वहाँ भेजने की बात सोचते हैं । तब वे अपने गण में जो शिष्य आज्ञा-परिणामकर, प्रवग्रहण और धारणा में क्षय तथा सूत्र और अर्थ में मूढ़ न होने वाला होता है, उसे वहाँ भेजते हुए कहते हैं'वत्स ! तुम वहाँ आलोचना-माकांक्षी प्राचार्य के पास जागो और उनकी मालोचना को सुनकर यहाँ लौट मानो।' प्राचार्य द्वारा प्रेषित मुनि के पास पालोचनाकांक्षी प्राचार्य सरल हृदय से सारी मालोचना करते हैं । आगन्तुक मुनि आलोचक प्राचार्य की प्रीतिसेवना और आलोचना Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं १०६ की क्रमपरिपाटी का सम्यक् अवग्रहण और धारणा कर लेता है। वे कितने आगमों के ज्ञाता हैं ? उनकी प्रव्रज्या-पर्याय तपस्या से भावित है या अभावित ? उनकी ग्रहस्थ तथा व्रतपर्याय कितनी है ? शारीरिक बल की स्थिति क्या है ? वह क्षेत्र कैसा है ?--ये सारी बातें श्रमण उन प्राचार्य को पूछता है। उनके कथनानुसार तथा स्वयं के प्रत्यक्ष दर्शन से उनका अवधारण कर वह अपने प्रदेश में लौट आता है। वह अपने प्राचार्य के पास जाकर उसी क्रम से निवेदन करता है, जिस क्रम से उसने सभी तथ्यों का अवधारण किया था। ___ आचार्य अपने शिष्य के कथन को अवधान पूर्वक सुनते हैं और छेदसूत्रों (कल्प और व्यवहार) में निमग्न हो जाते हैं । वे पौर्वापर्य का अनुसंधान कर सूत्रगत नियमों के तात्पर्य की सम्यक् अवगति करते हैं। उसी शिष्य को बुलाकर कहते हैं—जायो, उन प्राचार्य को यह प्रायश्चित्त निवेदित कर आरो। वह शिष्य वहाँ जाता है और अपने प्राचार्य द्वारा कथित प्रायश्चित्त उन्हें सुना देता है । यह प्राज्ञाव्यवहार है। वृत्तिकार के अनुसार प्राज्ञाव्यवहार का अर्थ इस प्रकार है-दो गीतार्थ प्राचार्य भिन्न-भिन्न देशों में हों, वे कारणवश मिलने में असमर्थ हों, ऐसी स्थिति में कहीं प्रायश्चित्त आदि के विषय में एक-दूसरे का परामर्श अपेक्षित हो, तो वे अपने शिष्यों को गूढ़पदों में प्रष्टव्य विषय को निगृहित कर उनके पास भेज देते हैं। वे गीतार्थ आचार्य भी इसी शिष्य के साथ गूढ़पदों में ही उत्तर प्रेषित कर देते हैं । यह प्राज्ञाव्यवहार है। ४. धारणा-व्यवहार—किसी गीतार्थ प्राचार्य ने किसी समय किसी शिष्य के अपराध की शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्त दिया हो, उसे याद रखकर, वैसी ही परिस्थिति में उसी प्रायश्चित्त-विधि का उपयोग करना धारणा-व्यवहार कहलाता है। अथवर वैयावृत्य आदि विशेष प्रवृत्ति में संलग्न तथा अशेष छेदसूत्र को धारणा करने में असमर्थ साधु को कुछ विशेष-विशेष पद उद्धृत कर धारणा करवाने को धारणा-व्यवहार कहा जाता है। उद्धारणा, विधारणा, संधारणा और संप्रधारणा-~ये धारणा के पर्यायवाची शब्द हैं। १. उद्धारणा—छेदसूत्रों से उद्धृत अर्थपदों को निपुणता से जानना। २. विधारणा–विशिष्ट अर्थपदों को स्मृति में धारण करना। ३. संधारणा–धारण किये हुए अर्थपदों को आत्मसात् करना । ४. संप्रधारणा–पूर्ण रूप से अर्थपदों को धारण कर प्रायश्चित्त का विधान करना। ___ जो मुनि प्रवचन-यशस्वी, अनुग्रहविशारद, तपस्वी, सुश्रुत, बहुश्रुत, विनय और औचित्य से युक्त वाणी वाला होता है, वह यदि प्रमादवश मूलगुणों या उत्तरगुणों में स्खलना कर देता है, तब पूर्वोक्त तीन व्यवहारों के अभाव में भी, प्राचार्य छेदसूत्रों से अर्थपदों को धारण कर उसे यथायोग्य प्रायश्चित्त देते हैं। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० चित्त-समाधि : जैन योग भाव से छेदसूत्र के अर्थ का सम्यग् पर्यालोचन कर, प्राग्तन, धीर, दान्त और प्रलीन मुनियों द्वारा कथित तथ्यों के आधार पर प्रायश्चित्त का विधान करते हैं। यह धारणा. व्यवहार कहलाता है। यह भी माना जाता है कि किसी ने किसी को पालोचना शुद्धि करते हुए देखा। उसने यह अवधारण कर लिया कि इस प्रकार के अपराध के लिए यह शोधि होती है । परिस्थिति उत्पन्न होने पर वह उसी प्रकार का प्रायश्चित्त देता है तो वह धारणाव्यवहार कहलाता है। ___ कोई शिष्य प्राचार्य की वैयावृत्य में संलग्न है या गण में प्रधान शिष्य है या यात्रा के अवसर पर प्राचार्य के साथ रहता है. वह छेदसूत्रों के परिपूर्ण अर्थ को धारण करने में असमर्थ होता है। तब आचार्य उस पर अनुग्रह कर छेदसूत्रों के कई अर्थ-पद उसे धारण करवाते हैं । वह छेदसूत्रों का अंशतः धारक होता है । वह भी धारणा-व्यवहार का संचालन कर सकता है। ५. जीत-व्यवहार-किसी समय किसी अपराध के लिए प्राचार्यों ने एक प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया । दूसरे समय में देश, काल, धृति, संहनन, बल आदि देख. कर उसी अपराध के लिए जो दूसरे प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया जाता है, उसे जीत-व्यवहार कहते हैं। किसी प्राचार्य के गच्छ में किसी कारणवश कोई सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त प्रवर्तित हुप्रा और वह बहुतों द्वारा, अनेक बार अनुवर्तित हुप्रा । उस प्रायश्चित्त-विधि को 'जीत' कहा जाता है। शिष्य ने यह प्रश्न उपस्थित किया कि चौदहपुर्वी के उच्छेद के साथ-साथ आगम, श्रुत, आज्ञा और धारणा—ये चारों व्यवहार भी व्यवच्छिन्न हो जाते हैं । क्या यह सही प्राचार्य ने कहा-'नहीं, यह सही नहीं है। केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दशपूर्वी और नौपूर्वी—ये सब आगमव्यवहारी होते हैं, कल्प और व्यवहार सूत्रधर श्रुतव्यवहारी होते हैं; जो छेदसूत्र के अर्थधर होते हैं, वे आज्ञा और धारणा से व्यवहार करते हैं। आज भी छेदसूत्रों के सूत्र अर्थ को धारण करने वाले हैं, अतः व्यवहार-चतुष्क का व्यवच्छेद चौदहपूर्वी के साथ मानना युक्तिसंगत नहीं है।' जीतव्यवहार दो प्रकार का होता है—सावध जीतव्यवहार और निरवद्य जीतव्यवहार । वस्तुतः निरवद्य जीतव्यवहार से ही व्यवहरण हो सकता है, सावद्य से नहीं । परन्तु कहीं-कहीं सावध जीतव्यवहार का प्राश्रय भी लिया जाता है। जैसे—कोई मुनि ऐसा व्यवहार कर डालता है कि जिससे समुचे श्रमण-संघ की अवहेलना होती है और लोगों में तिरस्कार उत्पन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में शासन और लोगों में उस अपराध की विशुद्धि की अवगति कराने के लिए अपराधी मुनि को गधे पर चढ़ाकर सारे Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणं नगर में घुमाते हैं, पेट के बल रेंगते हुए नगर में जाने को कहते हैं, शरीर पर राख लगाकर लोगों के बीच जाने को प्रेरित करते हैं, कारागृह में प्रविष्ट करते हैं-ये सब सावद्य जीतव्यवहार के उदाहरण हैं। दस प्रकार के प्रायश्चित्त का व्यवहरण करना निरवद्य जीतव्यवहार है। अपवाद रूप में सावध जीतव्यवहार का भी पालम्बन लिया जाता है। जो श्रमण बार-बार दोष करता है, बहुदोषी है, सर्वथा निर्दय है तथा प्रवचन-निरपेक्ष है, ऐसे व्यक्ति के लिए सावद्य जीतव्यवहार उचित होता है। जो श्रमण वैराग्यवान्, प्रियधर्मा, अप्रमत्त और पापभीरु है, उसके कहीं स्खलित हो जाने पर निरवद्य जीतव्यवहार उचित होता है। जो जीतव्यवहार पार्श्वस्थ, प्रमत्तसंयत मुनियों द्वारा प्राचीर्ण है, भले फिर वह अनेक व्यक्तियों द्वारा प्राचीर्ण क्यों न हो, वह शुद्धि करने वाला नहीं होता है। व्यवहार साधु-संघ की व्यवस्था का प्राधार-बिन्दु रहा है। इसके माध्यम से संघ को निरन्तर जागरूक और विशुद्ध रखने का प्रयत्न किया जा रहा है। इसलिए चारित्र की आराधना में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । ६९. प्रस्तुत सूत्र में कुछ शब्द विवेचनीय हैं। वे ये हैं१. शिक्षा-इसके दो प्रकार हैं---ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा । ग्रहणशिक्षा-सूत्र और अर्थ का ग्रहण करना । आसेवन शिक्षा–प्रतिलेखन प्रादि का प्रशिक्षण लेना। २. भोजनमंडली-प्राचीनकाल में साधुओं के लिए सात मंडलियां होती थीं१. सूत्रमंडली, २. अर्थमंडली, ३. भोजनमंडली, ४. कालप्रतिलेखन मंडली, ५. पावश्यक (प्रतिक्रमण) मंडली, ६. स्वाध्यायमंडली, ७. संस्तारक मंडली। ३. उद्देश—यह अध्ययन तुम्हें पढ़ना चाहिए-गुरु के इस निर्देश को उद्देश कहा जाता है। ४. समुद्देश-शिष्य भलीभांति पाठ पढ़कर गुरु के निवेदित करता है। गुरु उस समय उसे स्थिर, परिचित करने का निर्देश देते हैं । यह निर्देश समुद्देश कहलाता है । ५. अनुज्ञा-पढ़े हुए पाठ के स्थिर परिचित हो जाने पर शिष्य फिर उसे गुरु को निवेदित करता है। इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर उसे सम्यक् प्रकार से धारण करने और दूसरों को पढ़ाने का निर्देश देते हैं । इस निर्देश को अनुज्ञा कहा जाता है। ६. पालोचना-गुरु को अपनी भूल निवेदन करना। ७. व्युतिवर्तन-प्रतिचारों के क्रम का विच्छेदन करना। ७०. स्थालीपाक-अट्ठारह प्रकार के स्थालीपाक--शुद्ध व्यञ्जन । स्थाली का अर्थ है --पकाने की हंडिया। शब्दकोष में इसके पर्यायवाची शब्द हैं—उखा, पिठर, कुंड, चरु, कुम्भी। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउविसइमं अज्झयणं । पवयण-माया १. अट्ठ पवयणमायानो', समिई गुत्ती तहेव य । पंचेव य समिईओ, तो गुत्तीग्रो आहिया ॥ २. इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय । मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा । ३. एयायो अट्ट समिईयो', समासेण वियाहिया। दुवालसंगं जिणक्खायं, मायं जत्थ उ पवयणं ।। ४. प्रालंबणेण कालेण, मग्गेण जयणाइ य । चउकारणपरिसुद्धं, संजए इरियं रिए । ५. तत्थ प्रालंबणं नाणं, दसणं चरणं तहा । काले य दिवसे वुत्ते, मग्गे उप्पहवज्जिए । ६. दव्वो खेत्तनो चेव, कालो भावग्रो तहा । जयणा चउव्विहा वुत्ता, तं मे कित्तयो सुण ॥ ७. दव्वनो चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं च खेत्तयो । __कालो जाव रीएज्जा, उवउत्ते य भावग्रो । ८. इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा । ___ तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए । ६. कोहे माणे य मोयाए, लोभे य उवउत्तया । हासे भए मोहरिए, विगहासु तहेव च । १०. एयाइं अट्ठ ठाणाइं परिवज्जित्तु संजए । असावज्जं मियं काले, भासं भासेज्ज पन्नवं ॥ ११. गवेसणाए गहणे य, परिभोगेसणा य जा । आहारोवहिसेज्जाए, एए तिन्नि विसोहए ।। १२. उग्गमुप्पायणं पढमे, बीए सोहेज्ज एसणं । परिभोयंमि चउक्कं, विसोहेज्ज जयं जई ।। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउविसइमं अज्झयणं । पवयण-माया १. अटू पवयणमायानो', समिई गुत्ती तहेव य । पंचेव य समिईयो, तमो गुत्तीग्रो आहिया ।। २. इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय । मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा ।। ३. एयायो अट्ट समिईयो', समासेण वियाहिया। दुवालसंगं जिणक्खायं, मायं जत्थ उपवयणं ।। ४. पालंबणेण कालेण, मग्गेण जयणाइ य । ___ चउकारणपरिसुद्धं, संजए इरियं रिए । ५. तत्थ प्रालंबणं नाणं, दंसणं चरणं तहा । काले य दिवसे वुत्ते, मग्गे उप्पहवज्जिए । ६. दव्वनो खेत्तो चेव, कालो भावग्रो तहा । __ जयणा चउव्विहा वृत्ता, तं मे कित्तयो सुण ॥ ७. दव्वनो चक्खुसा पेहे, जगमित्तं च खेत्तयो । कालो जाव रीएज्जा, उवउत्ते य भावो । ८. इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा । तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए । ६. कोहे माणे य मोयाए, लोभे य उवउत्तया । हासे भए मोहरिए, विगहासु तहेव च ॥ १०. एयाइं अट्ठ ठाणाइं परिवज्जित्तु संजए । __ असावजं मियं काले, भासं भासेज्ज पन्नवं ॥ ११. गवेसणाए गहणे य, परिभोगेसणा य जा । पाहारोवहिसेज्जाए, एए तिन्नि विसोहए । १२. उग्गमुप्पायणं पढमे, बीए सोहेज्ज एसणं । परिभोयंमि चउक्क, विसोहेज्ज जयं जई ।। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ चित्त-समाधि : जैन योग १३. अोहोवहोवग्गहियं', भंडगं दुविहं मुणी । गिहंतो निक्खिवंतो य, पउंजेज्ज इमं विहिं ।। १४. चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई । पाइए निक्खिवेज्जा वा दुहमोवि समिए सया ।। १५. उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाणजल्लियं । आहारं उवहिं देहं, अन्नं वावि तहाविहं । १६. अणावायमसंलोए, अणावाए चेव होइ संलोए। आवायमसलोए, आवाए चेय संलोए ।। १७. अणावायमसंलोए, परस्सऽणुवघाइए । समे अज्झसिरे यावि, अचिरकालकयंमि य ।। १८. वित्थिपणे दूरमोगाढे, नासन्ने बिलवज्जिए । तसपाणबीयरहिए, उच्चाराईणि वोसिरे ।। १६. एयायो पंच समिईयो, समासेण वियाहिया । एत्तो य तो गुत्तीग्रो, वोच्छामि अणुपुव्वसो ।। २०. सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य । चउत्थी असच्चमोसा, मणगुत्ती चउ विवहा ।। २१. संरम्भसमारम्भे, प्रारम्भे य तहेव य । - मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ।। २२. सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य । चउत्थी असच्चमोसा, वइगुत्ती चउव्विहा ॥ २३. संरम्भसमारम्भे, प्रारम्भे य तहेव य । वयं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ।। २४. ठाणे निसीयणे चेव, तहेव य तुयट्टणे । उल्लंघणपल्लंघणे, इंदियाण य जुंजणे ॥ २५. संरम्भसमारम्भे, प्रारम्भम्मि तहेव य । ___ कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ।। २६. एयायो पंच समिईयो, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो । २७. एया पवयणमाया, जे सम्म आयरे मुणी । से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणतीसइमं ज्झयणं : सम्मत्तपरक्कमे सू० १ – सुयं मे उसं ! तेगं भगवया एवमक्खायं - इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नाम प्रज्झयणे समणेण भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए जं सम्म सहित्ता पत्तियाइत्ता रोयइत्ता फासइत्ता पालइत्ता तीरइत्ता किट्टइत्ता सोहइत्ता प्राहइत्ता प्राणाए अणुपालइत्ता बहवे जीवा सिज्यंति बुज्झति मुच्चति परिनिव्वायंति सम्वदुक्खाणमंत करेंति । तस्स णं प्रयमट्ठे एवमाहिज्जइ तं जहा -- संवेगे १ निव्वेए २ धम्मसद्धा ३ गुरुसाहम्मिय सुस्सूसणया ४ आलोयणया ५ निंदणया ६ गरहणया ७ सामाइए ८ चउव्वीसत्थए वंदए १० पक्किमणे ११ काउस्सग्गे १२ पच्चक्खाणे १३ थवथुइमंगले १४ कालपडिलेहणया १५ पायच्छित्तकरणे १६ खमावण्या १७ सज्झाए १८ वायणया १६ पडिपुच्छणया २० परियट्टणया २१ प्रणुप्पेहा २२ धम्मकहा २३ सुयस्स प्राराहणया २४ एगग्ग मणसंनिवेसणया २५ संजमे २६ तवे २७ वोदाणे २८ सुहसाए २६ अप्पडिबद्धया ३० विवत्तसयणासण सेवणया ३१ विणियट्टणया ३२ संभोगपच्चक्खाणे ३३ उवहिपच्चक्खाणे ३४ प्रहारपच्चक्खाणे ३५ कसायपच्चक्खाणे ३६ जोगपच्चक्खाणे ३७ सरीरपच्चक्खाणे ३८ सहायपच्चक्खाणे ३६ भतपच्चक्खाणे ४० सम्भावपच्चक्खाणे ४१ पडिवया ४२ वेयावच्चे ४३ सव्वगुणसंपण्णया ४४ वीयरागया ४५ खंती ४६ मुत्ती ४७ अज्जवे ४८ मद्दवे ४९ भावसच्चे ५० करणसच्चे ५१ जोगसच्चे ५२ मणगुत्तया ५३ वयगुत्तया ५४ कायगुत्तया ५५ मणसमाधारणया ५६ वयसमाधारणया ५७ का समाधारणया ५८ नाणसंपन्नया ५६ दंसणसंपन्नया ६० चरितसंपन्नया ६१ सोइंदियनिग्गहे ६२ चक्विंदियनिग्गहे ६३ घाणिदियनिग्गहे ६४ जिब्भिंदियनिग ६५ फासिंदियनिग्गहे ६६ को विजए ६७ माणविजए ६८ मायाविजए ६६ लोहविजए ७० पेज्जदोसमिच्छादंसणविजए ७१ सेलेसी ७२ कम्मया ७३ । सू० २ – संवेगेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? संवेगेणं" अणुत्तरं धम्मसद्वं जगयइ । प्रणुतराए धम्मसद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ । प्रणताणुबंधिको हमाणमायालोभे खवेइ । कम्मं न बंधइ । तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्तविसोहि काऊण दंसणाराइए भवइ । दंसणविसोहीए य णं विसुद्धा प्रत्येगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ । सोहीए य णं विसुद्धा तच्चं Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ चित्त-समाधि : जन योग पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ॥ सू० ३–निव्वेएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? निव्वेएणं दिव्वमाणुसतेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेयं हव्वमागच्छइ । सव्वविसएसु विरज्जइ सव्वविसएसु विरज्जमाणे प्रारंभपरिच्चायं करेइ । आरंभपरिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिंदइ सिद्धिमग्गे पडिवन्ने य भवइ । सू० ४-धम्मसद्धाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ । अगारधम्मं च णं चयइ अणगारे णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं छेयणभेयणसंजोगाईणं वोच्छेयं करेइ अब्वाबाहं च सुहं निव्वत्तइ ।। सू० ५-गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए णं विणयपडिवत्ति जणयइ। विणयपडिवन्ने य णं जीवे अणच्चासायणसीले नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवदोग्गईग्रो निरंभइ। वण्णसंजलणभत्तिबहुमाणयाए मणुस्सदेवसोग्ग ईयो निबंधइ सिद्धि सोग्गइं च विसोहेइ । पसत्थाई च णं विणयमूलाई सव्वकज्जाइं साहेइ । अन्ने य बहवे जीवे विणइत्ता भवइ॥ सू०६-आलोयणाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? आलोयणाए णं मायानियाणमिच्छादसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणं अणंतसंसारवद्धणाणं उद्धरणं करेइ। उज्जुभावं च जणयइ । उज्जुभावपडिवन्ने य णं जीवे अमाई इत्थीवेयनपुंसगवेयं च न बंधइ । पुव्वद्धं च निज्जरेइ । सू० ७-निंदणयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? निंदणयाए णं पच्छाणुतावं जणयइ । पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे करणगुणसे ढिं पडिवज्जइ। करणगुणसेढिं पडिवन्ने य णं प्रणगारे मोहणिज्ज कम्म उग्घाएइ॥ सू० ८-गरहणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? गरहणयाए णं अपुरक्कारं" जणयइ । अपुरक्कारगए णं जीवे अप्पसत्थेहितो जोगेहिंतो नियत्तेइ पसत्थजोगपडिवन्ने य णं अणगारे अणंतघाइपज्जवे खवेइ । सू० ६--सामाइएणं भंते! जीवे किं जणयइ ? सामाइएणं सावज्जजोगविरइं जणयइ॥ सू० १०-चउव्वीसत्थएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहिं जणयइ ।। सू० ११-वंदणएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वन्दणएणं नीया गोयं कम्मं खवेइ । उच्चागोयं निबंधइ । सोहग्गं च णं Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अप्पडिहयं प्राणाफलं निवतेइ दाहिणभावं च णं जणयइ ॥ सू० १२-पडिक्कमणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पडिक्कमणेणं वयछिद्दाई पिहेइ । पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरिते अट्ठसु पवयणमायासु उव उत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहियए विहरइ । सू० १३--काउस्सग्गेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? काउस्सग्गेणं तीयपडप्पन्नं पायच्छितं विसोहेइ । विसुद्धपायच्छित्ते य जोवे नियहिय अोहरिय भारोत्र भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहंसुहेणं विहरइ ॥ सू० १४—पच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? पच्चक्खाणेणं पासवदाराइं निरुम्भइ ॥ सू० १५-थवथुइमंगलेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? थवथइमंगलेणं नाणदसणचरित्तबोहिलाभं जणयइ। नाणदंसणचरित्तबोहिलाभसपन्ने य णं जावे अंतकिरियं कप्पविमाणोववत्तिगं आराहणं आराहेइ ।। सू० १६-कालपडिलेहणयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? कालपडिलेहणयाए" णं नाणावरणिज्ज कम्म खवेइ । सू० १७–पायच्छित्तकरणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पायच्छित्तकरणेणं पावकम्मविसोहिं जणयइ निरइयारे यावि भवइ । सम्मं च णं पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ अायारं च आयारफलं च पाराहेइ ॥ सू० १८-खमावणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? खमावणयाए णं पल्हायणभावं जगयइ। पल्हायणभावमुवगए य सव्वपाणभूयजोवसत्तेसु मित्तीभावमुप्पाएइ। मितीभावमुवगए यावि जीवे भावविसोहि काऊण निब्भए भवइ॥ सू० १६---सज्झाएण भंते ! जीवे किं जणयइ ? सज्झाएण" नाणावरणिज्ज कम्मं खवेइ । सू० २०-वाथणाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वायणाए णं निज्जरं जणयइ । सुयस्स य प्रणासायणाए वट्टए। सुयस्स अणासायणाए वट्टमाणे तित्थधम्म अवलंबई। तित्थधम्म अवलंबमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ॥ सू० २१--पडिपुच्छणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ चित्त-समाधि : जैन योग ___पडिपुच्छणयाए णं सुत्तत्थतदुभयाइं विसोहेइ। कंखामोहणिज्जं कम्म वोच्छिदइ ।। २२–परियट्टणाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? परियट्टणाए णं वंजगाई जणयइ वंजणलद्धि' च उप्पाएइ । सू० २३–अणुप्पेहाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? अणुप्पेहाए णं आउयवज्जागो सत्तकम्मप्प गडीयो धणियबंधणबद्धामो सिढिलबंधणबद्धानो पक रेइ । दाहका लट्ठिइयाग्रा हस्सकालट्ठियारो पकरेइ। तिव्वाणुभावाप्रो मंदाणुभावाप्रो पकरेइ। बहुपएसग्गाग्रो अप्पपएसग्गाओ पकरेइ । पाउयं च णं कम्मं सिय बंधइ सिय नो बंधइ । असायावेयणिज्जं च णं कम्मं नो भुज्जो भुज्जा उवचिगाइ अगाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरतं संसारकंतारं खिप्पामेव वोइवयइ ।। सू० २४–धम्मकहाए णं भंते ! जोवे कि जणयइ ? धम्मकहाए णं निज्जरं जणयइ। धम्मकहाए णं पवयणं पभावेइ। पवयणपभावे ण जोवे प्राग मिसस्स भद्दत्ताए कम्म निबंधइ॥ सू० २५---सुयस्स पाराहणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ? सुयस्स पाराहणयाएणं अन्नाणं खवेइ न य संकिलिस्सइ ।। सू० २६ ---एगग्गमणसंनिवेसणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? एगग्गमणसनिवेसणयाए णं चित्तनिरोह करेइ ।। सू० २७---संजमेणं भंते! जीवे कि जणयइ? संजमेणं अणण्हयत्तं जणयइ ॥ सू० २८–तवेणं भंते! जीवे कि जणयइ? तवेणं वोदाणं जणयइ॥ सू० २६---वोदाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ? वोदाणेणं अकिरियं जणयइ। अकिरियाए भवित्ता तो पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्बाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ॥ सू० ३०-सुहसाएणं भंते! जीवे कि जणयइ ? सुहसाएणं अणुस्सुयत्तं जणयइ । अणुस्सुयाए णं जीवे अणुकंपए अणुब्भडे विगयसोगे चरित्तमोहणिज्जं कम्म खवेइ ।। सू० ३१--अप्पडिबद्धयाए णं भंते! जीवे कि जणयइ ? __ अप्पडिबद्धयाए" णं निस्संगत्तं जणयइ । निस्संगत्तेणं जीवे एगे एगग्गचित्ते दिया य रायो य असज्जमाणे अप्पडिवद्धे यावि विहरइ । सू० ३२-विवित्तसयणासणयाए णं भंते! जीवे कि जणयइ ? Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ११६ विवित्तसयणासणयाए ण चरित्तगुत्ति जणयइ। चरित्तगुत्ते य णं जीवे विवित्ताहारे दडचरित्ते एगंतरए मोक्खभावपडिवन्ने अट्ठविहकम्मगण्ठि निज्जरेइ ॥ सू० ३३---विणियट्टणयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? विणियट्टणयाए णं पावकम्माणं अकरणयाए अब्भुढेइ । पुव्वबद्धाण य निज्जरणयाए तं नियत्तेइ तो पच्छा चाउरतं संसारकंतारं वीइवयइ ॥ सू० ३४-संभोगपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? संभोगपच्चक्खाणेणं आलंबणाई खवेइ। निरालंबणस्स य प्राययविया जोगा भवंति । सएणं लाभेणं संतुस्सइ परलाभं नो अासाएइ नो तक्केइ नो पीहेइ नो पत्थेइ नो अभिलसइ । परलाभं प्रणासायमाणे अतक्केमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे अणभिलसमाणे दुच्चं सुहसेज्जं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ॥ सू० ३५-उवहिपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? उवहिपच्चक्खाणेणं अपलिमंथं जणयइ । निरुवहिए णं जीवे निक्कंखे उवहिमंतरेण य न संकिलिस्सई ॥ सू० ३६-आहारपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? आहारपच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पयोगं वोच्छिंदइ । जीवियासंसप्पयोगं वोच्छिं दित्ता जीवे पाहारमंतरेणं न संकिलिस्सइ । सू० ३७–कसायपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कसायपच्चक्खाणेणं" वीयरागभावं जणयइ। वीयरागभावपडिवन्ने वि य णं जीवे समसुहदुक्खे भवइ । सू० ३८-जोगपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? जोगपच्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणयइ। अजोगी णं जीवे नवं कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं निज्जरेइ । सू० ३६-सरीरपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सरीरपच्चक्खाणणं सिद्धाइसयगुणत्तणं निव्वत्तेइ। सिद्धाइसयगुणसंपन्ने य णं जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही भवइ ।। सू० ४०-सहायपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सहायपच्चक्खाणेणं३३ एगीभाव जणयइ। एगीभावभूए वि य णं जीवे एगग्गं भावेमाणे अप्पसद्दे अप्पझंझे अप्पकलहे अप्पकसाए अप्पतुमंतुमे संजमबहुले संवरबहुले समाहिए यावि भवइ । सू० ४१- भत्तपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? ० ०१ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० चित्त-समाधि : जैन योग भत्तपच्चक्खाणेणं अणेगाइं भवसयाइं निरुभइ । सू० ४२-सब्भावपच्चवखाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सब्भावपच्चवखाणेणं अनियटि जणयइ । अनियट्टिपडिवन्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मसे खवेइ तं जहा वेयणिज्जं आउयं नामं गोयं । तो पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ॥ सू० ४३–पडिरूवयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पडिरूवयाए णं लाघवियं जणयइ । लहुभूए णं जीवे अप्पमत्ते पागडलिंगे पसलिंगे विसुद्धसम्मत्ते सत्तसमिइसमत्ते सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु वीससणिज्जरूवे अप्पडिलेहे जिइंदिए विउलतवसमिइसमन्नागए यावि भवइ ।। सू० ४४- वेयावच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबंधई। सू० ४५-सव्वगुणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? सव्वगुणसंपन्नयाए" णं अपुणरावत्ति जणयइ । अपुणरावत्ति पत्तए य णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं नो भागी भवइ ।। सू० ४६-वीयरागयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? वीयरागयाएणं नेहाणुबंधणाणि तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिदइ मणुन्नेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसु चेव विरज्जइ ।। सू० ४७-खंतीए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? खंतीए णं परीसहे जिणइ॥ सू० ४८--मुत्तीए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? मुत्तीए णं अकिंचणं जणयइ। अकिंचणे य जीवे अत्थलोलाणं अपत्थणिज्जो भवइ॥ सू० ४६-अज्जवयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? अज्जवयाए णं काउज्जुययं भावुज्जुययं भासुज्जुययं अविसंवायणं जणयइ। अविसंवायणसंपन्नयाए णं जीवे धम्मस्स पाराहए भवइ । सू० ५०–मद्दवयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ! मद्दवयाए णं अणुस्सियत्तं जणयइ । अणुस्सियत्ते णं जीवे मिउमद्दवसंपन्ने अट्ठ मयट्ठाणाई निट्ठवेइ ।। सू० ५१-भावसच्चेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? भावसच्चेण भावविसोहिं जणयइ । भावविसोहीए वट्टमाणे जीवे अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स पाराहणयाए अब्भठूइ। अरहन्त पन्नत्तस्स धमस्स आराहणयाए अब्भुट्टित्ता परलोगधम्मस्स ाराहए हवइ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १२१ सू० ५२-करणसच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? करणसच्चेणं करणसत्ति जणयइ । करणसच्चे वट्टमाणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ ॥ सू० ५३-जोगसच्चेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? जोगसच्चेणं जोगं विसोहेइ ॥ सू० ५४-मणगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयइ । एगग्गचित्ते णं जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ । सू० ५५-- वयगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वयगुत्तयाए णं निव्वियारं जणयइ। निव्वियारेणं जीवे वइगुत्ते अज्झप्पजोगज्झाणगुत्ते यावि भवइ॥ सू० ५६-कायगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोह करेइ॥ सू० ५७–मणसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? मणसमाहारणयाए णं एगग्गं जणयइ एगग्गं जणइत्ता नाणपज्जवे जणयइ। नाणपज्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ मिच्छत्तं च निज्जरेइ॥ सू० ५८-वयसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे किं जयणइ ? वयसमाहारणयाए णं वयसाहारणदंसणपज्जवे विसोहेइ । वयसाहारणदंसणपज्जवे विसोहेत्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्तेइ दुल्लहबोहियत्तं निज्जरेइ । सू० ५६-कायसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? कायसमाहारणयाए णं चरित्तपज्जवे विसोहेइ। चरित्तपज्जवे विसोहेत्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेइ। अहक्खायचरित्तं विसोहेत्ता चत्तारि केवलिकम्मसे खवेइ । तो पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं सू० ६०-नाणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? करेइ॥ नाणसंपन्नयाए" णं जीवे सव्वभावाहिगमं जणयइ । नाणसंपन्ने णं जीवे चाउरते संसारकंतारे न विणस्सइ। जहा सूई ससुत्ता, पडिया वि न विणस्सइ । तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ ।। नाणविणयतवचरित्तजोगे संपाउणइ ससमयपरसमय संघायणिज्जे भवइ॥ सू० ६१-दसणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ चित्त-समाधि : जैन योग दसणसंपन्नयाए णं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ परं न विज्झायइ । अणुत्तरेणं नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्मं भावेमाणे विहरइ ।। सू० ६२--चरित्तसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? चरित्तसंपन्नयाए" णं सेलेसीभाव जणयइ। सेलेसिं पडिवन्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मसे खवेइ। तो पच्छा सिभइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ॥ सू० ६३--सोइंदियनिग्गहेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? सोइंदियनिग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु सद्देसु रागदोसनिग्गहं जणयइ तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं च निज्जरेइ॥ सू० ६४-चविखदियनिग्गहेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? चक्खिदियनिग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु रूवेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं च निज्जरेइ॥ सू० ६५-घाणिदियनिग्गहेणं भंते ! जावे किं जणयइ ? घाणिदियनिग्गहेणं मणु न्नामणुन्नेसु गंधेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ।। सू०६६–जिभिदियनिग्गहेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? जिभिदियनिग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु रसेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ।। सू० ६७–फासिदियनिग्गहेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? फासिदियनिग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु फासेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं च निज्ज रेइ ।। सू० ६८–कोहविजएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कोहविजएणं खंति जणयइ कोहवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ॥ सू० ६६-माणविजएणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? माणविजएणं मद्दवं जणयइ माणवेयणिज्ज कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ॥ सू० ७०–मायाविजएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? __ मायाविजएणं उज्जुभावं जणयइ मायावेयणिज्ज कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ॥ सू० ७१–लोभविजएणं भंते ! जीव किं जणयइ ? Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरभयाणि १२३ लोभविजएणं संतोसीभावं जणयइ लोभवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ॥ सू० ७२ - पेज्जदोस मिच्छादंसणविजएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पेज्जदोस मिच्छादंसण विजएणं" नाणदंसणचरिताराहणयाए प्रभुट्ठेइ | विहस्स कम्मस्स कम्मगंठिविमोयणयाए तप्पढमयाए जहाणुपुव्वि अट्ठवीसविहं मोहणिज्जं कम्मं उग्वाएइ पंचविहं नाणावर णिज्जं नवविहं दंसणावर - णिज्जं पंचविहं अन्तरायं एए तिन्नि विकम्मंसे जुगवं खवेइ । तम्रो पच्छा अणुत्तरं प्रणतं कसिणं पडिपुण्णं निरावरणं वितिमिरं विसुद्धं लोगालोगप्पभावगं केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेइ । जाव सजोगी भवइ ताव य इरियावहियं कम्मं बंध सुहफरिसं दुसमयठिइयं । तं पढमसमए बद्धं बिइयसमए वेइयं तइयसमए निज्जिण्णं तं बद्धं पुट्ठे उदीरियं वेइयं निज्जिण्णं सेयाले य प्रकम्मं चावि भवइ । सू० ७३" - अहाउयं पालइत्ता अन्तोमुहुत्तद्धावसेसाउए जोगनिरोहं करेमाणे सुहुमकिरियं अप्पडिवाइ सुक्कज्झाणं झायमाणे तप्पढमयाए मणजोगं निरु भइ २त्ता वइजोग निरुभइ २ त्ता आणापाणुनिरोहं करेइ २ ताईसि पंचरहस्सक्खरुच्चारद्धाए य णं अणगारे समुच्छिन्न किरियं अनियट्टि सुक्कज्झाणं झियायमाणे वेयणिज्जं प्राउयं नामं गोत्तं च एए चत्तारि वि कम्मंसे जुगवं खवेइ । सू० ७४५ – तो प्रोरालियकम्माई च सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहिता उज्जुसेढिपत्ते अफुस माणगई उड्ढं एगसमएणं प्रविग्गणं तत्थ गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंत करेइ । एस खलु सम्मत्तपरक्क्रमस्स प्रज्झयणस्स अट्ठे समणेणं भगवया महावीविपन्नविए परूविए दंसिए उवदं सिए || Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जहा खवेइ विरो । णासवो ॥ पावगं कम्मं, रागदोससमज्जियं । तवसा भिक्खू, तमेगग्गमणो सुण ॥ २. पाणवह मुसावाया, प्रदत्तमेहुणपरिग्गहा राईभोयण विरो, जीवो भवइ ३. पंचसमिश्र तिगुत्तो, कसा जिइंदि । गारवो य निस्सल्लो, जीवो होइ प्रणासवो || तु विवच्चासे, रामद्दोससमज्जियं । जहा खवयइ भिक्खू, तं मे एगमणो सुण ॥ ५. जहा महातलायस्य, सन्निरुद्धे जलागमे । ४ एएस ६. एवं उस्चिणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥ पावकम्मनिरासवे । तवसा निज्जरिज्जइ ॥ बाहिरब्भंत रो" तहा । एवमब्भंतरो तवो ॥ ८. सण मूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चायो । Sarafaसो संलोणया य, बज्झो तवो होइ ॥ ६. इत्तिरिया " मरणकाले, दुविहा अणसणा भवे । इत्तिरिया सावकखा, निरवकखा बिइज्जिया || १०. जो सो इत्तरियतवो, सो समासेण छव्विहो । सेढितवो पयरतवो, घणोय तह होइ वग्गो य ॥ ११. तत्तो य वगवग्गो उ, पंचमो छट्टो पइण्णतवो । मणइच्छियचित्तत्थो", नायव्वो होइ इत्तरिश्रो ॥ तीसइमं अज्झयणं : तवमग्गगई उ तु संजय साव, भवकोडीसंचियं कम्मं, ७. सो तवो दुविहो वृत्तो, बाहिरो छव्विहो वुत्तो, १२. जो सा अणसणा मरणे, दुविहा सा वियाहिया । सवियारवियारा, काय चिट्ठ पई भवे ॥ १३. ग्रहवा सपरिकम्मा, अपरिकम्मा य ग्राहिया । नीहारिमणीहारी, प्रहारच्छेो य दोसु वि" ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १४. प्रोमोयरियं५१ पंचहा, समासेण वियाहियं । दव्वरो खेत्तकालेणं, भावेणं पज्जवेहि य ॥ १५. जो जस्स उ आहारो, तत्तो प्रोमं तु जो करे । जहन्नेणेगसित्थाई, एवं दव्वेण ऊ भवे ॥ १६. गामे नगरे तह रायहाणिनिगमे य ागरे पल्ली । खेडे कब्बडदोणमुहपट्टणमडंबसंबाहे। १७. प्रासमपए विहारे, सन्निवेसे समायघोसे य । थलिसेणाक्खंधारे, सत्थे संवट्टकोट्टे य॥ १८. वाडेसु व रच्छासु व घरेसु वा एवमित्तियं खेत्तं । ____ कप्पइ उ एवमाई, एवं खेत्तेण ऊ भवे ।। १६. पेडा य अद्धपेडा, गोमुत्तिपयंगवोहिया चेव । संबुक्कावट्टाऽऽययगंतु, पच्चागया छट्ठा ॥ २०. दिवसस्स पोरुसोणं, चउण्हं पि उ जत्तियो भवे कालो । एवं चरमाणो खलु, कालोमाणं मुणेयव्वो ॥ २१. अहवा तइयाए पोरिसीए, ऊणाइ घासमेसंतो। चउभागूणाए वा, एवं कालेण ऊ भवे ॥ २२. इत्थी वा पुरिसो वा, अलंकियो वाऽणलंकिग्रो वा वि । ___ अन्नयरवयत्थो वा, अन्नयरेणं व वत्थेणं ॥ २३. अन्नेण विसेसेणं, वण्णेणं भावमणमुयंते उ । ____एवं चरमाणो खलु, भावोमाणं मुणेयव्वो ॥ २४. दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य प्राहिया उ जे भावा । एएहि प्रोमचरणो, पज्जवचरपो भवे भिक्खू । २५. अट्ठविहगोयरग्गं तु, तहा सत्तेव एसणा । __ अभिग्गहा य जे अन्ने, भिक्खायरियमाहिया"। २६. खीरदहिसप्पिमाई, पणीयं पाणभोयणं । परिवज्जणं रसाणं तु, भणियं रसविवज्जणं"। २७. ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा धरिज्जंति, कायकिलेसं५ तमाहियं । २८. एगंतमणावाए, इत्थोपसुविवज्जिए । सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं५६ ॥ २६. एसो बाहिरगतवो, समासेण वियाहियो । अभिंतरं तवं एत्तो, वच्छामि अणपुव्वसो॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जन योग ३०. पायच्छित्तं विणो, वेयावच्चं तहेव सज्झायो । ___झाणं च विउस्सग्गो, एसो अभितरो तवो । ३१. आलोयणारिहाईयं, पायच्छित्तं तु दसविहं । जे भिक्खू वहई सम्मं, पायच्छित्तं तमाहियं ॥ ३२. अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सूसा, विणो एस वियाहियो। ३३. पायरियमाइयम्मि य, वेयावच्चम्मि दसविहे । __ आसेवणं जहाथाम, वेयावच्चं तमाहियं ॥ ३४. वायणा पुच्छणा चेव, तहेव परियट्टणा । अणुप्पेहा धम्मकहा, सज्झायो पंचहा भवे ॥ ३५. अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता, झाएज्जा सुसमाहिए । धम्मसुक्काइं झाणाई, झाणं तं तु बुहा वए" ॥ ३६. सयणासणठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे । कायस्स विउस्सग्गो, छट्ठो सो परिकित्तिो॥ ३७. एयं तवं तु दुविहं, जे सम्म आयरे मुणी । से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसइमं अज्झयणं : पमायट्ठाणं १. अच्चंतकालस्स समूलगस्स", सव्वस्स दुक्खस्स उ जो पमोक्खो। तं भासपो मे पडिपुण्णचित्ता, सुणेह एगग्गहियं हियत्थं ॥ २. नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ ३. तस्सेस मग्गो गुरुविद्ध-सेवा, विवज्जणा बालजणस्स दूरा । सज्झायएगंतनिसेवणा य, सुत्तत्थसंचितणया धिई य॥ ४. आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं, सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धि । निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्गं, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ ५. न वा लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणो समं वा । एक्को वि पावाइ विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो।। ६. जहा य अण्डप्पभवा बलागा, अण्डं बलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तण्हं, मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥ ७. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति ।। ८. दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हो जस्स न होइ तण्हा । तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हो जस्स न किंचणाई॥ ६. रागं च दोसं च तहेव मोहं, उद्धत्तुकामेण समूलजालं । जे जे उवाया पडिवज्जियव्वा, ते कित्तइस्सामि अहाणुपुवि ॥ १०. रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवंति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी"॥ ११. जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे, समारुनो नोवसमं उवेइ । एविदियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सई ॥ १२. विवित्तसेज्जासणजंतियाणं, अोमासणाणं दमिइंदियाणं । न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइनो वाहिरिवोसहेहिं ।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ १३. जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्भे, न बंभयारिस्स खमो निवासो || १४. न रूवलावण्णविलासहासं, न जंपियं इंगियपेहियं वा । इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता, दठ्ठे ववस्से समणे तवस्सी || १५. श्रदंसणं चेव श्रपत्थणं च श्रचितणं चेव अकित्तणं च । इत्थीजणस्सारियभाणजोग्गं, हियं सया बंभवए रयाणं ॥ २७. रूवाणुगासा गए य जीवे, चित्तेहि ते परितावेइ बाले, " १६. कामं तु देवीहि विभूसियाहिं, न चाइया खोभइउं तिगुत्ता । तहा वि एगंतहियं ति नच्चा, विवित्तवासो मुणिणं पत्थो । १७. मोक्खाभिकंखिस्स वि माणवरस, संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे । नेयारिसं उत्तरमत्थि लोए, जहित्थिश्रो बालमणोहराम्रो ॥ १८. एए य संगे समइक्कमित्ता, सुहुत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥ १६. कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्सऽन्तगं गच्छइ वीयरागो ॥ २०. जहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा । ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा, एवमा कामगुणा विवागे ॥ २१. जे इंदियाणं विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाइ । न या मणुन्ने मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी | २२. चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु | तं दो मणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ २३. रूबस्स चक्खुं गहणं वयंति चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति । रागस्स हे समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं मणुन्नमाहु || २४. रूवेसु जो गिद्धमुवेइ तिव्वं, कालियं पावर से विणासं । आलोयलोले समुवेइ मच्चुं ॥ तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । किंचि रूवं अवरज्झई से । रागाउरे से जह वा पयंगे, २५. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, दुदंतदोसेण सएण जंतू, न २६. एगंतरत्ते रुइरंसि रूवे, अतालिसे से कुणई पप्रोसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ।। चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे । पीलेइ ग्रत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ उप्पायने रक्खणसन्नियोगे । २८. रूवाणुवाएण परिग्गहेण, व विप्रो य कहि सुहं से ? संभोगकाले य प्रतित्तिलाभे ॥ चित्त-समाधि : जैन योग Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १२६ २६. रूवे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि । अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले प्राययई प्रदत्तं ।। ३०. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थाऽवि दुवखा न विमुच्चई से । ३१. मोसस्स पच्छा य पुरत्थो य, पोगकाले य दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, रूवे अतित्तो दुहिनो अणिस्सो॥ ३२. रूवाणरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि? । तत्थोवभोगे वि किलेसदुवख, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ।। ३३. एमेव रूवम्मि गो परोसं, उवेइ दुक्खोहपरंपरायो । पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ३४. रूवे विरत्तो मणो विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पए भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ ३५. सोयस्स सदं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो । ३६. सहस्स सोयं गहणं वयंति, सोयस्स सदं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु॥ ३७. सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे हरिणमिगे" व मुद्धे, सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चु ॥ ३८. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । __ दुइंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि सई अवरज्झई से ।। ३६. एगतरत्ते रुइरंसि सद्दे, अतालिसे से कुणई परोसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो । ४०. सद्दाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परियावेइ वाले, पीलेइ अत्तगुरू किलिट्ठ ॥ ४१. सहाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्नियोगे। वए विप्रोगे य कहिं सुहं से ? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ।। ४२. सद्दे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि । __ अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले अाययई अदत्त । ४३. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ।। ४४. मोसस्स पच्छा य पुयत्थरो य, परोगकाले य दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, सद्दे अतित्तो दुहिनो अणिस्सो।। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० चित्त-समाधि : जैन योग ४५. सदाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुवखं ।। ४६. एमेव सद्दम्मि गरो परोसं, उवेइ दुक्खोहपरंपरायो। पदुठ्ठचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ।। ४७. सद्दे विरत्तो मणुनो विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । ___न लिप्पए भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ।। ४८. घाणस्स गंधं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥ ४६. गंधस्स घाणं गहणं वयंति, घाणस्स गंधं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ।। ५०. गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे अोसहिगंधगिद्धे, सप्पे बिलामो विव निक्खमंते ।। ५१. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि गंधं अवरज्झई से ।। ५२. एगतरत्ते रुइरंसि गंधे, प्रतालिसे से कुणई परोसं । ___ दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो।। ५३. गंधाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तगुरू किलिट्ठ । ५४. गंधाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्नियोगे। वए विप्रोगे य कहिं सुहं से ? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ।। ५५. गंधे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले प्राययई अदत्तं ।। ५६. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, गंधे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ।। ५७. मोसस्स पच्छा य पुरत्थयो य, पयोगकाले य दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, गंधे अतित्तो दुहिनो अणिस्सो।। ५८. गंधाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं । ५६. एमेव गंधम्मि गो परोसं, उवेइ दुक्खोहपरंपरायो । पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे । ६०. गंधे विरत्तो मणुप्रो विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १३१ ६१. जिहाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहुउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ।। ६२. रसस्स जिब्भं गहणं वयंति, जिब्भाए रसं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समगुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ।। ६३. रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्व, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे बडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ।। ६४. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदोसेण सएण जंतू, रसं न किंचि अवरज्झई से ।। ६५. एगतरत्ते रुइरे रसम्मि, अतालिसे से कुणई परोसं । दुस्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणो विरागो॥ ६६. रसाणुगासाणुगए य जोवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तगुरू किलिठ्ठ ॥ ६७. रसाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निरोगे। ___ वए वियोगे य कहिं सुहं से ? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ।। ६८. रसे अतित्त य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहि । अतुठ्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले पाययई अदत्त। ६६. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रसे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा, तत्यावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ७०. मोसस्स पच्छा य पुरत्थयो य, पप्रोगकाले य दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, रसे अतित्तो दुहिनो अणिस्सो । ७१. रसाणरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ? ।। ७२. एमेव रसम्मि गयो पग्रोसं, उवेइ दुक्खोहपरंपरायो । पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ७३. रसे विरत्तो मणुप्रो विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । __ न लिप्पई भवमझ वि संतो, जलेग वा पोखरिणोपलासं ।। ७४. कायस्स फासं गहगं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं ग्रमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वोयरागो। ७५. फासस्स कायं गहणं वयंति, कायस्स फासं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु । ७६. फासेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे सीयजलावसन्ने, गाहग्गहीए महिसे व ऽरन्ने । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ चित्त-समाधि : जन योग ७७. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि फासं अवरज्झई से ।। ७८. एगंतरते रुइरंसि फासे, प्रतालिसे से कुणई पोसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो।। ७६. फासाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तगुरू किलिट्ठ । ८०. फासाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्नियोगे। वए विनोगे य कहिं सुहं से ? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ।। ८१. फासे अतित्त य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढ़ि। अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्त ॥ ८२. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ८३. मोसस्स पच्छा य पुरत्थयो य, पयोगकाले य दुही दुरते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, फासे अतित्तो दुहिनो अणिस्सो । ८४. फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ।। ८५. एमेव फासम्मि गमो परोसं, उवेइ दुक्खोहपरंपरायो। पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे। ८६. फासे विरत्तो मणुप्रो विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । ___ न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ ८७. मणस्स भावं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणन्नमाह । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ।। ८८. भावस्स मणं गहणं वयंति, मणस्स भावं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ।। ८६. भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे, करेणुमग्गावहिए व नागे। १०. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि भावं अवरज्झई से । ६१. एगतरत्ते रुइरंसि भावे, अतालिसे से कुणई परोसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो। ६२. भावाणगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १३३ ६३. भावाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्नियोगे । वए विप्रोगे य कहि सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ १४. भावे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुद्धिं । अतुट्ठिदोसेण दुहो परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ६५. तण्हाभिभूयस्स प्रदत्तहारिणो, भावे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ १६. मोसस्स पच्छा य पुरत्थरो य, पयोगकाले य दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंता, भावे अतितो दुहिनो अणिस्सो ॥ ६७. भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ।। १८. एमेव भावम्मि गयो परोसं, उवेइ दुक्खोहपरंपरायो । पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणा होइ दुहं विवागे॥ ६६. भावे विरत्तो मणुप्रो विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ १००. एविदियत्था य मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणयस्स रागिणो । ते चेव थोवं पि कयाइ दुखं, न वोयरागस्स करेंति किंचि ॥ १०१. न कामभोगा समयं उति, न यावि भोगा विगई उति । जे तप्पग्रोसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ ॥ १०२. कोहं च माणं च तहेव मायं, लोहं दुगुंछं अरइं रइं च । हासं भयं सोगपुमित्थिवेयं, नपुंसवेयं विविहे य भावे ।। १०३. आवज्जई एवमणेगरूवे, एवंविहे कामगुणेसु सत्तो । अन्ने य एयप्पभवे विसेसे, कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से ।। १०४. कप्पं न इच्छिज्ज सहायलिच्छ, पच्छाणुतावेय तवप्पभावं । एवं वियारे अमियप्पयारे, पावज्जई इंदियचोरवस्से ।। १०५. तपो से जायंति पनोयणाइं, निमज्जिउं मोहमहण्णवम्मि । सुहेसिणो दुक्खविणोयणट्ठा, तप्पच्चयं उज्जमए य रागी ॥ १०६. विरज्जमाणस्स य इंदियत्था, सद्दाइया तावइयप्पगारा । न तस्स सव्वे वि मणुन्नयं वा, निव्वत्तयंती अमणुन्नयं वा ।। १०७. एवं ससंकप्पविकप्पणासुं, संजायई समय-मुवट्टियस्स । अत्थे य संकप्पयो तनो से, पहीयए कामगुणेसु तण्हा ॥ १०८. स वीयरागो कयसव्वकिच्चो, खवेइ नाणावरणं खणणं । तहेव जं दसणमावरेइ, जं चन्तरायं पकरेइ कम्म । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ १०६. स तो जाणइ पासए य, अमोहणे होइ निरंतराए । अणासवे झाणसमाहिजुत्ते, प्राउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्धे || ११०. सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को, जं बाहई सययं जंतुमेयं । farat सत्थो, तो होइ प्रच्चंत सुही कयत्थो ॥ १११. अणाइकालप्पभवस्स एसो, सव्वस्स दुक्खस्स मोक्खमग्गो । वियाहियो जं समुविच्च सत्ता, कमेण प्रच्चंतसुही भवंति ॥ चित्त-समाधि : जैन योग टिप्पण १ श्रट्ट पवयणमायाश्रो पांच समितियों और तीन गुप्तियों- इन प्राठों में सारा प्रवचन समा जाता है, इसलिए इन्हें 'प्रवचन-माता' कहा जाता है । इन प्राठों से प्रवचन का प्रसव होता है, इसलिए इन्हें 'प्रवचन - माता' कहा जाता है। पहले में समाने का अर्थ है और दूसरे माँ का | २ समिश्र इसमें समितियां प्राठ बतलाई गई हैं। प्रश्न होता है कि समितियां पांच ही हैं तो यहां आठ का कथन क्यों ? टीकाकार ने इसका समाधान करते हुए कहा है कि 'गुप्तियां' केवल निवृत्त्यात्मक ही नहीं होतीं, किन्तु प्रवृत्त्यात्मक भी होती हैं, इसी अपेक्षा से उन्हें समिति कहा गया है । जो समित होता है वह नियमतः गुप्त होता है और जो गुप्त होता है वह समित होता भी है और नहीं भी । ३ जुगमित्तं 'युग' का अर्थ है शरीर या गाड़ी का जुम्रा । चलते समय साधु की दृष्टि युग-मात्र होनी चाहिए, अर्थात् शरीर या गाड़ी के जुए जितनी लम्बी होनी चाहिए । जुम्रा जैसे प्रारंभ में संकड़ा और आगे से विस्तृत होता है वैसे ही साधु की दृष्टि होनी चाहिये । युग-मात्र का दूसरा अर्थ है - 'चार हाथ प्रमाण' । इसका तात्पर्य है कि मुनि चार हाथ प्रमाण भूमि को देखता हुप्रा चले । विशुद्धि-मार्ग में भी भिक्षु को युगमात्रदर्शी कहा गया है । इसलिए लोलुप स्वभाव को त्याग, प्रांखें नीची किए, युगमात्रदर्शी चार हाथ तक देखने वाला हो । धीर ( भिक्षु) संसार में इच्छानुरूप विचरने का इच्छुक सपदानचारी बने | कहीं-कहीं 'युग' के स्थान पर 'कुक्कुट के उड़ान की दूरी जितनी भूमि पर दृष्टि डालकर चलने की बात मिलती है। इस प्रकार चलने वाले भिक्षु 'कौक्केटिक' कहलाते थे । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १३५ ४ परिभोयंमि चउक्कं इस चरण में यह बताया गया है कि मुनि परिभोग-एषणा में चार वस्तुओंपिंड, शय्या-वसति, वस्त्र और पात्र का विशोधन करे। दशवकालिक (६/४७) में अकल्पनीय पिंड आदि चारों को लेने का निषेध किया गया है । प्रकारान्तर से चतुष्क के द्वारा संयोजना आदि दोषों का ग्रहण किया गया है। यद्यपि भोजन के संयोजना, अप्रमाण, अंगार, धूम, कारण आदि पांच दोष हैं, फिर भी शान्त्याचार्य ने अंगार और धूम दोनों को एक-कोटिक मान यहां इनकी संख्या चार मानी है। ५ मोहोवहोवग्गहियं भण्डगं अोहोवहोवग्गहियं उपधि दो प्रकार की होती है- १. प्रोघ-उपधि और २. प्रौपग्रहिक-उपधि । जो स्थायी रूप से अपने पास रखा जाता है उसे 'अोघ-उपधि' और जो विशेष कारणवश रखा जाता है उसे 'प्रौपग्रहिक-उपधि' कहा जाता है । जिन-कल्पिक मुनियों के बारह, स्थविर-कल्पिक मुनियों के चौदह और साध्वियों के पच्चीस अोघ-उपधि होते हैं । इससे अधिक उपधि रखे जाते हैं, वे सब प्रौपग्रहिक होते हैं। ____ 'भण्डगं' का अर्थ 'उपकरण' है। प्रोधनियुक्ति के अनुसार उपधि, उपग्रह, संग्रह, प्रग्रह, अवग्रह, भण्डक, उपकरण और करण—ये सब पर्यायवाची हैं। ६ श्लोक १६ से १८ ____ इन श्लोकों में परिष्ठान-विधि का समुचित निर्देश हुआ है। मुनि कहां और कैसे परिष्ठान करे, इसकी विधि बतलाते हुए कहा है कि-गांव और उद्यानों से दूरवर्ती स्थानों में, कुछ समय पूर्व दग्ध स्थानों में मल आदि का विसर्जन करे, क्योंकि स्वल्पकाल पूर्व के दग्ध-स्थान ही सर्वथा अचित्त होते हैं। जो चिरकाल दग्ध होते हैं, वहां पृथ्वीकाय आदि के जीव पुनः उत्पन्न हो जाते हैं। पन्द्रह कर्मादानों में 'दव-दाह' एक प्रकार है । इसके दो भेद हैं- १. व्यसन से--अर्थात् फल की अपेक्षा किए बिना ही वनों को अग्नि से जला डालना । २. पुण्य बुद्धि से--अर्थात् कोई व्यक्ति मरते समय यह कह कर मरे कि मेरे मरने के बाद इतने धर्म-दीपोत्सव अवश्य करना । ऐसी स्थिति में भी वन आदि जलाये जाते थे। अथवा धान्य आदि की समृद्धि के लिए खेतों में उगे हुए तृण आदि जलाये जाते थे । उपर्युक्त प्रवृत्तियां उस समय प्रचलित थीं, अत: मुनियों को दग्ध-स्थान मिल जाते थे। ७ संवेगेणं...निव्वेएणं सम्यग् दर्शन के पांच लक्षणों में संवेग दूसरा और निर्वेद तीसरा है। संवेग का अर्थ है 'मोक्ष की अभिलाषा' और निर्वेद का अर्थ है-संसार-त्याग की भावना या काम-भोगों के प्रति उदासीन-भाव । श्रुतसागर सूरि ने निर्वेद के तीन अर्थ किये हैं-१. संसार-वैराग्य, २. शरीर वैराग्य और ३. भोग-वैराग्य । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग प्रस्तुत दो सूत्रों में कहा गया है कि संवेग से धर्म श्रद्धा उत्पन्न होती है और निर्वेद से विषय विरक्ति । इन परिणामों के अनुसार संवेग और निर्वेद की उक्त परिभाषाएं समीचीन हैं । कई प्राचार्य संवेग का अर्थ 'भव- वैराग्य' और निर्वेद का अर्थ 'मोक्षाभिलाषा' भी करते हैं । किन्तु इस प्रकरण से वे फलित नहीं होते । १३६ विसुद्धिमग्ग दीपिका के अनुसार जो मनोभाव उत्तम वीर्य वाली श्रात्मा को वेग के साथ कुशलाभिमुख करता है, वह संवेग कहलाता है । इसका अभिप्राय भी मोक्षाभिलाषा से भिन्न नहीं है । संवेग और धर्म श्रद्धा का कार्य-कारण-भाव है । मोक्ष की अभिलाषा होती है तब धर्म में रुचि उत्पन्न होती है और जब धर्म में रुचि उत्पन्न हो जाती है तब मोक्ष की अभिलाषा विशिष्टतर हो जाती है । जब संवेग विशिष्टतर होता है तब अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ क्षीण हो जाते हैं, दर्शन विशुद्ध हो जाता है । जिसका दर्शन विशुद्ध हो जाता है, उसके कर्म का बन्ध नहीं होता । वह उसी जन्म में या तीसरे जन्म में अवश्य ही मुक्त हो जाता है । 'कम्मं न बंधई' इस पर शान्त्याचार्य ने लिखा है कि अशुभ कर्म का बन्ध नहीं होता । सम्यग्दृष्टि के प्रशुभकर्म का बंध नहीं होता, ऐसा नहीं कहा जा सकता । अशुभ योग की प्रवृत्ति छठे गुणस्थान तक हो सकती है और कषायजनित अशुभ कर्म का बन्ध दसवें गुणस्थान तक होता है । इसलिये इसे इस रूप में समझना चाहिये कि जिसका दर्शन विशुद्ध हो जाता है, अनन्तानुबन्धी चतुष्क सर्वथा क्षीण हो जाता है, उसके नये सिरे से मिथ्या दर्शन के कर्म - परमाणुत्रों का बन्ध नहीं होता । वह उसी जन्म में या तीसरे जन्म में अवश्य ही मुक्त हो जाता है। इसका सम्बन्ध दर्शन की उत्कृष्ट आराधना से है । जघन्य और मध्यम आराधना वाले अधिक जन्मों तक संसार में रह सकते हैं, किन्तु उत्कृष्ट श्राराधना वाले तीसरे जन्म का प्रतिक्रमण नहीं करते । यह तथ्य भगवती ( ८ / १०) से भी समर्थित है । गौतम ने पूछा- 'भगवन् ! उत्कृष्ट दर्शनी कितने जन्म में सिद्ध होता है ?" भगवान् ने कहा - "गौतम ! वह उसी जन्म में ही सिद्ध हो जाता है और यदि उस जन्म में न हो तो तीसरे जन्म में अवश्य हो जाता है ।' जैन साधना-पद्धति का पहला सूत्र है— मिथ्यात्व - विसर्जन या दर्शन- विशुद्धि | दर्शन की विशुद्धि का हेतु संवेग है, जो नैसर्गिक भी होता है और श्रधिगमिक भी । साधना का दूसरा सूत्र है - प्रवृत्ति-विसर्जन या आरम्भ परित्याग । उसका हेतु निर्वेद है । जब तक निर्वेद नहीं होता, तब तक विषय विरक्ति नहीं होती और उसके बिना आरम्भ का परित्याग नहीं होता । दशवैकालिक नियुक्ति में भिक्षु के सतरह लिङ्ग बताए गए हैं. वहाँ संवेग और निर्वेद को प्रथम स्थान दिया गया है । ८ वण्ण संजलणभत्तिबहुमाणयाए वर्ण, संज्वलन, भक्ति और बहुमान - ये चारों विनय प्रतिपत्ति के अंग हैं। वर्ण Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १३७ का अर्थ है-श्लाघा । कीति, वर्ण, शब्द और श्लोक ये चारों पर्याय-शब्द हैं। इनमें कुछ अर्थ-भेद भी है। संज्वलन का अर्थ है-गुण-प्रकाशन । भक्ति का अर्थ है-हाथ-जोड़ना, गुरु के आने पर खड़ा होना, प्रासन देना आदि। बहुमान का अर्थ है--अान्तरिक अनुराग । ६ मायानियाणमिच्छादसणसल्लाणं जो मानसिक वृत्तियां और अध्यवसाय शल्य (अन्तव्रण) की तरह क्लेशकर होते हैं, उन्हें 'शल्य' कहा जाता है । वे तीन हैं--१. माया, २. निदान-तप के फल की आकांक्षा करना, भोग की प्रार्थना करना और ३. मिथ्या-दर्शन--मिथ्या-दृष्टिकोण । ये तीनों मोक्ष-मार्ग के विध्न और अनन्त संसार के हेतु हैं । स्थानांग (१०/७३३) में कहा गया है—आलोचना वही व्यक्ति कर सकता है, जो मायावी नहीं होता। १० करणगुणसेडिं संक्षेप में 'करण-सेढि' का अर्थ है...-'क्षपक-श्रेणि'। मोह-विलय की दो प्रक्रियाएं हैं। जिसमें मोह का उपशम होते-होते वह सर्वथा उपशान्त हो जाता है, उसे 'उपशमश्रेणि' कहा जाता है। जिसमें मोह क्षीण होते-होते पूर्ण क्षीण हो जाता है, उसे 'क्षपकश्रेणि' कहा जाता है। उपशम-श्रेणि से मोह का सर्वथा उद्घात नहीं होता, इसलिये यहाँ क्षपक-श्रेणि ही प्राप्त है। करण का अर्थ 'परिणाम' है । क्षपक-श्रेणि का प्रारंभ आठवें गुणस्थान से होता है। वहाँ परिणाम-धारा वैसी शुद्ध होती है, जैसी पहले कभी नहीं होती। इसीलिये आठवें गुणस्थान को 'अपूर्व-करण' कहा जाता है। अपूर्व-करण से जो गुण-श्रेणि प्राप्त होती है, उसे करण-गुण-णि कहा जाता है। यह जब प्राप्त होती है तब मोहनीय-कर्म के परमाणुओं की स्थिति अल्प हो जाती है और उनका विपाक मन्द हो जाता है। इस प्रकार मोहनीय-कर्म निर्वीर्य बन जाता है । ११ अपुरक्कारं यहाँ 'अपुरक्कार-अपुरस्कार' का अर्थ 'अनादर' या 'अवज्ञा' है। यह व्यक्ति गुणवान् है, कभी भूल नहीं करता--इस स्थिति का नाम पुरस्कार है। अपने प्रमादाचरण को दूसरों के सामने प्रस्तुत करने वाला इससे विपरीत स्थिति को प्राप्त होता है, वही अपुरस्कार है । १२ प्रणन्तघाइपज्जवे आत्मा के चार गुण अनन्त हैं—१. ज्ञान, २. दर्शन, ३. वीतरागता, ४. वीर्य । इनके आवारक परमाणुनों को ज्ञानावरण और दर्शनावरण, सम्मोहक परमाणुगों को मोह तथा विघातक परमाणुओं को अन्तराय-कर्म कहा जाता है। उनकी अनन्त परिणतियों से प्रात्मा के अनन्त गुण आवृत्त, सम्मोहित और प्रतिहत होते हैं। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग १३ काउस्सग्गेणं समाचारी-अध्ययन में कायोत्सर्ग को 'सर्व-दुःख विमोचक' कहा गया है। शान्त्याचार्य ने कायोत्सर्ग का अर्थ-'पागमोक्त नीति के अनुसार शरीर को त्याग देना' किया है। क्रिया-विसर्जन और ममत्व-विसर्जन-ये दोनों प्रागमोक्त नीति के अंग हैं । १४ चवथुइ ___सामान्यत: 'स्तुति' और 'स्तव' इन दोनों का अर्थ भक्ति और बहुमानपूर्ण श्रद्धाञ्जलि अर्पित करना है। किन्तु साहित्य-शास्त्र की विशेष परम्परा के अनुसार एक, दो या तीन श्लोक वाली श्रद्धाञ्जलि को 'स्तुति' और तीन से अधिक श्लोक वाली श्रद्धाञ्जलि को 'स्तव' कहा जाता है। कुछ लोग सात श्लोक तक श्रद्धाञ्जलि को भी स्तुति मानते हैं। १५ कालपडिलेहणयाए श्रमण की दिनचर्या में काल-मर्यादा का बहुत बड़ा स्थान रहा है । दशवकालिक में कहा गया है-'वह सब काम ठीक समय पर करे।' यही बात सूत्रकृतांग में कही गई है । व्यवहार में बताया गया है-अस्वाध्याय में स्वाध्याय न किया जाये । काल-ज्ञान के प्राचीन साधनों में दिक्-प्रतिलेखन और 'नक्षत्र-अवलोकन' भी प्रमुख थे। मुनि स्वाध्याय से पूर्व काल की प्रतिलेखना करते थे। जिन्हें नक्षत्र-विद्या का कुशल ज्ञान होता था, वे इस कार्य के लिए नियुक्त होते थे । यांत्रिक घड़ियों के प्रभाव में इस कार्य को बहुत महत्त्व दिया जाता था। १६ मग्गं शान्त्याचार्य ने मार्ग के तीन अर्थ किये हैं--१. सम्यक्त्व, २. सम्यक्त्व एवं ज्ञान पौर ३. मुक्ति-मार्ग। मार्ग-फल का अर्थ 'ज्ञान' किया गया है । उत्तराध्ययन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप---इन चारों को 'मार्ग' कहा गया है । प्रायश्चित्त के प्रकरण में मार्ग का अर्थ सम्यक्त्व मधिक उपयुक्त है । प्रायश्चित्त तपस्या-मय होता है, इसलिये तप उसका परिणाम नहीं हो सकता। चारित्र (प्राचार-शुद्धि) इसी सूत्र में पागे प्रतिपादित है । शेष ज्ञान और दर्शन (सम्यक्त्व) दो रहते हैं । उनमें दर्शन 'मार्ग' है और उसकी विशुद्धि से ज्ञान विशुद्ध होता है, इसलिये वह 'मार्ग-फल' है। प्राचार्य वट्टकेर ने श्रद्धान (दर्शन) को प्रायश्चित्त का एक प्रकार माना है। वृत्तिकार वसुनन्दि ने उसके दो अर्थ किये हैं—१. तत्त्वरुचि का परिणाम और २. क्रोष प्रादि का परित्याग। सूत्रकार का प्राशय यह है कि प्रायश्चित्त से दर्शन की विशिष्ट विशुद्धि होती है। इसलिए ज्ञान और दर्शन को प्रायश्चित्त भी माना जा सकता है और परिणाम भी। १७ खमावणयाए सत्य की प्राप्ति उसी व्यक्ति को होती है, जो अभय होता है। भय के हेतु हैं Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि राग और द्वेष । उनसे वैर-विरोध बढ़ता है। वैर-विरोव होने पर प्रात्मा की सहज प्रसन्नता नष्ट हो जाती है । सब जीवों के साथ मैत्री-भाव नहीं रहता । मन भय से भर जाता है । इस प्रकार व्यक्ति सत्य से दूर हो जाता है। जो सत्य को पाना चाहता है, उसके मन में राग-द्वेष की गांठ तीव्र नहीं होती। वह सबके साथ मैत्री-भाव रखता है । उसकी प्रात्मा सहज प्रसन्नता से परिपूर्ण होती है। उससे प्रमादवश कोई अनुचित व्यवहार हो जाता है तो वह तुरन्त उसके लिए अनुताप प्रकट कर देता है.--क्षमा मांग लेता है। जिस व्यक्ति में अपनी भूल के लिए अनुताप व्यक्त करने की क्षमता होती है, उसी में सहज प्रसन्नता, मैत्री और अभय-ये सभी विकसित होते हैं। १८ सज्झाएण स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं१. वाचना-अध्यापन करना । २. प्रतिपृच्छा-अज्ञात-विषय को जानकारी या ज्ञात-विषय की जानकारी के लिए प्रश्न करना। ३. परिवर्तना–परिचित-विषय को स्थिर रखने के लिए बार-बार दोहराना । ४. अनुप्रेक्षा-परिचित और स्थिर विषय पर चिंतन करना । ५. धर्मकथा—स्थिरीकृत और चिंतित-विषय का उपदेश करना । १६ तित्थधम्म अवलम्बइ शान्त्याचार्य ने तीर्थ के दो प्रर्य किये हैं-१. गणधर और २. प्रवचन । भगवती में चतुर्विध संघ को 'तीर्थ' कहा गया है । गौतम ने पूछा-"भंते ! तीर्थ को तीर्थ कहा जाता है या तीर्थङ्कर को तीर्थ कहा जाता है ? भगवान् ने कहा- "गौतम ! अर्हत् तीर्थ नहीं होते, वे तीर्थङ्कर होते हैं । चतुर्वर्ण श्रमण-संघ–साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकानों का संघ तीर्थ कहलाता है। प्रावश्यक नियुक्ति में प्रवचन का एक नाम तीर्थ है। इस प्रकार तीर्थ के तीन अर्थ हुए । इनके आधार पर तीर्थ-धर्म के तीन अर्थ होते हैं १, गणधर का धर्म-शास्त्र-परम्परा को अविच्छिन्न रखना। २. प्रवचन का धर्म-स्वाध्याय करना । ३. श्रमण-संघ का धर्म । २० कंखामोहणिज्जं कम्म शान्त्याचार्य ने काङ्क्षा-मोहनीय का अर्थ 'प्रनाभिग्रहिक-मिथ्यात्व' किया है। अभयदेव सूरि के अनुसार इसका अर्थ है --मिथ्यात्व मोहनीय । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०. सत्य की व्याख्या करने वाले अनेक मिथ्या दृष्टिकोणों की ओर झुक जाता है। नीय-कर्म होता है । विशेष - भगवती, १/३। २१ वंजणद्धि चित्त-समाधि : जन योग मतवाद हैं । उनके जाल में फंसकर मनुष्य इस झुकाव का मुख्य कारण काङ्क्षा-मोह - एक व्यंजन के आधार पर शेष व्यंजनों को प्राप्त करने वाली क्षमता का नाम 'व्यञ्जन - लब्धि' है । २२ एगग्गमणसं तिवेसणयाए इस सूत्र में एकाग्र मन की स्थापना ( मन को एक अग्र – आलम्बन पर स्थित करने ) का परिणाम 'चित्त निरोध' बतलाया गया है । मन गुप्ति से एकाग्रता प्राप्त होती है । इससे मन की तीन अवस्थाएं फलित होती हैं - १. गुप्ति, २. एकाग्रता, ३. निरोध । मन को चंचल बनाने वाले हेतुप्रों से उसे बचाना, सुरक्षित रखना — गुप्ति कहलाती है । ध्येय-विषयक ज्ञान की एकतानता 'एकाग्रता' कहलाती है । मन की विकल्पशून्यता को 'निरोध' कहा जाता है । महर्षि पतञ्जलि ने चित्त के चार परिणाम बतलाए हैं - १. व्युत्थान, २ . समाधिप्रारंभ, ३. एकाग्रता और ४. निरोध । यहां एकाग्रता और निरोध तुलनीय हैं । २३ संजमेणं (सूत्र २७ से २६ ) स्थानांग में उपासना के दस फल बताए गए हैं । उनमें से संयम और अनास्रव, तप और व्यवदान तथा प्रक्रिया और सिद्धि का कार्य-कारण-माला के रूप में उल्लेख है । बौद्ध दर्शन में बाईस इन्द्रियां मानी गई हैं । उनमें श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा - इन पांच इन्द्रियों तथा प्रज्ञातमाज्ञास्यामीन्द्रिय, आज्ञेन्द्रिय और श्राज्ञातावीन्द्रिय- इन तीन अन्तिम इन्द्रियों से विशुद्धि का लाभ होता है इसलिये इन्हें व्यवदान का हेतु माना गया है। श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा के बल से क्लेश का विष्कम्भन और आर्य मार्ग का आवाहन होता है । अन्तिम तीन इन्द्रिय-अनास्रव हैं । निर्वाणादि के उत्तरोत्तर प्रतिलम्भ में इनका आधिपत्य है । व्यवदान का अर्थ 'कर्म-क्षय' या 'विशुद्धि' है । यहाँ निर्जरा के स्थान में इसका प्रयोग हुआ है । २४ सुहसाएणं उत्सुकता, निर्दयता, उद्धत - मनोभाव, शोक और चरित्र विकार - इन सबका मूल सुख की प्राकाङ्क्षा है । उसे छोड़कर कोई भी व्यक्ति अनुत्सुक, दयालु, उपशान्त, अशोक और पवित्र आचरण वाला हो सकता है । उत्सुकता आदि सुख की प्राकाङ्क्षा के परिणाम हैं । वे कारण के रहते परित्यक्त नहीं होते । आवश्यक यह है कि कारण के त्याग का प्रयत्न किया जाए, परिणाम अपने श्राप व्यक्त हो जाएंगे । २५ श्रपडिबद्धयाए संग और प्रसंग – ये दो शब्द समाज और व्यक्ति के सूचक हैं । अध्यात्म की Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्भयणाणि १४१ । भाषा में समुदाय-जीवी वह होता है, जिसका मन संगमका ( श्रनेकता में लिप्त ) होता है और व्यक्ति जीवी या अकेला वह होता है, जिसका मन प्रसंग होता है – किसी भी वस्तु या व्यक्ति में लिप्त नहीं होता । इसी तथ्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रसंग मन वाला समुदाय में रहकर भी अकेला रहता है और संग- लिप्त मन वाला अकेले में रहकर भी समुदाय में रहता है कहा जाता है कि चित्त चंचल है, अनेक ग्र है । वह किसी एक अग्र (लक्ष्य) पर नहीं टिकता । किन्तु इस मान्यता में थोड़ा परिवर्तन करने की आवश्यकता है । चित्त अपने आप में चंचल या अनेकाग्र नहीं है । उसे हम अनेक विषयों में बांध देते है तब वह संग लिप्त बन जाता है और यह संगलिप्तता हो उसकी अनेकाग्रता का मूल है । अनासक्त मन कभी चंचल नहीं होता और प्रासक्ति के रहते हुए कभी उसे एकाग्र नहीं किया जा सकता । निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि जितनी प्रासक्ति, उतनी अनेकाग्रता । जितनी अनासक्ति, उतनी एकाग्रता | पूर्ण अनासक्ति, मन का अस्तित्व समाप्त । २६ विवित्तसयणासण बाह्य-तप का छठा प्रकार विविक्त शयनासन है । तीसवें है— एकान्त, आवागमन - रहित और स्त्री-पशु-वर्जित स्थान में विविक्त शयनासन है । बौद्ध साहित्य में विविक्त स्थान के नौ १. अरण्य, २. वृक्षमूल, ३. पर्वत, ४. कन्दरा, ५. गिरि-गुहा, प्रस्थ, ८. अभ्यवकाश, ६. पलाल - पुञ्ज । एकान्त शयनासन करने वाले का मन आत्म-लीन हो जाता है । इसलिये इसे 'संलीनता' भी कहा जाता है । बौद्ध पिटकों में एकान्तवास के लिए 'प्रति संलयन' भी प्रयुक्त होता है । श्रपपातिक में विविक्त - शयनासन के लिये 'प्रतिसंलीनता' का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार प्राचीन साहित्य में एकान्त स्थान या कामोत्तेजक इन्द्रिय-विषयों से वर्जित स्थान के लिये विवि-शयनासन-संलीनता, प्रति-संलयन और प्रति संलीनता - ये शब्द प्रयुक्त होते रहे हैं । अध्ययन में बताया गया शयनासन करने का नाम प्रकार बतलाए गए हैं— ६. श्मशान, ७. वन २७ विजयट्टणयाए प्रवृत्ति और निवृत्ति - - ये दो सापेक्ष शब्द हैं । प्रवर्तन का अर्थ है – 'करना' और निवर्तन का अर्थ है - ' करने से दूर होना' । जो नहीं करता — मन, वचन और काया की प्रवृत्ति नहीं करता, वही व्यक्ति पाप कर्म नहीं करने के लिये तत्पर होता है । जहाँ पापकर्म का कारण नहीं होता, वहाँ पूर्व-अर्जित कर्म स्वयं क्षीण हो जाते हैं । बन्धन प्रस्रव के साथ ही टिकता है । संवर होते ही वह टूट जाता है । इसीलिये पूर्ण संवर और पूर्ण निर्जरा- ये दोनों सहवर्ती होते हैं । २८ संभोग पच्चक्खाणेणं श्रमण-संघ में सामान्य प्रथा मण्डली - भोजन ( सह - भोजन ) की रही है । किन्तु साधना का अग्रिम लक्ष्य है— प्रात्म-निर्भरता । मुनि प्रारम्भिक दशा में सामुदायिक जीवन Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ चित्त-समाधि : जैन योग में रहे और दूसरों का पालंबन भी प्राप्त करे। फिर भी उसे इस बात की विस्मृति नहीं होनी चाहिये कि उसका अग्रिम लक्ष्य स्वावलम्बन है । स्थानांग में इस जीविकासम्बन्धी स्वावलम्बन को 'सुख-शय्या' कहा है । उसका संकेत इसी सूत्र में प्राप्त है। चार सुख-शय्याओं में यह दूसरी सुख-शय्या है । उसका स्वरूप इस प्रकार है—कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रवजित होकर अपने लाभ से संतुष्ट होता है, दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा नहीं करता, वह दूसरे के लाभ का प्रास्वाद नहीं करता हुआ, स्पृहा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुप्रा, अभिलाषा नहीं करता हुआ, मन में समता को धारण करता हुआ धर्म में स्थिर हो जाता है । २६ उवहिपच्चक्खाणेणं मुनि के लिए वस्त्र प्रादि उपाधि रखने का विधान किया गया है। किंतु विकासक्रम की दृष्टि मे उपधि-परित्याग को अधिक महत्त्व दिया गया है । उपषि रखने में दो बाधामों की संभावना है-१. परिमन्थ और २. संक्लेश। उपधि-प्रत्याख्यान से ये दोनों संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। परिमन्थ-उपधि की प्रतिलेखना से जो स्वाध्यायध्यान की हानि होती है, वह उपधि के परित्याग से समाप्त हो जाती है । संक्लेशजो उपधि का प्रत्याख्यान करता है उसके मन में 'मेरा वस्त्र पुराना हो गया है, फट गया है, सूई मांग कर लाऊं, उसे सांधूं'-ऐसा कोई संक्लेश नहीं होता । पसंक्लेश का यह रूप प्राचारांग में प्रतिपादित है । मूलाराधना में इसे 'परिकर्म-वर्जन' कहा है। ३० प्राहारपच्चक्खाणेणं ___ आहार-प्रत्याख्यान के दो अर्थ हो सकते हैं--१. जीवन-पर्यन्त अनशन और २. निश्चित अवधि-पर्यन्त अनशन । __ शान्त्याचार्य ने आहार-प्रत्याख्यान का अर्थ 'मनेषणीय (अयोग्य) भक्त-पान का परित्याग' किया है। किन्तु इसके परिणामों को देखते हुए इसका अर्थ और अधिक व्यापक हो सकता है। पाहार-प्रत्याख्यान के दो परिणाम हैं-१. जीवन की आकाङ्क्षा का विच्छेद और २. आहार के बिना संक्लेश प्राप्त न होना-बाधा का अनुभव न करना। ये परिणाम प्राहार-त्याग की साधना से ही प्राप्य हैं। एषणीय आहार नहीं मिलने पर उसका जो प्रत्याख्यान किया जाता है, उसमें भी प्रात्मा का स्वतंत्र-भाव है । किन्तु वह योग्य आहार की अप्राप्ति से होने वाला तप है । ममत्व-हानि तथा शरीर और प्रात्मा के भेद-ज्ञान को विकसित करने के लिये जो आहार-प्रत्याख्यान किया जाता है, वह योग्य आहार की प्राप्ति की स्थिति में किया जाने वाला तप है। उससे जीवन के प्रति निर्ममत्व और पाहार के अभाव में संक्लेश रहित मनोभाव-ये दोनों सहज ही सघ जाते हैं । इसलिये पाहार-प्रत्याख्यान का मुख्य अर्थ 'साधना के विशेष दृष्टिकोण से Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्भयणाणि १४३ तप करना' होना चाहिये । ३१ कसायपच्चक्खाणेणं प्रात्मा विजातीय रंग में रंगी हुई होती है, उसी का नाम 'कषाय' है। कषाय के प्रत्याख्यान का अर्थ है 'प्रात्मा से विजातीय रंग का धुल जाना' । आत्मा की कषायमुक्त स्थिति का नाम है 'वीतरागता' । कषाय और विषमता-इन्हें पर्यायवाची कहा जा सकता है । कषाय से विषमता उत्पन्न होती है, इसकी अपेक्षा यह कहना अधिक उचित है कि कषाय और विषमता दोनों साथ-साथ उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार बीतरागता और समता भी एक साथ उत्पन्न होती हैं । सुख-दुःख आदि बाहरी स्थितियों में प्रात्मा की जो विषम अनुभूति होती है, उसका हेतु कषाय है। उसके दूर होते ही आत्मा में बाह्य-स्थिति विषमता उत्पन्न नहीं करती। इस स्थिति को 'वीतरागता' या 'प्रात्मा की बाह्य वातावरण से मुक्ति' कहा जा सकता है । ३२ सूत्र (३८-३६) इन सूत्रों में 'अयोगि-दशा' और 'मुक्त-दशा' का निरूपण है। पहले प्रवृत्ति-मुक्ति (योग-प्रत्याख्यान) होती है फिर शरीर-मुक्ति (शरीर-प्रत्याख्यान)। यहाँ 'योग' शब्द समाधि का वाचक नहीं किन्तु मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का वाचक है। मुक्त होने के क्रम में पहले अयोगि-दशा प्राप्त होती है। उससे नये कर्मों का बन्ध समाप्त हो जाता है—पूर्ण संवर हो जाता है और पूर्व-संचित कर्म क्षीण हो जाते हैं। कर्म के अभाव में आत्मा शरीर-मुक्त हो जाती है और शरीर-मुक्त प्रात्मा में अतिशय गुणों का विकास हो जाता है। वह सर्वथा अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श हो जाती है-अरूपी सत्ता में अवस्थित हो जाती है। अगुरु-लघु, स्थिर-अवगाहना और अव्याबाघ (सहज सुख)–ये गुण प्रकट हो जाते हैं। अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्तशुद्धि और अनन्त-वीर्य-ये पहले ही प्राप्त हो चुके होते हैं। प्रवृत्ति और शरीर के बन्धन से बंधी हुई आत्मा इतस्ततः भ्रमण करती है। किन्तु उन बन्धनों से मुक्त होने पर वह ऊर्ध्व-लोक के अन्तिम छोर पर पहुंच कर अवस्थित हो जाती है, फिर उसके पास गति का माध्यम नहीं होता। ३३ सहायपच्चक्खाणेणं ____ जो साधु 'गण' या 'संघ' में दीक्षित होते हैं, उनके लिये दूसरे साधुओं से सहयोग लेना वर्जित नहीं है। सहाय-प्रत्याख्यान का जो विधान है, वह एक विशेष साधना है। उसे स्वीकार करने के पीछे दो प्रकार का मानस हो सकता है। एक वह जो अपने पराक्रम से ही अपनी जीवन चर्या का निर्वाह करना चाहता है, दूसरे सहायक का सहारा लेना नहीं चाहता-परावलम्बी होना नहीं चाहता। दूसरा वह जो सामुदायिक जीवन के झंझावातों में अपनी समाधि को सुरक्षित नहीं पाता। सामुदायिक-जीवन में कलह, क्रोध आदि कषाय और तुमंतुम थोड़ा सा अपराध होने पर 'तूने पहले ही ऐसा किया Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ चित्त-समाधि : जैन योग था, तू सदा ऐसा ही करता है', इस प्रकार बार-बार टोकना-ये हो जाते हैं। साधु को ऐसा नहीं करना चाहिये, फिर भी प्रमादवश वे ऐसा कर लेते हैं। इस स्थिति में मानसिक-असमाधि उत्पन्न हो जाती है। जो मुनि संघ में रहते हुए भी स्वावलम्बी हो जाता है, किसी भी कार्य के लिये दूसरों पर निर्भर नहीं होता, वह समुदाय में रहते हुये भी अकेले का जीवन जीता है। उसे कलह, क्रोध आदि कषाय और तुमंतुम आदि से सहज ही मुक्ति मिल जाती है। इससे संयम और संवर बढ़ता जाता है। मानसिकसमाधि अभंग हो जाती है। सामुदायिक-जीवन में रहते हुए भी अकेला रहने की साधना बहुत बड़ी साधना है। ३४ भत्तपच्चक्खाणणं भक्त-प्रत्याख्यान अामरण-अनशन का एक प्रकार है। इसका परिणाम जन्मपरम्परा का अल्पीकरण है। इसका हेतु ग्राहार-त्याग का दृढ़-अध्यवसाय है। देह का आधार पाहार और आहार-विषयक प्रासक्ति है । आहार की प्रासक्ति और आहारदोनों के त्याग से केवल स्थूल देह का ही नहीं, अपितु सूक्ष्म देह का भी बन्धन शिथिल हो जाता है । फलत: सहज ही जन्म-मरण की परम्परा अल्प हो जाती है । ३५ सब्भावपच्चक्खाणेणं सद्भाव-प्रत्याख्यान का अर्थ 'परमार्थ रूप से होनेवाला प्रत्याख्यान' है। इस अवस्था को पूर्ण संवर या शैलेशी, जो चौदहवें गुणस्थान में अयोगी केवली के होती है, कहा जाता है। इससे पूर्ववर्ती सब प्रत्याख्यान इसलिये अपूर्ण होते हैं कि उनमें और प्रत्याख्यान करने की आवश्यकता शेष रहती है। इस भूमिका में परिपूर्ण प्रत्याख्यान होता है । उसमें फिर किसी प्रत्याख्यान की अपेक्षा नहीं रहती। इसीलिये इसे 'पारमार्थिकप्रत्याख्यान' कहा गया है। इस भूमिका को प्राप्त प्रात्मा फिर से प्रास्रव, प्रवृत्ति या बन्धन की भूमिका में प्रवेश नहीं होता, इसलिये इसके परिणाम को 'अनिवृत्ति' कहा गया है। 'अनिवृत्ति' अर्थात् निस स्थिति से निवर्तन नहीं होता-लौटना नहीं पड़ता। यह शुक्ल-ध्यान का चतुर्थ चरण है। इस अनिवृत्ति ध्यान की दशा में केवली के जो चार अघात्यकर्म विद्यमान रहते हैं, वे क्षीण हो जाते हैं-यह 'चत्तारि केवलि-कम्मंसे खवेई' का भावार्थ है। केवलिकम्मसे' शब्द का प्रयोग इस सूत्र के अतिरिक्त अट्ठानवें और इकसठवें सूत्र में भी हुप्रा है। 'कम्मसे' शब्द इकहत्तरवें और बहत्तरखें सूत्र में प्रयुक्त हुअा है। 'कम्मसे' में जो 'अंस' शब्द है, उसका अर्थ कर्म-ग्रन्थ की परिभाषा के अनुसार 'सत्'–विद्यमान है। ३६ पडिरूव शान्त्याचार्य के अनुसार प्रतिरूप' वह होता है, जिसका वेश स्थविर-कल्पिक मुनि के सरीखा हो और प्रतिरूपता' का अर्थ है----'अधिक उपकरणों का त्याग'। इस सूत्र में अप्रमत्त, प्रकट-लिङ्ग, प्रशस्त-लिङ्ग, विशुद्ध-सम्यक्त्व, समाप्त-सत्त्व-समिति, सर्व प्राण Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १४५ भूत-जीव-सत्त्वों में विश्वसनीय रूप, अप्रतिलेख, जितेन्द्रिय और विपुल तपः समितिसमन्वागत-ये महत्त्वपूर्ण पद हैं। बताया गया है कि प्रतिरूपता का परिणाम लाघव है । जो लघुभूत होता है, वह अप्रमत्त आदि हो जाता है। शान्त्याचार्य के अनुसार प्रत्येक शब्द का अर्थ इस प्रकार है अप्रमत्त-प्रमाद के हेतुओं का परिहार करने वाला। प्रकट-लिङ्ग- स्थविर-कल्पिक मुनि के रूप में समझा जाने वाला। प्रशस्त-लिङ्ग- जीव-रक्षा के हेतुभूत रजोहरण आदि को धारण करने वाला। विशुद्ध-सम्यक्त्व- सम्यक्त्व की विशुद्धि करने वाला। समाप्त सत्त्व-समिति- सत्त्व (पराक्रम) और समिति को प्राप्त करने वाला। सर्व-प्राण-भूत-जीव-सत्त्वों में विश्वसनीय रूप—किसी को भी पीड़ा नहीं देने के कारण सबका विश्वास प्राप्त करने वाला। अप्रतिलेख-उपकरणों की अल्पता के कारण अल्प प्रतिलेखन वाला। जितेन्द्रिय- इन्द्रियों को वश में रखने वाला। विपुल तपः समिति-समन्वागत--विपुलतप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला। प्रतिरूपता के परिणामों को देखते हुए 'प्रतिरूप' का अर्थ स्थविर-कल्पिक के सदृश वेशवाला और 'प्रतिरूपता' का अर्थ 'अधिक उपकरणों का त्याग' सही नहीं लगता। मूलाराधना में अचेलत्व को जिन-प्रतिरूप' कहा है। 'जिन' अर्थात् तीर्थङ्कर अचेल होते हैं। 'जिन' के समान रूप (लिङ्ग) धारण करने वाले को जिन-प्रतिरूप' कहा जाता है। प्रवचनसारोद्धार के अनुसार गच्छ में रहते हुए भी जिन-कल्पिक जैसे प्राचार का पालन करने वाला 'जिन-कल्पिक-प्रतिरूप' कहलाता है । यहाँ भी प्रतिरूप का अर्थ यही'जिन के समान वेश वाला' यानी जिन-कल्पिक होना चाहिये । अप्रमत्त प्रादि सारे विशेषणों पर विचार किया जाए तो यही अर्थ संगत लगता है । मलाराधना में अचेलकता के जो गुण बललाए हैं, वे इस सूत्र के अप्रमत्त आदि विशेषणों के बहुत निकट हैंउत्तराध्ययन मूलाराधना १. प्रतिरूपता का फल-लाघव अचेलकता का एक गुण-लाघव २. अप्रमत्त विषय और देह सुखों में अनादर ३. प्रकट- लिङ्ग नग्नता-प्राप्त ४. प्रशस्त-लिङ्ग प्रशस्त- लिङ्ग ५. विशुद्ध-सम्यक्त्व रागादि दोष-परिहरण ६. समाप्त-सत्त्व-समिति वीर्याचार ७. सर्व प्राण-भूत-जीव-सत्त्वों में विश्व- विश्वासकारी रूप सनीय रूप Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग ८. अप्रतिलेख अप्रतिलेखन ६. जितेन्द्रिय सर्व-समित-करण (इन्द्रिय) १०. विपुलतपः समिति-समन्वागत परीषह-सहन उक्त तुलना से प्रतिरूपता का अर्थ 'अचेलता' ही प्रमाणित होता है। अचेल को सचेल की अपेक्षा बहुत अप्रमत्त रहना होता है। उसके पास विकार को छिपाने का कोई साधन नहीं होता । जो अचेल होता है, उसका लिङ्ग सहज ही प्रकट होता है। अचेल उसी को होना चाहिये, जिसका लिङ्ग प्रशस्त हो-विकृत आदि न हो। अचेल व्यक्ति का सम्यक्त्व-देह और आत्मा का भेद-ज्ञान-विशुद्ध होता है । समाप्त-सत्त्व-समितिअचेल सत्त्व प्राप्त होता है अर्थात् अभय होता है । इसकी तुलना मूलाराधना (२/८३) के 'गत-भयत्व' शब्द से भी हो सकती है। समिति का अर्थ 'विविध प्रकार के आसन करने वाला' हो सकता है। अचेल की निर्विकारता प्रशस्त होती है, इसलिये वह सबका विश्वासपात्र होता है। अप्रतिलेखन अचेलता का सहज परिणाम है। अचेलता से जितेन्द्रिय होने की प्रबल प्रेरणा मिलती है । अचेल होना एक प्रकार का तप है । नग्नता शीत, उष्ण, दंश, मशक—ये परीषह सचेल की अपेक्षा अचेल को अधिक सहने होते हैं; इसलिये उसके विपुल तप होता है। इस प्रकार सारे पदों में एक शृंखला है। उससे अचेलता के साथ उनकी कड़ी जुड़ जाती है। स्थानांग में पाँच कारणों-१. अप्रतिलेखन, २. प्रशस्त-लाघव, ३. वैश्वासिक-रूप, ४. तप-उपकरण-संलीनता और ५. महान् इन्द्रिय-निग्रह से अचेलक को प्रशस्त कहा है। ये पांचों कारण प्रतिरूपता के परिणामों में आये हुये हैं। अतः प्रतिरूपता का अर्थ 'मचेलकता' करने में बहुत बड़ा आधार प्राप्त होता । ३७. सव्वगुणसपन्नयाए प्रात्म-मुक्ति के लिये ज्ञान, दर्शन और चारित्र—ये तीन गुण प्रयोजनीय होते हैं । जब तक निरावरण ज्ञान, पूर्ण दर्शन (क्षायिक सम्यक्त्व) और पूर्ण चरित्र (सर्वसंवर) की प्राप्ति नहीं होती, तब तक सर्वगुण-सम्पन्नता उपलब्ध नहीं होती। इसका अभिप्राय यह है कि कोरे ज्ञान, दर्शन या चारित्र की पूर्णता से मुक्ति नहीं होती। किन्तु जब तीनों परिपूर्ण होते हैं, तभी यह होती है। पुनरावर्तन, शारीरिक और मानसिक दुःख-ये सब गुण विकलता के परिणाम हैं । सर्व-गुण-सम्पन्नता होने पर ये नहीं होते। ३८. वीयरागयाएणं - 'वीतराग' स्नेह और तृष्णा की बंधन-परम्परा का विच्छेद कर देता है। पुत्र प्रादि में जो प्रीति होती है, उसे स्नेह और धन आदि के प्रति जो लालसा होती है, उसे 'तृष्णा' कहा जाता है । स्नेह और तृष्णा की परम्परा उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है, इसलिये इनके बंधन को अनुबन्ध कहा गया है । ३६. खन्तीए शान्त्याचार्य ने शान्ति का अर्थ 'क्रोध-विजय' किया है । इस अर्थ के अनुसार यहाँ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २४७ उन्हीं परीषहों पर विजय पाने की स्थिति प्राप्त है, जो क्रोध-विजय से संबंधित है। क्रोधी मनुष्य गाली, वध आदि को नहीं सह सकता। क्रोध पर विजय पाने वाला उन्हें सह लेता है । शान्ति का अर्थ यदि 'सहिष्णुता' किया जाए तो परीषह-विजय का अर्थ व्यापक हो जाता है । सहिष्णुता से सभी परीषहों पर विजय पाई जा सकती है। केवल गाली और वध पर ही नहीं। ४०. अज्जवयाए माया और असत्य तथा ऋजुता और सत्य का परस्पर गहरा सम्बन्ध है । इस सूत्र में ऋजुता के चार परिणाम बतलाए गये हैं-१. काया की ऋजुता, २. भाव की ऋजुता, ३. भाषा की ऋजुता, ४. अविसंवादन । ऋजुता का परिणाम ऋजुता कैसे हो सकता है । सहज ही यह प्रश्न होता है। उसका समाधान स्थानांग के एक सूत्र में मिलता है । वहां कहा गया है -सत्य के चार प्रकार होते हैं-१. काया की ऋजुता, २. भाषा की ऋजुता, ३. भाव की ऋजुता, ४. अविसंवादन योग। काया की ऋजुता-यथार्थ-अर्थ की प्रतीति कराने वाली काया की प्रवृत्ति । वेषपरिवर्तन, अंग-विकार आदि का प्रकरण । भाषा की ऋजुता-यथार्थ-अर्थ की प्रतीति कराने वाली वाणी की प्रवृत्ति । उपहास आदि के निमित्त वाणी में विकार न लाना । भाव की ऋजुता—जैसा मानसिक चिन्तन हो वैसा ही प्रकाशित करना । अविसंवादन योग-किसी कार्य का संकल्प कर उसे करना। दूसरों को न ठगना। इस सूत्र के आधार पर कहा जा सकता है कि ऋजुता का परिणाम सत्य है । ४१. भावसच्चेणं भाव-सत्य का अर्थ अन्तरात्मा की सच्चाई है। सत्य और शुद्धि में कार्य-कारणभाव है । भाव की सच्चाई से भाव की विशुद्धि होती है। बावनवे सूत्र में योग-सत्य का उल्लेख है उसका एक प्रकार मनः-सत्य है। सहज ही भाव और मन का भेद समझने की जिज्ञासा होती है। इन्द्रिय से सूक्ष्म मन और मन से सूक्ष्म भाव (प्रात्मा का प्रान्तरिक अध्यवसाय) होता है। मन के परिणाम को भी भाव कहा जाता है, किन्तु प्रकरण के अनुसार यहाँ इसका अर्थ अन्तर-आत्मा ही संगत है। करण-सत्य का सम्बन्ध भी योग-सत्य से है। करने का अर्थ है-~मन, वचन और काया की प्रवृत्ति। फिर भी करने की विशेष स्थिति को लक्ष्यकर उसे योग-सत्य से पृथक् बतलाया गया है। करण-सत्य का अर्थ है-विहित कार्य को सम्यक् प्रकार से और तन्मय होकर करना । योग-सत्य का अर्थ है-मन, वचन और काया को अवितथ स्थिति में रखना। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ चित्त-समाधि : जैन योग . इन तीनों सूत्रों (५१-५३) में विशेष चर्चनीय पद 'परलोगधम्मस्स पाराहए' और 'करणसत्ति' हैं। परलोक-धर्म की आराधना का अर्थ यह है कि भाव-सत्य से आगामी जन्म में भी धर्म की प्राप्ति सुलभ होती है । करण-शक्ति का अर्थ है-वैसा कार्य करने का सामर्थ्य, जिसका पहले कभी अध्यवसाय या प्रयत्न भी न किया गया हो । करण-सत्यता और करण-शक्ति के अभाव में ही कथनी और करनी में अन्तर होता है। उन दोनों के विकसित होने पर मनुष्य 'यथावादी तथाकारी' बन जाता है। ४२. सूत्र ५४-५६ इन तीन सूत्रों में गुप्ति के परिणामों का निरूपण है । गुप्तियां तीन हैं—मन-गुप्ति, वचन-गुप्ति और काय-गुप्ति । ____ जो समित होता है, वह नियमतः गुप्त होता है और जो गुप्त होता है वह समित हो भी सकता है और नहीं भी। अकुशल मन का निरोध करने वाला मनोगुप्त ही होता है और कुशल मन की प्रवृत्ति करने वाला मनोगुप्त भी होता है और समित भी। इसी प्रकार अकुशल वचन और काया का निरोध करने वाला वचो-गुप्त और काय-गुप्त ही होता है तथा कुशल वचन और काया की प्रवृत्ति करने वाला वचन-गुप्त और काय-गुप्त भी होता है और समित भी। अकुशल मन का निरोध और कुशल मन की प्रवृत्ति का परिणाम एकाग्रता है । एकाग्रता में चित्त का निरोध नहीं होता, किन्तु उसकी प्रवृत्ति अनेक पालम्बनों से हटकर एक पालम्बन पर टिक जाती है । जब एकाग्रता का अभ्यास पूर्ण परिपक्व हो जाता है, तब चित्त का निरोध होता है। अकुशल वचन के निरोध और कुशल वचन की प्रवृत्ति का परिणाम निर्विकारविकथा से मुक्त होना है। 'निम्वियार' का ३ र्थ यदि निर्विचार किया जाए तो वचनगुप्ति का अर्थ मौन करना चहिये । बोलने की इच्छा से विचार उत्तेजित होते हैं और मौन से विचार शून्यता प्राप्त होती है और आत्म-लीनता बढ़ती है । ___ काय-गुप्ति का परिणाम संवर बतलाया गया है। यहां प्रकरण के अनुसार संवर का अर्थ 'अकुशल कायिक प्रवृत्ति से समुत्पन्न आस्रव का निरोध' होना चाहिये। जब अकुशल प्रास्रव का संवरण होता है तब हिंसा आदि पापास्रव निरुद्ध होने लग जाते हैं। प्रवृत्ति का मुख्य केन्द्र काया है। इसलिये आस्रव और संवर का भी उसके साथ गहरा संबंध है। जिनभद्रगणि के अनुसार मुख्य योग एक ही है। वह है काय-योग । वचन योग और मनोयोग के योग्य-पुद्गलों का ग्रहण काय-योग से ही होता है। उसके स्थिर होने पर सहज ही संवर हो जाता है। काया की चंचलता या प्रास्रवाभिमुखता के बिना वचनव्यापार और मन की चंचलता स्वयं समाप्त हो जाती है । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १४६ - + - - त ४३. सूत्र ५७-५६ इन तीन सूत्रों में समाधारणा का निरूपण है। समाधारणा का अर्थ है-सम्यग् व्यवस्थापन या सम्यग-नियोजन । उसके तीन प्रकार है-१. मनः समाधारणता—मन का व्यवस्थापन या नियोजन, २. ववः समाधारणता--वचन का स्वाध्याय में व्यवस्थापन या नियोजन और ३. काय-समाधारणता-काया का चारित्र की आराधना में व्यवस्थापन या नियोजन । मन को ज्ञान में लीन करने से एकाग्रता उत्पन्न होती है। उससे ज्ञानपर्यव (ज्ञान के सूक्ष्म-सूक्ष्मतर रूप) उदित होते हैं। उन ज्ञान-पर्यवों के उदय से सम्यग् दृष्टिकोण प्राप्त होता है और मिथ्या दृष्टिकोण समाप्त होता है । वचन को स्वाध्याय (शब्दोपासना) में लगाने से प्रज्ञापनीय दर्शन पर्यव विशुद्ध बनते हैं, अन्यथा निरूपण नहीं हो पाता। दर्शन की विशुद्धि ज्ञान-पर्यवों के उदय से हो जाती है। इसीलिये यहां वाकसाधारण अर्थात् वचन के द्वारा प्रतिपादनीय-दर्शन-पर्यवों की विशुद्धि ही अभिप्रेत है। वाक्-साधारण दर्शन-पर्यवों की विशुद्धि से सुलभ-बोविता प्राप्त और दुर्लभ-बोधिता क्षीण होती है। ___ काया को संयम की विविध प्रवृत्तियों (चारित्रोपासना) में लगाने से चारित्र के पर्यव विशुद्ध होते हैं। उनकी विशुद्धि होते-होते वीतराग-चारित्र प्राप्त होता है और अन्त में मुक्ति । ४४. सूत्र ६०-६२ पूर्ववर्ती तीन सूत्रों में ज्ञान-दर्शन और चारित्र के पर्यवों की शुद्धि की समाधारणा का परिणाम बतलाया गया है और इन तीन सूत्रों में ज्ञान, दर्शन और चारित्र सम्पन्न होने का परिणाम बतलाया गया है । ज्ञान-सम्पन्नता–यहां ज्ञान का अर्थ 'श्रुत (शास्त्रीय) ज्ञान' है। श्रुत-ज्ञान से सब भावों का अधिगम (ज्ञान) होता है । इसका समर्थन नंदी से भी होता है। __ 'संघायणिज्जे'—जो श्रुत-ज्ञान-सम्पन्न होता है, उसके पास स्व-समय और परसमय के विद्वान् व्यक्ति प्राते हैं और उससे प्रश्न पूछकर अपने संशय उच्छिन्न करते हैं। इसी दृष्टि से श्रुत-ज्ञानी को 'संघातनीय'-जन-मिलन का केन्द्र कहा गया है । _ शैलेशी-शैलेशी शब्द शिला और शील इन दो रूपों से व्युत्पन्न होता है। १. 'शिला' से शैल और 'शैल+ईश' से शैलेश होता है। शैलेश अर्थात् मेरु-पर्वत । शैलेश की भांति अत्यन्न स्थिर अवस्था को शैलेशी कहा जाता है । 'सेलेसी' का एक संस्कृत रूप शैलर्षि किया गया है । जो ऋषि शैल की तरह सुस्थिर होता है, वह शैलर्षि कहलाता है। २. 'शील' का अर्थ समाधान है । जिस व्यक्ति को पूर्ण समाधान मिल जाता हैपूर्ण संवर की उपलब्धि हो जाती, वह 'शील का ईश' होता है । 'शील+ईश' = Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० चित्त-समाधि : जन योग शीलेश । शीलेश की अवस्था को शैलेशी कहा जाता है। ४५. सूत्र ७२ इस सूत्र के अनुसार ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विराधना राग-द्वेष और मिथ्या-दर्शन से होती है। इन पर विजय प्राप्त करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना स्वयं प्राप्त हो जाती है । जो व्यक्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करता है, वह आठ कर्मों में जो कर्म-ग्रन्थि घाति-कर्म का समुदय है, उसे तोड़ डालता है। वह सर्वप्रथम मोहनीय-कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों को क्षीण करता है । क्षीण करने का क्रम इस प्रकार है-वह सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ के बहुल भाग को अन्तर्मुहूर्त में एक साथ क्षीण करता है और उसके अनन्तवें भाग को मिथ्यात्व के पुद्गलों में प्रक्षिप्त कर देता है। फिर उन प्रक्षिप्त पुद्गलों के साथ मिथ्यात्व के बहुल भाग को क्षीण करता है और उसके अंश को सम्यग्-मिथ्यात्व में प्रक्षिप्त कर देता है। फिर उन प्रक्षिप्त पुद्गलों के साथ सम्यक्-मिथ्यात्व को क्षीण करता है। इसी प्रकार सम्यग्-मिथ्यात्व के अंश सहित सम्यक्त्व-मोह के पुद्गलों को क्षीण करता है । तत्पश्चात् सम्यक्त्व-मोह के अवशिष्ट पुद्गलों सहित अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) को क्षीण करना शुरु कर देता है । उसके क्षय-काल में वह दो गति (नरक गति और तिर्यंच गति), दो आनुपूर्वी (नरकानुपूर्वी और तिर्यंचानुपूर्वी), जाति-चतुष्क (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) पातप, उद्योत, स्थावर नाम, सूक्ष्म नाम, साधारण, अपर्याप्त, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानद्धि को क्षीण करता है। फिर इनके अवशेष को नपुंसक-वेद में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण करता है। उसके अवशेष को स्त्रीवेद में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण करता है। उसके अवशिष्ट अंश को हास्यादि-षट्क (हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा) में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण करता है। मोहनीय-कर्म को क्षीण करने वाला यदि वह पुरुष होता है तो पुरुष-भेद के दो खंडों को और यदि स्त्री या नपुंसक होता है तो वह अपनेअपने वेद के दो-दो खंडों को हास्यादि षट्क के अवशिष्ट अंश सहित क्षीण करता है । फिर वेद के तृतीय खंड सहित संज्वलन क्रोध को क्षीण करता है। इसी प्रकार पूर्वांश सहित संज्वलन मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। संज्वलन लोभ के फिर संख्येय खंड किये जाते हैं। उनमें से प्रत्येक खंड को एकएक अन्तर्मुहुर्त में क्षीण किया जाता है। उसका क्षय होते-होते उनमें से जो चरम खंड बचता है उसके फिर असंख्य सूक्ष्म खंड होते हैं। उनमें से प्रत्येक खंड को एक-एक समय में क्षीण किया जाता है। उनका चरम खंड भी फिर असंख्य सूक्ष्म खंडों की रचना करता है। उनमें से प्रत्येक खंड को एक-एक समय में क्षीण किया जाता है। इस प्रकार मोहनीय-कर्म सर्वथा क्षीण हो जाता है । उसके क्षीण होने पर यथाख्यात या वीतराग-चारित्र की प्राप्ति होती है। वह अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। उसके अन्तिम दो समय जब शेष होते हैं, तब पहले समय में निद्रा, प्रचला, देव-गति, प्रानुपूर्वी, वैक्रिय-शरीर, वज्र-ऋषभ को छोड़कर शेष सब संहनन, संस्थान, तीर्थङ्कर-नाम कर्म और पाहारक-नाम कर्म क्षीण Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १५१ होते हैं। चरम समय में जो क्षीण होता है वह सूत्र में प्रतिपादित है, जैसे-पंचविघ, ज्ञानावरणीय, नव-विध दर्शनावरणीय और पंचविध अन्तराय-ये सारे एक ही साथ क्षीण होते हैं । इस प्रकार चारों घाति-कर्मों के क्षीण होते ही निरावरण ज्ञान—केवलज्ञान और केवल दर्शन का उदय हो जाता है। केवली होने के पश्चात् भवोपग्राही (जीवन धारण के हेतुभूत) कर्म शेष रहते हैं, तब तक वह इस संसार में रहता है। इसकी काल मर्यादा जघन्यतः अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्टतः देश-ऊन (नौ वर्ष कम) करोड़ पूर्व की है। इस अवधि में केवली जब तक सयोगी (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति युक्त) रहता है, तब तक उसके ईपिथिककर्म का बन्ध होता है । उसकी स्थिति दो समय की होती है। उसका बन्ध गाढ़ नहीं होता—निधत्त और निकाचित अवस्थाएं नहीं होतीं। इसीलिये उसे 'बद्ध और स्पृष्ट' कहा है। जिस प्रकार घड़ा आकाश से स्पृष्ट होता है, उसी प्रकार ईपिथिक कर्म केवली की आत्मा से बद्ध-स्पृष्ट होता है। जिस प्रकार चिकनी भित्ति पर फेंकी हुई धूलि उससे स्पष्ट मात्र होती है इसी प्रकार ईर्यापथिक कर्म केवली की आत्मा से बद्ध-स्पष्ट होती है, उसी प्रकार ईर्यापथिक-कर्म के वली की प्रात्मा से स्पृष्ट मात्र होता है । प्रथम समय में वह बद्ध-स्पृष्ट होता है और दूसरे समय में वह उदीरित-उदय-प्राप्त और वेदित-अनुभव प्राप्त होता है। तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो जाता है और चौथे समय में वह अकर्म बन जाता है—फिर उस जीव के कर्मरूप में परिणत नहीं होता। ४६. सूत्र ७३-७४ ___ केवली का जीवन-काल जब अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है, तब वह योग-निरोध (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध) करता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है -शुक्ल-ध्यान के तृतीय चरण (सूक्ष्म-क्रिय-अप्रतिपाति) में वर्तता हुआ वह सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करता है। प्रतिसमय मन के पुद्गल और व्यापार का निरोध करते करते असंख्य समयों में उसका पूर्ण निरोध कर पाता है। फिर वचन-योग का निरोध करता है। प्रति समय वचन के पुद्गल और व्यापार का निरोध करते-करते असंख्य समयों में उसका पूर्ण निरोध कर पाता है। फिर उच्छ्वास-निश्वास का निरोध करता है। प्रति समय काय-योग के पुद्गल और व्यापार का निरोध करतेकरते असंख्य समयों में उसका पूर्ण (उच्छ्वास-निश्वास सहित) निरोध कर पाता है । प्रोपपातिक में उच्छ्वास-निश्वास-निरोध के स्थान पर काय-योग के निरोध का उल्लेख है। मुक्त होनेवाला जीव शरीर की अवगाहना का तीसरा भाग जो पोला होता है, उसे पूरित कर देता है और प्रात्मा की शेष दो भाग जितनी अवगाहना रह जाती है । यह क्रिया काय-योग-निरोध के अन्तराल में ही निष्पन्न होती है। योग-निरोध होते ही अयोगी या शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है । उसे 'अयोगी गुणस्थान' भी कहा जाता है। न विलम्ब से और न शीघ्रता से, किन्तु मध्यम भाव से पाँच ह्रस्व-अक्षरों (अ, इ, उ, ऋ, लु) का उच्चारण करने में जितना समय लगता है, Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ चित्त-समाधि : जैन योग उतने समय तक अयोगी अवस्था रहती है । उस अवस्था में शुक्ल-ध्यान का चतुर्थ-चरण — 'समुच्छिन्न-क्रिय-अनि वृत्ति' नामक ध्यान होता है। वहां भवोपग्राही-कर्म एक साथ क्षीण हो जाते हैं । उसी समय औदारिक, तेजस और कार्मण शरीर को सर्वथा छोड़कर ऊर्ध्व-लोकान्त तक चला जाता है । ___ गति दो प्रकार की होती है—१. ऋजु और २. वक्र। मुक्त-जीव का ऊर्ध्व-गमन ऋजु श्रेणी (ऋजु आकाश प्रदेश की पंक्ति) से होता है, इसलिए उसकी गति ऋजु होती है । वह एक क्षण में ही संपन्न हो जाती है। गति के पाँच भेद बतलाए गए हैं-१. प्रयोग गति, २. तत गति, ३. बन्धनछेदन गति, ४. उपपात गति और ५. विहायो गति । विहायो-गति १७ प्रकार की होती है । उसके प्रथम दो प्रकार हैं- १. स्पृशद् गति और २. अर पेशद् गति । एक परमाणु पुद्गल दूसरे परमाणु पुद्गलों व स्कन्धों का स्पर्श करते हुए गति करता है, उस गति को स्पृशद् गति कहा जाता है। एक परमाणु दूसरे परमाणु पुद्गलों व स्कन्धों का पर्श करते हुए गति करता है, उस गति को 'अस्पृशद् गति' कहा जाता है । मुक्त-जीव अस्पृशद् गति से ऊपर जाता है । शन्त्यिाचार्य के अनुसार अस्पृशद् गति का अर्थ यह नहीं है कि वह अाकाश-प्रदेशों का स्पर्श नहीं करता, किन्तु उसका अर्थ यह है कि वह मुक्त जितने अाकाश-प्रदेशो में अवगाढ़ होता है, उतने ही अाकाश-प्रदेशों का मर्श करता है । उनसे अतिरिक्त प्रदेशों का नहीं, इसलिए उसे 'अर पृशद्-गति' कहा गया है। अभयदेवसूरि के अनुसार मुक्त-जीव अन्तरालवर्ती अाकाश-प्रदेशों का स्पर्श किए बिना ही ऊपर चला जाता है । यदि अन्तरालवर्ती अाकाश-प्रदेशों का स्पर्श करता हुआ बह ऊपर जाए तो एक समय में वह वहां पहुंच ही नहीं सकता। इसके आधार पर अस्पृशद् गति का अर्थ होगा—'अन्तरालवर्ती आकाश-प्रदेशों का स्पर्श किए बिना मोक्ष तक पहुंचने वाला।' पावश्यक चणि के अनुसार अस्पृशद् गति का अर्थ यह होगा कि मुक्त-जीव दूसरे समय का स्पर्श नहीं करता, वह एक समय में ही मोक्ष स्थान तक पहुंच जाता है । किन्तु 'एग समएणं अविग्गहेणं' पाठ की उपस्थिति में यह अर्थ यहां अभिप्रेत नहीं है। ___ शान्त्याचार्य और अभयदेवसूरि द्वारा कृत अर्थ इस प्रकार है --१. मुक्त-जीव स्वावगाढ़ आकाश-प्रदेशों से अतिरिक्त प्रदेशों का स्पर्श नहीं करता हुआ गति करता है और २. अन्तरालवर्ती प्राकाश-प्रदेशों का स्पर्श किए बिना ही गति करता है । ये दोनों ही अर्थ घटित हो सकते हैं । उपयोग दो प्रकार का होता है-१. साकार और २. अनाकार । जीव साकारउपयोग अर्थात् ज्ञान की धारा में ही मुक्त होता है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्मयणाणि १५३ ४७. बाहिरब्भन्तरो स्वरूप और सामग्री के आधार पर तप को दो भागों में विभक्त किया गया है१. बाह्य और २. प्राभ्यन्तर । बाह्य-तप-अनशन मादि-निम्न कारणों से बाह्य-तप कहलाते हैं : १. इनमें बाहरी द्रव्यों की अपेक्षा होती है---प्रशन आदि द्रव्यों का त्याग होता २. वे सर्व-साधारण के द्वारा तपस्या के रूप में स्वीकृत होते हैं । ३. उनका प्रत्यक्ष प्रभाव शरीर पर अधिक होता है। ४. वे मुक्ति के बहिरंग कारण होते हैं । मूलाराधना के अनुसार जिसके आचरण से मन दुष्कृत के प्रति प्रवृत्त न हो, प्रांतरिक-तप के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो और पूर्वगृहीत योगों (-स्वाध्याय आदि योगों या व्रत-विशेषों) की हानि न हो, वह बाह्य-तप होता है। प्राभ्यन्तर-तप-प्रायश्चित्त मादि-निम्न कारणों से ऐसे कहलाते हैं : १. इनमें बाहरी द्रव्यों की अपेक्षा नहीं होती। २. वे विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा ही तप-रूप में स्वीकृत होते हैं । ३. उनका प्रत्यक्ष प्रभाव अन्तःकरण में होता है । ४. वे मुक्ति के अन्तरंग कारण होते हैं । महर्षि पतञ्जलि ने भी योग के अंगों को अन्तरंग और बहिरंग-इन दो भागों में विभक्त किया है। धारणा, ध्यान और समाधि-ये पूर्ववर्ती यम आदि पाँच साधनों की अपेक्षा अन्तरंग हैं। निर्बीज-योग की अपेक्षा वे बहिरंग भी हैं। इसका फलितार्थ यह है कि यम आदि पांच अंग बहिरंग हैं और धारणा आदि तीन अंग अन्तरंग और बहिरंग दोनों हैं । निर्बीज-योग केवल अन्तरंग है। बाह्य-तप के छह प्रकार हैं- १. अनशन, २. अवमौदर्य, ३. वृत्ति-संक्षेप, ४. रसपरित्याग, ५. काय-क्लेश और ६. विविक्त-शय्या । बाह्य-तप के परिणाम १. सुख की भावना स्वयं परिव्यक्त हो जाती है। २. शरीर कृश हो जाता है। ३. प्रात्मा संवेग में स्थापित होती है । ४. इन्द्रिय-दमन होता है। ५. समाधि-योग का स्पर्श होता है। ६. वीर्य-शक्ति का उपयोग होता है । ७. जीवन की तृष्णा विच्छिन्न होती है। क. संक्लेश-रहित दुःख भावना (कष्ट सहिष्णुता) का अभ्यास होता है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ चित्त-समाधि : जैन योग ६. देह, रस और सुख का प्रतिबंध नहीं रहता। १०. कषाय का निग्रह होता है । ११. विषय-भोगों के प्रति अनादर (उदासीन भाव) उत्पन्न होता है । १२. समाधि-मरण का स्थिर अभ्यास होता है। १३. प्रात्म-दमन होता है। माहार प्रादि का अनुराग क्षीण होता है । १४. आहार-निराशता-पाहार की अभिलाषा के त्याग का अभ्यास होता है। १५. अगृद्धि बढ़ती है। १६. लाभ और अलाभ में सम रहने का अभ्यास सधता है। १७. ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है। १८. निद्रा-विजय होती है। १६. ध्यान की दृढ़ता प्राप्त होती है। २०. विमुक्ति (विशिष्ट त्याग) का विकास होता है । २१. दर्प का नाश होता है। २२. स्वाध्याय-योग की निविघ्नता प्राप्त होती है । २३. सुख-दु:ख में सम रहने की स्थिति बनती है। २४. प्रात्मा, कुल, गण, शासन-सबकी प्रभावना होती है । २५. पालस्य त्यक्त होता है। २६. कर्म-मल का विशोधन होता है। २७. दूसरों का संवेग उत्पन्न होता है । २८. मिथ्या-दृष्टियों में भी सौम्यभाव उत्पन्न होता है । २६. मुक्ति-मार्ग का प्रकाशन होता है । ३०. तीर्थङ्कर की प्राज्ञा की आराधना होती है। ३१. देह-लाघव प्राप्त होता है । ३२. शरीर-स्नेह का शोषण होता है। ३३. राग आदि का उपशम होता है । ३४. पाहार की परिमितता होने से नीरोगता बढ़ती है । ३५. संतोष बढ़ता है। बाह्य-तप के प्रयोजन (१) अनशन के प्रयोजन : (क) संयम-प्राप्ति, (ख) राग-नाश, (ग) कर्म-मलविशोधन, (घ) सद्ध्यान की प्राप्ति और (ङ) शास्त्राभ्यास । (२) अवमौदर्य के प्रयोजन : (क) संयम में सावधानी बरतना, (ख) वात, पित्त, श्लेष्म आदि दोषों का उपशमन और (ग) ज्ञान, ध्यान आदि की सिद्धि । (३) वृत्ति-संक्षेप के प्रयोजन : (क) भोजन-सम्बन्धी प्राशा पर अंकुश और (ख) भोजन-सम्बन्धी संकल्प-विकल्प और चिन्ता का नियंत्रण । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि (४) रस-परित्याग के प्रयोजन : (क) इन्द्रिय-निग्रह, (ख) निद्रा-विजय पौर (ग) स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि । (५) विविक्त-शय्या के प्रयोजन : (क) बाधात्रों से मुक्ति, (ख) ब्रह्मचर्य-सिद्धि और (ग) स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि। (६) काय-क्लेश के प्रयोजन : (क) शारीरिक कष्ट-सहिष्णुता का स्थिर अभ्यास, (ख) शारीरिक सुख की वाञ्छा से मुक्ति और (ग) जैन-धर्म की प्रभावना। ___ आभ्यन्तर तप के छह प्रकार हैं-१. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैयावृत्त्य, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान और ६. व्युत्सर्ग । प्राभ्यन्तर तप के परिणाम भाव-शुद्धि, चंचलता का प्रभाव, शल्य-मुक्ति, धार्मिक-दृढ़ता आदि प्रायश्चित्त के परिणाम हैं। ज्ञान-लाभ, आचार-विशुद्धि, सम्यक्-आराधना आदि विनय के परिणाम हैं । चित्त-समाधि का लाभ, ग्लानि का प्रभाव, प्रवचन-वात्सल्य आदि वैयावृत्त्य के परिणाम हैं। प्रज्ञा का अतिशय, अध्यवसाय की प्रशस्तता, उत्कृष्ट संवेग का उदय. प्रवचन की प्रविच्छिन्नता, अतिचार-विशुद्धि, संदेह-नाश, मिथ्यावादियों के भय का अभाव मादि स्वाध्याय के परिणाम हैं। कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दु:खों से बाधित न होना । सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास आदि शरीर को प्रभावित करने वाले कष्टों से बाधित न होना, ध्यान के परिणाम हैं। निर्ममत्व, निर्भयता, जीवन के प्रति अनासक्ति, दोषों का उच्छेद, मोक्ष-मार्ग में तत्परता आदि व्युत्सर्ग के परिणाम हैं। ४८. इत्तिरिया प्रोपपातिक (सूत्र १६) में इत्वरिक के चौदह प्रकार बतलाये गये हैं १ चतुर्थ-भक्त -उपवास । २ षष्ट-भक्त -२ दिन का उपवास । ३ अष्टम-भक्त -३ दिन का उपवास । ४ दशम-भक्त -४ दिन का उपवास । ५ द्वादश-भक्त -५ दिन का उपवास । ६ चतुर्दश-भक्त -६ दिन का उपवास । ७ षोडश-भक्त -७ दिन का उपवास । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ● अर्धमासिक-भक्त ६ मासिक-भक्त १० द्वैमासिक - भक्त ११ त्रैमासिक-भक्त १२ चतुर्मासिक-भक्त १३ पंचमासिक - भक्त १४ छह मासिक-भक्त इत्वरिक तप कम से कम एक दिन और अधिक से अधिक ६ मास का होता है । प्रस्तुत प्रकरण में इत्वरिक-तप छह प्रकार का बतलाया गया है - १. श्रेणि तप, २. प्रतर तप, ३. घन तप, ४. वर्ग तप, ५. वर्ग-वर्ग तप और ६. प्रकीर्ण तप । क्रम प्रकार श्रेणि तप - उपवास से लेकर छह मास तक क्रमपूर्वक जो तप किया जाता है, उसे श्रेणि-तप कहा जाता है । इसकी अनेक अवान्तर श्रेणियां होती हैं । जैसे—उपवास, बेला—यह दो पदों का श्रेणि तप है । उपवास, बेला, तेला, चोला - यह चार पदों का श्रेणि तप है । १ २ ३ - १५ दिन का उपवास । - १ मास का उपवास । -२ मास का उपवास । -३ मास का उपवास । -४ मास का उपवास । -- ५ मास का उपवास । -६ मास का उपवास । २. प्रतर तप - एक श्रेणि-तप को जितने क्रम प्रकारों से किया जा सकता है, उन सब क्रम प्रकारों को मिलाने से प्रतर-तप होता है । उदाहरणस्वरूप उपवास, बेला, तेला मौर चौला — इन चार पदों की श्रेणि लें । इसके निम्नलिखित चार क्रम प्रकार बनते हैं— - १ उपवास बेला तेला चौला चित्त-समाधि : जैन योग २ बेला तेला चौला उपवास ३ तेला चौला उपवास बेला यह प्रतर-तप है । इसमें कुल पदों की संख्या १९ हैं । इस तरह यह तप श्रेणि को श्रेणि-पदों से गुणा करने से बनता है । चौला उपवास बेला तेला ३. घन तप-- जितने पदों की श्रेणि है, प्रतर को उतने पदों से गुणा करने से घन तप बनता है । यहाँ चार पदों की श्रेणि है । अतः उपर्युक्त प्रतर तप को चार से गुणा करने से अर्थात् उसे चार बार करने से घन तप होता है । घन तप के ६४ पद बनते हैं । ४. वर्ग तप — धन को घन से गुणा करने पर वर्ग तप बनता है अर्थात् घन तप को ६४ बार गुणा करने से वर्ग तप बनता है । इसके ६४ x ६४ == ४०६६ पद बनते हैं । ५. वर्ग- वर्ग तप-वर्ग को वर्ग से गुणा करने पर वर्ग-वर्ग तप बनता है अर्थात् Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि वर्ग तप को ४०६६ बार करने से वर्ग-वर्ग तप बनता है। इसके ४०६६ x ४०६६= १६७७७२१६ पद बनते हैं। ६. प्रकीर्ण तप-यह पद श्रेणि आदि निश्चित पदों की रचना बिना ही अपनी शक्ति के अनुसार किया जाता है । यह अनेक प्रकार का है। ___ शान्त्याचार्य ने नमस्कार-संहिता आदि तथा यवमध्य, वज्रमध्य, चन्द्र-प्रतिभा आदि तपों को प्रकीर्ण तप के अन्तर्गत माना है। ४६. मणइच्छियचित्तत्यो टीकाकार ने इसका अर्थ 'मनोवाञ्छित विचित्र प्रकार का फल देने वाला' किया है। फल-प्राप्ति के लिये तप नहीं करना चाहिये, टीकाकार का अर्थ इस मान्यता का विरोधी नहीं है। 'मणइच्छियचित्तत्यो' यह वाक्य तप के गौण फल का सूचक है। आगम-साहित्य में इस प्रकार के अनेक उल्लेख मिलते हैं। इसका अर्थ 'मन इच्छित विचित्र प्रकार से किया जाने वाला तप' भी हो सकता है । ५०. श्लोक १२-१३ इन दो श्लोकों में मरण-काल-भावी अनशन का निरूपण है। प्रोपपातिक में उसके दो प्रकार निर्दिष्ट हैं-१. पादोपगमन और २. भक्त-प्रत्याख्यान । पादोपगमन नियमतः अप्रतिकर्म है और उसके दो प्रकार हैं-व्याघात, नियाघात । भक्त-प्रत्याख्यान नियमत: सप्रतिकर्म है, उसके भी दो प्रकार हैं—व्याघात, निर्व्याघात । समवायांग में इस अनशन के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं—१. भक्त-प्रत्याख्यान, २. इंगिनी और ३. पादोपगमन । प्रस्तुत अध्ययन में मरण-काल भावी अनशन के प्रकारों (भक्त प्रत्याख्यान आदि) का उल्लेख नहीं है । केवल उनका सात विधानों से विचार किया गया है। १. सविचार-हलन-चलन सहित । २. सपरिकर्म-शुश्रूषा या संलेखना-सहित । ३. निर्हारि-उपाश्रय से बाहर गिरी कंदरा आदि एकान्त स्थानों में किया जाने वाला। ४. अविचार -स्थिरता युक्त । ५. अपरिकर्म-शुश्रूषा या संलेखना-रहित । ६. अनिर्हारि-उपाश्रय में किया जाने वाला। ७. प्राहारच्छेद। भक्त-प्रत्याख्यान में जल-वजित त्रिविध आहार का भी प्रत्याख्यान किया जाता है Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ चित्त-समाधि : जैन योग और चतुर्विध आहार का भी। इंगिनी और पादोपगमन इन दोनों में चतुर्विध पाहार का परित्याग किया जाता है। भक्त-प्रत्याख्यान अनशन करने वाला अपनी इच्छा के अनुसार प्रा-जा सकता है । इंगिनी अनशन करने वाला नियत प्रदेश में इधर-उधर आ-जा सकता है, किन्तु उससे बाहर नहीं जा सकता है । पादोपगमन अनशन करने वाला वृक्ष के समान निश्चेष्ट होकर लेटा रहता है या जिस आसन में अनशन प्रारम्भ करता है, उसी प्रासन में स्थिर रहता है-हलन-चलन नहीं करता। भक्त-प्रत्याख्यान अनशन करने वाला स्वयं भी अपनी शुश्रूषा करता है और दूसरों से भी करवाता है । इंगिनी अनशन करने वाला दूसरों से शुश्रूषा नहीं करवाता, किन्तु स्वयं अपनी शुश्रूषा कर सकता है। पादोपगमन अनशन करने वाला अपने शरीर की शुश्रूषा न स्वयं करता है और न किसी दूसरे से करवाता है। ___ शान्त्याचार्य ने निर्हारि और अनिर्हारि-ये दोनों पादोपगमन के प्रकार बतलाए हैं । किन्तु स्थानांग में ये दो प्रकार भक्त-प्रत्याख्यान के भी किये गए हैं । दिगम्बर प्राचार्य शिवकोटि और अनशन १. भक्त-प्रत्याख्यान उनके अनुसार भक्त-प्रत्याख्यान अनशन के दो प्रकार हैं-१. सविचार और २. अविचार। जो उत्साह-बलयुक्त है, जिसकी मृत्यु तत्काल होने वाली नहीं है, उस मुनि के भक्त-प्रत्याख्यान को 'सविचार-भक्त-प्रत्याख्यान' कहा जाता है। ___ मृत्यु की आकस्मिक संभावना होने पर जो भक्त-प्रत्याख्यान किया जाता है, उसे 'अविचार-भक्त-प्रत्याख्यान' कहा जाता है। उसके तीन प्रकार हैं-१. निरुद्ध : जो रोग और आतंक से पीड़ित हो, जिसका जंघाबल क्षीण हो और जो दूसरे गण में जाने में असमर्थ हो, उस मुनि के भक्त-प्रत्याख्यान को 'निरुद्ध अविचार भक्त-प्रत्याख्यान' कहा जाता है। जब तक उसमें बल-वीर्य होता है, तब तक अपना काम स्वयं करता है और जब वह असमर्थ हो जाता है, तब दूसरे मुनि उसकी परिचर्या करते हैं। जंघाबल क्षीण होने पर अन्य गण में जाने में असमर्थ होने के कारण जो मुनि अपने गण में ही निरुद्ध रहता है, उसके भक्त-प्रत्याख्यान को 'अनिर्हारि' भी कहा जाता है। इसमें अनियत विहार मादि की विधि नहीं होती, इसलिये उसे 'प्रविचार' कहा जाता है । निरुद्ध दो प्रकार का होता है-१. जन-ज्ञात और २. जन-अजात । २. निरुद्धतर : मृत्यु का तात्कालिक कारण (सर्प-दंश, अग्नि प्रादि) उपस्थित होने पर तत्काल भक्त-प्रत्याख्यान किया जाता है, उसका नाम निरुद्धतर है । बल-वीर्य की तत्काल हानि होने पर वह पर-गण में जाने में अत्यन्त असमर्थ होता है, इसलिये उसका मनशन 'निरुद्धतर' कहलाता है । यह अनिर्हारि होता है । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १५६ ३. परमनिरुद्ध : सर्प-दंश आदि कारणों से जब वाणी रुक जाती है, उस स्थिति के भक्त-प्रत्याख्यान को 'परमनिरुद्ध' कहा जाता है । २. इंगिनी इस अनशन की अधिकांश विधि भक्त.प्रत्याख्यान के समान होती है । केवल इतना विशेष होता है कि इंगिनी अनशन करने वाला दूसरे मुनियों से सेवा नहीं लेता, अपन। काम स्वयं करता है । उपसर्ग होने पर भी निष्प्रति-कर्म होता है-प्रतिकार रहित सहता ३. प्रायोपगमन इसमें तृणसंस्तर (घास का बिछौना) नहीं किया जाता, स्वयं परिचर्या करना भी वजित होता है, यह सर्वथा अपरिकर्म होता है । भक्त-प्रत्याख्यान में शारीरिक परिचर्या स्वयं की जाती है, दूसरों से कराई भी जाती है। इंगिनी में वह स्वयं की जाती है, दूसरों से नहीं कराई जाती । प्रायोपगमन में वह न स्वयं की जाती है और न दूसरों से कराई जाती है । प्रायोपगमन अनशन करने वाला शरीर को इतना कृश कर लेता है कि उसके मलमूत्र आदि होते ही नहीं । वह अनशन करते समय जहां अपना शरीर टिका देता है, वहीं स्थिर-भाव से टिकाए रहता है। इस प्रकार वह निष्प्रति-कर्म होता है। वह अचल होता है, अनिहर्हार होता है। दूसरा कोई व्यक्ति उसे उठाकर किसी दूसरे स्थान में डाल देता तो पर-कृत चालन की अपेक्षा वह निहरि भी हो जाता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्परा में अनशन के तीनों प्रकार और अनेक नाम समान हैं । 'पामोअगमण' का संस्कृत रूप श्वेताम्बर प्राचार्यों ने पादपोपगमन' किया है, वहां दिगम्बर आचार्यों ने 'प्रायोपगमन' । अर्थ की दृष्टि से 'पादपोपगमन' अधिक उपयुक्त है, किन्तु छाया की दृष्टि से 'प्रायोपगमन' होना चाहिए। महाभारत में अनशनकर्ता के अर्थ में 'प्रायोपविष्ट' शब्द का प्रयोग मिलता है। कश्मीर में अनशन के प्रबन्ध के लिए एक पदाधिकारी नियुक्त था, जो 'प्रायोपवेश' कहलाता था। सविचार और अविचार, निर्हारि और अनिहारि-इनका अर्थ दोनों परम्पराओं में भिन्न हैश्वेताम्बर दिगम्बर १. सविचार-गमनागमन-सहित अर्ह, लिंग आदि विकल्प-सहित । २. अविचार—गमनागमन-रहित अर्ह, लिंग आदि विकल्प-रहित । ३. निर्दारि—उपाश्रय के एक देश में, स्व-गण का त्याग कर पर गण में जा जिससे मृत्यु के पश्चात् शरीर का सके, वह । निर्हरण किया जाए-बाहर ले जाया जाए। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ४. अनिहरि गिरि-गुफा आदि में जिससे मृत्यु के पश्चात् निर्हरण करना आवश्यक न हो । चित्त-समाधि : जन योग स्व-गण का त्याग कर पर-गण में न जा सके, वह प्रायोपगमन के वर्णन में प्राचार्य शिवकोटि ने अनिहरि और निहार का अर्थ 'अचल' और 'चल' भी किया है । मूलाराध्ना के भक्त प्रत्याख्यान के निरुद्धतर और परमनिरुद्ध की तुलना श्रौपपातिक के पादोपगमन और भक्त प्रत्याख्यान के एक प्रकार - व्याघात सहित से होती है । व्याघात- सहित का श्रर्थ है- सिंह, दावानल श्रादि का व्याघात उत्पन्न होने पर किया जाने वाला अनशन । पपातिक के अनुसार पादपोपगमन और भक्त - प्रत्याख्यान दोनों अनशनों के दोदो प्रकार होते हैं - १. व्याघात - सहित और २. व्याघात - रहित । इनसे यह फलित होता है कि अनशन व्याघात उत्पन्न होने पर भी किया जाता है और व्याघात न होने पर भी किया जाता है । सूत्रकृतांग के अनुसार शारीरिक बाघा उत्पन्न होने या न होने पर भी अनशन किया जाता है । अनशन का हेतु शरीर के प्रति निर्ममत्व है । जब तक शरीर - ममत्व होता है, तब तक मनुष्य मृत्यु से भयभीत रहता है और जब वह शरीर - ममत्व से मुक्त होता है, तब मृत्यु के भय से भी मुक्त हो जाता है । अनशन को देह-निर्ममत्व या अभय की साधना का विशिष्ट प्रकार कहा जा सकता है । मृत्यु अनशन का उद्देश्य नहीं, किन्तु उसका गौण परिणाम है । उसका मुख्य परिणाम है—-आत्म-लीनता । मूलाराधना में अनशन के अधिकारी का वर्णन है । इसके अधिकारी वे होते हैं१. जो दुश्चिकित्स्य व्याधि (संयम को छोड़े बिना जिसका प्रतिकार करना संभव न हो ) से पीड़ित हो । २. जो श्रामण्य-योग की हानि करनेवाली जरा से अभिभूत हो । ३. जो देव, मनुष्य या तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों से उपद्रुत हो । ४. जिसके चारित्र - विनाश के लिये अनुकूल उपसर्ग किये जा रहे हों । ५. दुष्काल में जिसे शुद्ध भिक्षा न मिले । ६. जो गहन अटवी में दिग्मूढ़ हो जाए प्रोर मार्ग हाथ न लगे । जिसके चक्षु श्रीर श्रोत्र दुर्बल तथा जंघाबल क्षीण हो जाए और जो विहार करने में समर्थ न हो । ७. उक्त व अन्य इन जैसे कारण उपस्थित होने पर व्यक्ति अनशन का अधिकारी होता है । जिस मुनि का चारित्र निरतिचार पल रहा हो, संलेखना कराने वाले प्राचार्य ( निर्णायक आचार्य) भविष्य में सुलभ हों, दुर्भिक्ष का भय न हो, बैसी स्थिति में वह Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अनशन का अनधिकारी है । विशिष्ट स्थिति उत्पन्न हुए बिना जो अनशन करे तो समझना चाहिये कि वह चरित्र से खिन्न है। संलेखना प्राचारांग में बताया गया है कि जब मुनि को यह अनुभव हो कि इस शरीर को धारण करने में मैं ग्लान हो रहा हूं, तब वह क्रम से पाहार का संकोच करे संलेखना करे.--प्राहार संकोच के द्वारा शरीर को कृश करे । संलेखना के काल संलेखना के तीन काल हैं----१. जघन्य --छह मास का काल, २. मध्यम-एक वर्ष का काल और ३. उत्कृष्ट -१२ वर्ष का काल । उत्कृष्ट संलेखना के काल में प्रथम चार वर्षों में दूध, घी आदि विकृतियों का त्याग अथवा प्राचाम्ल किया जाता है । सूत्र में प्रथम चार वर्षों में विचित्र तप करने का उल्लेख नहीं है । किन्तु शान्त्याचार्य ने निशीथ चूणि के आधार पर इसका अर्थ यह किया गया है कि संलेखना करने वाला विचित्र तप के पारण में विकृतियों का परित्याग करे । प्रवचनसारोद्धार में भी यही क्रम है। प्रथम चार वर्षों में विचित्र तप किया जाता है और उसके पारण में यथेष्ट भोजन किया जाता है । दूसरे चार वर्षों में विचित्र तप किया जाता है, किन्तु पारण में विकृति का परित्याग किया जाता है। मागे का क्रम समान उत्तराध्ययन (३६/२५१-२५५) के अनुसार इस संलेखना का क्रम इस प्रकार प्रथम चार वर्ष-विकृति परित्याग अथवा आचाम्ल । द्वितीय चार वर्ष-विचित्र तप---उपवास, बेला, तेला प्रादि और पारण में यथेष्ट भोजन । नौवें और दसवें वर्ष-एकान्तर उपवास और पारण में प्राचाम्ल । ग्यारहवें वर्ष की प्रथम छमाही-उपवास या बेला। ग्यारहवें वर्ष की द्वितीय छमाही-विकृष्ट तप-तेला, चौला आदि तप । समूचे ग्यारहवें वर्ष में पारण के दिन-प्राचाम्ल । प्रथम छमाही में प्राचाम्ल के दिन ऊनोदरी की जाती है और दूसरी छमाही में उस दिन पेटभर भोजन किया जाता बारहवें वर्ष में-कोटि-सहित प्राचाम्ल अर्थात् निरन्तर प्राचाम्ल अथवा प्रथम दिन प्राचाम्ल, दूसरे दिन कोई दूसरा तप और तीसरे दिन फिर आचाम्ल । बारह वर्ष के अन्त में-अर्द्ध-मासिक या मासिक अनशन, भक्त-परिज्ञा प्रादि । निशीथ-चूणि के अनुसार बारहवें वर्ष में क्रमशः प्राहार की इस प्रकार कमी की जाती Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ चित्त-समाधि : जैन योग है जिससे प्रहार और श्रायु एक साथ ही समाप्त हों। उस वर्ष के अन्तिम चार महीनों में मुंह में तेल भरकर रखा जाता है । मुखयंत्र विसंवादी न हो- नमस्कार मंत्र श्रादि का उच्चारण करने में असमर्थ न हो, यह उसका प्रयोजन है । संलेखना का अर्थ है - छीलना कृश करना | शरीर को कृश करना — यह द्रव्य (बाह्य) संलेखना है । कषाय को कृश करना - वह भाव संलेखना है । प्राचार्य शिवकोटि ने छह प्रकार के बाह्य तप को बाह्य-संलेखना का साधन माना है । संलेखना का दूसरा क्रम एक दिन उपवास और दूसरे दिन वृत्ति परिसंख्यान तप है । बारह भिक्षु प्रतिमाओं को भी संलेखना का साधन माना है । शरीर संलेखना के इन अनेक विकल्पों में प्राचाम्ल तप उत्कृष्ट साधन है । संलेखना करने वाला बेला, तेला, चौला, पंचौला प्रादि तप करके पारण में मित और हल्का प्रहार करता है । भक्त-परिज्ञा का उत्कृष्ट काल १२ वर्ष का है । उसका क्रम इस प्रकार है १. प्रथम चार वर्षों में विचित्र अर्थात् अनियत काय - क्लेशों के द्वारा शरीर कृश किया जाता है । २. दूसरे चार वर्षों में विकृतियों का परित्याग कर शरीर को सुखाया जाता है । नौवें और दसवें वर्ष में प्राचाम्ल और विकृति-वर्जन किया जाता है । ३. ४. ग्यारहवें वर्ष में केवल प्राचाम्ल किया जाता है । ५. बारहवें वर्ष की प्रथम छमाही में प्रविकृष्ट तप-उपवास, बेला आदि किया जाता है । ६. बारहवें वर्ष की दूसरी छमाही में विकृष्ट तप-तेला, चौला श्रादि किया जाता है। दोनों परम्पराओं में संलेखना के विषय में थोड़ा क्रम-भेद है, किन्तु यह विचारणीय नहीं है । आचार्य शिवकोटि के शब्दों में संलेखना के लिये वही तप या उसका क्रम अंगीकार करना चाहिये जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और शरीर धातु के अनुकूल हो । जिस प्रकार शरीर का क्रमश: संलेखना ( तनूकरण हो) वही प्रकार अंगीकरणीय है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार में उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और असाध्य रोग उत्पन्न होने पर धर्म की आराधना के लिये शरीर त्यागने को 'संलेखना' कहा गया है । ५१. श्रोमोयरिय यह बाह्य तप का दूसरा प्रकार है । इसका अर्थ है 'जिस व्यक्ति की जितनी श्राहार-मात्रा है, उससे कम खाना ।' यहाँ इसके पाँच प्रकार किये गये हैं- १. द्रव्य की दृष्टि से श्रवमौदर्य, २. क्षेत्र की दृष्टि से प्रवमौदर्य, ३. काल की दृष्टि से अवभौदर्य, ४. भाव की दृष्टि से अवमौदर्य और ५ पर्यव की दृष्टि से श्रवमौदर्य | श्रपपातिक में इसका विभाजन भिन्न प्रकार से है – १. द्रव्यतः प्रवमौदर्य और २. भावतः अवमौदर्य | द्रव्यतः मौदर्य के दो प्रकार हैं- १. उपकरण अवमौदर्य और २ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि भक्त-पान अवमौदर्य । भक्तपात अवमौदर्य के अनेक प्रकार हैं-१. पाठ ग्रास खाने वाला अल्पाहारी होता है, २. बारह ग्रास खाने वाला अपार्द्ध अवमौदर्य होता है, ३. सोलह ग्रास खाने वाला अर्द्ध अवमौदर्य होता है, ४. चौबीस ग्रास खाने वाला पौन अवमौदर्य होता है और ५. इकतीस ग्रास खाने वाला किंचित् अवमौदर्य होता है । ___ यह कल्पना भोजन की पूर्ण मात्रा के आधार पर की गई है । पुरुष के आहार की पूर्ण मात्रा बत्तीस ग्रास और स्त्री के पूर्ण आहार की मात्रा अट्ठाईस ग्रास है। ग्रास का परिमाण मुर्गी के अण्डे अथवा हजार चावल जितना बतलाया गया है । इसका तात्पर्य यह है कि जितनी भूख हो, उससे एक कवल तक कम खाना भी अवमौदर्य है। क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह आदि को कम करना भावतः अवमौदर्य है । निद्रा-विजय, समाधि, स्वाध्याय, परम-संयम और इन्द्रिय-विजय-ये अवमौदर्य के फल हैं। ५२. श्लोक १६ गामे-जो गुणों को ग्रसित करे अथवा जहाँ १८ प्रकार के कर लगते हों, वह 'ग्राम' कहलाता है । ग्राम का अर्थ 'समूह' है। जहाँ-जहाँ जन समूह रहता था, उसका नाम ग्राम हो गया। ___ नगरे–जहाँ किसी प्रकार का कर न लगता हो, उसे 'नगर' कहा जाता है। अर्थशास्त्र में राजधानी के लिये 'नगर' या 'दुर्ग' और साधारण कस्बों के लिये 'ग्राम' शब्द प्रयुक्त हुअा है। किन्तु प्रस्तुत श्लोक में राजधानी का प्रयोग भी हुमा है । इससे जान पड़ता है कि नगर बड़ी बस्तियों का नाम है, भले फिर वे राजधानी हों या न हों। निगमे—व्यापारियों का गांव; वह बस्ती जहाँ व्यापारी रहते हैं । आगरे-खान का समीपवर्ती गांव । पल्ली-बीहड़ स्थान में होने वाली बस्ती, चोरों का गांव । ५३. भिक्खायरियं ___ यह बाह्य-तप का तीसरा प्रकार है । इसका दूसरा नाम 'वृत्ति-संक्षेत्र' या वृत्तिपरिसंख्यान' है । अष्ट प्रकार के गोचरागों, सात एषणाओं तथा अन्य विविध प्रकार के अभिग्रहों के द्वारा भिक्षा-वृत्ति को संक्षिप्त किया जाता है। गोचराग्र के आठ प्रकार १. पेटा---पेटा की भांति चतुष्कोण घूमते हुए (बीच के घरों को छोड़ चारों दिशाओं में समणि स्थित घरों में जाते हुए) 'मुझे भिक्षा मिले तो लूं अन्यथा नहींइस संकल्प से भिक्षा करने का नाम पेटा है । २. अर्द्ध पेटा-अर्द्ध-पेटा की भांति द्विकोण घूमते हुए (दो दिशात्रों में स्थित गृहश्रेणि में जाते हुए) 'मुझे भिक्षा मिले तो लू, अन्यथा नहीं-इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम अर्द्ध पेटा है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जन योग ३. गो- मूत्रिका - गो - मूत्रिका की तरह बलखाते हुए (बाएं पार्श्व के घर से दाएं पार्श्व के घर में और दाएं पार्श्व के घर में जाते हुए ) 'मुझे भिक्षा मिले तो लूं, अन्यथा नहीं - ' इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम गोमूत्रिका है । १६४ ४. पतंग-वीथिका - पतंग जैसे प्रनियत क्रम से उड़ता है, वैसे अनियत क्रम से ( एक घर से भिक्षा ले फिर कई घर छोड़ फिर किसी घर में ) मुझे भिक्षा मिले तो लूं अन्यथा नहीं - इस प्रकार संकल्प से भिक्षा करने का नाम पतंग-वीथिका है । ५. शंबूकावर्ता-शंख के प्रावर्त्तो की तरह भिक्षाटन करने को शंबूकावर्ता कहा जाता है । इसके दो प्रकार हैं- - १. आभ्यन्तर शंबूकावर्ता, २. बाह्य शंबूकावर्ता । (क) शंख के नाभि क्षेत्र से प्रारम्भ हो बाहर आने वाले आवर्त की भांति गांव के भीतरी भाग से भिक्षाटन करते हुए बाहरी भाग में आने को 'आभ्यन्तर - शंबूकावर्ता ' कहा जाता है । (ख) बाहर से भीतर जाने वाले शंख के प्रावर्त्त की भांति गांव के बाहरी भाग से भिक्षाटन करते हुए भीतरी भाग में आने को 'बाह्य शंबूकावर्ता' कहा जाता है । स्थानांग वृत्ति के अनुसार (क) बाह्य शंबूकावर्ता की व्याख्या है और (ख) श्राभ्यन्तर शंबूकावर्ता की व्याख्या है । किन्तु इन दोनों व्याख्यानों की अपेक्षा पंचाशकवृत्ति की व्याख्या अधिक हृदयस्पर्शी है । उसके अनुसार दक्षिणावर्त शंख की भांति दांई ओर प्रवर्त्त करते हुए भिक्षा मिले तो लूं नहीं तो नहीं इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम आभ्यन्तर शंबूकावर्ता है । इसी प्रकार वामावर्त शंख की भांति बांई ओर प्रवृत्त करते हुए भिक्षा मिले तो लूं नहीं तो नहीं - इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम बाह्य शंबूकावर्ता है । ६. श्रायतं गत्वा प्रत्यागता – सीधी सरल गली के अन्तिम घर तक जाकर वापिस आते हुए भिक्षा लेने का नाम प्रायतं गत्वा प्रत्यागता है । उन्नीसवीं गाथा में ये छह प्रकार निर्दिष्ट हैं और प्रस्तुत श्लोक में गोचराय के आठ प्रकारों का उल्लेख है । वे प्रायतं गत्वा प्रत्यागता से पृथक् मानने पर तथा शंबूकावर्ता के उक्त दोनों प्रकारों को पृथक्-पृथक् मानने पर बनते हैं । मूलाराधना में गोचराय के छह प्रकार हैं - १. गत्वा प्रत्यागता, २. ऋजु-वीथि ३. गो- मूत्रिका, ४. पेलविया ५. शंबूकावर्ता और ६. पतंगवीथि । जिस मार्ग से भिक्षा लेने जाएं उसी मार्ग से लौटते समय भिक्षा मिले तो वह सकता है अन्यथा नहीं - यह गत्वा प्रत्यागता का अर्थ है । प्रवचनसारोद्धार के अनुसार गली की एक पंक्ति में भिक्षा करता हुआ जाता है। और लौटते समय दूसरी पंक्ति से भिक्षा करता है । सरल मार्ग से जाते समय यदि भिक्षा मिले तो ले सकता है, अन्यथा नहीं यह ऋजु-वीथिका अर्थ है । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि प्रवचनसारोद्धार के अनुसार ऋज-मार्ग से भिक्षाटन करते हुए जाता है, वापस पाते समय भिक्षा नहीं करता। इन गोचरान की प्रतिमानों से ऊनोदरी होती है, इसलिये इन्हें 'क्षेत्रतः अवमौदर्य' भी कहा गया है। सात एषणाएं १. संसृष्टा-खाद्य वस्तु से लिप्त हाथ या पात्र से देने पर भिक्षा लेना। २. असंसृष्टा-भोजन-जात से प्रलिप्त हाथ या पात्र से देने पर भिक्षा लेना । ३. उद्धृता-अपने प्रयोजन के लिए रांधने के पात्र से दूसरे पात्र में निकाला हुआ पाहार लेना। ४. अल्पलेपा-प्रल्पलेप वाली अर्थात् चना, चिउड़ा आदि रूखी वस्तु लेना। ५. अवगृहीता-खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना। ६. प्रगृहीता-परोसने के लिये कड़छी या चम्मच से निकाला हुअा आहार लेना। ७. उज्झित वर्मा-जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य हो, उसे लेना। मूलाराधना में वृत्ति-संक्षेप के प्रकार भिन्न रूप से प्राप्त होते हैं१. संसृष्ट–शाक, कुल्माष आदि धान्यों से संसृष्ट आहार । २. फलिहा-मध्य में प्रोदन और उसके चारों ओर शाक रखा हो, ऐसा आहार। ३. परिखा–मध्य में अन्न और उसके चारों ओर व्यंजन रखा हो, वैसा आहार। ४. पुष्पोपहित-व्यंजनों के मध्य में पुष्पों के समान अन्न की रचना किया हुआ पाहार । ५. शुद्धगोपहित-निष्पाव आदि घान्य से अमिश्रित शाक, व्यञ्जन प्रादि । ६. लेपकृत-हाथ के चिपकने वाला आहार । ७. अलेपकृत—हाथ के न चिपकने वाला पाहार । ८. पानक—द्राक्षा प्रादि से शोधित पानक-चाहे वह सिक्थ-सहित हो या सिक्थ-रहित । अमुक द्रव्य अमुक क्षेत्र में, अमुक कान में व अमुक अवस्था में मिले तो लूं अन्यथा नहीं-इस प्रकार अनेक अभिग्रहों के द्वारा वृत्ति का संक्षेप किया जाता है। ५४. रसविबज्जणं रस-विवर्जन या रस-परित्याग, बाह्य-तप का चतुर्थ प्रकार है । मूलाराधना में वृत्ति-परिसंख्या चतुर्थ और रस-परित्याग तृतीय प्रकार है । उत्तराध्ययन में रस-विवर्जन का अर्थ है-(१) दूध, दही, घी आदि का त्याग Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग और (२) प्रणीत (स्निग्ध) पान-भोजन का त्याग । प्रोपपातिक में इसका विस्तार मिलता है। वहां इसके निम्न प्रकार हैं१. निर्विकृति-विकृति का त्याग । २. प्रणीत रस-परित्याग-स्निग्ध व गरिष्ठ पाहार का त्याग । ३. आचामाम्ल-अम्ल-रस मिश्रित भात प्रादि का पाहार । ४. आयाम-सिक्थ-भोजन ---प्रोसामण से मिश्रित अन्न का आहार । ५. अरस आहार--हींग ग्रादि से असंस्कृत आहार । ६. विरस आहार-पुराने धान्य का पाहार । ७. अन्त्य आहार-वल्ल प्रादि तुच्छ धान्य का आहार । ८. प्रान्त्य पाहार-ठण्डा पाहार । ८. रूक्ष आहार-रूखा आहार । इस तप का प्रयोजन है 'स्वाद विजय'। इसीलिये रस-परित्याग करने वाला विकृति, सरस व स्वादु भोजन नहीं खाता । विकृतियां नौ हैं - दूध, दही, नवनीत, घृत, तेल, गुड़, मधु, मद्य और मांस । इसमें मधु, मद्य, मांस और नवनीत-ये चार महाविकृति यां हैं। जिन वस्तुओं से जीभ और मन विकृत होते हैं --स्वाद लोलुप या विषय-लोलुप बनते हैं, उन्हें विकृति' कहा जाता है। पंडित पाशाधरजी ने इसके चार प्रकार बतलाए १. गोरस विकृति ---दूध, दही, घृत और मक्खन प्रादि । २. इक्षु-रस विकृति---गुड़, चीनी आदि । ३. फल-रस विकृति - अंगूर, ग्राम प्रादि फनों का रस । ४. धान्य-रस विकृति-तैल, मांड आदि । स्वादिष्ट भोजन को भी विकृति कहा जाता है। इसलिये रस-परित्याग करने वाला शाक, व्यञ्जन, नमक आदि का भी वर्जन करता है । मूलाराधना के अनुसार दूध, दही, घृत, तैल और गुड़ - इनमें से किसी एक का अथवा इन पत्र का परित्याग करना 'रस-परित्याग' है। 'अवगाहिम विकृति' (मिठाई) पूड़े, पर शाक, दाल, नमक आदि का त्याग भी रस-परित्याग है । रस-परित्याग करने वाले मुनि के लिये निम्न प्रकार के भोजन का विधान है१. अरस-पाहार--स्वाद-रहित भोजन । २. अन्यवेलाकृत-ठंडा भोजन । ३. शुद्धौदन-शाक आदि से रहित कोरा भात । ४. रूखा भोजन-घृत-रहित भोजन । ५. प्राचामाम्ल-अम्ल-रस-सहित भोजन । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६. आयामौदन-जिसमें थोड़ा जल और अधिक अन्न-भाग हो, ऐसा आहार अथवा ओसामण-सहित भात । ७. विकरौदन-बहुत पका हुआ भात अथवा गर्म-जल मिला हुआ भात । जो रस-परित्याग करता है, उसके तीन बाते फलित होती हैं—१. संतोष की भावना, २. ब्रह्मचर्य की आराधना, ३. वैराग्य । ५५. श्लोक २७ _ 'काय-क्लेश' बाह्य-तप का पांचवां प्रकार है। प्रस्तुत अध्ययन में काय-क्लेश का अर्थ 'वीरासन आदि कठोर प्रासन करना' किया है। स्थानांग में काय-क्लेश के सात प्रकार निर्दिष्ट हैं-- १. स्थान-कायोत्सर्ग, २. ऊकडू प्रासन, ३. प्रतिमा प्रासन, ४. वीरासन, ५. निषद्या, ६. दण्डायत प्रासन और ७. लगण्ड-शयनासन। इनकी सूचना 'वीरासणाईया' इस वाक्यांश में है। प्रौपपातिक में काय-क्लेश के दस प्रकार बतलाए गए हैं--१. स्थान कायोत्सर्ग, २. ऊकडू प्रासन, ३. प्रतिमा श्रासन, ४. वीरासन, ५. निषद्या, ६. आतापना, ७. वस्त्रत्याग, ८. अकण्डूयन-खाज न करना, ६. अनिष्ठीवन----थूकने का त्याग और १०. सर्व गात्र परिकर्म विभूषा का वर्जन--देह परिकर्म की उपेक्षा। प्राचार्य वसुनन्दि के अनुसार प्राचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, उपवास, बेला आदि के द्वारा शरीर को कृश करना 'काय-क्लेश' है । यह व्याख्या उक्त व्याख्याओं से भिन्न है। वैसे तो उपवास प्रादि करने में काया को क्लेश होता है, किन्तु भोजन से सम्बन्धित---अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति-संक्षेप और रसपरित्याग--चारों बाह्य-तपों से काय-क्लेश का लक्षण भिन्न होना चाहिये। इस दृष्टि से काय-क्लेश की व्याख्या उपवास-प्रधान न होकर अनासक्ति-प्रधान होनी चाहिये । शरीर के प्रति निर्ममत्व-भाव रखना तथा उसे प्राप्त करने के लिये प्रासन आदि साधना, उसको संवारने से उदासीन रहना ---यह काय-क्लेश का मूलस्पर्शी अर्थ होना चाहिये । कायक्लेश स्वयं इच्छानुसार किया जाता है और परीषह समागत कष्ट है। श्रुतसागर गणि के अनुसार ग्रीष्म ऋतु में धूप में, शीत ऋतु में खुले स्थान में और वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे सोना, नाना प्रकार की प्रतिमाएं और प्रासन करना 'काय-क्लेश' मूलाराधना में 'काय-क्लेश' के पांच विभाग किये गये हैं(१) गमन योग (क) अनुसूर्य गमन---कड़ी धूप में पूर्व से पश्चिम की ओर जाना। (ख) प्रतिसूर्य गमन-पश्चिम से पूर्व की ओर जाना। (ग) ऊर्ध्व सूर्य गमन – मध्याह्न सूर्य में गमन करना । (घ) तिर्यक्सूर्य गमन--सूर्य तिरछा हो तब गमन करना । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग (ङ) उद्भ्रमक गमन - अवस्थित ग्राम से भिक्षा के लिये दूसरे गांव में जाना । (च) प्रत्यागमन - - दूसरे गांव जाकर पुनः अवस्थित गांव में लौट श्राना । (२) स्थान योग श्वेताम्बर साहित्य में 'ठाणाइय' पाठ मिलता है और कहीं-कहीं 'ठाणायत' । 'ठाणायत' की अपेक्षा 'ठाणाइय' अधिक अर्थसूचक है । १६८ श्रीपपातिक में भी तप के प्रकरण में 'ठाणाइय' है । मूलाराधना को देखने से सहज ही यह प्राप्त होता है कि आदि शब्द स्थान के प्रकारों का संग्राहक है । उसके अनुसार स्थान या ऊर्ध्वस्थान के सात प्रकार हैं (क) साधारण स्तम्भ या भित्ति का सहारा लेकर खड़े होना । (ख) सविचार - पूर्वावस्थित स्थान से दूसरे स्थान में जाकर प्रहर दिवस प्रादि तक खड़े रहना । (ग) सनिरुद्ध -- स्व. स्थान में खड़े रहना । (घ) व्युत्सर्ग— कायोत्सर्ग करना । (ड) समपाद - पैरों को सटा कर खड़े रहना । (च) एकपाद - एक पैर से खड़े रहना । (छ) गृद्धोड्डीन - श्राकाश में उड़ते समय गीध जैसे अपने पंख फैलाता है, वैसे अपनी बाहों को फैलाकर खड़े रहना । (३) श्रासन योग (क) पर्यंक -- दोनों जंघाओं के अधोभाग को दोनों पैरों पर टिकाकर बैठना । (ख) निषद्या - विशेष प्रकार से बैठना । (ग) समपाद - जंघा और कटि भाग को समान कर बैठना । (घ) गोदोहिका - गाय को दुहते समय जिस आसन में बैठते हैं, उस श्रासन में बैठना । (ङ) उत्कटिका - ऊकडू बैठना - एड़ी और पुतों को ऊंचा रखकर बैठना । (च) मकरमुख - मगर के मुंह के समान पांवों की प्राकृति बनाकर बैठना । (छ) हस्तिगुंडि - हाथी की सूंड की भांति एक पैर को फैलाकर बैठना । (ज) गो-निषद्या - दोनों जंघाओं को सिकोड़कर गाय की तरह बठना । (झ) अर्धपर्यंक --- एक जंघा के अधोभाग को एक पैर पर टिकाकर बैठना । (ञ) वीरासन -- दोनों जंघात्रों को अन्तर से फैलाकर बैठना । (ट) दण्डायत -- दण्ड की तरह पैरों को फैलाकर बैठना । (४) शयन योग ( क ) ऊध्वंशयन - ऊंचा होकर सोना । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि (ख) लगडं शयन-चक्र काष्ठ की भांति एड़ियों और शिर को भूमि से सटाकर शेष शरीर को ऊपर उठा कर सोना अथवा पीठ को भूमि से सटाकर शेष शरीर को उठाकर सोना। (ग) उत्तान शयन .. सीधा लेटना। (घ) अवमस्तक शयन-ौंधा लेटना । (ङ) एक पार्श्व शयन-दाईं या बाईं करवट लेना। (च) मृतक शयन---शवासन । (५) अपरिकर्म योग (क) अभ्रावकाश शयन-खुले आकाश में सोना । (ख) अनिष्ठीवन --नहीं थूकना । (ग) अकण्डूयन-नहीं खुजलाना। (घ) तृण-फलक-शिला-भूमि-शय्या-घास, काठ के फलक, शिला और भूमि पर सोना। (ङ) केश-लोच-बालों को हाथ से नोंचना । (च) अभ्युत्थान-रात में जागना। (छ) प्रस्नान-स्नान नहीं करना । (ज) अदन्त-धावन—दातौन नहीं करना । (झ) शीत-उष्ण, आतापना, गर्मी और धूप सहन करना। ५६. श्लोक २८ इस श्लोक में छठे बाह्य-तप की परिभाषा की गई है। आठवें श्लोक में बाह्य-तप का छठा प्रकार 'संलीनता' बतलाया गया है और इस श्लोक में उसका नाम "विविक्त-शयनासन' है। भगवती में (२५/७/८०२) छठा प्रकार प्रतिसंलीनता' है। तात्पर्य सूत्र (६-१६) में विविक्त शयनासन बाह्य-तप का पांचवां प्रकार है । मलाराधना (३/२०८) में विविक्त-शय्या बाह्य-तप का छठा प्रकार है। इस प्रकार कुछ ग्रन्थों में संलीनता या प्रतिसंलीनता और कुछ ग्रन्थों में विविक्त-शय्यासन या विविक्त-शय्या का प्रयोग मिलता है। किन्तु प्रोपपातिक के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मूल शब्द 'प्रतिसंलीनता' है। विविक्त-शयनासन' उसी का एक अवान्तर भेद है। प्रतिसंलीनता चार प्रकार की होती है--१. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता, २. कषाय-प्रतिसंलीनता, ३. योग-प्रतिसंलीनता और ४. विविक्त-शयनासन-सेवन । . प्रस्तुत अध्ययन में संलीनता की परिभाषा केवल विविक्त-शयनासन के रूप में की गई, यह आश्चर्य का विषय है। हो सकता है सूत्रकार इसी को महत्त्व देना चाहते तत्त्वार्थ सूत्र आदि उत्तरवर्ती-ग्रन्थों में इसी का अनुसरण हुआ है। मूलाराषना के अनुसार शब्द, रस, गन्ध और स्पर्श के द्वारा चित्त-विक्षेप नहीं होता, स्वाध्याय और Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० चित्त-समाधि : जैन योग ध्यान में व्याघात नहीं होता, वह 'विविक्त-शय्या' है। जहाँ स्त्री-पुरुष और नपुंसक न हों, वह विविक्त-शय्या है। भले ही फिर उसके द्वार खुले हों या बन्द, उसका प्रांगण सम हो या विषम. वह गांव के बाह्य-भाग में हो या मध्य भाग में, शीत हो या ऊष्ण। विविक्त-शय्या के कुछ प्रकार ये हैं- शुन्य-गृह, गिरि-गुफा, वृक्ष-मूल, आगन्तुकप्रागार (विश्राम-गृह), देव-कुल, अकृत्रिम-शिला-गृह और कूट गृह । विविक्त-शय्या में रहने से इतने दोषों से सहज ही बचाव हो जाता है--१. कलह, २. बोल (शब्द बहुलता), ३. मंझा (संक्लेश), ४. व्यामोह. ५. सांकर्य (असंयमियों के साथ मिश्रण), ६. ममत्व और ७. ध्यान तथा स्वाध्याय का व्याघात । ५७. श्लोक ३१ प्रायश्चित्त प्राभ्यान्तर-तप का पहला प्रकार है। उसके दस प्रकार हैं१. पालोचना-योग्य-गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना । २. प्रतिक्रमण-योग्य–किये हुये पापों से निवृत्त होने के लिये 'मिथ्या मे दुष्कृतम्' 'मेरे सब पाप निष्फल हों'---ऐसा कहना, कायोत्सर्ग करना तथा भविष्य में पाप-कार्यों से दूर रहने के लिये सावधान रहना । ३. तदुभय-योग्य—पाप से निवृत्त होने के लिये आलोचना, प्रतिक्रमण-दोनों करना। ४. विवेक-योग्य-अाए हुए अशुद्ध-पाहार आदि का उत्सर्ग करना । ५. व्युत्सर्ग-योग्य---चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति के साथ कायोत्सर्ग करना। ६. तप-योग्य-उपवास, बेला प्रादि करना। ७. छेद-योग्य-पाप-निवृत्ति के लिये संयम-काल को छेदकर कम कर देना। ८. मूल-योग्य—पुनः व्रतों में आरोपित करना-नई दीक्षा देना। ६. अनवस्थापना-योग्य तपस्यापूर्वक नई दीक्षा देना। १०. पारांचिक-योग्य-भर्त्सना एवं अवहेलना पूर्वक नई दीक्षा देना। तत्त्वार्थ सूत्र (६/२२) में प्रायश्चित्त के ६ प्रकार ही बतलाए गए हैं। पाराँचिक का उल्लेख नहीं है। ५८. श्लोक ३२ विनय माभ्यन्तर-तप का दूसरा प्रकार है। प्रस्तुत श्लोक में उसके प्रकारों का निर्देश नहीं है। स्थानांग (७/५८५), भगवती (२५/७/८०२), और भोपपातिक (सूत्र २०) में विनय के ७ प्रकार बतलाए गए हैं १. ज्ञान-विनय-ज्ञान के प्रति भक्ति, बहुमान आदि करना। २. दर्शन-विनय-गुरु की शुश्रूषा करना, पाशातना न करना । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १७१ ३. चारित्र-विनय-चारित्र का यथार्थ प्ररूपण और प्रनुष्ठान करना । ४. मनो-विनय-अकुशल-मन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति । ५. वचन-विनय-अकुशल-वचन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति । ६. काय-विनय-अकुशल-काय का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति । ७. लोकोपचार-विनय-लोक-व्यवहार के अनुसार विनय करना । तत्त्वार्थ-सत्र (६/२३) में विनय के प्रकार चार ही बतलाए गए हैं-१. ज्ञानविनय, २. दर्शन-विनय, ३. चारित्र-विनय और ४. उपचार-विनय । ५६. श्लोक ३३ वैयावृत्त्य प्राभ्यन्तर तप का तीसरा प्रकार है। स्थानांग (१०/७१) के आधार पर उसके दस प्रकार हैं-१. प्राचार्य का वैयावृत्त्य, २. उपाध्याय का वैयावृत्त्य, ३. स्थविर का वैयावृत्त्य, ४. तपस्वी का वैयावृत्त्य, ५. ग्लान का वैयावृत्त्य, ६. शैक्ष (नव दीक्षित) का वैयावृत्त्य, ७. कुल का वैयावृत्त्य, ८. गण का वैयावृत्त्य, ६. संघ का वैयावृत्त्थ, १०. सार्मिक का वैयावृत्त्य । भगवती (२५/७/८०२) और औपपातिक (सूत्र २०) के वर्गीकरण का क्रम उपर्युक्त क्रम से कुछ भिन्न है । वह इस प्रकार है-१. प्राचार्य का वैयावृत्त्य, २. उपाध्याय का वैयावृत्त्य, ३. शैक्ष का वैयावृत्त्य, ४. ग्लान का वैयावृत्त्य, ५. तपस्वी का वैयावृत्त्य, ६. सार्मिक का वैयावृत्त्य, ७. स्थविर का वैयावृत्य, ८. कुल का वैयावृत्त्य, ६. गण का वैयावृत्त्य और १०. संघ का वैयावृत्त्य । तत्त्वार्थ सूत्र (६/२४) में ये कुछ परिवर्तन के साथ मिलते हैं--१. प्राचार्य का वैयावृत्त्य, २. उपाध्याय का वैयावृत्त्य, ३. तपस्वी का वैयावृत्त्य, ४. शैक्ष का यावृत्त्य, ५. ग्लान का वैयावृत्त्य, ६. गण का वैयावृत्त्य (गण-श्रुत-स्थविरों की परम्परा का संस्थान), ७. कुल का वैयावृत्त्य (एक प्राचार्य का साधु-समुदाय 'गच्छ' कहलाता है । एक-जातीय अनेक गच्छों को 'कुल' कहा गया है), ८. संघ का वैयावृत्त्य (संघ अर्थात् साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका), ६. साधु का वैयावृत्त्य और १०. समनोज्ञ का वैयावृत्त्य (समान समाचारी वाले तथा एक मण्डली में भोजन करने वाले साधु 'समनोज्ञ' कहलाते हैं)। ___ इस वर्गीकरण में स्थविर और सार्मिक-ये दो प्रकार नहीं हैं, उनके स्थान पर साघु और समनोज्ञ-ये दो प्रकार हैं। गण और कुल की भांति संघ का अर्थ भी साधुपरक ही होना चाहिये । ये दसों प्रकार केवल साधु-समूह के विविध पदों या रूपों से सम्बद्ध हैं। ६०. श्लोक ३४ स्वाध्याय प्राभ्यन्तर तप का चौथा प्रकार है। उसके पांच भेद हैं-१. वाचना, २. प्रच्छना, ३. परिवर्तना, ४. अनुप्रेक्षा और ५. धर्मकथा । तस्वाथ सूत्र (९/२५) में इनका क्रम और नाम भी भिन्न है-1. वाचना, २. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ चित्त-समाधि : जैन योग प्रच्छना, ३. अनुप्रेक्षा, ४. आम्नाय और ५. धर्मोपदेश । इनमें परिवर्तना के स्थान में 'प्राम्नाय' है । आम्नाय का अर्थ है 'शुद्ध उच्चारण पूर्वक बार-बार पाठ करना ।' परिवर्तना या आम्नाय को अनुप्रेक्षा से पहले रखना उचित लगता है। स्वाध्याय के प्रकारों में एक क्रम है -प्राचार्य शिष्यों को पढ़ाते हैं, यह वाचना है । पढ़ते समय या पढ़ने के बाद शिष्य के मन में जो जिज्ञासाएं उत्पन्न होती हैं, उन्हें वह प्राचार्य के सामने प्रस्तुत करता है, यह प्रच्छना है । प्राचार्य से प्राप्त श्रुत को याद रखने के लिये वह बार-बार उसका पाठ करता है, यह परिवर्तना है । परिचित श्रुत का मर्म समझने के लिये वह उसका पर्या लोचन करता है, यह अनुप्रेक्षा है । पठित, परिचित और पर्यालोचित श्रुत का वह उपदेश करता है, यह धर्म कथा है। इस क्रम में परिवर्तना का स्थान अनुप्रेक्षा से पहले प्राप्त होता है । सिद्धसेन गणि के अनुसार अनुप्रेक्षा का अर्थ है-'ग्रन्थ और अर्थ का मानसिक अभ्यास करना।' इसमें वर्णों का उच्चारण नहीं होता और पाम्नाय में वर्गों का उच्चारण होता है, यही इन दोनों का अन्तर है। अनुप्रेक्षा के उक्त अर्थ के अनुसार उसे माम्नाय से पूर्व रखना भी अनुचित नहीं है । आम्नाय, घोषविशुद्ध, परिवर्तन, गुणन और रूपादान--ये आम्नाय या परिवर्तना के पर्यायवाची शब्द हैं। अर्थोपदेश, व्याख्यान, अनुयोग-वर्णन, धर्मोपदेश--ये धर्मोपदेश या धर्मकथा के पर्यायवाची शब्द हैं। ६१. श्लोक ३५ ___ ध्यान पाम्यन्तर-तप का पांचवां प्रकार है। तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार व्युत्सर्ग पांचवां और ध्यान छठा प्रकार है । ध्यान से पूर्व व्युत्सर्ग किया जाता है, इस दृष्टि से यह क्रम उचित है और व्युत्सर्ग ध्यान के बिना भी किया जाता है । उसका स्वतंत्र महत्त्व भी है, इसलिये उसे ध्यान के बाद भी रखा जा सकता है। ध्यान को परिभाषा चेतना की दो अवस्थाएं होती हैं-१. चल और २. स्थिर । चल चेतना को 'चित्त' कहा जाता है । उसके तीन प्रकार हैं--- १. भावना--भाव्य विषय पर चित्त को बार-बार लगाना । २. अनुप्रेक्षा.-ध्यान से विरत होने पर भी उससे प्रभावित मानसिक चेष्टा । ३. चिन्ता-सामान्य मानसिक चिन्ता । स्थिर चेतना को 'ध्यान' कहा जाता है। जैसे अपरिस्पंदमान अग्नि-ज्वाला 'शिखा' कहलाती है, वैसे ही अपरिस्पन्दमान ज्ञान 'ध्यान' कहलाता है। एकाग्र-चिन्तन को भी ध्यान कहा जाता है। चित्त अनेक वस्तुओं या विषयों में Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १७३ प्रवृत्त होता रहता है, उसे अन्य वस्तुप्रों या विषयों से निवृत्त कर एक वस्तु या विषय में प्रवृत्त करना भी ध्यान है। मन, वचन और काया की स्थिरता को भी ध्यान कहा जाता है । इसी व्युत्पत्ति के आधार पर ध्यान के तीन प्रकार होते हैं १. मानसिक-ध्यान-मन की निश्चलता-मनो-गुप्ति । २. वाचिक-ध्यान-मौन—वचन-गुप्ति । ३. कायिक-ध्यान--काया की स्थिरता-काय-गुप्ति । छद्मस्थ व्यक्ति के एकाग्र-चिन्तनात्मक-ध्यान होता है और प्रवृत्ति-निरोधात्मकध्यान केवली के होता है। छद्मस्थ के प्रवृत्ति-निरोधात्मक-ध्यान केवली जितना विशिष्ट भले ही न हो, किंतु अंशतः होता ही है। ध्यान के प्रकार एकाग्र-चिन्तन को 'ध्यान' कहा जाता है । इस व्युत्तत्ति के आधार पर उसके चार प्रकार होते हैं-१. प्रात, २. रौद्र, ३. धर्म्य और ४. शुक्ल । १. प्रार्त-ध्यान-चेतना की परति या वेदनामप एकाग्र-परिणति को 'आतंध्यान' कहा जाता है । उसके चार प्रकार हैं (क) कोई पुरुष अमनोज्ञ संयोग से संयुक्त होने पर उस (अमनोज्ञ विषय) के वियोग का चिन्तन करता है--यह पहला प्रकार है । (ख) कोई पुरुष मनोज्ञ संयोग से संयुक्त है, वह उस (मनोज्ञ-विषय) के वियोग न होने का चिन्तन करता है-यह दूसरा प्रकार है । (ग) कोई पुरुष अातंक (सद्यावाती रोग) के संयोग से संयुक्त होने पर उस (अातंक) के वियोग का चिन्तन करता है—यह तीसरा प्रकार है ।। (घ) कोई पुरुष प्रीतिकर काम-भोग के संयोग से संयुक्त है, वह उस (कामभोग) के वियोग न होने का चिन्तन करता है-यह चौथा प्रकार है । प्रात ध्यान के चार लक्षण हैं--१. प्राक्रन्दन करना, २. शोक करना, ३. आंसू बहाना, ४. विलाप करना । २. रौद्र-ध्यान-चेतना की क्रूरतामय एकाग्र-परिगति को 'रौद्र-ध्यान' कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं (क) हिंसानुबन्धी-जिसमें हिमा का अनुबन्ध -हिंसा में सतत प्रवर्तन हो । (ख) मृषानुबन्धी-जिसमें मृषा का अनुबन्ध -मृषा में सतत प्रवर्तन हो। (ग) स्तेनानुबन्धी-जिसमें चोरी का अनुबन्ध --चोरी में सतत प्रवर्तन हो । (घ) सरक्षणानुबन्धी-जिसमें विषय के साधनों के संरक्षण का अनुबन्ध-विषय Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૪ के साधनों के संरक्षण में सतत प्रवर्तन हो । रौद्र-ध्यान के चार लक्षण है (क) अनुपरत दोष - - प्राय: हिंसा प्रादि से उपरत न होना । (ख) बहु-दोष - हिंसा आदि की विविध प्रवृत्तियों में संलग्न रहना । (ग) अज्ञान - दोष – अज्ञानवश हिंसा आदि में प्रवृत्त होना । (घ) आमरणान्त-दोष -- मरणान्त तक हिंसा आदि करने का अनुताप न होना । ये दोनों ध्यान पापास्रव के हेतु हैं, इसलिये इन्हें 'अप्रशस्त ध्यान' कहा जाता है । इन दोनों को एकाग्रता की दृष्टि से ध्यान की कोटि में रखा गया है, किन्तु साधना की दृष्टि से प्रार्त्त और रौद्र परिणतिमय एकाग्रता विघ्न ही है । चित्त-समाधि : जैन योग मोक्ष के हेतुभूत ध्यान दो ही हैं - १. धर्म्य और २ शुक्ल । इनसे आस्रव का निरोध होता है, इसलिये इन्हें 'प्रशस्त ध्यान' कहा जाता है । ३. धर्म्य - ध्यान वस्तु-धर्म या सत्य की गवेषणा में परिणत चेतना की एकाग्रता को 'धर्म्य - ध्यान' कहा जाता है। इसके चार प्रकार हैं (क) आज्ञा-विचय--प्रवचन के निर्णय में संलग्न चित्त । (ख) अपाय - विचय दोषों के निर्णय में संलग्न चित्त । (ग) विपाक - विचय — कर्म-फलों के निर्णय में संलग्न चित्त । (घ) संस्थान- विचय विविध पदार्थों के आकृति निर्णय में संलग्न चित्त । धर्म्य ध्यान के चार लक्षण हैं (क) प्राज्ञा - रुचि --प्रवचन में श्रद्धा होना । (ख) निसर्ग - रुचि – सहज ही सत्य में श्रद्धा होना । (ग) सूत्र - रुचि -सूत्र- पठन के द्वारा श्रद्धा उत्पन्न होना । (घ) प्रवगाढ़ - रुचि - विस्तार से सत्य की उपलब्धि होना । धर्म्य ध्यान के चार आलम्बन हैं (क) वाचना-पढ़ाना । (ख) प्रतिप्रच्छना - शंका निवारण के लिये प्रश्न करना । (ग) परिवर्तना - पुनरावर्तन करना । (घ) अनुप्रेक्षा - प्रर्थ का चिन्तन करना । धर्म्य - ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं (क) एकत्व - अनुप्रेक्षा — प्रकेलेपन का चिन्तन करना । (ख) प्रनित्य-ग्रनुप्रेक्षा — पदार्थों की प्रनित्यता का चिन्तन करना । (ग) प्रशरण - प्रनुप्रेक्षा - प्रशरण- दशा का चिन्तन करना । (घ) संसार अनुप्रेक्षा - संसार - परिभ्रमण का चिन्तन करना । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि (४) शुक्ल-ध्यान-चेतना की सहज (उपधि-रहित) परिणति को 'शुक्ल-ध्यान' कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं (क) पृथक्त्व-वितर्क-सविचारी। (ख) एकत्व-वितर्क-अविचारी। (ग) सूक्ष्म-क्रिय-अनिवृत्ति और (घ) समुच्छिन्न-क्रिय-अप्रतिपाति । ध्यान के विषय द्रव्य और उसके पर्याय हैं। ध्यान दो प्रकार का होता है१. सालम्बन और २. निरालम्बन । ध्यान में सामग्री का परिवर्तन भी होता है और नहीं भी होता । वह दो दृष्टियों से होता है--भेद दृष्टि से और अभेद-दृष्टि से । जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक दृष्टियों-नयों से चिन्तन किया जाता है और पूर्व-श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन और काया में से एक दूसरे में संक्रमण किया जाता है, शुक्ल-ध्यान की उस स्थिति को 'पृथक्त्व-वितर्क-सविचारी' कहा जाता है। जब एक द्रव्य या किसी एक पर्याय का अभेद-दृष्टि से चिन्तन किया जाता है और पूर्व-श्रुत का पालम्बन लिया जाता है तथा जहां शब्द, अर्थ, एवं मन, वचन और काया में से एक दूसरे में संक्रमण किया जाता है, शुक्ल-ध्यान की उस स्थिति को ‘एकत्व-वितर्कअविचारी' कहा जाता है। ___ जब मन और वाणी के योग का पूर्ण निरोध हो जाता है और काया के योग का पूर्ण निरोध नहीं होता-श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म-क्रिया शेष रहती है, उस अवस्था को 'सूक्ष्म-क्रिय' कहा जाता है। इसका निवर्तन (ह्रास) नहीं होता, इसलिए यह अनिवृत्ति जब सूक्ष्म-क्रिया का भी निरोध हो जाता है, उस अवस्था को 'समुच्छिन्न-क्रिय' कहा जाता है। इसका पतन नहीं होता, इसलिए यह अप्रतिपाति है। शुक्ल-ध्यान के चार लक्षण (क) अव्यथ-क्षोभ का अभाव । (ख) असम्मोह-सूक्ष्म-पदार्थ-विषयक मूढ़ता का अभाव । (ग) विवेक-शरीर और प्रात्मा के भेद का ज्ञान । (घ) व्युत्सर्ग-शरीर और उपधि में अनासक्त-भाव । शुक्ल-ध्यान के चार मालम्बन (क) क्षान्ति-क्षमा, (ख) मुक्ति-निर्लोभता, (ग) मार्दव-मृदुता, (घ) आर्जव-सरलता। शुक्ल-ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं (क) अनन्तवृत्तिता-अनुप्रेक्षा-संसार-परम्परा का चिन्तन करना। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ चित्त-समाधि : जन योग (ख) विपरिणाम-अनुप्रेक्षा-----वस्तुओं के विविध परिणामों का चिन्तन करना। (ग) अशुभ-अनुप्रेक्षा-पदार्थों की अशुभता का चिन्तन करना। (घ) अपाय-अनुप्रेक्षा-दोषों का चिन्तन करना। ६२. श्लोक ३६ ___व्युत्सर्ग प्राभ्यन्तर-तप का छठा प्रकार है। भगवती (२५/७/८०२) और प्रोपपातिक (सूत्र २०) के अनुसार व्युत्सर्ग दो प्रकार का होता है १. द्रव्य-व्युत्सर्ग और २. भाव-व्युत्सर्ग । द्रव्य-व्युत्सर्ग के चार प्रकार ...... शारीरिक चंचलता का विसर्जन । .-विशिष्ट साधना के लिये गण का विसर्जन । (ग) उपधि-व्युत्म...वस्त्र प्रादि उपकरणों का विसर्जन । (घ) भक्त-पान-व्युत्सर्ग- भोजन और जल का विसर्जन । भाव-व्युत्सर्ग के तीन प्रकार (क) कषाय-व्युत्सर्ग-क्रोध आदि का विसर्जन । (ख) संसार व्युत्सर्ग --परिभ्रमण का विसर्जन । (ग) कर्म-व्युत्सर्ग-कर्म-पुद्गलों का विसर्जन । प्रस्तुत श्लोक में केवल काय-व्युत्सर्ग की परिभाषा की गई है। इसका दूसरा नाम 'कायोत्सर्ग' है । कायोत्सर्ग का अर्थ है 'काया का उत्सर्ग-त्याग'।। प्रश्न होता है कि प्रायु पूर्ण होने से पहले काया का उत्सर्ग कैसे हो सकता है ? यह सही है कि जब तक आयु शेष रहती है, तब तक काया का उत्सर्ग——त्याग नहीं किया जा सकता। किन्तु यह काया अशुचि है, अनित्य है, दोषपूर्ण है, असार है, दुःख-हेतु है, इसमें ममत्व रखना दुःख का मूल है—इस बोध से भेद-ज्ञान प्राप्त होता है। जिसे भेद-ज्ञान प्राप्त होता है, वह सोचता है कि यह शरीर मेरा नहीं है, मैं इसका नहीं हूं। मैं भिन्न हं, शरीर भिन्न है। इस प्रकार का संकल्प करने से शरीर के प्रति आदर घट जाता है। इस स्थिति का नाम है 'कायोत्सर्ग'। एक घर में रहने पर भी पति द्वारा अनादत पत्नी परित्यक्ता' कहलाती है। जिस वस्तु के प्रति जिस व्यक्ति के हृदय में अनादर-भाव होता है, वह उसके लिये परित्यक्त होती है। जब काया में ममत्व नहीं रहता, पादरभाव नहीं रहता, तब काया परित्यक्त हो जाती है। कायोत्सर्ग-विधि जो कायोत्सर्ग करना चाहे, वह काया से निस्पृह होकर खंभे की भांति सीधा खड़ा हो जाए। दोनों बांहों को घुटनों की ओर फैला दे, प्रशस्त-ध्यान में निमग्न हो जाए काया को न अकड़ा कर खड़ा हो और न झुकाकर भी। परीषह और उपसर्गों को सहन करे। जीव-जन्तु-रहित एकान्त स्थान में खड़ा रहे और कायोत्सर्ग मुक्ति के लिये करे । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्भयणाणि कायोत्सर्ग का मुख्य उद्देश्य है प्रात्मा का काया से वियोजन। काया के साथ प्रात्मा का जो संयोग है, उसका मूल है प्रवृत्ति। जो इनका विसंयोग चाहता है अर्थात आत्मा के सान्निध्य में रहना चाहता है, वह स्थान, मौन और ध्यान के द्वारा 'स्व' का व्युत्सगं करता है। स्थान-काया की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण-काय-गुप्ति । मौन-वाणी की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण-वाक्-गुप्ति । ध्यान—मन की प्रवृत्ति का एकाग्रीकरण-मनो-गुप्ति । कायोत्सर्ग में श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म प्रवृत्ति होती है, शेष प्रवृत्ति का निरोध किया जाता है। कायोत्सर्ग चार प्रकार का होता है (१) उत्थित-उत्थित--जो खड़ा-खड़ा कायोत्सर्ग करता है और धर्म्य या शुक्लध्यान में लीन होता है, वह काया से भी उन्नत होता है और ध्यान से भी उन्नत होता है, इसलिए उसके कायोत्सर्ग को 'उत्थित-उत्थित' कहा जाता है । (२) उत्थित-उपविष्ट-जो खड़ा-खड़ा कायोत्सर्ग करता है, किन्तु प्रार्त या रौद्र ध्यान से अवनत होता है, इसलिये उसके ध्यान को 'उत्थित-उपविष्ट' कहा जाता है। (३) उपविष्ट-उत्थित-जो बैठकर कायोत्सर्ग करता है और धर्म्य या शुक्ल-ध्यान में लीन होता है, वह काया से बैठा हुआ होता है और ध्यान से खड़ा होता है, इसलिए उसके कायोत्सर्ग को 'उपविष्ट-उत्थित' कहा जाता है। (४) उपविष्ट-उपविष्ट–जो बैठकर कायोत्सर्ग करता है और आर्त या रौद्रध्यान में लीन होता है, वह काया और ध्यान दोनों से बैठा हुआ होता है, इसलिये उसके कायोत्सर्ग को 'उपविष्ट-उपविष्ट' कहा जाता है । इनमें प्रथम और तृतीय अंगीकरणीय हैं और शेष दो त्याज्य हैं। प्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार कायोत्सर्ग खड़े, बैठे और सोते-इन तीनों अवस्थामों में किया जा सकता है। इस भाषा में 'कायोत्सर्ग' और 'स्थान' दोनों एक बन जाते हैं। प्रयोजन की दृष्टि से कायोत्सर्ग के दो प्रकार हैं १. चेष्टा कायोत्सर्ग—अतिचार शुद्धि के लिये जो किया जाता है । २. अभिनव-कायोत्सर्ग-विशेष विशुद्धि या प्राप्त कष्ट को सहने के लिये जो किया जाता है। चेष्टा-कायोत्सर्ग का काल उच्छवास पर आधृत है। विभिन्न प्रयोजनों से वह आठ, पच्चीस, सत्ताईस, तीन सौ, पाँच सौ और एक हजार पाठ उच्छ्वास तक किया जाता Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ चित्त-समाधि : जैन योग अभिनव कायोत्सर्ग का काल जघन्यतः अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्टतः एक वर्ष का बाहुबलि ने एक वर्ष का कायोत्सर्ग किया था। प्रतिचार-शुद्धि के लिये किये जाने वाले कायोत्सर्ग के अनेक विकल्प होते हैं१. देवसिक-कायोत्सर्ग। २. रात्रिक-कायोत्सर्ग। ३. पाक्षिक-कायोत्सर्ग। ४. चातुर्मासिक-कायोत्सर्ग । ३. साम्वत्सरिक-कायोत्सर्ग । कायोत्सर्ग आवश्यक का पांचवां अंग है। ये उक्त कायोत्सर्ग प्रतिक्रमण के साथ किये जाते हैं । इन (कायोत्सर्ग) से चतुर्विशस्तव का ध्यान किया जाता है। उसके सात श्लोक और अट्ठाईस चरण हैं । एक उच्छ्वास में एक चरण का ध्यान किया जाता है। कायोत्सर्ग-काल में सातवें श्लोक के प्रथम चरण 'चन्देसु निम्मलयरा' तक ध्यान किया जाता है । इस प्रकार एक 'चतुर्विशस्तव' का ध्यान पच्चीस उच्छ्वासों में सम्पन्न होता है। प्रवचनसारोद्धार और विजयोदया के अनुसार इनके ध्येय-परिमाण और काल-मान इस प्रकार हैं प्रवचनसारोद्धार चतुर्विशस्तव श्लोक चरण उच्छ्वास १. देवसिक २. रात्रिक १२-१/२ ५० ३. पाक्षिक ३०० ४. चातुर्मासिक १२५ ५०० ५. साम्वत्सरिक २५२ १००८ १००८ विजयोदया चतुर्विशस्तव श्लोक __ चरण उच्छ्वास १. देवसिक २५ १०० १०० २. रात्रिक १२-१/२ ५० ३. पाक्षिक १२ ७५ ३०. ४. चातुर्मासिक १६ १०० ४०० ४०० ५. साम्वत्सरिक १२५ ५०० ५०० प्रमितगति-श्रावकाचार के अनुसार देवसिक कायोत्सर्ग में १०८ तथा रात्रिक कायोत्सर्ग में ५४ उच्छ्वास तक ध्यान किया जाता है और अन्य कायोत्सर्ग में २७ उच्छ्वास तक । २७ उच्छ्वासों में नमस्कार-मंत्र की नौ आवृत्तियां की जाती हैं । अर्थात् तीन उच्छ्वासों में एक नमस्कार-मंत्र पर ध्यान किया जाता है, संभव है प्रथम दो-दो बाक्य एक-एक उच्छ्वास में और पांचवां वाक्य एक उच्छ्वास में। अथवा 'एसो २५ ७५ . . ५० Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि १७६ पंच णमोक्कारो' सहित नौ पदों की तीन प्रावृत्तियां भी हो सकती हैं—प्रत्येक पद की एक-एक उच्छवास में आवृत्ति होने से सत्ताईस उच्छ्वास होते हैं । अमितगति ने एक दिन-रात के कायोत्सर्ग की सारी संख्या अट्ठाईस मानी है। जैसे-(१) स्वाध्याय काल में-१२, (२) वन्दनाकाल में-६, (३) प्रतिक्रमण काल में-८, (४) योगभक्ति-काल में-२=२८ । पांच महाव्रतों के अतिक्रमणों के लिए १०८ उच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना चाहिए । कायोत्सर्ग करते समय यदि उच्छ्वासों की संख्या विस्मृत हो जाए अथवा मन विचलित हो जाए तो आठ उच्छ्वास का अतिरिक्त कायोत्सर्ग करना चाहिए । कायोत्सर्ग के दोष प्रवचनसारोद्धार में १६, योगशास्त्र में २१, और विजयोदया में १६ बतलाए ६३. प्रच्चन्तकालस्स समूलगस्स ___'प्रच्चन्तकालस्स'--अनादिकालीन । अन्त का अर्थ है 'छोर' । वस्तु के दो छोर होते हैं—प्रारम्भ और समाप्ति । यहां प्रारम्भ क्षण का ग्रहण किया गया है। इसका शब्दार्य है-जिसका प्रारम्भ न हो वैसा काल अर्थात् अनादि-काल । _ 'समूलगस्स' -मूल-सहित । दुःख का मूल कषाय और अविरति है । इसीलिए उसे 'समूलक' अर्थात् कषाय-अविरति-मूलक कहा गया है। ६४. गुरुविद्ध गुरु का अर्थ है 'शास्त्र को यथावत् बताने वाला' । वृद्ध तीन प्रकार के होते हैं१. श्रुत-वृद्ध, २. पर्याय-वृद्ध और ३. वयो-वृद्ध । ६५. श्लोक १० इस श्लोक में बताया गया है कि ब्रह्मचारी को घी, दूध, दही आदि रसों का अतिमात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए। यहां रस-सेवन का आत्यन्तिक निषेध नहीं है, किन्तु अतिमात्रा में उनके सेवन का निषेध है । जैन-पागम भोजन के सम्बन्ध में ब्रह्मचारी को जो निर्देश देते हैं, उनमें दो ये हैं (३) वह रसों को अतिमात्रा में न खाए और (२) वह रसों को बार-बार या प्रतिदिन न खाए। इसका फलित यह है कि वह वायु आदि के क्षोभ का, निवारण करने के लिए रसों का सेवन कर सकता है। अकारण उनका सेवन नहीं कर सकता। एक मुनि ने अपने प्रश्नकर्ता को यही बताया था-'मैं अति प्राहार नहीं करता हूं, अतिस्निग्ध पाहार से विषय उद्दीप्त होते हैं, इसलिए उनका भी सेवन नहीं करता हूं । संयमी-जीवन की यात्रा चलाने के लिए खाता हूं, वह भी अतिमात्रा में नहीं खाता।' दूष प्रादि का सर्वथा सेवन न करने से शरीर शुष्क हो जाता है, बल घटता है Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० चित्त-समाधि : जैन योग और ज्ञान, ध्यान या स्वाध्याय की यथेष्ट प्रवृत्ति नहीं हो सकती । उनका प्रतिदिन व अतिमात्रा में सेवन करने से विषय की वृद्धि होती है, इसलिये प्राचार्य को चाहिये कि वह अपने शिष्यों को कभी स्निग्ध और कभी रूखा आहार दे । ६६. मिगे 'मृग' शब्द के अनेक अर्थ हैं—पशु, मृगशीर्ष नक्षत्र, हाथी की एक जाति, कुरंग आदि । यहां मृग का अर्थ 'पशु' है । ६७. ससंकप्प-विकप्पणासुं 'संकल्प'में कल्प शब्द का अर्थ 'अध्यवसाय' है और 'विकल्प' में कल्प शब्द का अर्थ 'छेदन' है । कल्प शब्द के अनेक अर्थ हैं—सामर्थ्य, वर्णन, छेदन, करण, प्रौपम्य पौर अधिवास । ६८. समयं समता का अर्थ है-'मध्यस्थ भाव' अथवा 'ऐसी अवस्था जिसमें अध्यवसायों की तुल्यता रहती हो'। साथ-साथ इसके दो अर्थ और हैं-'समक'--एक साथ, 'समय'-सिद्धान्त । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट मोक्लपाहुड • समयसार ( प्रथम - प्रधिकार ) o o o हठयोगप्रदीपिका मनोनुशासन Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्खपाहुड १. णाणभयं अप्पाणं उवलद्धं जेण झडियकम्मेण । ___ चइऊण य परदव्वं णमो णमो तस्स देवस्स ॥ २. णमिऊण य तं देवं अणंतवरणाणदंसणं सुद्धं । वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ।। ३. जं जाणिऊण जोई जो अत्थो जोइऊण अणवरयं । अव्वाबाहमणंतं अणोवमं लहइ णिव्वाणं ॥ ४. तिपयारो सो अप्पा परमंतरबाहिरो हु देहीणं । तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवाएण चइवि बहिरप्पा ॥ ५. अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो । कम्मकलंक - विमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ॥ ६. मलरहिरो कलचत्तो अणिदिनो केवलो विसुद्धप्पा । परमेट्ठी परमजिणो सिवकरो सासो सिद्धो ॥ ७. प्रारुहवि अन्तरप्पा बहिरप्पा छंदिऊण तिविहेण । ___झाइज्जइ परमप्पा उवइटें जिणवरिंदेहि ।। ८. बहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरूवचुनो। _णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठीग्रो॥ ६. णियदेहसरिच्छं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण । अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभावेण ॥ १०. सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं । सुयदाराईविसए मणुयाणं वड्डए मोहो । ११. मिच्छाणाणेसु रो मिच्छाभावेण भावियो संतो । मोहोदएण पुणरवि अंग सं मण्णए मणुप्रो । १२. जो देहे णिरवेक्खो णिइंदो णिम्ममो णिरारंभो। आदसहावे सुरो जोई सो लहइ णिव्वाणं । १३. परदव्वरो बज्झदि विरो मुच्चेइ विविहकम्मेहिं । एसो जिणउवदेसो समासदो बंधमुक्खस्स ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्खपाहुड १४. सहव्वरो सवणो सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण । सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माई ।। १५. जो पुण परदव्वरो मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहू । मिच्छत्तपरिणदो पुण बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं । १६. परदव्वादो दुग्गई सव्वादो ह सुग्गई होइ । इय णाऊण सदव्वे कुणह रई विरइ इयरम्मि ।। १७. प्रादसहावादण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवदि । तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरिसोहिं । दुट्ठट्ठकम्मरहियं प्रणोवमं णाणविग्गहं णिच्चं । सुद्धं जिणे हिं कहियं अप्पाणं हवदि सद्दव्वं ॥ १६. जे झायंति सदव्वं परदव्वपरम्मुहा दु सुचरिता । ते जिणवराण मग्रो अणु लग्गा लहहिं णिव्वाणं ॥ २०. जिणवरमएण जोई झाणे झाएइ सुद्धमप्पाणं । जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ किं तेण सुरलोयं ।। २१. जो जाइ जोयणसयं दियहेणेक्केण लेवि गुरुभारं । सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जाउ भुवणयले ॥ २२. जो कोडिए ण जिप्पइ सुहडो संगामएहिं सव्वेहिं । सो किं जिप्पइ इक्कि णरेण संगामए सुहडो॥ २३. सग्गं तवेण सव्वो वि पावए तहिं वि झाणजोएण । जो पावइ सो पावइ परलोए सासयं सोक्खं ।। २४. अइसोहणजोएणं सुद्धं हेमं हवेइ जह तह य । कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पो हवदि ।। २५. वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं । छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ।। २६. जो इच्छइ णिस्सरिदुं संसारमहण्णवाउ रुदायो । कम्मिधणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद्धं ।। , सव्वे कसाय मोतं गारवमयरायदोसवामोहं । लोयववहार - विरदो अप्पा झाएह झाणत्थो ।। २८. मिच्छतं अण्णाणं पावं पुण्णं चएवि तिविहेण । मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा ।। २६. जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सव्वहा । ___ जाणगं दिस्सदे णेव तम्हा जंपेमि केण हं।। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ चित्त-समाधि : जन योग ३०. सव्वासवणिरोहेण कम्म खवदि संचिदं । जोयत्थो जाणए जोई जिणदेवेण भासियं । ३१. जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे । ३२. इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं । झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदेहिं ।। ३३. पंच महव्वयजुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सया कुणह ।। ३४. रयणत्तयमाराहं जोवो पाराहप्रो मुणेयव्वो । आराहणाविहाणं तस्स फलं केवलं णाणं ।। सिद्धो सुद्धो अादा सव्वणहू सव्वलोयदरिसी य। सो जिणवरेहिं भणियो जाण तुमं केवलं णाणं ॥ ३६. रयणतयं पि जोई अाराहइ जो हु . जिणवरभएण । सो झायदि अप्पाणं परिहरइ परं ण संदेहो ॥ ३७. जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं । तं चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं । ३८. तच्चरुई सम्मत्तं तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं । चारित्तं परिहारो परूवियं जिणवरिंदेहिं ॥ ३६. दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं । दंसणविहीणपुरिसो ण लहइ तं इच्छियं लाहं ।। ४०. इय उवएसं सारं जरमरणहरं खु मण्णए जं तु। तं सम्मत्तं भणियं समणाणं सावयाणं पि॥ ४१. जीवाजीवविहत्ती जोई जाणेइ जिणवरमएणं । तं सण्णाणं भणियं अवियत्थं सव्वदरसीहिं । जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं । तं चारित्तं भणियं अवियप्प कम्मरहिएहिं ।। ४३. जो रयणत्तयजुत्तो कुणइ तवं संजदो ससत्तीए । सो पावइ परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं ।। ४४. तिहि तिण्णि धरवि णिच्चं तिय रहिरो तह तिएण परियरियो। दोदोस विप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई।। ४५. मयमायकोह-रहिनो लोहेण विवज्जियो य जो जीवो । णिम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तमं सोक्खं । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ मोक्खपाहुड ४६. विसयकसायेहि जुदो रुद्दो परमप्पभावरहियमणो। सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो॥ ४७. जिणमुदं सिद्धिसुहं हवेइ णियमेण जिणवरुद्दिठें । सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे ॥ ४८. परमप्पय झायंतो जोई मुच्चेइ मलदलोहेण । णादियदि णवं कम्मं णिठ्ठि जिणवरिंदेहि ॥ ४६. होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेण भावियमईयो। झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई। ५०. चरणं हवइ सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो । सो रागरोसरहिनो जीवस्स अणण्णपरिणामो । ५१. जह फलिहमणि विसुद्धो परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो । तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्णविहो ।। ५२. देवगुरुम्मि य भत्तो साहम्मियसंजदेसु अणुरत्तो । सम्मत्तमुब्वहंतो माणरओ होदि जोई सो॥ ५३. उग्गतवेणण्णाणी जं कम्म खवदि भवहि बहुएहिं । तं पाणी तिहि गुत्तो खवेइ अंतोमुहुत्तेण ॥ ५४. सुहजोएण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदो साहू । सो तेण दु अण्णाणी गाणी एत्तो दु विवरीयो । ५५. पासवहेदू य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि । सो तेण दु अण्णाणी पादसहावा दु विवरीदु॥ ५६. जो कम्मजादमइनो सहावणाणस्स खंडदूसयरो । सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो॥ ५७. णाणं चरित्तहीणं दंसणहीणं तवेहिं संजुत्तं । अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं ॥ ५८. अच्चेयणं पि चेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी । सो पुण णाणी भणियो जो मण्णइ चेयणे चेदा ॥ ५६. तवरहियं जं णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो । तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं । ६०. धवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइतवयरणं । __णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णाणजुत्तो वि ॥ ६१. बाहिरलिंगेण जुदो अभंतरलिंगरहियपरियम्मो । ___सो सगचरित्तभट्ठो मोक्खपहविणासगो साहू ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ चित्त-समाधि : जेन योग ६२. सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि । तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए । ६३. अाहारासणणिद्दाजयं च काऊण जिणवरमएण । झायव्बो णियअप्पा णाऊणं गुरुपसाएण ।। ६४. अप्पा चरित्तवंतो दंसणणाणेण संजुदो अप्पा । सो झायव्वो णिच्चं णाऊणं गुरुपसाएण ॥ ६५. दुक्खे णज्जइ अप्पा अप्पा णाऊण भावणा दुक्खं । भावियसहावपुरिसो विसयेसु विरच्चए दुक्खं ।। ६६. ताम ण णज्जइ अप्पा विसएसु णरो पवट्टए जाम । विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं ।। ६७. अप्पा णाऊण णरा केई सब्भोवभावपब्भट्टा । हिंडंति चाउरंग विसएसु विमोहिया मूढा ।। ६८. जे पुण विसयविरत्ता अप्पा णाऊण भावणासहिया । छंडंति चाउरंगं तवगुणजुत्ता ण संदेहो ।। ६६. परमाणुपमाणं वा परदव्वे रदि हवेदि मोहादो । सो मूढो अण्णाणी प्रादसहावस्स विवरीयो । ७०. अप्पा झायंताणं दंसणसुद्धीण दिढचरित्ताणं । होदि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं ।। ७१. जेण रागो परे दव्वे संसारस्स हि कारणं । तेणावि जोइणो णिच्चं कुज्जा अप्पे सभावणं ।। ७२. जिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य । सत्तूणं चेव बंधूणं चारित्त समभावदो॥ ७३. चरियावरिया वदसमिदिवज्जिया सुद्धभावपब्भट्टा । केई जंपंति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स ।। ७४. सम्मत्तणाणरहियो अभव्वजीवो हु मोक्खपरिमुक्को । संसारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ झाणस्स ।। ७५. पंचसु महव्वदेसु य पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । जो मूढो अण्णाणी ण हु कालो भणइ झाणस्स ।। ७६. भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स । तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी ॥ ७७. अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहहिं इंदत्तं । ___ लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुना णिव्वुदि जंति ।। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ मोक्खपाहुड ७८. जे पावमोहियमई लिंगं घेत्तण जिणवरिंदाणं । पावं कुणंति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ।। ७६. जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाही य जायणासीला । प्राधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि । ८०. णिग्गंथमोहमुक्का वावीसपरीसहा जियकसाया । पावारंभविमुक्का ते गहिया मोक्खमग्गम्मि । ८१. उद्धद्धमज्झलोये केई मज्झं ण अहयमेगागी । इय भावणाए जोई पावंति हु सासयं सोक्खं । ८२. देवगुरूणं भत्ता णिव्वेयपरंपरा विचितिता । झाणरया सुचरित्ता ते गहिया मोक्खमग्गम्मि । ८३. णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो । सो होदि हु सुचरित्तो जोई सो लहइ णि व्वाणं ।। ८४. पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदंसणसमग्गो । जो झायदि सो जोई पावहरो हवदि णिइंदो ।। ८५. एवं जिणेहि कहियं सवणाणं सावयाण पुण सुणसु । संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं । ८६. गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कंपं । तं झाणे झाइज्जइ सावय दुक्खक्खयट्ठाए । ८७. सम्मत्तं जो झायइ सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो । सम्मत्तपरिणदो उण खवेहि दुट्ठट्ठकम्माणि ।। ८८. किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले । सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ।। ८६. ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया । सम्मत्त सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं ।। ६०. हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे । णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्त ।। ६१. जहजायरूवरूवं सुसंजयं सव्वसंगपरिचत्त । लिंगं ण परावेक्खं जो मण्णइ तस्स सम्मत्त । ६२. कुच्छियदेवं धम्म कुच्छिलिंगं च वंदए जो दु । लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठो हवे सो हु॥ ६३. सपरावेक्खं लिंगं राई देवं असंजयं वन्दे । मण्णइ मिच्छादिट्ठी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ चित्त-समाधि : जैन योग ६४. सम्माइट्ठी सावय धम्म जिणदेवदेसियं कुणदि । विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो ॥ ६५. मिच्छादिट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहियो । जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो॥ ६६. सम्म गुण मिच्छ दोसो मणेण परिभाविऊण तं कुणसु । जं ते मणस्स रुच्चइ किं बहुणा पलविएणं तु॥ ६७. बाहिरसंगविमुक्को ण वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो । किं तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि अप्पसमभावं ।। १८. मूलगुणं छित्तण य बाहिरकम्मं करेइ जो साह । सो लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंगविराहगो णियदं ॥ ६६. किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि बहुविहं च खवणं तु। किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो।। १००. जदि पढदि बहु सुदाणि य ज दि काहिदि बहुविहं च चारित्तं । तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं ॥ १०१. वेरग्गपरो साहू परदव्वपरम्मुहो य जो होदि । संसारसुहविरत्तो सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो।। १०३. गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छिदो साहू । झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं ।। १०३. णविएहिं जं णविज्जइझाइज्जइ झाइएहि अणवरयं । थुव्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं मुणह ॥ १०४. अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेट्ठी । ते वि हु चिट्ठहि ादे तम्हा प्रादा हु मे सरणं ।। १०५. सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारितं हि सत्तवं चेव । चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा प्रादा हु मे सरणं ।। १०६. एवं जिणपण्णत्तं मोक्खस्स य पाहुडं सुभत्तीए । जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं ।। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार प्रथम-अधिकार १. वंदितु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गई पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुय केवलीभणियं ।। २. जोवो चरित्तदंसणणाण ट्ठिउ तं हि ससमयं जाण । पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं ॥ ३. एयत्तणिच्छयगमो समग्रो सव्वत्थ सुन्दरो लोए । बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होइ॥ ४. सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा। __ एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ।। ५. तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण । जदि दाएज्ज पमाणं चुक्किज्ज छलं ण घेतव्वं ॥ ६. णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणो दु जो भावो । ____ एवं भणंति सुद्धं णाप्रो जो सो उ सो चेव ।। ७. ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्तदंसणं णाणं । णवि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो । ८. जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ।। ९. जो हि सुएणहिगच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पईवयरा ।। १०. जो सुयणाणं सव्वं जाणइ सुयकेवलि तमाहु जिणा । णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुयकेवली तम्हा ।। ११. ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणयो । भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ।। १२. सुद्धो सुद्धादेसो णायन्वो परमभावदरिसीहिं । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे । १३. भूयत्थेणाभिगदा जीवाजोवा य पुण्णपावं च । पासवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ १४. ज पस्सदि अप्पाणं प्रबद्धपुट्ठे प्रणण्णयं णियदं । प्रविसेसमसंत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि || १५. जो पस्सदि अप्पाणं प्रबद्धपुट्ठे प्रणष्णमविसेसं । अपदेससन्तमज्भं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥ १६. दंसणणाणचरिताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । ताणि पुण जाणतिणि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो || १७. जह णाम को विपुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि । तो तं प्रणुचरदि पुणो प्रत्थत्थी प्रो पयत्तेण ॥ १८. एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सदव्वो । अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण ॥ १६. कम्मे णोकम्मम्हि य ग्रहमिदि ग्रहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव || २०. अहमेदं एदमहं अहमेद सम्हि प्रत्थि मम एदं । अण्णं जं परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा ॥ २१. आसि मम पुव्वमेदं एदस्स अहं पि श्रासि पुव्वं हि । होहिदि पुणो ममेदं एदस्स अहं पि होस्सामि || २२. एयत्तु प्रसंभूदं प्रादवियप्पं करेदि संमूढो । भूदत्थं जाणतो ण करेदि दु तं असंमूढो || २३. अण्णाणमोहिदमदी मज्झमिणं भणदि पुग्गलं दव्वं । बद्धमबद्ध च तहा जीवो बहुभावसंजुत्तो ॥ २४. सव्वण्हुणादिट्ठो जीवो उवप्रोगलक्खणो णिच्चं । कह सो पुग्गलदव्वीभूदो जं भणसि मज्झमिणं ॥ २५. जदि सो पुग्गलदव्वीभूदो जोवत्तमागदं इदरं । तो सत्तो वत्तुं जे मज्झमिणं पुग्गलं दव्वं ।। २६. जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंशुदी चेव । सव्वावि हवदि मिच्छा तेण दु यादा हवदि देहो || २७. ववहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्को । दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एकट्ठो ॥ २८. इणमण्णं जीवादो देहं पुग्गलमयं थुणित्तु मुणी । मणदि हु संयुदो वंदिदो मए केवली भयवं ॥ २६. तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो । केवलिगुणो थुणदि जो सो तच्च केवलिं थुणदि ॥ चित्त-समाधि : जैन योग Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ३०. णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे युव्वंते केवलिगुणा थदा होंति । ३१. जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधि ३५. जह णाम कोवि पुरिसो मुणदि प्रदं । तं खलु जिदिदियं ते भांति जे णिच्छिदा साहू || ३२. जो माहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणइ प्रदं । तं जिदमोहं साहु परमदुवियाणयाविति ॥ ३३. जिदमोहस्सदु जइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स । तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं ॥ ३४. सव्वे भावे जम्हा पच्चक्ख । ई परेति णादूणं । तम्हा पच्चक्खाणं गाणं णियमा मुणेयव्वं ॥ परदव्वमिति जाणिदुं चयदि । तह सव्वे परभावे णाऊण विमुञ्चदे णाणी ॥ ३६. णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवयोग एव श्रहमिक्को । तं मोहणिम्ममत्तं समयस्य वियाणया विंति । ३७. णत्थि मम धम्मप्रादी बुज्झदि उवयोग एव श्रहमिक्को । तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विति ॥ ३८. ग्रहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइस्रो सदारुवी । वि प्रत्थि मज्भ किंचि वि एणं परमाणु मित्तंपि ॥ ३६. अप्पाणमयाणंता मूढ़ा दु परप्पवादिणो केई । जीवं प्रभवसाणं कम्मं च तहा परूविति ॥ ४०. अवरे अज्भवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं । मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवो त्ति ॥ ४१. कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभायमिच्छति । तिव्वत्तणमंदत्तणगुणेह जो सो हवदि जीवो ॥ ४२. जीवो कम्मं उहयं दोणि वि खलु केइ जीवमिच्छति । अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छति ॥ ४३. एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा | परमट्टवाई णिच्छयवाइहिं णिद्दिट्ठा ॥ सव्वे भावा पुग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा । केवलिजिणेहि भणिया कह ते जीवो ति वुच्चति ॥ ४५. अट्ठविहं पिय कम्मं सव्वं पुग्गलमयं जिणाविति । जस्स फलं तं वच्चइ दुक्खं ति विपच्चमाणस्स || ण ४४. एए १६१ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. १९२ ४६. ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं । जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादप्रो भावा || ४७. राया हु णिग्गदो त्ति य एसो बलसमुदयस्स आदेसो | ववहारेण दु उच्चदि तत्थेको णिग्गदो राया ॥ यववहारो अज्भवसाणादिप्रण्णभावाणं । जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेको णिच्छिदो जीवो ॥ ४६. अरसमरूवमगंध अव्वत्तं एमेव चित्त-समाधि : जैन योग चेदणागुणमसं । लिंगग्गहणं जीवमणि ठाणं || जाण ५०. ५२. जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो । ण वि रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं ॥ ५१. जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो णेव विज्जदे मोहो । णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि ।। जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा णेव फड्ढया केई । णो अज्झप्पट्ठाणा णेव य अणुभायठाणाणि ॥ ५३. जीवस्स णत्थि केई जोयद्वाणा ण बंधठाणा वा । णेव य उदट्ठाणा ण मग्गणट्ठाणया केई ॥ ५४. णो ठिदिबंधद्वाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा । णेव विसोहिट्ठाणा पो संजमल द्विठाणा वा || ५५. णेव य जीवद्वाणा ण गुणट्ठाणा य प्रत्थि जीवस्स । जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा || ५६. ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया । गुणात भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स || ५७. एएहि य सम्बन्धो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो । णय हुंति तस्स ताणि दु उवप्रोगगुणाधिगो जम्हा || ५८. पंथे मुस्संतं परिसदूण लोगा भणति ववहारी । मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई ॥ ५६. तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो वण्णं । ६०. गंधरसफासरूवा हो उत्तो ॥ संठाण माइया जे य । णिच्छयदण्हू ववदिसंति ॥ संसारत्थाण होंति वण्णादी । णत्थि हु य वण्णाद केई ॥ सव्वे ववहारस्स ६१. तत्थ भवे जीवाणं संसारमुक्का Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ६२. जीवो चेव हि एदे सव्वे भावा त्ति मण्णसे जदि हि । जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई ॥ ६३. ग्रह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी । तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा ॥ ६४. एवं पुग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदि । णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं पुग्गलो पत्तो ॥ पंच इन्दिया जीवा । णामकम्मस्स ॥ करणभूदाहिं । भण्णदे जीवो || ६५. एक्कं च दोणि तिष्णि य चत्तारिय वादरपज्जत्तिदरा पडी ६६. एदाहि य णिव्वत्ता जीवद्वाणाउ पडीहि पुग्गलमइहिं ताहि कह ६७. पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा बादरा य जे चेव । जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता ॥ देहस्स ६८. मोहणकम्मस्सुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा । ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता ॥ १६३ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारंभिक वन्दनादि १. श्री आदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै येनोपदिष्टा हठयोगविद्या | विभ्राजते प्रोन्नतराजयोगमा रोढुमिच्छोरधिरोहिणीव || श्रीगुरुनाथं स्वात्मारामेण योगिना । विद्योपदिश्यते ॥ राजयोगाय २. प्रणम्य केवलं भ्रांत्या प्रदीपिकां ४. हठविद्यां स्वात्मारामोऽथवा ५. श्रीप्रादिनाथ ३. हठयोगप्रदीपिका प्रथम उपदेश चौरंगीमीनगोरक्ष ७. कानेरी कपाली ८. अल्लामः ६. इत्यादयो खंडयित्वा बहुमतध्वां धत्ते स्वात्मारामः हि ६. मंथानो भैरवो योगी सिद्धिर्बुद्धश्च कंथडिः । कोरंटकः सुरानंद: सिद्धिपादश्च चर्पटिः ॥ नित्यनाथो निरंजनः । काकचंडीश्रवराह्वयः । चोली च टिटिणिः । कापालिकस्तथा ॥ प्रभुदेवश्च घोडा भानुको नारदेवश्च खंड: महासिद्धा मत्स्येंद्र गोरक्षाद्या विजानते । योगी जानीते मत्प्रसादतः ॥ मत्स्येंद्र पूज्यपादश्च बिंदुनाथश्च १०. प्रशेषतापतप्तानां विरूपाक्ष राजयोगमजानताम् । कृपाकरः ॥ कालदंड ब्रह्मांडे अशेषयोगयुक्तानामाधार ११. हठविद्या परं गोप्या भवेद्वीर्यवती गुप्ता शाबरानंदभैरवाः । विलेशयाः ॥ हठयोगप्रभावतः । विचरंति ते ॥ समाश्रयमठो कमठो हठः । हठः ।। योगिना सिद्धिमिच्छता । निर्वीर्या तु प्रकाशिता ।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोगप्रदीपिका योग्यदेश एवं कुटी निर्माण १२. सुराज्ये धार्मिके देशे सुभिक्षे निरुपद्रवे । धनुः प्रमाणपर्यंतं शिलाग्निजलवजिते । एकांते __मठिकामध्ये स्थातव्यं हठयोगिना ।। १३. अल्पद्वारमरंध्रगर्त विवर नात्युच्चनीचायतं । । । सम्यग्गोमयसांद्र लिप्तममलं निःशेषजंतूज्झितम् ।। बाह्य मंडपवेतकपरुचिरं __प्राकारसवेष्टितं । प्रोक्तंयोगमठस्यलक्षणमिदं सिद्धैर्हठाभ्यासिभिः ॥ १४. एवंविधे मठे स्थित्वा सर्वचिंताविवजितः । गुरूपदिष्टमार्गेण योगमेव समभ्यसेत् ॥ १५. अत्याहारः प्रयासश्च प्रजल्पो नियमग्रहः ॥ जनसङ्गश्च लौल्यं च षड्भिर्योगो विनश्यति ॥ १६. उत्साहात्साहसाद्धैर्यात्तत्वज्ञानाच्च निश्चयात् । जनसंगपरित्यागात्षभिर्योगः प्रसिद्धयति ॥ यम-नियम वर्णन १७. अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य क्षमा तिः । दयार्जवं मिताहारः शौचं चैव यमा दश ॥ १८. तपः सन्तोष आस्तिक्यं दानमीश्वरपूजनम् । सिद्धान्तवाक्यश्रवणं हरीमती च तपो हुतम् । नियमा दश संप्रोक्ता योगशास्त्र विशारदैः ।। १६. हठस्य प्रथमाङ्गत्वादासनं पूर्वमुच्यते । कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चांगलाघवम् ।। प्रासनादि कथन २०. वसिष्ठाद्यैश्च मुनिभिर्मत्स्येन्द्राद्यैश्च योगिभिः । मङ्गोकृतान्यासनानि कथ्यन्ते कानिचिन्मया ॥ स्वस्तिक प्रासन २१. जानूर्वोरंतरे सम्यक्कृत्वा पादतले उभे । ___ऋजुकायः समासीनः स्वस्तिकं तत्प्रचक्षते ॥ गोमुख मासन २२. सव्ये दक्षिणगुल्फ तु पृष्ठपार्श्व नियोजयेत् । दक्षिणेऽपि तथा सव्यं गोमुखं गोमुखाकृति ः ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जन योग वीरासन २३. एक पादं तथैकस्मिन्विन्यसेदुरुणि स्थितम् । इतरस्मिस्तथा चोरु वीरासनमितीरितम् ॥ कूर्मासन २४. गुदं निरुद्धय गुल्फाभ्यां व्युत्क्रमेण समाहितः । ___ कूर्मासनं भवेदेतदिति योगविदो विदुः ॥ कुक्कुटासन २५. पद्मासनं तु संस्थाप्य जानोरंतरे करौ । निवेश्य भूमौ संस्थाप्य व्योमस्थं कुक्कुटासनम् ॥ उत्तान कूर्मासन २६. कुक्कुटासनबंधस्थो दोभ्यां संबध्य कन्धराम् । ___ भवेत्कर्मवदुत्तान एतदुत्तानकूर्मकम् ॥ धनुरासन २७. पादांगुष्ठौ तु पाणिभ्यां गृहीत्वा श्रवणावधि । धनुराकर्षणं कुर्याद्धनुरासनमुच्यते ॥ मत्स्येन्द्रासन २८. वामोरुमूलार्पितदक्षपाद जानो बहिर्वेष्टितवामपादम् । प्रगृह्य तिष्ठेत्परिवर्तिताङ्गः श्रीमत्स्यनाथोदितमासनं स्यात् ॥ २६. मत्स्येंद्रपीठं जठरप्रदीप्ति प्रचंडरुग्मंडलखंडनास्त्रम् । ___ अभ्यासतः कुंडलिनीप्रबोधं चंद्रस्थिरत्वं च ददाति पुंसाम् ।। पश्चिमतान प्रासन ३०. प्रसार्य पादौ भुवि दंडरूपौ दोभ्यां पदाग्रद्वितयं गृहीत्वा । जानूपरिन्यस्तललाटदेशो वसेदिदं पश्चिमतानमाहुः ।। ३१. इति पश्चिमतानमासनायं पवनं पश्चिमवाहिनं करोति । उदयं जठरानलस्य कुर्यादुदरे कार्यमरोगतां च पुंसाम् । मायूरासन ३२. धरामवष्टभ्य करद्वयेन तत्कूपरस्थापितनाभिपार्श्व: । उच्चासनो दंडवदुत्थितः स्यान्मायूरमेतत्प्रवदंति पीठम् ॥ ३३. हरति सकलरोगानाशु गुल्मोदरादी नभिभवति च दोषानासनं श्रीमयूरम् । बहु कदशनभुक्तं भस्म कुयदिशेषं जनयति जठराग्नि जारयेत्कालकूटम् ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोगप्रदीपिका शवासन ३४. उत्तानं शवासनं ३५. चतुरशीत्यासनानि तेभ्यश्चतुष्क मादाय शववद्भूमौ श्रांतिहरं सर्वश्रेष्ठ चार श्रासन ३६. सिद्धं पद्मं तथा सिहं श्रेष्ठं तत्रापि च सुखे मुख्यं सर्वासनेष्वेकं ४१. चतुरशीतिपीठेषु द्वासप्ततिसहस्राणां ४२. आत्मध्यायी सिद्धासन ३७. योनिस्थानक मंत्रिमूलघटितं कृत्वा दृढं पादमथैकमेव हृदये कृत्वा हनुं स्थाणुः संयमितेन्द्रियोऽचलदृशा पश्येद् तन्मोक्षकपाट-भेदजनकं सिद्धासनं विन्यस्य सव्यं गुल्फं गुल्फांतरं च निक्षिप्य सिद्धासनमिदं ३६. एतत्सिद्धासनं मुक्तासनं ३८. मेादुपरि ४०. यमेष्विव ४३. किमन्यैर्बहुभिः ४४. उत्पद्यते शिवेन प्राहुरन्ये वदन्त्ये के प्राणानिले सावधाने शयनं तच्छवासनम् । चित्तविश्रांतिकारकम् ।। कथितानि च । ब्रवीम्यहम् ॥ सारभूतं मिताहारी सदा सिद्धासनाभ्यासाद्योगी भद्रं चेति तिष्ठेत्सिद्धासने मिताहारमहंसां तथैकस्मिन्नेव दृढे सिद्धे बंधत्रयमनायासात् सिद्धमेव नाडीनां ४५. नासनं सिद्धसदृशं न न खेचरीसमा मुद्रा वज्रासनं प्राहुर्गुप्तासनं नियमेष्विव । सिद्धाः सिद्धासनं विदुः ॥ निरायासात्स्वयमेवोन्मनी चतुष्टयम् । सदा ॥ विन्यसेन्मेन्द्रे सुस्थिरम् । ध्रुवोरंतरं प्रोच्यते ॥ पीठैः सिद्धे सिद्धासने सति । बद्धे केवल कुंभके ॥ सिद्धासने थोपरि । भवेत् ।। विदुः । परे ॥ यावद्द्वादशवत्सरम् । निष्पत्तिमाप्नुयात् ॥ सदाभ्यसेत् । मलशोधनम् ।। कला । सति स्वयमेवोपजायते ॥ कुंभ: केवलोपमः । न नादसदृशो लयः ॥ १६७ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ चित्त-समाधि : जैन योग पद्मासन ४६. वामोरूपरि दक्षिणं च चरणं संस्थाप्य वामं तथा । दक्षोरूपरि पश्चिमेन विधिना धृत्वा कराभ्यां दृढम् ॥ अंगुष्ठौ हृदये निधाय चिबुकं नासाग्रमालोकये देतद्वयाधिविनाशकारि यमिनां पद्मासनं प्रोच्यते ॥ ४७. उत्तानो चरणौ कृत्वा ऊरुसंस्थौ प्रयत्नतः । ऊरुमध्ये तथोत्तानौ पाणी कृत्वा ततो दृशौ । ४८. नासाग्रे विन्यसेद्राजदंतमूले तु जिह्वया । उत्तंभ्य चिबुकं वक्षस्युत्थाप्य पवनं शनैः । ४६. इदं पद्मासनं प्रोक्तं सर्वव्याधिविनाशनम् । दुर्लभं येन केनापि धीमता लभ्यते भुवि । ५०. कृत्वा संपुटितौ करौ दृढतरं बद्ध्वा तु पद्मासनं गाढं वक्षसि सन्निधाय चिबुकं ध्यायंश्च तच्चेतसि । वारम्वारमपानमूर्ध्वमनिलं प्रोत्सारयन्पूरितं न्यंचन्प्राणमुपैति बोधमतुलं शक्ति-प्रभावान्नरः ॥ ५१. पद्मासने स्थितो योगी नाडीद्वारेण पूरितम् । मारुतं धारयेद्यस्तु स मुक्तो नात्र संशयः ॥ सिंहासन ५२. गुल्फौ च वषणस्याधः सीवन्याः पार्श्वयोः क्षिपेत् । दक्षिणे सव्यगुल्फ तु दक्षगुल्फ तु सव्यके ।। ५३. हस्तौ तु जान्वोः संस्थाप्य स्वांगुली: संप्रसार्य च । व्यात्तवक्रो निरीक्षेत नासाग्रं सुसमाहितः ।। ५४. सिंहासनं भवेदेतत्पूजितं योगिपुङ्गवैः । बन्धत्रितयसंधानं कुरुते चासनोत्तमम् ॥ भद्रासन ५५. गुल्फौ च वृषणस्याध: सीवन्याः पार्श्वयोः क्षिपेत् । सव्यगुल्फ तथा सव्ये दक्षगुल्फ तु दक्षिणे ॥ ५६. पार्श्वपादौ च पाणिभ्यां दृढं बद्ध्वा सुनिश्चलम् । भद्रासनं भवेदेतत्सर्वव्याधि विनाशनम् ॥ ५७. गोरक्षासनमित्याहुरिदं वै सिद्धयोगिनः । एवमासनबंधेषु ___ योगींद्रो विगतश्रमः ।। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोगप्रदीपिका ५८. अभ्यसेन्नाडिकाशुद्धि मुद्रादिपवनक्रियाम् । आसनं कुंभक चित्रं मुद्राख्यं करणं तथा ।। ५६. अथ नादानुसंधान- मभ्यासानुक्रमो हठे । ब्रह्मचारी मिताहारी त्यागी योगपरायणः ।। अब्दादूवं भवेत्सिद्धो नात्रकार्या विचारणा । ६०. सुस्निग्धमधराहारश्चतुर्थांश विवजितः । भुज्यते शिवसंप्रीत्यै मिताहारः स उच्यते ॥ ६१. कट्वम्लतीक्ष्ण- लवणोष्ण- हरीत- शाकसौवीरतैलतिल सर्षपमद्यमत्स्यान् । प्राजादिमांसदधितक्रकुलत्थ कोलपिण्याकहिंगु लशुनाद्यमपथ्यमाहु॥ ६२. भोजनम हितं विद्यात्पुनरस्योष्णीकृतं रूक्षम् । अतिलवणमम्लयुक्तं कदशनशाकोत्कटं वय॑म् ।। ६३. वह्निस्त्रीपथिसेवानामादौ वर्जनमाचरेत् ॥ योगियों को पथ्याहार ६४. गोधूमशालियवषाष्टिक शोभनान्नंक्षीराज्यखण्डनवनीत सितामधनि । शंठी- पटोलक- फलादिक- पंचशाकमुद्गादि दिव्यमुदकं च यमींद्रपथ्यम् । ६५. पुष्टं सुमधुरं स्निग्धं गव्यं धातुप्रपोषणम् । मनोभिलषितं योग्यं योगी भोजनमाचरेत् ॥ ६६. युवा वृद्धोऽति वृद्धो वा व्याधितो दुर्बलोऽपि वा । अभ्यासात्सिद्धिमाप्नोति सर्वयोगेष्वतंद्रितः ।। ६७. क्रिया युक्तस्य सिद्धिः स्यादक्रियस्य कथं भवेत् । न शास्त्रपाठमात्रेण योगसिद्धिः प्रजायते ॥ ६८. न देषधारणं सिद्धेः कारणं न च तत्कथा । क्रियैव कारणं सिद्धेः सत्यमेतन्न संशयः ।। ६६. पीठानि कुम्भकाश्चित्रा दिव्यानि करणानि च । सर्वाण्यपि हठाभ्यासे राजयोगफलावधि ।। द्वितीय उपदेश प्राणायाम १. अथासने दृढ़े योगी वशी हितमिताशनः । गुरूपदिष्टमार्गेण प्राणायामान्समभ्यसेत् ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० चित्त-समाधि : जैन योग २. चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत् । ___योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत् ।। ३. यावद्वायुः स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते । ___ मरणं तस्य निष्क्रांतिस्ततो वायुं निरोधयेत् ।। मलशोधन की महत्ता ४. मलाकुलासु नाडीष मारुतो नैव मध्यगः । ___कथं स्यादुन्मनीभावः कार्य सिद्धिः कथं भवेत् ॥ ५. शुद्धिमेति यदा सर्वं नाडीचक्र मलाकुलम् । तदैव जायते योगी प्राणसंग्रहणे क्षमः ।। ६. प्राणायामं ततः कुर्यान्नित्यं सात्त्विकया धिया । यथा सुषुम्नानाडीस्था मला: शुद्धि प्रयांति च ॥ ७. बद्धपद्मासनो योगी प्राणं चंद्रेण पूरयेत् । धारयित्वा यथाशक्तिः भूयः सूर्येण रेचयेत् ।। ८. प्राणं सूर्येण चाकृष्य पूरयेदुदरं शनैः । विधिवत्स्तंभकं कृत्वा पुनश्चंद्रण रेचयेत् । है. येन त्यजेत्तेन पीत्वा धारयेदतिरोधतः । रेचयेच्च ततोऽन्येन शनैरेव न वेगतः ।। प्राणायाम का अवान्तर फल १०. प्राणं चेदिडया पिबेन्नियमितं भूयोऽन्यया रेचयेत् पीत्वा पिंगलया समीरणमथो बद्ध्वा त्यजेद्वामया । सूर्याचंद्रमसोरनेन विधिनाभ्यासं सदा तन्वतां, शुद्धा नाडिगणा भवंति यमिनां मासत्रयादूर्ध्वतः॥ ११. प्रातमध्यंदिने सायमर्धरात्रे च कुंभकान् । शनैरशीतिपर्यंतं चतुर्वारं समभ्यसेत् । १२. कनीयसि भवेत्स्वेदः कंपो भवति मध्यमे । उत्तमे स्थानमाप्नोति ततो वायुं निबन्धयेत् ।। १३. जलेन श्रमजातेन गात्रमर्दनमाचरेत् । दृढ़ता लघुता चैव तेन गात्रस्य जायते ॥ १४. अभ्यासकाले प्रथमे शस्तं क्षीराज्यभोजनम् । ततोऽभ्यासे दृढ़ीभूते न तादृङ् नियमग्रहः ।। १५. यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः । तथैव सेवितो वायुरन्यथा हंति साधकम् ।। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोगप्रदीपिका २०१ युक्तायुक्त प्राणायाम फल १६. प्राणायामादियुक्तेन सर्वरोगक्षयो भवेत् । आयुक्ताभ्यासयोगेन सर्वरोगसमुद्भवः ॥ १७. हिक्का श्वासश्च कासश्च शिरः कर्णाक्षिवेदनाः । भवंति विविधा रोगाः पवनस्य प्रकोपतः ।। १८. युक्तं युक्तं त्यजेद्वायु युक्तं युक्तं च पूरयेत् । युक्तं युक्तं च वध्नीयादेवं सिद्धिमवाप्नुयात् ।। १६. यदा तु नाडीशुद्धिः स्यात्तथा चिह्नानि बाह्यतः । कायस्य कृशता कांतिस्तदा जायेत निश्चितम् ।। २०. यथेष्टधारणं वायोरनलस्य प्रदीपनम् । नादाभिव्यक्तिरारोग्यं जायते नाडिशोधनात् ।। २१. मेदः श्लेष्माधिकः पूर्वं षट्कर्माणि समाचरेत । अन्यस्तु नाचरेत्तानि दोषाणां समभावतः ।। २२. धौतिर्ब स्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा । कपालभातिश्चैतानि षट् कर्माणि प्रचक्षते ॥ २३. कर्मषटकमिदं गोप्यं घटशोधनकारकम् । विचित्रगुणसंधायि पूज्यते । योगिपुंगवैः ।। धौति-कर्म २४. चतुरंगुलविस्तारं हस्तपंचदशायतम् । गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्ग्रसेत् ॥ पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं धौति कर्म तत् ॥ २५. कासश्वासप्लीहकुष्ठं कफरोगाश्च विंशतिः । धौतिकर्मप्रभावेन प्रत्यांत्येव न संशयः ॥ बस्ति कर्म २६. नाभिदघ्नजले पायौ त्यस्तनालोत्कटासनः । आधाराकुञ्चनं कुर्यात्क्षालनं वस्तिकर्म तत् ।। २७. गुल्मप्लीहोदरं चापि वातपित्तकफोद्भवाः । बस्तिकर्मप्रभावेन क्षीयते सकलामयाः ॥ २८. धात्विद्रियांतःकरणप्रसादं दद्याच्च कांति दहनप्रदीप्तिम् । अशेषदोषोपचयं निहन्यादभ्यस्यमानं जलवस्तिकर्म ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ चित्त-समाधि : जैन योग नेति कर्म २६. सूत्रं वितस्ति सुस्निग्धं नासानाले प्रवेशयेत् । मुखान्निर्गमयेच्चैषा नेतिः सिद्धैनिगद्यते ॥ ३०. कपालशोधिनी चैव दिव्यदृष्टिप्रदायिनी । जजातरोगौघं नेतिराशु लिहंति च ॥ त्राटक कर्म ३१. निरीक्षेन्निश्चलदशा सूक्ष्मलक्ष्य समाहितः । अश्रुसंपातपर्यन्तमाचार्यैस्त्राटकं स्मृतम् ।। ३२. मोचनं नेत्ररोगाणां तंद्रादीनां कपाटकम् । __ यत्नतस्त्राटकं गोप्यं यथा हाटकपेटम् ॥ नौलि कर्म ३३. अमंदावर्तवेगेण सव्यापसव्यतः । नतांसो भ्रामयेदेषा नौलि: सिद्धैः प्रचक्ष्यते । ३४. मंदाग्निसंदीपनपाचनादिसंधापिकानंदकरी सदैव । अशेषदोषामयशोषणी च हठक्रिया मौलिरियं च नौलिः ॥ कपालभाति कर्म ३५. भस्त्रावल्लोहकारस्य रेचपूरौ ससंभ्रमौ । कपालभातिविख्याता कफदोषविशोषणी॥ ३६. षट्कर्मत्रिर्गतस्थौल्यकफ- दोष- मलादिकः । प्राणायामं ततः कुर्यादनायासेन सिद्धयति ।। ३७. प्राणायामैरेव सर्वे प्रशुष्यंति मला इति । आचार्याणां तु केषांचिदन्यत्कर्म न संमतम् ॥ गजकरणी ३८. उदरगतपदार्थमुद्वमंति पवनमपानमुदीर्य कंठनाले । क्रमपरिचय वश्यनाडिवक्रा गजकरणीति निगद्यते हठज्ञैः ॥ ३६. ब्रह्मादयोऽपि त्रिदशाः पवनाभ्यासतत्पराः । अभूवन्नतक भयात्तस्मात्पवनमभ्यसेत् ॥ ४०. यावद्बद्धो मरुद्देहे यावच्चित्तं निराकुलम् । ___यावद्दष्टिभ्रंवोर्मध्ये तावत्कालभयं कुतः ॥ सुषुम्ना में सुखपूर्वक वायु प्रवेश ४१. विधिवत्प्राणसंयामैर्नाडीचके विशोधिते । सुषुम्नावदनं भित्त्वा सुखा द्विशति मारुतः ।। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोगप्रदीपिका २०३ ४२. मारुते मध्यसंचारे मनः स्थैर्य प्रजायते । यो मनः सुस्थिरीभावः सैवावस्था मनोन्मनी ॥ ४३. तत्सिद्धये विधानज्ञाश्चित्रान्कुर्वन्ति कुंभकान् । विचित्र- कुंभकाभ्यासाद्विचित्रां सिद्धिमाप्नुयात् ॥ कुंभक के भेद ४४. सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतली तथा । भस्त्रिका भ्रामरी मूर्छा प्लाविनीत्यष्टकुम्भकाः ।। ४५. पूरकांते तु कर्तव्यो बंधो जालंधरामिधः । कुंभकांते रेचकादौ कर्तव्यस्तूड्डियानकः ॥ ४६. अधस्तात्कुंचनेनाशु कंठसंकोचने कृते । मध्ये पश्चिमतानेन स्यात्प्राणो ब्रह्मनाडिगः । ४७. अपानमूर्ध्वमुत्थाप्य प्राणं कंठादधो नयेत् । योगी जराविमुक्तः सन्षोडशाब्दवयो भवेत् ॥ सूर्यभेदन कुम्भक ४८. आसने सुखदे योगी बद्ध्वा चैवासनं ततः । दक्षनाड्या समाकृष्य बहिःस्थं पवनं शनैः ॥ ४६. प्राकेशादानखानाच्च निरोधावधि कुंभयेत् । ततः शनैः सव्यनाड्या रेचयेत्पवनं शनैः ।। ५०. कपालशोधनं वातदोषघ्नं कृमिदोषहृत् । पुनरिदं कार्यं सूर्यभेदमुत्तमम् ।। उज्जायी कुम्भक ५१. मुखं संयम्य नाडीभ्यामाकृष्य पवनं शनैः । यथा लगति कंठात्तु हृदयावधि सस्वनम् ॥ ५२. पूर्ववत्कं भयेत्प्राणं रेचयेदिडया ततः । श्लेष्म- दोषहरं कंठे देहानलविवर्धनम् ॥ ५२. नाडीजलोदराधातुगतदोष विनाशनम् । गच्छता तिष्ठता कार्यमुज्जाय्याख्यं तु कुंभकम् ॥ सीत्कारी कुम्भक ५४. सीत्कां कुर्यात्तथा वक्रे घ्राणेनैव विज भिकाम् । __ एवमभ्यासयोगेन कामदेवो द्वितीयकः ॥ ५५. योगिनीचक्रसामान्य सष्टिसंहारकारकः । न क्षुधा न तृषा निद्रा नैवालस्यं प्रजायते ॥ पुनः Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ चित्त-समाधि : जैन योग ५६. भवेत्सत्त्वं च देहस्य सर्वोपद्रवजितः । अनेन विधिना सत्यं योगींद्रो भूमिमण्डले ॥ शीतली कुम्भक ५७. जिह्वया वायुमाकृष्य पूर्ववत्कुंभसाधनम् । शनकैर्घाणरंध्राभ्यां रेचयेत्पवनं सुधीः ।। ५८. गुल्मप्लीहादिकानोगावरं पित्तं क्षुधां तषाम् । विषाणि शीतली नाम कुंभिकेयं निहंति हि ।। भस्त्रिका कुम्भक ५६. ऊर्वोरुपरि संस्थाप्य शुमे पादतले उभे । पद्मासनं भवेदेतत्सर्वपापप्रणाशनम् ।। ६०. सम्यक्पद्मासनं बद्ध्वा समग्रीवोदरं सुधीः । मुखं संयम्य यत्नेन प्राणं घ्राणेन रेचयेत् ॥ ६१. यथा लगति हत्कंठे कपालावधि सस्वनम् । वेगेन पूरयेच्चापि हृत्पद्मावधि मारुतम् ।। ६२. पुनविरेचयेत्तद्रत्पूरयेच्च पुनः पुनः । यथैव लोहकारेण भस्त्रा वेगेन चाल्यते ॥ ६३. तथैव स्वशरीरस्थं चालयेत्पवनं धिया । यदा श्रमो भवेद्देहे तदा सूर्येण पूरयेत् ।। ६४. यथोदरं भवेत्पूर्णमनिलेन तथा लघ । धारयेन्नासिकां मध्यातर्जनीभ्यां विना दृढ़म् ॥ ६५. विधिवत्कुम्भकं कृत्वा रेचयेदिडयानिलम् ।। वातपित्तश्लेष्महरं शरीराग्निविवर्धनम् ।। ६६. कुंडलीबोधक क्षिप्रं पवनं सुखदं हितम् । ब्रह्मनाडीमुखे संस्थकफाद्यर्गलनाशनम् ।। ६७. सम्यग्गात्रसमुद्भूतं ग्रन्थित्रयविभेदकम् । विशेषणैव कर्तव्यं भस्त्राख्यं कुम्भकं त्विदम् ॥ भ्रामरी कुंभक ६८. वेगाद्घोषं पूरकं भृङ्गनादं रेचकं मंदमंदम् । ___ योगींद्राणामेवसभ्यासयोगाच्चित्ते जाता काचिदानंदलीला ॥ मूर्छा कुंभक ६६. पूरकांते गाढतरं वद्ध्वा जालंधरं शनैः । रेचयेन्मूर्च्छनाख्येयं मनोमूर्छा सुखप्रदा॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोगप्रदीपिका २०५ प्लावनी कुंभक ७०. अन्तः प्रवर्तितोदार- मारुतापूरितोदरः । पयस्यगाधेऽपि सुखात्प्लवते पद्मपत्तवत् ।। प्राणायाम के भेद ७१. प्राणायामस्त्रिधा प्रोक्तो रेचपूरककुम्भकैः । सहितः केवलश्चेति कुम्भको द्विविधो मतः ॥ ७२. यावत्केवलसिद्धिः स्यात्सहितं तावदभ्यसेत् । रेचकं पूरकं मुक्त्वा सुखं यद्वायुधारणम् ।। ७३. प्राणायामोऽयमित्युक्तः सः वै केवलकुम्भकः । कुम्भके केवले सिद्धे रेचपूरकजिते ।। ७४. न तस्य दुर्ल किंचित्रिषु लोकेषु विद्यते । शक्तः केवलकुम्भेन यथेष्टं वायुधारणात् ।। ७५. राजयोगपदं चापि लभते नात्र संशयः । कुंभकात्कुंडलीबोधः कुंडलीबोधतो भवेत् ।। ७६. अनर्गला सुषुम्ना च हठसिद्धश्च जायते । हठं विना राजयोगं राजयोगं बिना हठः ।। न सिध्यति ततो युग्ममानिष्पत्तेः समभ्यसेत् ।। ७७. कुंभकप्राणरोधांते कुर्याच्चित्तं निराश्रयम् । एवमभ्यासयोगेन राजयोगपदं व्रजेत् ।। ७८. वपुः कृशत्वं वदने प्रसन्नता, नादस्फुटत्वं नयने सुनिर्मले । अरोगता बिंदुजयाऽग्निदोपनं, नाडोविशुद्धिर्हठयोगलक्षणम् ।। । तृतीय उपदेश कुंडली बोध १. सशैलवनधात्रीणां यथाधारोऽहिनायकः । सर्वेषां योगतंत्राणां तथाधारो हि कुंडलो ॥ २. सुप्ता गुरुप्रसादेन यदा जागति कुण्डली । तदा सर्वाणि पद्मानि भियंते ग्रन्थयोऽपि च ॥ सुषुम्ना के पर्याय ३. प्राणस्य शन्यपदवी तथा राजपथायते । तदा चित्तं निरालंबं तदा कालस्य वंचनम् ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ चित्त-समाधि : जैन योग ४. सुषुम्ना शून्यपदवी ब्रह्मरधं महापथः । श्मशान शांभवी मध्यमार्गश्चेत्येकवाचकाः ।। ५. तस्मात्सर्वप्रयत्नेन प्रबोधयितुमीश्रीम् । ब्रह्मद्वारमुखे सुप्तां मुद्राभ्यासं समाचरेत् ।। ६. महामुद्रा महाबंधो महावेधश्च खेचरी । उड्यानं मूलबंधश्च बंधो जालं धराभिधः ॥ ७. करणी विपरीताख्या वाढोलो शक्तिचालनम् । इदं हि मुद्रादशकं जरामरणनाशनम् ॥ ८. आदिनाथोदितं दिव्यमष्टैश्वर्यप्रदायकम् । वल्लभं सर्वसिद्धानां दुर्लभं मरुतामपि ॥ ६. गोपनीयं प्रयत्नेन यथा रत्नकरंडकम् । कस्यचिन्नैव वक्तव्यं कुलस्त्रीसुरतं यथा ॥ महामुद्रा १०. पादमूलेन वामेन योनि संपीड्य दक्षिणम् । प्रसारितं पदं कृत्वा धराभ्यां धारयेद्रढम् ।। ११. कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूलतः । ___ यथा दंडहतः सो दंडाकारः प्रजायते ।। १२. ऋज्वीभूता तथा शक्तिः कुण्डली सहसा भवेत् । तदा सा मरणावस्था जायते द्विपुटाश्रया ।। १३. ततः शनैः शनैरेव रेचयेन्नैव वेगतः । महामुद्रां च तेनैव वन्दति विबुधोत्तमाः ।। १४. इयं खलु महामुद्रा महासिद्धैः प्रदर्शिता । महाक्लेशादयो दोषाः क्षीयंते मरणादयः । __ महामुद्रां च तेनैव वदंति विबुधोतमाः ॥ १५. चन्द्रांगे तु समभ्यस्य सूर्यांगे पुनरभ्यसेत् । यावत्तुल्ला भवेत्संख्या ततो मुद्रां विसर्जयेत् ।। १६. न हि पथ्यमपथ्यं वा रसाः सर्वेऽपि नीरसाः । अपि भक्तं विषं घोरं पीयूषमपि जीर्यति ॥ १७. क्षयकुष्ठगुदावर्त- गुल्माजीर्ण- पुरोगमाः । तस्य दोषाः क्षयं यांति महा मुद्रां तु योऽभ्यसेत् ॥ १८. कथितेयं महामुद्रा महासिद्धिकरा नृणाम् । गोपानीया प्रयत्नेन न देया यस्य कस्यचित् ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोगप्रदीपिका महाबन्ध १६. पाष्णि वामस्य पादस्य वामोरुपरि संस्थाप्य २०. पूरयित्वा निष्पीड्य ततो वायुं वायुमाकुंच्य यथाशक्ति सव्यांगे तु समभ्यस्य दक्षांगे २१. धारयित्वा २२. मतमत्र तु २३. अयं अयं खलु २४. कालपाशमहाबंधविमोचन त्रिवेणी सङ्गम २५. रूपलावण्यसंपन्ना महामुद्रामहाबन्धो राजदंतस्थ जिह्वाया तु सर्वनाडीनामूर्ध्वं महाबंध महावेध योगी २६. महाबंधस्थितो वायूनां गतिमावृत्य २७. समहस्तयुगो वह्निवृद्धिकरं ३१. अष्टधा केषांचित्कंठबंध बन्धः शस्तो यथा पुण्यसंभारसंघाि सम्यक्शिक्षावतामेवं खेचरी मुद्रा ३२. कपालकुहरे भ्रवोरंतर्गता योनिस्थाने नियोजयेत् । दक्षिणं चरणं तथा ॥ हृदये चबुकं दृढ़म् । मनोमध्ये नियोजयेत् ॥ रेचयेदनिलं धत्ते केदारं महागुह्य चैव क्रियते चैव भूमौ द्वयमतिक्रम्य वायुः स्फुरति वायुं २८. सोमसूर्याग्निसंबंधो मृतावस्था समुत्पन्ना ततो २६. महाबेघोऽयमभ्यासान्महासिद्धिवलीपलितवेपघ्नः ३०. एतत्त्रयं स्त्री पुरुषं निष्फलौ कृत्वा निभृतं स्फिचौ जायते जिह्वा दृष्टिर्मुद्रा सेव्यते गतिनिरोधकः । महासिद्धिप्रदायकः । विचक्षणः । प्रापयेन्मनः ॥ शनैः । पुनरभ्यसेत् ॥ विवर्जयेत् । भवेदिति ॥ पूरकमेकधीः । कंठमुद्रया ॥ सताडयेच्छनैः ॥ मध्यगः ॥ प्रविष्टा भवति विना । वेधवर्जितो ॥ चामृताय वै । विरेचयेत् ॥ जरामृत्युविनाशनम् । णिमादिगुणप्रदम् || दिने । सदा || प्रथम साधनम ॥ यामे यामे दिने पापौघभिदुरं स्वल्पं प्रदायकः । साधकोत्तमैः ॥ विपरीतगा । खेचरी ॥ २०७ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ चित्त-समाधि : जैन योग ३३. छेदनचालनदोहैः कलां क्रमेण वर्धयेत्तावत । सा यावद्भूमध्यं स्पृशति तदा खेचरी सिद्धिः । ३४. स्नुहीपत्र निभं शस्त्रं सुतीक्ष्णं स्निग्धनिर्मलम् ॥ समादाय ततस्तेन रोममात्रं समुच्छिनेत् ॥ ३५. ततः सैंधवपथ्याभ्यां चूर्णिताभ्यां प्रघर्षयेत् । पुनः सप्तदिने प्राप्ते रोममात्रं समुच्छिनेत् ॥ ३६. एवं क्रमेण षण्मासं नित्यं युक्तः समाचरेत् । षण्मासाद्रसनामूलशिलाबंधः प्रणश्यति ।। ३७. कलां पराङ मुखीं कृत्वा त्रिपथे परियोजयेत् । सा भवेत्खेचरी मुद्रा व्योमचक्रं तदुच्यते । ३८. रसनामूर्ध्वगां कृत्वा क्षणार्धमपि तिष्ठति । विषैविमुच्यते योगो व्याधिमृत्युजरादिभिः ।। ३६. न रोगो मरणं तंद्रा न निद्रा न क्षुधा तृषा । न च मूर्छा भवेत्तस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम् ।। ४०. पीड्यते न स रोगेण लिप्यते न च कर्मणा । बाध्यते न स कालेन यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम् । ४१. चित्तं चरति खे यस्माज्जिह्वा चरति खे गता । तेनैषा खेचरी नाम मुद्रा सिद्धैर्निरूपिता ॥ ४२. खेचर्यां मुद्रितं येन विवरं लंबिकोव॑तः । न तस्य क्षरते बिंदु: कामिन्याः श्लेषितस्य च ।। ४३. चलितोऽपि यदा बिन्दुः संप्राप्तो योनिमंडलम् । ब्रजत्यूचं हृतः शक्त्या निबद्धो योनिमुद्रया ॥ ४४. ऊर्ध्वजिह्वः स्थिरो भूत्वा सोमपानं करोति यः । मासान न संदेहो मृत्यु जयति योगवित् । ४५. नित्यं सोमकलापूर्ण शरीरं यस्य योगिनः । तक्षकेणापि दष्टस्य विषं तस्य न सर्पति ॥ ४६. इन्धनानि यथा वह्निस्तैलवत्ति च दीपकः । तथा सोमकलापूर्ण देही देहं न मुंचति ।। ४७. गोमांस भक्षयेन्नित्यं पिबेदमरवारुणीम् । कुलीनं तमहं मन्ये चेतरे कुलघातकाः ।। ४८. गाशब्देनोदिता जिह्वा तत्प्रवेशो हि तालुनि । गोमांसभक्षणं तत्त महापातकनाशनम् ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ हठयोगप्रदीपिका ४६. जिह्वाप्रवेशसंभूतवह्निनोत्पादितः खलु । चन्द्रात्स्रवति यः सारः स स्यादमरवारुणी ।। ५०. चुम्बंती यदि लंबिकाग्रमनिशं जिह्वारसस्पंदिनी सक्षारा कटुकाम्लदुग्धसदृशी मध्वाज्यतुल्या तथा । व्याधीनां हरणं जरांतकरणं शस्त्रागमोदीरणं तस्य स्यादमरत्वमष्टगुणितं सिद्धांगनाकर्षणम् ॥ ५१. मूर्ध्नः षोडशपत्रपद्मगलितं प्राणादवाप्तं हठा दूस्यिो रसनां नियम्य विवरे शक्ति परां चिंतयन् । उत्कल्लोलकलाजलं च विमलं धारामयं यः पिबे न्निाधिः स मृणालकोमलवपुर्योगी चिरं जीवति ।। ५२. यत्प्रालेयं प्रहितसुषिरं मेरुमूर्षांतरस्थं तस्मिस्तत्त्वं प्रवदति सुधीस्तन्मुखं निम्नगानाम् । चन्द्रात्सारः सवति वपुषस्तेन मृत्युनराणां तद्बध्नीयात्सुकरणमथो नान्यथा कार्यसिद्धिः ।। ५३. सुषिरं ज्ञानजनक पंचस्रोतःसमन्वितम् । तिष्ठते खेचरी मुद्रा तस्मिञ्शून्ये निरंजने ।। ५४. एकं सष्टिमयं बीजमेका मुद्रा च खेचरी । ____एको देवो निरालंब एकावस्था मनोन्मनी ।। उड्डीयान बन्ध ५५. बद्धो येन सुषुम्नायां प्राणस्तूड्डीयते यतः । तस्मादुड्डीयनाख्योऽयं योगिभिः समुदाहृतः ॥ ५६. उड्डीनं कुरुते यस्मादविश्रांतं महाखगः । उड्डीयानं तदैव स्यात्तत्र बंधोऽभिधीयते ।। ५७. उदरे पश्चिमं तानं नाभेरूज़ च कारयेत् । उड्डीयानो ह्यसौ बंधो मृत्युमातङ्गकेसरी । ५८. उड्डीयानं तु सहजं गुरुणा कथितं सदा । अभ्यसेत्सततं यस्तु वृद्धोऽपि तरुणायते । ५६. नाभेरूलमधश्चापि तानं कुर्यात्प्रयत्नतः । षण्मासमभ्यसेन्मृत्यु जयत्येव न संशयः ॥ ६०. सर्वेषामेव बन्धानामुत्तमो ह्य ड्डियानकः । उड्डियाने दृढे बंधे मुक्तिः स्वाभाविकी भवेत् ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० चित्त-समाधि : जैन यो मूलबन्ध ६१. पाणिभागेन संपीड्य योनिमाकुंचयेद्गुदम् । अपानमूर्ध्वमाकृष्य मूलबन्धोऽभिधीयते ।। ६२. अधोगतिमपानं वा ऊर्ध्वगं कुरुते बलात् । आकुंचनेन तं प्राहुर्मूलबन्धं हि योगिनः ।। ६३. गुदं पार्ष्या तु संपीड्य वायुमाकंचयेबलात् । वारं वारं यथा चोवं समायाति समीरणः ।। ६४. प्राणापानौ नादबिंदू मूलबंधेन चैकताम् । गत्वा योगस्य संसिद्धि यच्छतो नात्र संशयः ।। ६५. अपानप्राणयोरैक्यं क्षयो मूत्रपुरीषयोः । युवा भवति वृद्धोऽपि सततं मूलबंधनात् ।। ६६. अपाने ऊर्ध्वगे जाते प्रयाते वह्निमंडलम् । तदाऽनलशिखा दीर्घा जायते वायुनाऽऽहता। ६७. ततो यातो वह्न यपानौ प्राणमुष्णस्वरूपकम् ।। तेनात्यंतप्रदीप्तस्तु ज्वलनो देहजस्तथा ॥ ६८. तेन कुंडलिनी सुप्ता संतप्ता संप्रबुध्यते । दंडाहता भुजङ्गीव निश्वस्य ऋजुतां व्रजेत् । ६६. बिलं प्रविष्टेव ततो ब्रह्मनाड्यन्तरं व्रजेत् । तस्मान्नित्यं मूलबन्धः कर्तव्यो योगिभिः सदा ॥ जालन्धर बन्ध ७०. कंठमाकुच्य हृदये स्थापयेच्चिबुकं दृढम् । बंधो जालंधराख्योऽयं जरामृत्युविनाशकः ।। ७१. बध्नाति हि शिराजालमधोगामि नभोजलम् । ततो जालन्धरो बंधः कंठदुःखौघनाशनः ।। ७२. जालंधरे कृते बंधे कंठसंकोचलक्षणे । न पीयूषं पतत्यग्नौ न च वायुः प्रकुप्यति । ७३. कंठसंकोचनेनैव द्वे नाड्यौ स्तंभयेदृढम् । मध्यचक्रमिदं ज्ञेयं षोडशाधारबन्धनम् ॥ ७४. मूलस्थानं समाकुच्य उड्डियानं तु कारयेत् । इडां च पिंगलां बद्ध्वा वाहयेत्पश्चिमे पथि ।। ७५. अनेनैव विधानेन प्रयाति पवनालयम् । ततो न जायते मृत्युर्जरारोगादिकं तथा । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ eopriat fier ७६. बन्धत्रयमिदं सर्वेषां हठतंत्राणां ७७. यत्किंचित्स्रवते तत्सर्वं ग्रसते ७८. तत्रास्ति करणं दिव्यं गुरूपदेशो विपरीतकरणी मुद्रा ७६. ऊर्ध्वं करणी वज्रोली मुद्रा शशी । लभ्यते ॥ जठराग्निविर्वार्धनी । च ॥ ८०. नित्यमभ्यासयुक्तस्य आहारो बहुलस्तस्य ८१. अल्पाहारो यदि भवेदग्निर्दहति तत्क्षणात् । अधः शिराश्चोर्ध्वपादः क्षणं स्यात्प्रथमे ८२. क्षणाच्च किंचिदधिकमभ्यसेच्च दिने वलितं पलितं चैव षण्मासोर्ध्वं न याममात्रं तु यो नित्यमभ्यसेत्स तु दिने । दिने । दृश्यते ॥ कालजित् ॥ ८७. नारीभगे श्रेष्ठं महासिद्धैश्च साधनं योगिनो चन्द्रादमृतं सूर्यस्तेन पिंडो सूर्यस्य मुखवंचनम् । ज्ञेयं न तु शास्त्रार्थकोटिभिः ॥ ८६. यत्नतः शस्तनालेन शनैः शनैः ८३. स्वेच्छया वर्तमानोऽपि योगोक्तैनियमैर्विना । वज्रोलि यो विजानाति स योगी सिद्धिभाजनम् ॥ ८४. तत्र वस्तुद्वयं वक्ष्ये दुर्लभं यस्य कस्यचित् । क्षीरं चैकं द्वितायं तु नारी च वशवर्तिनी ॥ ८५. मेहनेन शनैः सम्यगूर्ध्वाकुंचनमभ्यसेत् । पुरुषोऽप्यथवा नारी वज्रोलीसिद्धिमाप्नुयात् ॥ वज्रकंदरे । प्रकुर्वीत वायुसंचारकारणात् ।। पतद्विदुमभ्यासेनोर्ध्वमाहरेत् । विदुमूर्ध्वमाकृष्य रक्षयेत् ॥ चलितं च निजं ८८. एवं नाभेरधस्तालोरूर्ध्वं भानुरधः विपरीताख्या गुरुवाक्येन सेवितम् । विदुः ॥ दिव्यरूपिण । जरायुतः ॥ संपाद्यः साधकस्य फूत्कारं संरक्षयेबिंदु मृत्युं जयति योगवित् । मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात् ॥ ८. सुगन्धो योगिनो देहे जायते याव बिंदु: स्थिरो बिन्दुधारणात् । कुतः ॥ देहे तावत्कालभयं २११ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ चित्त-समाधि : जैन योग ६०. चित्तायत्तं नृणां शुक्रं शुक्रायत्तं च जीवितम् । तस्माच्छुकं मनश्चैव रक्षणीयं प्रयत्नतः ।। ६१. ऋतुमत्या रजोऽप्येवं बीजं बिंदं च रक्षयेत् । मेढ णाकर्षयेदूवं सम्यगभ्यासयोगवित् ।। ६२. सहजोलिश्चामरोलिर्वज्रोल्या भेद एकतः । जले सुभस्म निक्षिप्य दग्धगोमयसंभवम् ॥ ६३. वज्रोलीमैथुनादूर्ध्वं स्त्रीपुंसोः स्वांगलेपनम् । अास'नयोः सुखेनैव मुक्तव्यापारयोः क्षणात् ॥ ६४. सहजोलिरियं प्रोक्ता श्रद्धेया योगिभिः सदा । अयं शुभकरो योगो भोगयुक्तोऽपि मुक्तिदः ।। ६५. अयं योगः पुण्यवतां धीराणां तत्त्वदर्शिनाम् । निर्मत्सराणां सिध्येत न तु मत्सरशालिनाम् । अमरोली मुद्रा ६६. पित्तोल्बणत्वात्प्रथमांबुधारां विहाय निःसारतयांत्यधारा । निषेव्यते शोतलमध्यधारा कापालिके खंडमतेऽमरोली। ६७. अमरी यः पिबेन्नित्यं नस्यं कुर्वन्दिनेदिने । वज्रोलीमभ्यसेत्सम्यगमरोलीति कथ्यते ॥ १८. अभ्यासान्निःसृतां चांद्रों विभूत्या सह मिश्रयेत् । धारयेदुत्तमांगेषु दिव्यदृष्टि: प्रजायते ॥ मारी की वज्रोली के साधन ६६. पंसो बिन्दं समाकुंच्य सम्यगभ्यासपाटवात् । यदि नारी रजो रक्षेद्वज्रोल्या सापि योगिनी ॥ १००. तस्याः किंचिद्रजो नाशं न गच्छति न संशयः । तस्याः शरीरे नादश्च बिंदुतामेव गच्छति ॥ १०१. स बिंदुस्तद्रजश्चैव एकीभूय स्वदेहगौ । वज्रोल्यभ्यासयोगेन सर्वसिद्धि प्रयच्छतः। १०२. रक्षेदाकुंचनादूवं या रजः सा हि योगिनी । - अतीतानागतं वेत्ति खेचरी च भवेद् ध्रुवम् ।। १०३. देहसिद्धिं च लभते वज्रोल्यभ्यासयोगतः । अयं पुण्यकरो योगी भोगे भुक्तेऽपि मुक्तिदः ।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोगप्रदीपिका कुंडलिनी के पर्याय १०४. कुटिलांगी कुंडलिनी भुजङ्गी शक्तिरीश्वरी । कुंडल्यरु धती चैते शब्दाः पर्यायवाचकाः ।। १०५. उद्घाटयेकपाटं तु यथा कंचिकया हठात् । कुंडलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं विभेदयेत् ।। १०६. येन मार्गेण गंतव्यं ब्रह्मस्थानं निरामयम् । मुखेनाच्छाद्य तवारं प्रसुप्ता परमेश्वरी ॥ १०७. कदोवं कुण्डलो शक्तिः सुप्ता मोक्षाय योगिनाम् । बन्धनाय च मूढानां यस्तां वेत्ति स योगवित् ।। १०८. कुण्डली कुटिलाकारा सर्पवत्परिकीर्तिता । सा शक्तिश्चालिता येन स मुक्तो नात्र संशयः ॥ १०६. गङ्गायमुनयोर्मध्ये बालरंडा तपस्विनीम् । बलात्कारेण गृह्णीयात्तद्विष्णोः परमं पदम् ।। ११०. इडा भगवती गङ्गा पिंगला यमुना नदी । ___ इडापिंगलयोर्मध्ये बालरंडा च कुण्डली । शक्तिचालन मुद्रा १११ पुच्छे प्रगृह्य भुजगी सुप्तामुबोधयेच्च ताम् । निद्रां विहाय सा शक्तिरू+मुत्तिष्ठते हठात् ।। ११२. अवस्थिता चैव फणावती सा, प्रातश्च साय प्रहरार्धमात्रम् । प्रपूर्य सूर्यात्परिधानयुक्त्या प्रगृह्य नित्यं परिचालनीया ॥ ११३. ऊर्ध्वं वितस्तिमात्रं तु विस्तारं चतुरंगुलम् । मृदुलं धवलं प्रोक्तं वेष्टितांबरलक्षणम् ॥ ११४. सति वज्रासने पादो कराभ्या धारयेद्दढम् । गुल्फदेशसमीपे च कंदं तत्र प्रपीडयेत् ।। ११५. वज्रासने स्थितो योगी चालयित्वा च कुंडलीम् । कुर्यादनंतरं भस्त्रां कुण्डलीमाशु बोधयेत् ।। ११६. भानोराकुंचन कुर्यात्कंडलीं चालयेत्ततः । मृत्युवक्रगतस्यापि तस्य मृत्युभयं कुतः ॥ ११७. मुहूर्तद्वयपर्यन्तं निर्भयं चालनादसौ ऊर्ध्वमाकृष्यते किंचित्सुषुम्नायां समुद्गता ॥ ११८. तेन कुंडलिनी तस्याः सुषुम्नायां मुखं ध्रुवम् । जहाति तस्मात्प्राणोऽयं सुषुम्नां व्रजति स्वतः ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ११६. तस्मात्संचालयेन्नित्यं तस्याः संचालनेनैव योगी १२० येन संचालिता शक्ति: स किमत्र बहु कालं १२१. ब्रह्मचर्यरतस्यैव मंडलादृश्यते १२२. कुण्डलीं एवमभ्यसतो नित्यं १२३. द्वासप्ततिसहस्राणां कुतः १२४. इयं तु १२५. अभ्यासे तु प्रासनप्राणसंयाममुद्राभिः १२८. इति एकैका सद्गुरु प्रशंसा समाधि वर्णन प्रक्षालनोपायः मध्यमा नाडी १२६. राजयोगं विना पृथ्वी राजयोगं विना मुद्रा १२७. मारुतस्य विधि सर्वं इतरत्र न कर्तव्या नित्यं सिद्धि: चालयित्वा तु भस्त्रां १. नमः निरंजनपदं २. प्रथेदानीं मृत्युघ्नं रुद्राणी वा यदा मुद्रा भद्रां हितमिताशिनः । कुंडल्यभ्यासयोगिनः ॥ कुर्याद्विशेषतः । यमनो यमभीः कुतः ॥ नाडीनां मलशोधने । च मुद्रा दश प्रोक्ता तासु यमिनां योगी सुखसुप्तामरु ंधतीम् । रोगैः प्रमुच्यते ॥ सिद्धिभाजनम् । जयति लीलया ॥ विनिद्राणां मनो धृत्वा १२६. उपदेशं हि मुद्राणां यो दत्ते स एव श्रीगुरु: स्वामी साक्षादीश्वर १३०. तस्य वाक्यपरो भूत्वा मुद्राभ्यासे प्रणिमादिगुणैः सार्धं लभते चतुर्थ उपदेश शिवाय गुरवे याति नित्यं समाधिना । प्रयच्छति ॥ सिद्धिं राजयोगं विना निशा । विचित्रापि न शोभते ॥ मनोयुक्तं समभ्यसेत् । वृत्र्मणि ॥ आदिनाथेन शंभुना । महासिद्धिप्रदायिनी ॥ प्रवक्ष्यामि सुखोपायं कुंडल्यभ्यसनादृते ॥ दृढाभ्यासेन योगिनाम् । सरला भवेत् ॥ चित्त-समाधि : जैन योग यत्र सांप्रदायिकम् । एव सः । नादविदुकलात्मने । परायणः ॥ समाधिक्रममुत्तमम् । ब्रह्मानन्दकरं परम् ॥ समाहितः । कालवंचनम् ।। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोगप्रदीपिका २१५ ३. राजयोगः समाधिश्च उन्मनी च मनोन्मनी । __ अमरत्वं लयस्तत्त्वं शून्याशून्यं परं पदम् ।। ४. अमनस्कं तथाद्वैतं निरालंबं निरञ्जनम् । जीवन्मुक्तिश्च सहजा तुर्या चेत्येकवाचकाः ।। ५. सालिले सैन्धवं यद्वत्साम्यं भजति योगतः । तथात्ममनसोक्यं समाधिरभिधीयते ॥ ६. यदा संक्षीयते प्राणो मानसं च प्रलीयते । __तदा समरसत्वं च समाधिरभिधीयते ॥ ७. तत्समं च द्वयोरैक्यं जीवात्मपरमात्मनोः । प्रनष्टसर्वसङ्कल्पः समाधिः सोऽभिधीयते ॥ ८. राजयोगस्य माहात्म्यं को वा जानाति तत्त्वतः । ज्ञानं मुक्तिः स्थितिः सिद्धिर्गुरुवाक्येन लभ्यते । ६. दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् । दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना ॥ १०. विविधरासनैः कुविचित्रः करणैरपि । प्रबुद्धायां महाशक्तौ प्राणः शून्ये प्रलीयते ॥ ११. उत्पन्नशक्तिबोधस्य त्यक्तनिःशेषकर्मणः । योगिन: सहजावस्था स्वयमेव प्रजायते ।। १२. सुषम्नावाहिनि प्राणे शून्ये विशति मानसे । - तदा सर्वाणि कर्माणि निर्मलयति योगवित् ।। १३. अमराय नमस्तुभ्यं सोऽपि कालस्त्वया जितः । पतितं वदने यस्य जगदेतच्चराचरम् ।। १४. चित्ते समत्वमापन्ने वायौ व्रजति मध्यमे । तदामरोली वज्रोली सहजोली प्रजायते । १५. ज्ञानं कुतो मनसि संभवतीह तावत् प्राणोऽपि जीवति मनो म्रियते न यावत् । प्राणो मनो द्वयमिदं विलयं नयेद्यो मोक्षं स गच्छति नरो न कथंचिदन्यः ॥ जीवन्मुक्ति का लक्षण १६. ज्ञात्वा सुषुम्नासद्भेदं कृत्वा वायुं च मध्यगम् । स्थित्वा सदैव सुस्थाने ब्रह्मरंध्रे निरोधयेत् ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ चित्त-समाधि : जैन योग प्राणलय से कालजय १७. सूर्याचंद्रमसौ धत्तः कालं रात्रिदिवात्मकम् । भोक्त्री सुषुम्ना कालस्य गुह्यमेतदुदाहृतम् ।। १८. द्वासप्ततिसहस्राणि नाडीद्वाराणि पञ्जरे । सुषुम्ना शांभवी शक्तिः शेषास्त्वेव निरर्थकाः ।। १६. वायुः परिचितो यस्मादग्निना सह कुंडलीम् । बोधयित्वा सुषुम्नायां प्रविशेदनिरोधतः ।। २०. सुषम्नावाहिनि प्राणे सिद्धयत्येव मनोन्मनी । अन्यथा त्वितराभ्यासा: प्रयासायैव योगिनाम् ।। २१. पवनो बध्यते येन मनस्तेनैव वध्यते । मनश्च बध्यते येन पवनस्तेन बध्यते । २२. हेतुद्वयं तु चित्तस्य वासना च समीरणः । ___तयोविनष्ट एकस्मिस्तौ द्वावपि विनश्यतः ।। २३. मनो यत्र विलीयेत पवनस्तत्र लीयते । पवनो लीयते यत्र मनस्तत्र विलीयते ।। २४. दुग्धांवत्समिलितावुभौ तौ तुल्यक्रियौ मानसमारुतौ हि । यतोमरुत्तत्र मनः प्रवृत्तिर्यतो मनस्तत्र मरुत्प्रवृत्तिः ।। २५. तत्रैकनाशादपरस्य नाश एकप्रवृत्तेरपरप्रवतिः । अध्वस्तयोश्चेंद्रियवर्गवृत्तिः प्रध्वस्तयोर्मोक्षपदस्यसिद्धिः ।। २६. रसस्य मनसश्चैव चञ्चलत्वं स्वभावतः । रसो बद्धो मनो बद्धं किं न सिद्धयति भूतले ॥ २७. मूच्छितो हरते व्याधीन्मतो जीवयति स्वयम् । बद्धः खेचरतां धत्ते रसो वायुश्च पार्वति ।। २८. मनःस्थैर्ये स्थिरो वायुस्ततो बिंदुः स्थिरो भवेत् । बिंदुस्थैर्यात्सदा सत्त्वं पिंडस्थैर्य प्रजायते ।। २६. इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुतः । मारुतस्य लयो नाथः स लयो नादमाश्रितः ।। ३०. सोऽयमेवास्तु मोक्षाख्यो मास्तु बापु मतांतरे । मनःप्राणलये कश्चिदानन्दः संप्रवर्तते ।। ३१. प्रनष्टश्वासनिश्वासः प्रध्वस्तविषयग्रहः ।। निश्चेष्टो निर्विकारश्च लयो जयति योगिनाम् ।। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोगप्रदीपिका २१७ ३२. उच्छिन्नसर्वसङ्कल्पो निःशेषाशेषचेष्टितः । स्वावगम्यो लयः कोऽपि जायते वागगोचरः ।। ३३. यत्र दष्टिर्लयस्तत्र भूतेंद्रियसनातनी । __सा शक्तिीवभूतानां वे अलक्ष्ये लयं गते ॥ ३४. लयो लय इति प्राहुः कीदृशं लयलक्षणम् । अपुनर्वासनोत्थानाल्लयो । विषयविस्मृतिः ॥ शाम्भवी मुद्रा णानि सामान्यगणिका इव । एकैव शांभवी मुद्रा गुप्ता कुलवधूरिव ॥ ३६. अंतर्लक्ष्यं बहिर्द ष्टिनिमेषोन्मेषवजिता । एषा सा शांभवी मुद्रा वेदशास्त्रेषु गोपिता ॥ ३७. अन्तर्लक्ष्यविलीनचित्तपवनो योगी यदा वर्तते दृष्ट्या निश्चलतारया बहिरधः पश्यन्नपश्यन्नपि । मुद्रेयं खलु शांभवी भवति सा लब्धा प्रसादाद्गुरोः । शून्याशून्यविलक्षणं स्फुरति तत्तत्त्वं परं शांभवम् ।। ३८. श्रीशांभव्याश्च खेचर्या अवस्थाधामभेदतः । भवेच्चित्तलयानंद: शून्ये चित्सुखरूपिणि ।। उन्मनी मुद्रा ३९. तारे ज्योतिषि संयोज्य किंचिदुन्नमयेद्ध्वौ । पूर्वयोगं मनो युंजन्नुन्मनीकारकः क्षणात् ।। ४०. केचिदागमजालेन केचिन्निगमसंकुलैः । केचित्तर्केण मुह्यति नैव जाति तारकम् ।। ४१. अर्धोन्मीलितलोचनः स्थिरमना नासाग्रदत्तेक्षण श्चंद्रार्कावपि लीनतामुपनयन्निष्पंदभावेन यः । ज्योतीरूपमशेषबीजमखिलं देदीप्यमानं परं तत्त्वं तत्पदमेति वस्तु परमं वाच्यं किमत्राधिकम् ॥ ४२. दिवा न पूजयेल्लिंगं रात्रौ चैव न पूजयेत् । सर्वदा पूजयेल्लिंगं दिवारात्रिनिरोधतः ।। खेचरी मुद्रा का स्थैर्य ४३. सव्यदक्षिणनाडिस्थो मध्ये चरति मारुतः । __ तिष्ठते खेचरी मुद्रा तस्मिन्स्थाने न संशयः ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ चित्त-समाधि : जैन योग ४४. इडापिंगलयोर्मध्ये शून्यं चैवानिलं ग्रसेत् । तिष्ठते खेचरी मुद्रा तत्र सत्यं पुनः पुनः ॥ ४५. सूर्याचन्द्रमसोर्मध्ये निरालंबांतरं पुनः । संस्थिता व्योमचक्रे या सा मुद्रा नाम खेचरी । ४६. सोमद्यत्रोदिता धारा साक्षात्सा शिववल्लभा । पूरयेदतुलां दिव्यां सुषुम्नां पश्चिमे मुखे ॥ ४७. पुरस्ताच्चैव पूर्यंत निश्चिता खेचरी भवेत् । अभ्यस्ता खेचरी मुद्राप्युन्मनी संप्रजायते ॥ ४८. भ्रवोर्मध्ये शिवस्थानं मनस्तत्र विलीयते । ज्ञातव्यं तत्पदं तुर्यं तत्र कालो न विद्यते । अभ्यसेत्खेचरी तावद्यावत्स्याद्योगनिद्रितः । संप्राप्तयोगनिद्रस्य कालो नास्ति कदाचन ॥ ५०. निरालंबं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिंतयेत् । स बाह्याभ्यंतरे व्योम्नि घटवत्तिष्ठति ध्रुवम् ।। ५१. बाह्यवायुर्यथा लीनस्तथा मध्ये न संशयः । स्वस्थाने स्थिरतामेति पवनो मनसा सह । ५२. एवमभ्यसमानस्य वायुमार्गे दिवानिशम् । अभ्यासाज्जीर्यते वायुर्मनस्तत्रैव लीयते ॥ ५३. अमृतैः प्लावयेदेहमापादतलमस्तकम् । सिद्धयत्येव महाकायो महाबलपराक्रमः ।। ५४. शक्तिमध्ये मनः कृत्वा शक्तिं मानसमध्यगाम् । मनसा मन आलोक्य धारयेत्परमं पदम् ।। ५५. खमध्ये कुरु चात्मानमात्ममध्ये च खं कुरु । सर्वं च खमयं कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ।। ५६. अन्तःशून्यो बहिःशून्यः शून्यः कुम्भ इवांबरे । अन्तःपूर्णो बहिःपूर्णः पूर्णः कुम्भ इवार्णवे ॥ ५७. बाह्यचिंता न कर्तव्या तथैवांतरचिंतनम् । सवाचतां परित्यज्य न किंचिदपि चिंतयेत् ।। ५८. सङ्कल्पमात्रकलनैव जगत्समग्रं । सङ्कल्पमात्रकलनैव मनोविलासः । सङ्कल्पमात्रमतिमुत्सृज निर्विकल्प माश्रित्य निश्चयमवाप्नुहि राम शान्तिम् ।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोगप्रदीपिका ५६. कर्पूरमनले यद्वत्सैंधव सलिले यथा । तथा संधीयमानं च मनस्तत्त्व विलीयते ॥ ६०. ज्ञेयं सर्वं प्रतीतं च ज्ञानं च मन उच्यते । ज्ञानं ज्ञेयं समं नष्टं नान्यः पंथा द्वितीयकः ॥ ६१. मनोदृश्यमिदं यत्किंचित्सचराचरम् । नैवोपलभ्यते || मनसो सर्वं ह्युन्मनीभावाद्वैतं ६२. ज्ञेयवस्तुपरित्यागाद्विलयं मनसो ६३. एवं याति मानसम् । विलये जाते कैवल्यमवशिष्यते ॥ नानाविधोपायाः सम्यक्स्वानुभवान्विताः । कथिताः पूर्वाचार्यैर्महात्मभिः ॥ कुण्डलिन्यै सुधायै चन्द्रजन्मने | मनोन्मन्यै नमस्तुभ्यं महाशक्त्यै चिदात्मने ॥ मूढानामपि प्रोक्तं गोरक्षनाथेन संमतम् । नादोपासनमुच्यते ॥ ६६. श्री आदिनाथेन सपादकोटिलयप्रकाराः कथिता जयंति । नादानुसंधानकमेकमेव मन्यामहे मुख्यतमं लयानाम् ॥ संधाय शांभवीम् । नादमंतःस्थमेकधीः ॥ निरोधनं कार्यम् । श्रूयते नादः ।। च । परिचयोऽपि स्यादवस्थाचतुष्टयम् ॥ समाधिमार्गा: ६४. सुषुम्न ६५. अशक्यतत्त्वबोधानां नाव ६७. मुक्तासने स्थितो योगी मुद्रां शृणुयाद्दक्षिणे कर्णे ६८. श्रवणपुटनयनयुगल घ्राणमुखानां शुद्धसुषुम्ना रणौ स्फुटममल: ६६. आरम्भश्च घटश्चैव तथा निष्पत्ति: सर्वयोगेषु ७०. ब्रह्मग्रन्थेर्भवेद्भेदो विचित्र: ७१. दिव्यदेहश्च संपूर्ण हृदयः ७२. द्वितीयायां दृढासनो ह्यानन्दः Faणको देहेऽनाहतः ७३. विष्णुग्रन्थेस्ततो प्रतिशून्ये तेजस्वी शून्य घटीकृत्य भवेद्योगी विमर्दश्च आरम्भो शून्यसंभवः । श्रूयते ध्वनिः ॥ दिव्यगंधस्त्वरोगवान् । योगवान्भवेत् ॥ वायुर्भवति मध्यगः । ज्ञानी देवसमस्तदा || भेदात्परमानंदसूचकः । भवेत् ।। भेरीशब्दस्तथा २१६ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० चित्त-समाधि : जैन योग ७४. तृतीयायां तु विज्ञेयो विहायोमर्दलध्वनिः । महाशून्यं तदा याति सर्वसिद्धिसमाश्रयम् ॥ ७५. चित्तानंदं तदा जित्वा सहजानंदसंभवः । दोषदुःखजराव्याधि क्षुधानिद्राविजितः ॥ ७६. रुद्रग्रन्थि यदा भित्वा शर्वपीठगतोऽनिलः । निष्पत्तौ वैष्णवः शब्दः क्वणद्वीणाक्वणो भवेत् ।। ७७. एकीभूतं तदा चित्तं राजयोगाभिधानकम् । सृष्टिसंहारकर्तासौ योगीश्वरसमो भवेत् ॥ ७८. अस्तु वा मास्तु वा मुक्तिरत्रैवाखंडितं सुखम् । लयोद्भवमिदं सौख्यं राजयोगादवाप्यते ॥ ७६. राजयोगमजानंतः केवलं हठकर्मिणः । एतानभ्यासिनो मन्ये प्रयासफलवजितान् ।। ८०. उन्मन्यवाप्तये शीघ्रं भ्रूध्यानं मम संमतम् । राजयोगपदं प्राप्त सुखोपायोऽल्पचेतसाम् ।। सद्यः प्रत्ययसंधायी जायते नादजो लयः ।। ८१. नादानुसंधानसमाधिभाजां, योगीश्वराणां हृदि वर्धमानम् । आनंदमेकं वचसामगम्यं, जानाति तं श्रीगुरुनाथ एकः॥ ८२. कौँ पिधाय हस्ताभ्यां यं शृणोति ध्वनि मुनिः । तत्र चित्तं स्थिरीकुर्याद्यावस्थिरपदं व्रजेत् । ८३. अभ्यस्यमानो नादोऽयं बाह्यमावणते ध्वनिम् । पक्षाद्विक्षेपमखिलं जित्वा योगी सुखी भवेत् ।। ८४. श्रयते प्रथमाभ्यासे नादो नानाविधो महान् । ततोऽभ्यासे वर्धमाने श्रूयते सूक्ष्मसूक्ष्मकः ।। ८५. आदौ जलधिजीमूतभेरीझर्भरसंभवाः । मध्ये मर्दलशंखोत्था घण्टाकाहलजास्तथा । अंते तु किंकिणीवंशवीणाभ्रमरनिःस्वनाः । इति नानाविधा नादाः श्रूयंते देहमध्यगाः ॥ महति श्रूयमाणेऽपि मेघभेर्यादिके ध्वनौ । तत्र सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं नादमेव परामृशेत् ।। ८८. घनमुत्सृज्य वा सूक्ष्मे सूक्ष्ममुत्सज्य वा घने । रममाणमपि क्षिप्तं मनो नान्यत्र चालयेत् ।। ८६. यत्र कुत्रापि वा नादे लगति प्रथम मनः । तत्रैव सुस्थिरीभूय तेन साधं विलीयते ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ हठयोगप्रदीपिका ६०. मकरंदं पिबन्भृङ्गो गंधं नापेक्षते यथा । नादासक्तं तथा चित्तं विषयान्न हि कांक्षते ।। ६१. मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः । नियन्त्रणे समर्थोऽयं निनादनिशितांकुशः॥ मन का चापल्य-नाश ६२. बद्धं तु नादबंधेन मनः संत्यक्तचापलम । प्रयाति सुतरां स्थैर्य छिन्नपक्षः खगो यथा ॥ ६३. सर्वचितां परित्यज्य सावधानेन चेतसा । नाद एवानुसंधेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ॥ १४. नादोंतरङ्गसारङ्गबंधने वागरायते । अन्तरङ्गकुरङ्गस्य वधे व्याधायतेऽपि च ॥ ६५. अन्तरङ्गस्य यमिनो वाजिनः परिघायते । नादोपास्तिरतो नित्यमवधार्या हि योगिना ।। १६. बद्धं विमुक्तचांचल्यं नादगंधकजारणात् । __मनः पारदमाप्नोति निरालंबाख्यखेटनम् ।। १७. नादश्रवणत: क्षिप्रमंतरङ्गभुजङ्गमः । विस्मृत्य सर्वमेकानः कुत्रचिन्न हि धावति ॥ १८. काष्ठे प्रवर्तितो वह्निः काष्ठेन सह शाम्यति । नादे प्रवर्तितं चित्तं नादेन सह लीयते ॥ ६६. घंटादिनादसक्तस्तब्धांतःकरण हरिणस्य । प्रहरणमपि सुकरं शरसंधानप्रवीणश्चेत् ॥ व्यापक प्रात्मा का परम पद १००. अनाहतस्य शब्दस्य ध्वनिर्य उपलभ्यते । ध्वनेरन्तर्गतं ज्ञेयं ज्ञेयस्यांतर्गतं मनः । मनस्तत्र लयं याति तद्विष्णोः परमं पदम् ।। १०१. तावदाकाशसङ्कल्पो यावच्छब्दः प्रवर्तते । निःशब्दं तत्परं ब्रह्म परमात्मेति गीयते ॥ १०२. यत्किंचिन्नादरूपेण श्रूयते शक्तिरेव सा । यस्तत्त्वांतो निराकारः स एव परमेश्वरः ॥ १०३. सर्वे हठलयोपाया राजयोगस्य सिद्धये । राजयोगसमारूढ़ः पुरुषः कालवंचकः । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ चित्त-समाधि : जैन योग १०४. तत्त्वं बीजं हठः क्षेत्रमौदासीन्यं जलं त्रिभिः । उन्मनी कल्पलतिका सद्य एव प्रवर्तते ।। १०५. सदा नादानुसंधानात्क्षीयन्ते पापसंचयाः । निरञ्जने विलीयेते निश्चितं चित्तमारुतौ ।। उन्मनी अवस्था में चेष्टा-रहितता १०६. शंखदुन्दुभिनादं च न शृणोति कदाचन । काष्ठवज्जायते देह उन्मन्यावस्थया ध्रुवम् ।। १०७. सर्वावस्थाविनिर्मुक्तः सर्वचिंताविवजितः । मृतवत्तिष्ठते योगी स मुक्तो नात्र संशयः ।। १०८. खाद्यते न च कालेन बाध्यते न च कर्मणा । साध्यते न स केनापि योगी युक्तः समाधिना ॥ १०६. न गंधं न रसं रूपं न च स्पर्श न निःस्वनम् । नात्मानं न परं वेत्ति योगी युक्तः समाधिना ॥ ११०. चित्तं न सुप्तं नो जाग्रत्स्मृतिविस्मृतिविजितम् । न चास्तमेति नोदेति यस्यासौ मुक्त एव सः ।। १११. न विजानाति शीतोष्णं न दुःखं न सुखं तथा । न मानं नापमानं च योगी युक्तः समाधिना ।। ११२. स्वस्थो जाग्रदवस्थायां सुप्तवद्योऽवतिष्ठते । निःश्वासोच्छ्वासहीनश्च निश्चितं मुक्त एव सः ।। योगी को सर्वथा अवध्यता ११३. अवध्यः सर्वशस्त्राणामशक्यः सर्वदेहिनाम् । अग्राह्यो मंत्रयंत्राणां योगी युक्तः समाधिना ।। ११४. यावन्नैव प्रविशति चरन्मारुतो मध्यमार्गे यावद्विदुर्न भवति दृढप्राणवातप्रबंधात् । यावद्धयाने सहजसदृशं जायते नैव तत्त्वं तावज्ज्ञानं वदति तदिदं दंभमिथ्याप्रलापः ।। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोनुशासनम् पहला प्रकरण १. अथ मनोनुशासनम् ॥ २. इन्द्रियसापेक्षं सर्वार्थग्राहि त्रैकालिकं संज्ञानं मनः ।। ३. स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षुः-श्रोत्राणि इन्द्रियाणि ॥ ४. आत्ममात्रापेक्षं अतीन्द्रियम् ॥ ५. चेतनावद् द्रव्यं आत्मा । ६. ज्ञानदर्शन- सहजानन्द-सत्य-वीर्याणि तत्स्वरूपम् ।। ७. परमाणुसमुदयैस्तदावरणविकरणे ।। ८. तत्संसर्गाऽसंसर्गाभ्यां आत्मा द्विविधः ॥ ६. बद्धो मुक्तश्च ॥ १०. स्वरूपोपलब्धिर्मक्ति । ११. मनो-वाक्-काय-पानापान-इन्द्रिय-आहाराणां निरोधो योगः ॥ १२. संवरो गुप्तिनिरोधो निवृत्ति इति पर्यायाः ।। १३. शोधनं च। १४. समितिः सत्प्रवृत्तिविशुद्धि इति पर्यायाः ।। १५. पूर्वं शोधनं, ततो निरोधः ।।। १६. हित-मित-सात्विकाहरणं आहारशुद्धिः ॥ १७. स्वविषयान् प्रति सम्यग्योग इन्द्रियशुद्धिः ।। १८. प्रतिसंलीनता च । १६. प्राणायाम-समदीर्घश्वास-कायोत्सर्गे आनापानशुद्धिः ।। २०. कायोत्सर्गाद्यासन-बन्ध-व्यायाम-प्राणायामैः कायशुद्धिः।। २१. निस्संगत्वेन च । २२. प्रलम्बनादाभ्यासेन वाक्शुद्धिः ।। २३. सत्यपरत्वेन च । २४. दढसंकल्पैकाग्रसन्निदेशनाभ्यां मनः शुद्धिः ॥ २५. मिथ्यादृष्टिरविरतिः प्रमादः कषायो योगश्च परमाणस्कन्धाकर्षणहेतवः ।। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ चित्त-समाधि : जैन योग २६. सम्यग्दृष्टिविरतिरप्रमादोऽकषायोऽयोगश्च तद्विकर्षणहेतवः ।। २७. इन्द्रियानिन्द्रियातीन्द्रियाणि अात्मनो लिंगम् ।। दूसरा प्रकरण १. मूढ-विक्षिप्त-यातायात-श्लिष्ट-सुलीन-निरुद्धभेदाद् मनः षोढा । २. दृष्टिचरित्रमोह-परिव्याप्तं मूढम् ।। ३. अनर्हमेतद् योगाय ।। ४. इतस्ततो विचरणशीलं विक्षिप्तम् ।। ५. कदाचिदन्तः कदाचिद् बहिविहारि यातायातम् ।। ६. प्रारम्भिकाभ्यासकारिणे द्वयमिदम ॥ ७. विकल्पपूर्वकं बाह्य वस्तुनो ग्रहणाद् अल्पस्थैर्य अल्पानन्दञ्च ॥ ८. स्थिरं श्लिष्टम् ।। ६. सुस्थिरं सुलीनम् ॥ १०. द्वयमिदं संजाताभ्यासस्य योगिनः ।। ११. बाह्य वस्तुन अग्रहणाद् दृढ़स्थैर्य महानन्दञ्च ॥ १२. मनोगतध्येयमेवास्य विषयः ।। १३. निरालम्बनं केवलमात्मपरिणतं निरुद्धम् ॥ १४. इदं वीतरागस्य । १५. सहजानन्दप्रादुर्भावः ॥ १६. ज्ञान-वैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।। १७. श्रद्धाप्रकर्षण । १८. शिथिलीकरणेन ॥ १६. संकल्पनिरोधेन । २०. ध्यानेन च ॥ २१. गुरूपदेश-प्रयत्नबाहुल्याभ्यां तदुपलब्धिः ।। तीसरा प्रकरण १. एकाग्रे मनः सन्निवेशनं योगनिरोधो वा ध्यानम् ॥ २. ऊनोदरिका-रसपरित्यागोपवास-स्थान-मौन-प्रतिसंलीनता-स्वाध्याय भावना-व्यूत्सर्गास्तत सामग्यम ।। ३. अल्पाहार ऊनोदरिका । ४. दुग्धादिरसानां परिहरणं रसपरित्यागः ।। ५. अशनत्याग उपवासः ॥ ६. शरीरस्य स्थिरत्वापादनं स्थानम् ।। ७. ऊर्ध्व-निषीदन-शयनभेदात् त्रिधा ।। ८. समपाद-एकपाद गध्रोड्डीन-कायोत्सर्गादीनि ऊर्ध्वस्थानम् ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोनुशासनम् ६. गोदोहिका - उत्कटुक-समपादपुता-गोनिषधिका हस्तिशुण्डिका-पद्मवीर - सुख-कुक्कुट - सिद्ध- भद्र-वज्र - मत्स्येन्द्र- पश्चिमोत्तान महामुद्रा संप्रसारण-भूनमन-कन्दपीडनादीनि निषीदनस्थानम् ॥ १०. दण्डायत प्राकुब्जिका - उत्तान प्रवमस्तक एकपार्श्व ऊर्ध्वशयनलकुट - मत्स्य - पवनमुक्त भुजंग- धनुरादीनि शयनस्थानम् ॥ ११. सर्वांग - शीर्षादीनि विपरीत क्रियापादकानि ॥ - १२. वाचां संवरणं मौनम् ॥ १३. इन्द्रिय- कषायनिग्रहो विविक्तवासश्च प्रतिसंलीनता ॥ १४. इन्द्रियाणां विषय-प्रचारनिरोधो विषय प्राप्तेषु प्रर्थेषु राग-द्वेषनिग्रहश्च इन्द्रिय प्रतिसंलीनता ॥ १५. क्रोधादीनां उदय निरोधस्तेषामुदयप्राप्तानां च विफलोकरणं कषायप्रतिसंलीनता ॥ १६. ऐकाग्र्योपघातक-तत्त्व - रहितेषु स्थानेषु निवसनं विविक्तवासः ।। १७. आत्मानं प्रत्यनुप्रेक्षा स्वाध्यायः ॥ १८. चेतोविशुद्धये मोहक्षयाय स्थैर्यापादनाय विशिष्टसंस्काराधानं - भावना ॥ १६. अनित्य - प्रशरण-भव - एकत्व - प्रन्यत्व - अशौच - श्राश्रव-संवर- निर्जराधर्म- लोकसंस्थान-बोधिदुर्लभताः ॥ २०. मैत्री - प्रमोद - कारुण्य - मध्यस्थताश्च ।। २१. उपशमादिदृढभावनया क्रोधादीनां जयः ॥ २२. शरीर- गण - उपधि-भक्तपान कषायाणां विसर्जनं व्युत्सर्गः ॥ २३. ध्यानाय शरीर - व्युत्सर्गः ॥ २४. विशिष्ट साधनायै गण - व्युत्सर्गः ॥ २५. लाघवाय उपधि-व्युत्सर्गः ॥ २६. ममत्वहानये भेदज्ञानाय च भक्तपान - व्युत्सर्गः ॥ २७. सहजानन्दलब्धये कषाय - व्युत्सर्गः ।। चौथा प्रकरण २२५ ३. मुमुक्षुः संवृतश्च ॥ ४. स्थिराशयत्वमस्य ॥ १. स्वरूपमधिजिगमिषुर्व्याता ॥ २. प्रारोग्यवान् दृढसंहननो विनीतोऽकृतक लहो रसाप्रतिबद्धोऽप्रमत्तोऽ नलसश्च ॥ ५. ईषदवनतकायो निमीलितनयनो गुप्त सर्वेन्द्रियग्रामः सुप्रणिहितगात्रः प्रलम्बितभुजदण्डः सुश्लिष्टचरणः पूर्वोत्तराभिमुखो ध्यायेत् ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ चित्त-समाधि : जैन योग ६. पद्मासनादिषु निषण्णो वा ॥ ७. ग्रामागार-शून्यगृह-श्मशान-गुहोपवन-पर्वत-तरुमूल-पुलिनानि ध्यान स्थलानि॥ ८. भूपीठ-शिलाकाष्ठपट्टान्युपवेशनस्थानानि ।। है. सालम्बन-निरालम्बनभेदाद् ध्यानं द्विधा । १०. पिण्डस्थ-पदस्थ-रूपस्थ रूपातीतभेदादाद्यं चतुर्धा ।। ११. शारीरालम्बि पिण्डस्थम् ॥ १२. शिरो-भ्रू-तालु-मुख-नयन-श्रवण-नासग्र-हृदय-नाभ्यादि शारीरा लम्बनानि ॥ १३. धारणालम्बनं च ॥ १४. प्रेक्षा वा ॥ १५. ध्येये चित्तस्य स्थिरबन्धो धारणा ॥ १६. पार्थिवी-आग्नेयी-मारुती-वारुणीति चतुर्धा ।। १७. स्वाधारभूतानां स्थानानां बृहदाकारस्य वैशद्यस्य च विमर्शः ।। १८. तत्रस्थस्य निजात्मनः सर्वसामोद्भावनं पार्थिवी ॥ १६. नाभिकमलस्य प्रज्वलनेन अशेषदोषदाहचिन्तनमाग्नेयी॥ २०. दग्धमलापनयनाय चिन्तनं मारुती ।। २१. महामेघेन तद्भस्मप्रक्षालनाय चिन्तनं वारुणी ।। २२. श्रौतालम्बि पदस्थम् ॥ २३. संस्थानालम्बि रूपस्थम् ।। २४. सर्वमलापगतज्योतिर्मयात्मालम्बि रूपातीतम् ।। २५. तन्मयत्वमेवास्य स्वाध्यायाद् वैलक्षण्यम् ।। २६. निर्विचारं निरालम्बनम् ।। २७. शुद्धचैतन्यानुभवः समाधिः ॥ २८. विकल्पशून्यत्वेन चित्तस्य समाधानं वा ।। २६. संतुलनं वा ।। ३०. रागद्वेषाभावे चित्तस्यसमत्वं संतुलनम् ॥ ३१. समत्व-विनय-श्रुत-तपश्चारित्रभेदात् स पञ्चधा॥ ३२. रागद्वेष-विकल्पशून्यत्वात्, मान-विकल्पशून्यत्वात्, चित्तस्थैर्यानु भवात्, भेदविज्ञानानुभवाद्, समत्वादीनि समाधिपदवाच्यानि ॥ ३३. कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादात्मपरिणामो लेश्या । ३४. कृष्ण-नील-कापोत-तेजः-पद्म-शुक्ला ॥ पांचवां प्रकरण १. प्राणापान-समानोदान व्यानाः पंच वायवः ॥ २. नासाग्र-हृदय-नाभिः-पादांगुष्ठान्त गोचरो नीलवर्णः प्राणः ।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ मनोनुशासनम् ३. पृष्ठ-पृष्ठान्त-पाणिगः श्यामवर्ण : अपानः ।। ४. सर्वसन्धि-हृदय-नाभिगः श्वेतवर्णः समानः ।। ५. हृदय-कण्ठ-तालु-शिरोन्तरगो रक्तवर्ण उदानः ।। ६. सर्वत्वग्वृत्तिको मेघधनुस्तुल्यवर्णो व्यानः ॥ ७. नासादिषु स्वस्वस्थानेषु रेचक-पूरक-कुम्भकैस्तज्जयः ।। ८. मैं मैं वै रौं लौं तद्ध्यानबीजानि ॥ ६. जठराग्निप्राबल्यं वायुजयः शरीरलाघवञ्च प्राणस्य लब्धयः ।। १०. व्रणरोहण-अस्थिसन्धान-अग्निप्राबल्य-मलमूत्राल्पता व्याधिजयः अपानसमानयोः ॥ ११. पंककण्टकबाधाऽभाव उदानस्य । १२. ताप पीड़ाऽभाव आरोगित्वञ्च व्यानस्य ।। १३. चन्द्रनाड्या वायुमाकृष्य पादाङ्ग ष्ठान्तं तन्नयनं क्रमशः पुनरुन्नयनं पुनर्नयनञ्च मनः स्थैर्याय ॥ १४. पादाङ गुष्ठतो लिङ्गपर्यन्तं वायुधारणेन शीघ्रगतिर्बलप्राप्तिश्च ।। १५. नाभौ तद्धारणेन ज्वरादिनाशः ।। १६. जठरे तद्धारणेन कायशुद्धिः ॥ १७. हृदये तद्धारणेन ज्ञानोपलब्धिः । १८. कूर्मनाड्यां तद्धारणेन रोगजराविनाशः ।। १६. कण्ठकूपस्य निम्नभागे स्थिता कुण्डलिसर्पाकारा नाडी कर्मनाडी।। २०. कण्ठकूपे तद्धारणेन क्षुत् तृषाजयः ।। २१. जिह्वाग्रे तद्धारणेन रसज्ञानम् ।। २२. नासाग्रे तद्धारणेन गन्धज्ञानम् ।। २३. चक्षषोस्तद्धारणेन रूपज्ञानम् ॥ २४. कपाले तद्धारणेन क्रोधोपशमः ।। २५. ब्रह्मरन्ध्रे तद्धारणेन अदृश्यदर्शनम् ॥ २६. आस्थाबन्धो दोर्घकालासेवनं नैरन्तयं कर्मविलयश्चात्र हेतुः ।। २७. मनोनुशासनाद् अतीन्द्रियोपलब्धिः ॥ छठा प्रकरण १. सर्वथा हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्महाव्रतम् । २. सर्वभूतेषु संयम अहिंसा ॥ ३. कायवाङ मनसामृजुत्वमविसंवादित्वञ्च सत्यम् ।। ४. परोपरोधाकरणमस्तेयम् ।। ५. वस्तीन्द्रियमनसामुपशमौ ब्रह्मचर्यम् । ६. बाह्य मनसोऽनिवेशनमपरिग्रहः ॥ ७. आलोके भोजनं पानञ्च ।। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ चित्त-समाधि : जैन योग ८. भूमि प्रतिवीक्षमाणो गच्छेत् ॥ ६. प्रतिलेखन-प्रमार्जनपूर्वकमुपकरणानामादाननिक्षेपं कुर्यात् ॥ १०. क्रोध-लोभ-भय-हास्यानि वर्जयेद् अनुविचिन्त्य आचक्षीत् ।। ११. अवग्रहानुज्ञां परिपालयेत् ॥ १२. ब्रह्मचर्य-घातिसंसर्गेन्द्रियप्रयोगं विवर्जयेत् ॥ १३. प्रियाप्रिययोर्न रज्येद् न द्विष्याद् न च देहमध्यासीत् ।। १४. स्थूलहिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहविरतिरणुव्रतम् ॥ १५. क्षमा-मार्दव-पार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्याग-प्राकिंचन्य-ब्रह्म चर्याणि श्रमणधर्मः ॥ १६. क्रोध-निग्रहः क्षमा । १७. हीनानामपरिभवनं मार्दवम् ।। १८. माया-निरोध आर्जवम् ॥ १६. शौचमलुब्धता ॥ २०. सत्यम् ॥ २१. हिंसादिप्रवृत्तेरुपरमणं संयमः ॥ २२. कर्म-निर्जरणहेतु पौरुषं तपः ॥ २३. संविभागकरणं त्यागः ।। २४. स्वदेहे निःसंगता आकिंचन्यम् ।। २५. ब्रह्मचर्यम् ॥ २६. शयनकाले सत्संकल्पकरणम् ।। २७. ते च-ज्योतिर्मयोऽहं आनन्दमयोऽहं स्वस्थोऽहं निर्विकारोऽहं वीय वानहं-इत्यादयः ॥ २८. निद्रामोक्षे जपो ध्यानञ्च ॥ २६. परानिष्टचिन्तनेन मनोविघातः ।। ३०. प्रात्मौपम्यचिन्तया मनोविकासः ।। सातवां प्रकरण १. तपः-सत्त्व-सूत्र-एकत्व-बलभेदात् पंचधा भावना प्रतिमां जिनकल्पं वा प्रतिपद्यमानस्य । २. तपसा क्षुधाजयः ।। ३. षण्मासं यावन्न बाधते क्षुधया । ४. सत्त्वभावनया भयं निद्राञ्च पराजयते ।। ५. उपाश्रय-तबहिः - चतुष्क-शून्यगृह-श्मशानेष्विति स्थान-भेदात् पंचधा ॥ ६. रात्रौ-सुप्तेषु सर्वसाधुषु भय-निद्राजयार्थमुपाश्रय एव कायोत्सर्गकरणं प्रथमा ।। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोनुशासनम् २२६ ७. क्वचिदुपाश्रयाद् बहिस्तात् कायोत्सर्गकरणं द्वितीया । ८. चतुष्क-शून्यगृह-श्मशानेषु कायोत्सर्गकरणं पराः ॥ ६. सूत्रभावनया कालज्ञानम् ॥ १०. सूत्रपरावर्तनानुसारेण उच्छ्वास-प्राणादयः सर्वे कालभेदा अवगताः स्युस्तथा सूत्रपरिचयः ।। ११. एकत्वभावनया देहोपकरणादिभ्यो भिन्नमात्मानं भावयन् भवति निरभिष्वङ्गः ॥ १२. बलभावनया परीषहाणां जयः ।। १३. बलं शारीरं मानसञ्च ।। १४. तत्र मानसं तथा परिवधितं यथा परीषहैरुपसर्गेश्च नोत्पद्येत् बाधा ॥ १५. यथाशक्ति चैताः परेषामपि । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो संवर तिउति उ मेहावी जाणं लोगंसि पावगं । तुटुंति पावकम्माणी' णवं कम्ममकुव्वओ ॥१।१५।६ अकुव्वओ णवं ण त्थि 'कम्मं णाम विजाणतो । णच्चाण से महावीरे' 'जे ण जाई ण मिज्जति" ॥१।१५७ ध्यान और कायोत्सर्ग झाणजोगं "समाहट कायं वोसेज्ज सव्वसो । तितिक्खं परमं णच्चा आमोक्खाए परिव्वएज्जासि ।।१।८।२७ भावना भावणाजोगसुद्धप्पा जले णावा व आहिया । णावा व तीरसंपण्णा सव्वदुक्खा तिउट्टति ॥१।१५।५ अनित्यानुप्रेक्षा "डहरा बुड्ढा य पासहा गब्भत्था वि चयंति माणवा । सेणे जह वट्टयं हरे एवं आउखयंमि तुट्टई ॥१।२।२ 'देवा गंधव्वरक्खसा असुरा भूमिचरा सिरीसवा । राया णरसेट्ठिमाहणा ठाणा ते वि चयंति दुक्खिया ॥१।२।५ 'कामेहि य संथवेहि य कम्मसहा कालेण जंतवो।। ताले जह बंधणच्चुए एवं आउखयम्मि तुट्टई ॥१॥२॥६ समता उवणीयतरस्स ताइणो" भयमाणस्स विविक्कमासणं । सामाइयमाहु तस्स जं जो अप्पाण भए ण दंसए ॥१।२।३६ "सव्वं जगं तू समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा। १।१०।७ के प्रथम दो चरण अहिंसा पुढवीजीवा पुढो सत्तार आउजीवा तहागणी । वाउजीवा पुढो सत्ता तण रुक्खा सबीयगा ॥१।११।७ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो अहावरे तसा पाणा एवं छक्काय आहिया । इत्ताव एव जीवकाए णावरे विज्जती कए ॥ १।११८ सव्वाहि अणजुत्ती हि " मइमं पडिले हिया । सव्वे अकंतदुक्खा य अतो सव्वे अहिंसया ||१|११|ε एयं खु णाणिणो सारं जं ण हिंसति कंचणं । 'अहिंसा-समयं १४ चेव एतावतं विजाणिया ||१।११।१० 'उड्ढ अहे' तिरियं च जे केइ तस्थावरा । सव्वत्थ विरति कुज्जा संति" पभू" दोसे णिरा किच्चा ण विरुज्भेज्ज मणसा वयसा चैव कायसा चेव २३१ णिव्वाणमाहियं ॥ १।११।११ केणइ । अंतस ।।१।११।१२ आत्मानुशासन डहरेण वुड्ढेणऽणुसासिते तु रातिणिएणाऽवि समव्वणं । सम्मं तयं थिरतो णाभिगच्छ णिज्जंतए वावि अपारए से ॥ १।१४।७ विउ समयाणु सिट्ठे " डहरेण वुड्ढेणऽणुसासिते तु । अभुट्ठिता घडदासिए वा अगारिणं वा समयाणु सिट्ठे ॥ १।१४८ ण तेसु कुज्भ" ण य पव्वज्जा ण यावि किंची फरुसं वदेज्जा । तहा करिस्सं ति प डिस्सुणेज्जा सेयं खुमेयं ण पमाद कुज्जा || १ | १४६ वर्णसि मूढस्स जहा अमूढा " मग्गाणुसासंति हितं पयाणं । तेणा वि मज्भं इणमेव सेयं जं मे बुधा सम्मऽणुसासयति ।। ११।१४।१० अह तेण मूढेण अमूढगस्स कायव्व पूया सविसेसजुत्ता । " एतोवमं तत्थ उदाहु वीरे अणुगम्म अत्थं उवणेइ सम्मं ॥ ११।१४।११ ताजा अंधकारसि राओ 'मग्गं ण" जाणाति अपस्समाणे । से सुरियस्सा अब्भुग्गमेणं मग्गं वियाणाति पग सितंसि || ११ | १४।१२ एवं तु सेहे वि अट्ठधम्मे धम्मं ण जाणाति अबुज्झमाणे । से कोविए * जिणवणेण पच्छा सूरोदए पासइ चक्खुणेव ।। ११।१४।१३ वीर्य दुहा वेय सुयक्खायं वीरियं* ति पवुच्चई | २६ किष्णु वीरस्वीरितं? केण वीरो ति वच्चति ? ॥ १।८।१ कम्ममेव पवेदेंति अकम्मं वा वि सुव्वया । एतेहि दोहि ठाणेहिं जेहिं दीसंति मच्चिया " || १ | ८ |२ मायं कम्ममा हंसु अप्पमायं तहावरं । तभावदेसओ वा वि बालं पंडियमेव वा ॥ १।८।३ जे या बुद्धा महाभागा वीरा ऽसम्मत्तदंसिणो । असुद्धं तेसि परक्कंतं सफलं होइ सव्वसो" ।। १।८।२३ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ शरीर निद्रा जे उ बुद्धा महाभागा वीरा सम्मत्तदंसिणो । सुद्धं तेसि परक्कतं अफलं होइ णिद्दं च भिक्खू न पमाय कुज्जा दिवसतो णणिद्दायति रत्ति पि दोहि निद्रा हि परमं विश्रामणम् । सुतं । तहा ॥ १।१५।१६ गिट्टितट्ठा व देवा व उत्तरी त्ति मे सुतं च मेतमेगेसि अमणुस्सेसु णो अंतं करेंति दुक्खाणं इहमेगेसि आहितं । आघातं पुण एगेसिं दुल्लभेऽयं समुस्सए ।।११।१५।१७ इतो विद्धसमाणस्स पुणो संबोहि दुल्लभा । दुल्लभाओ तहच्चाओ जे धम्मट्ठ वियागरे ॥।११।१५।१८ १।१४।६ चित्त-समाधि : जैन योग सव्वसो " ॥ १८२४ टिप्पणियां (सूयगडो) १. ( सू० १।१५।६ ) तुति पावकम्माणि - वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है - जिस मुनि ने अपने आस्रवद्वारों को ढक दिया है, जो विकृष्ट तप करने में संलग्न है, उसके पूर्वसंचित कर्म टूट जाते हैं और जो नए कर्म नहीं करता, उसके संपूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं । २. ( सू० १११५/७ ) कम्मं णाम विजाणतो - चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है- जो कर्म और कर्मनिर्जरण के उपायों को जानता है । इसका वास्तविक अर्थ है कि जो व्यक्ति कर्म का बंध नहीं होता । ३. ( सू० १।१५/७ ) वृत्तिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं १. नाम का अर्थ है 'नमन' अर्थात् जो कर्म के नाम-निर्जरण को जानता है । २. जो कर्म और नाम को जानता है अर्थात् जो कर्म के अवान्तर भेदों - प्रकृति स्थिति, अनुभाग और प्रदेश को सम्यग् जानता है । ३. 'नाम' शब्द का प्रयोग - संभावना के अर्थ में है । कर्म का विज्ञाता या द्रष्टा है, उसके नये महावीरे - इसका अर्थ है- महावीर्यवान्, महान् पराक्रमशाली - कर्मों को नष्ट करने में समर्थ है । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो ४. ( सू० ११५७ ) जेण जाई ण मिज्जती - इस चरण का अर्थ है जो न जन्म लेता है और न मरता है अर्थात् जो जन्म मरण की परम्परा से सर्वथा छूट जाता है । वृत्तिकार ने इसका एक वैकल्पिक अर्थ भी किया है-वह प्राणी सदा के लिए मुक्त हो जाता है । फिर उसके लिए 'यह नारक है, यह तिर्यञ्चयोनिक है' इस प्रकार का व्यपदेश नहीं होता, इस प्रकार का भेद नहीं होता । ५. ( सू० १।८।२७) भाणजोगं - भावनायोग, ध्यानयोग, तपोयोग आदि अनेक प्रकार के योग हैं । ध्यान के द्वारा होनेवाली योग-प्रवृत्ति ध्यानयोग है । चित्त का एक धारावाही होना एकाग्रता है और उसका विकल्पशून्य हो जाना निरोध है । एकाग्रता और निरोध — ये दोनों ध्यान हैं । ध्यान तीन प्रकार का है मानसिक ध्यान, वाचिक ध्यान और कायिक ध्यानइसे ध्यानयोग कहा जाता है । २३३ कार्य वोसेज्ज - इसका अर्थ है - देहासक्ति और दैहिक प्रवृत्ति का विसर्जन करना । चूर्णिकार ने काय - व्युत्सर्ग का अर्थ काया की सार-संभाल न करना, उसके निर्वाह के लिये आहार आदि की प्रवृत्ति भी न करना, उसकी सफाई न करना, आदि किया है । आमोक्खाए-आमोक्ष के दो अर्थ हैं १. जब तक मोक्ष प्राप्त न हो तब तक । छूटे तब तक । २. जब तक शरीर न इसका तात्पर्य यह है कि जब तक मनुष्य जन्म-मरण करता हुआ, समस्त कर्मों का नाशकर, कर्म - बन्धन से छूटकर मोक्ष नहीं पा लेता तब तक वह संयम का अनुपालन करे । अथवा, जीवन पर्यन्त अर्थात् जब तक उसका शरीर न छूट जाए तब तक वह संयम का पालन करे । परिव्वज्जासि-परिव्रजन का सामान्य अर्थ है- विहरण करना । इसका आग - मिक अर्थ है - संयम की साधना करना, यही अर्थ संगत है | ६. ( सू० १।१५।५ ) भावणा जोग सुद्धप्पा - जिन चेष्टाओं व संकल्पों के द्वारा मानसिक विचारों को भावित या वासित किया जाता है, उन्हें 'भावना' कहा जाता है। भावनाएं असंख्य हैं । फिर भी उनके अनेक वर्गीकरण प्राप्त हैं-पांच महाव्रत की पच्चीस भावनाएं, अनित्य आदि बारह भावनाएं, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ आदि चार भावनाएं आदि-आदि । भावनाओं का महत्त्व बतलाते हुए योगशास्त्र ४।१२२ में कहा है"आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः । त्रुटितामपि संधते, विशुद्धध्यानसन्ततिम् ॥" Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ चित्त-समाधि : जैन योग जो साधक भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करता है, वह विच्छिन्न विशुद्ध ध्यान के क्रम को पुनः साध लेता है । विशेष विवरण के लिये देखें-१. 'उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन', पृष्ठ १३७-१४२, २. 'उत्तरज्झयणाणि', भाग २ पृ० २६७-२६८ । चूर्णिकार ने भावना और योग को भिन्न-भिन्न मानकर, जिसकी आत्मा भावना और योग से विशुद्ध है उसे 'भावनायोगशुद्धात्मा' माना है । अथवा भावना और योग में जिसकी आत्मा विशुद्ध है-वह भावना योग शद्धात्मा है। वृत्तिकार ने इसे एक शब्द मानकर व्याख्या की है। जैनयोग की अनेक शाखाएं हैं :-दर्शनयोग, ज्ञानयोग, चरित्रयोग, तपोयोग, स्वाध्याययोग, ध्यानयोग, भावनायोग, स्थानयोग, गमन योग और आतापनायोग । जले णावा व आहिया-जैसे जल में चलती हुई या ठहरी हुई नौका नहीं डूबती, वैसे ही जिसकी आत्मा भावनायोग से विशुद्ध है, वह भी संसार में नहीं डूबता। वह संसार में रहता हुआ भी संसार में लिप्त नहीं होता, नौका की तरह जल से ऊपर रहता है। णावा व...."तिउदृति-नौका में नाविक है, अनुकूल पवन बह रहा है, किसी भी प्रकार की बाधा नहीं है, वह नौका सहजता से तीर को प्राप्त कर लेती है। वैसे ही विशुद्ध चरित्रवाला यह जीवरूपी पोत, आगम रूपी कर्णधार से अधिष्ठित होकर तप रूपी पवन से प्रेरित होता हुआ, सर्व दुःखात्मक संसार से पार चला जाता है और समस्त द्वन्द्वों से रहित मोक्ष रूपी तीर को पा लेता है। ७. (सू० १।२।२) जागना दुर्लभ है--यही प्रस्तुत श्लोक का हार्द है । जो वर्तमान क्षण में जागृत नहीं होता, समय की प्रतीक्षा में रहता है, वह जाग नहीं पाता । कोई भी व्यक्ति युवा होकर पुनः शिशु नहीं होता और वृद्ध होकर पुनः युवा नहीं होता । शैशव और यौवन की जो रात्रियां बीत जाती हैं वे फिर लौटकर नहीं आतीं । जीवन को बढ़ाया नहीं जा सकता, इसलिये जागृति के लिये वर्तमान क्षण ही सबसे उपयुक्त है । जो मनुष्य भविष्य में जागृत होने की बात सोचते हैं, वे अपने आपको आत्म-प्रवंचना में डाल देते हैं। ८. (सू० ११२१५) मनुष्य अपने मोह के कारण अनित्य को नित्य मानकर उसमें आसक्त हो जाता है। उसकी आसक्ति जागृति में बाधा बनती है । अनित्यता का बोध उस बाधा के व्यूह को तोड़ता है। देव और मनुष्य के भोग अनित्य हैं । उनका जीवन ही अनित्य है तब उनके भोग नित्य कैसे हो सकते हैं ? इस सत्य का बोध हो जाने पर मनुष्य जागृति के लिये प्रयत्नशील हो जाता है । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो C. ( सू० १।२६ ) संकल्प से काम और बात से संस्तव ( गाढ़ परिचय ) उत्पन्न होता है । उससे कर्म का बंध होता है । मनुष्य जब मरता है तब कामनाएं और परिचित भोग उसके साथ नहीं जाते । वह उनके द्वारा अर्जित कर्म - बन्धनों के साथ परलोक में जाता है । स्वभावतः या किसी निमित्त से मृत्यु के आने पर मनुष्य का जीवन-सूत्र टूट जाता है । काम और परिचित भोग सामग्री यहां रह जाती है और वह कहीं अन्यत्र चला जाता है । संयोग का अन्त वियोग में और जीवन का अन्त मृत्यु में होता हैं, इसलिये मनुष्य को जागरण की दिशा में प्रमत्त नहीं होना चाहिये । १०. ( सू० १२१३९ ) ताइणो- त्राता तीन प्रकार के होते हैं १. आत्म- त्राता - जिनकल्पिक मुनि । -- २. पर त्राता - —अर्हत् । ३. उभय त्राता - गच्छवासी मुनि । आसणं - चूर्णिकार ने इसका अर्थ- आसन, पीठ, फलक आदि किया है और इसके द्वारा उपाश्रय का भी ग्रहण किया है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-- वसति किया है । ११. ( सू० १1१०1७ ) प्रथम दो चरणों का प्रतिपाद्य है- मध्यस्थ ही संपूर्ण समाधियुक्त होता है । चूहों को मारकर बिल्ली का पोषण करने वाला एक का प्रिय करता है तो दूसरे का अप्रिय करता है । यह प्रिय और अप्रिय संपादन का प्रसंग समाधि का विघ्न है, इसलिये समता अनुप्रेक्षी प्रिय और अप्रिय के झंझट में न जाए । २३५ १२. (सू० १1११1७ ) स्व पुढो सत्ता - जिनमें पृथक्-पृथक् सत्त्व-आत्मा हो उन्हें पृथक् सत्त्व कहा जाता है । प्रत्येक आत्मा का अस्तित्व स्वतंत्र होता है । जैन दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु- ये सभी पृथक् सत्त्व होते हैं, इनकी अवगाहना बहुत सूक्ष्म होती है । अंगुल के असंख्येय भाग मात्र में अनेक जीव समा जाते हैं । सब जीवों का तंत्र अस्तित्व होता है । वनस्पतिकाय के दो भेद हैं- साधारण वनस्पति और प्रत्येक वनस्पति । साधारण वनस्पति अपृथक् सत्त्ववाली होती है । उसमें एक शरीर में अनन्त जीवों का आश्रय होता है । प्रत्येक वनस्पति पृथक् सत्त्व वाली होती है । उसमें प्रत्येक जीव का शरीर भिन्न-भिन्न होता हैं । शब्द विशेष विवरण के लिये देखें – दसवेआलियं ( पृ० १२५,१२६ ) वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चरण में 'प्रयुक्त 'पुढो सत्ता' वनस्पति के दो भेद - साधारण और असाधारण ( प्रत्येक ) बतलाने के लिये है । साधारण वनस्पति अपृथक् सत्त्व वाली होती है । जो सूक्ष्म वनस्पति है, वह सब Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ चित्त-समाधि : जैन योग 'साधारण' ही होती है । और जो बादर वनस्पति है, उसके दो भेद होते हैं—साधारण और असाधारण । चूर्णिकार ने भी 'पुढो सत्ता' का अर्थ प्रत्येक शरीर---स्वतंत्र शरीर किया है। किन्तु वनस्पति के विषय में वे मौन हैं । __सबीयगा-इसका अर्थ है-बीज पर्यन्त । इसके चूणिकार अगस्त्यसिंह स्थविर तथा जिनदासमहत्तर ने इस शब्द के द्वारा वनस्पति के दस भेदों का ग्रहण किया है। वनस्पति के दस भेद ये हैं-मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज । मूल की अंतिम परिणति बीज में होती है। प्रस्तुत श्लोक के 'सबीयगा' शब्द की टीका करते हुए टीकाकार शीलांकसूरि ने इस शब्द के द्वारा केवल अनाज का ग्रहण किया है । १३. (सू० ११११९ अनुजुत्तीहिं—अनुयुक्ति का अर्थ है—अनुरूप युक्ति अर्थात् सम्यक् हेतु । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-अनुकूल साधन, युक्तिसंगत युक्ति । प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य है कि मतिमान् पुरुष छह जीवनिकायों के जीवत्व की संसिद्धि उनके अनुकूल युक्तियों से करे । सभी जीवों की संसिद्धि एक ही हेतु से नहीं हो सकती। उनके लिये भिन्न-भिन्न उक्तियां होती हैं । विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १७५३१७५८ की स्वोपज्ञवृत्ति में इन युक्तियों का सुन्दर समावेश है-वृत्तिकार ने इन युक्तियों का संक्षिप्त विवरण दिया है १. पृथ्वी सजीव है, क्योंकि पृथ्वीरूप प्रवाल, नमक, पत्थर आदि पदार्थ अपने समान जातीय अंकुर से उत्पन्न करते हैं, जैसे अर्श का विकार अंकुर ।। २. पानी सजीव है क्योंकि भूमि को खोदने पर वह वास्तविक रूप से उपलब्ध होता है, जैसे-दर्दुर । अन्तरिक्ष से स्वाभाविक रूप से गिरता है, जैसे—मत्स्य । ३. अग्नि सजीव है, क्योंकि अनुकूल आहार (ईंधन) की वृद्धि से वह बढ़ती है, जैसे-बालक आहार मिलने पर बढ़ता है। ४. वायु सजीव है क्योंकि बिना किसी की प्रेरणा के वह नियमतः तिरछी गति करता है । जैसे-गाय । ५. वनस्पति सजीव है, क्योंकि उसमें उत्पत्ति, विनाश, रोग, वृद्धत्व आदि होते हैं । चिकित्सा से वह स्वस्थ होती है । उसके व्रण भरते हैं। उसमें आहार की इच्छा होती है, दोहद भी होता है। कुछ वनस्पतियां स्पर्श से संकुचित होती हैं, कुछ रात में सोती हैं और दिन में जागती हैं, कुछ दूसरे के आश्रय से उपसर्पण करती हैं। १४. (सू० १।११।१०) अहिंसा-समयं—इसकी व्याख्या में चूर्णिकार और वृत्तिकार का मतभेद है। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-अहिंसा ही समता है । जैसे मुझे Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २३७ दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही दूसरे जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है—अथवा मुझे पीड़ित करने से मुझे दुःख होता है वैसे ही दूसरे जीवों को पीड़ित करने से उन्हें दुःख होता है । इसलिये अहिंसा समता है या समता ही अहिंसा है। वृत्तिकार ने 'समय' का अर्थ आगम किया है। उनके अनुसार 'अहिंसा-समयं' का अर्थ है-अहिंसा प्रधान आगम अथवा उपदेश । वस्तुतः प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि पढ़ने का सार है-हिंसा से निवृत्त होना । सबके साथ समान बर्ताव करना, यही समता है, यही अहिंसा है। १५. (सू० १११११११) संति -प्राणातिपात की निवृत्ति स्वयं के लिये तथा दूसरे प्राणियों के लिए शांति का कारण बनती है, इसलिये वह शांति है। जो प्राणातिपात से निवृत्त हैं, उनसे कोई नहीं डरता और न वे जन्मान्तर में भी किसी से डरते हैं । निव्वाण-प्राणातिपात की निवृत्ति निर्माण का प्रधान हेतु है। इसलिये वही निवृत्ति है अथवा जो विरत है वही शान्तिरूप और निर्वृत्तिरूप है। १६. (सू० १।११।१२) पभू-चूणिकार ने प्रभू के तीन अर्थ किये हैं१. जितेन्द्रिय २. आत्मा ३. मोक्षमार्ग की अनुपालना में समर्थ । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं१. जितेन्द्रिय २. संयम के आवारक कर्मों को तोड़कर मोक्षमार्ग का पालन करने में समर्थ । दोसे-चूर्णिकार ने क्रोध आदि को दोष माना है और वृत्तिकार ने पांच आश्रवद्वारों-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को दोष माना है। प्रकरण के अनुसार 'दोष' का अर्थ द्वेष प्रतीत होता है। मनुष्य द्वेष के कारण दूसरों के साथ विरोध करता है । इसीलिए बतलाया गया है कि द्वेष का निराकरण कर किसी के साथ विरोध न करे । णिराकिच्चा-इसका अर्थ है-पीठ पीछे । १७. (सू०११४।७) डहरेण वुड्ढेण-डहर का अर्थ है छोटा और वुड्ढेण का अर्थ है बूढ़ा। प्रस्तुत प्रसंग में दीक्षा-पर्याय और अवस्था की दृष्टि से छोटे-बड़े का उल्लेख किया गया है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'डहर' के साथ जन्म-पर्याय और दीक्षा-पर्याय को जोड़ा है। चूर्णिकार ने वृद्ध के साथ अवस्था का और वृत्तिकार ने अवस्था और श्रुत-दोनों का संबंध जोड़ा है। वृत्तिकार का कथन है कि कोई मुनि प्रमाद का आचरण करता है Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ चित्त-समाधि : जैन योग तब दीक्षा - पर्याय या अवस्था में छोटे मुनि द्वारा सावधान किये जाने पर या अवस्था में बड़े तथा श्रुत में विशिष्ट मुनि के द्वारा कहे जाने पर उसको अन्यथा न मानें । रातिणिण - रात्निक का शाब्दिक अर्थ हैं - दीक्षा - पर्याय में बड़ा । चूर्णिकार ने आचार्य, दीक्षा - पर्याय में ज्येष्ठ तथा प्रवर्तक, गणी, गणधर, गणावच्छेदक और स्थविर को 'रात्निक' शब्द के अन्तर्गत गिनाया है । वृत्तिकार ने दीक्षा - पर्याय में ज्येष्ठ तथा श्रुत में विशिष्ट मुनि को 'रात्निक' माना है । देखें - दसवेआलियं, ६ । समव्वएण- दीक्षा-पर्याय अथवा अवस्था में समान । इसका संस्कृत रूप 'समव्रतेन' और अर्थ सहदीक्षित किया है । थिरओ - इसका अर्थ है --प्रमाद के प्रति सावधान किये जाने पर प्रमाद को पुनः न दोहराना । णिज्जंतए — नीयमान का अर्थ है -- ले जाया जाता हुआ । जाता हुआ, अनुशासित किया कोई उसे कहता है-भाई ! मुहूर्तमात्र के लिये अवलंबन कोई व्यक्ति नदी की धारा में बहता जा रहा है । तुम वेग से बहते हुए इस काठ का या वृक्ष की शाखा का लो। तुम पानी में डूबने से बचकर पार पा जाओगे । ऐसा कहने पर वह उस पर कुपित होता है । और वैसा नहीं करता । वह व्यक्ति नदी में डूब मरता है, कभी उस पार नहीं जा पाता । इसी प्रकार प्रमादाचरण करने वाले मुनि को आचार्य बार-बार सावधान करते हैं और उसे मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर करने का प्रयत्न करते हैं । किन्तु वह कषाय के वशीभूत होकर उनके उपदेश को स्वीकार नहीं करता । अथवा अन्य मुनियों द्वारा सावधान किये जाने पर वह अहं से परिपूर्ण होकर सोचता है- ये छोटे और अल्पश्रुत मुनि भी मुझे सावधान कर रहे हैं - ऐसा व्यक्ति कभी संसार का पार नहीं पा सकता । १८. ( सू० १।१४८ ) विणं समया सिट्ठे — व्युत्थित का अर्थ है - संयम के प्रतिकूल आचरण करने वाला । व्युत्थान चित्त की चंचल अवस्था है । पातंजल योगदर्शन में व्युत्थान संस्कार निरोध संस्कार का प्रतिपक्षी है । व्युत्थान धर्म की प्रधानता वाला व्युत्थित व्यक्ति संयम से विचलित हो जाता है, इसलिये उसकी संज्ञा व्युत्थित है । वह स्वतीर्थिक भी हो सकता है और परतीर्थिक भी । कोई मुनि प्रमाद का आचरण करता है । वह ईर्यासमिति का सम्यग् शोधन न करता हुआ त्वरित गति से चल रहा है । तब व्युत्थित व्यक्ति उसे कहता है - " मुने ! ऐसा चलना तुम्हारे लिये योग्य नहीं है, क्योंकि तुम्हारे आगमों में यह प्रतिपादित है कि Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १३६ मुनि युग-प्रमाण भूमि को देखता हुआ धीरे-धीरे चले।" इस प्रकार व्युत्थित के द्वारा आगम-प्रमाण पुरस्सर अनुशासित होने पर समता में रहना मुनि का सामायिक धर्म है। अब्भुट्टिताए घडदासिए-अभ्युत्थित का अर्थ है--तत्पर होना। प्रकरणवश अभ्युत्थित का अर्थ 'दुःशील के आचरण में तत्पर' किया गया है। घटदासी का अर्थ है-- पानी लाने वाली दासी । तात्पर्य है कि घटदासी के द्वारा भी प्रमादाचरण के प्रति सावधान किये जाने पर समता में रहना मुनि का सामायिक धर्म है । घटदासी के विषय में यह कथन है तो भला अल्पशील वाले व्यक्ति के द्वारा कहने पर तो अस्वीकार करने की बात ही नहीं होनी चाहिये ।। वह घटदासी सर्पिणी की भांति फुफकार करती हुई मुनि को सावधान करते हुए कहे-'अरे ! क्या तुम ऐसा कर सकते हो ?' अथवा अत्यन्त पतित दासदासी भी सावधान करे तो मुनि ऐसा न कहे–'तुम भले ही सच कह रही हो, परन्तु मुझे कहने वाली तुम कौन हो?' अगारिणं वा समयाणुसिछे-अगारी अर्थात् घर-गृहस्थी, चाहे फिर वह स्त्री, पुरुष या नपुंसक हो । प्रस्तुत प्रसंग में 'समय' का अर्थ है-सामाजिक शास्त्र । गृहस्थों के सारे अनुष्ठान सामाजिक शास्त्र के द्वारा अनुशासित होते हैं। प्रमादाचरण करने वाले मुनि को गृहस्थ कहता है-'मुने ! गृहस्थ के लिये भी ऐसा आचरण करना विहित नहीं है और आप ऐसा आचरण कर रहे हैं ?' १६. (सू० १११४६) कुज्झे-दूसरे के द्वारा दुर्वचन कहने पर वह मुनि सोचे___ आक्रुष्टेन मतिमता, तत्त्वार्थविचारणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोपः, स्यादनृतं किं नु कोपेन ? कोई व्यक्ति आक्रुष्ट हो तब वह उसके आक्रोश करने के कारणों को खोजे । यदि आक्रोश करने का कारण उपस्थित है तो उस पर क्रोध क्यों किया जाए ? यदि आक्रोश व्यर्थ ही हो रहा है तो उससे क्या ? उस पर क्रोध क्यों किया जाए । पव्वहेज्जा-इसका अर्थ है----लकड़ी, पत्थर या ईंट आदि से मारना, चोट पहुंचाना। तहा करिस्सं......"सेयं खु मेयं-अनुशासन किये जाने पर कोप करना, व्यथित होना और परुष वचन बोलना वर्जित है । अनुशासन के उत्तर में दो वाक्यों का प्रयोग होना चाहिये--१. तहा करिस्सं, २. सेयं खु मेयं । चूर्णिकार के अनुसार 'तथा करिष्यामि'-वैसा करूंगा-यह स्वपक्ष में 'मिच्छामि दुक्कडं' के समान तथा पर-पक्ष वालों के लिये 'यह मेरे लिये श्रेय है'--यह कहना उचित है । वृत्तिकार ने स्वपक्ष या परपक्ष का विभाजन नहीं किया है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० चित्त-समाधि : जैन योग २०. (सू० १११४।१०) अमूढा- इसका अर्थ है-सही मार्ग का जानकार । वह पथदर्शक जो सही-सही जानता है कि कौन-सा मार्ग किस ओर जाता है । मग्गाणुसासंति-यहां दो पदों—मग्ग + अणुसासंति में संधि हुई है । इसका अर्थ है कि पथदर्शक उस दिग्मूढ़ पथिक को सही मार्ग दिखाता है। वह कहता है-तुम इस मार्ग से चलो, अपने गन्तव्य तक पहुंच जाओगे । यह मार्ग तुम्हारे लिये हितकर और क्षेमकर है । इस मार्ग में फलों से लदे वृक्ष तथा स्थान-स्थान पर जल के सरोवर हैं। इस मार्ग पर चलते हुए तुम्हें भूख-प्यास से पीड़ित नहीं होना पड़ेगा। सम्मऽणसासयंति—यहां दो पदों-सम्म+अणुसासयंति में संधि हुई है । चूर्णिकार ने सम्यक् का अर्थ ऋजु और अनुशासना का अर्थ-मार्गोपदेशना किया है । २१. (सू० १११४।११) एतोवमं ....."उवणेइ सम्म- गन्तव्य स्थान प्राप्त कर लेने पर दिग्मूढ़ व्यक्ति अपने मार्गदर्शक की कुछ विशेष पूजा करता है, उसका सम्मान करता है फिर चाहे पथदर्शक चाण्डाल, पुलिन्द, गन्द, गोपाल आदि ही क्यों न हो और स्वयं उनसे विशिष्ट जाति या बलोपेत भी क्यों न हो । वह यह सोचता है-इस पथदर्शक ने मुझे दुर्ग आदि दुर्लघ्य स्थानों तथा हिंस्र पशुओं के भय से बचाकर निर्विघ्न रूप से गन्तव्य तक पहुंचाया है । मुझे इसके प्रति विशेष कृतज्ञ होना चाहिये । इसने जो मेरी सहायता की है, उससे भी अधिक मैं इसे कुछ दूं-ऐसा सोचकर वह उस मार्गदर्शक को वस्त्र, अन्न, पान तथा अन्य भोग्य-सामग्री स्वयं देता है। यह एक दृष्टांत है। धर्म के क्षेत्र में भी साधक के लिये अपने मार्गदर्शक के प्रति विशेष पूजा का व्यवहार करणीय है। अपने आचार्य को आहार आदि लाकर देना द्रव्य पूजा है । उनकी भक्ति और गुणानुवाद करना भावपूजा है। प्रस्तुत श्लोकगत अर्थ को भलीभांति समझकर मुनि उसको अपने पर घटित करे । वह यह सोचे—गुरु ने अपने सद् उपदेशों के द्वारा मुझे मिथ्यात्व रूपी वन से तथा जन्म-मरण आदि अनेक उपद्रव-बहुल अवस्थाओं से बचाया है। ये मेरे परम उपकारी हैं । मुझे इनके प्रति बहुत कृतज्ञ रहना चाहिये । अभ्युत्थान आदि विनय प्रदर्शित कर मुझे इनकी पूजा करनी चाहिये । मुनि चाहे चक्रवर्ती ही क्यों न रहा हो और आचार्य यदि तुच्छ जाति के भी हों, तो भी मुनि का कर्तव्य है कि वह आचार्य के प्रति पूर्ण कृतज्ञ रहे। दिग्मूढ़ मुनि को सत्पथ पर लाने वाले आचार्य उसके परमबन्धु होते हैं । चूर्णिकार ने दो पद्य उद्धृत किये हैं जो व्यक्ति जलते हुए घर में सोए हुए व्यक्ति को जगाता है, वह उसका परमबन्धु होता है। कोई अज्ञानी व्यक्ति विष-मिश्रित भोजन करता है और ज्ञानी उसे विष को बता Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २४१ देता है, वह उसका परमबन्धु होता है। २२. (सू० १।१४।१२) ___ मग्गं ण"""""एक अटवी है । वह गड्डों, पत्थरों, कन्दराओं तथा वृक्षों से दुर्गम है । ऐसी अटवी से प्रतिदिन आने-जाने के कारण कोई व्यक्ति उसकी पगडंडियों से परिचित हो जाता है । किन्तु वह भी उस अटवी में अन्धकार के कारण पूर्व परिचित पगडंडियों को भी नहीं देख पाता। २३. (सू० १।१४।१३) कोविए---कोविद का अर्थ है-ज्ञानी । जो ग्रहण-शिक्षा में निपुण होता है, वह जान लेता है कि उसे कैसा आचरण करना चाहिये और कैसा आचरण नहीं करना चाहिये । जो व्यक्ति सर्वज्ञप्रणीत आगमों के अनुसार वर्तन करने में निपुण होता है, वह कोविद कहलाता है। २४. (सू० ११) वीरियं-वीर्य का अर्थ है--शक्ति, बल। उसके तीन प्रकार हैं-सचित्त वीर्य, अचित्त वीर्य और मिश्र वीर्य । सचित्त वीर्य तीन प्रकार का है १. मनुष्यों का- अर्हत्, चक्रवर्ती, बलदेव आदि का वीर्य । २. पशुओं का हाथी, घोड़ा, सिंह, व्याघ्र, वराह, अष्टापद आदि का वीर्य । जैसे--भेड़िया उछलकर भेड़ को मार डालता है वैसे ही अष्टापद उछलकर हाथी को मार डालता है। यह अष्टापद की शक्ति है। ३. निर्जीव पदार्थों का-जैसे गोशीर्षचन्दन का लेप ग्रीष्मकाल में दाह का नाश करता है और शीतकाल में शीत का नाश करता है । जैसे--रत्नकंबल शीतकाल में गरम और ग्रीष्म में ठण्डा होता है। अचित्त वीर्य :--आहार, स्निग्ध पदार्थ, भक्ष्य और भोज्य पदार्थों की शक्ति को अचित्त वीर्य कहा जाता है । इसी प्रकार कवच आदि आवरणों का तथा अन्यान्य शस्त्रों की शक्ति भी अचित्त वीर्य कहलाती है । आहार में काम आने वाले पदार्थों की शक्ति भिन्न-भिन्न होती है । जैसे घेवर प्राणों को उत्तेजित करने वाला, हृदय को प्रसन्न करने वाला और कफ का नाशक होता है। इसी प्रकार औषधियों की भी अपनी-अपनी शक्ति होती है । शल्य को निकालने, घाव भरने, विष के प्रभाव को दूर करने, बुद्धि को वृद्धिगत करने–ये भिन्न-भिन्न औषधियों की शक्तियां हैं। कुछ विषघाती द्रव्य ऐसे होते हैं जिनको सूंघने मात्र से विष निकल जाता है। कुछ ऐसे होते हैं जिनका लेप करने से विष दूर होता है । कुछ के आस्वादमात्र से विष नष्ट हो जाता है । एक द्रव्य ऐसा होता है जिसको खा लेने पर एक महीने तक भूख नहीं लगती, शक्ति की हानि भी नहीं होती। ___कुछ द्रव्यों के मिश्रण से बनी हुई बाती पानी से भी जल उठती है। कश्मीर आदि प्रदेशों में लोग कांजी से दीया जलाते हैं। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग इस प्रकार विभिन्न द्रव्यों में चामत्कारिक शक्तियां होती हैं । उनका विवरण प्रस्तुत करने वाला ग्रंथ है - योनिप्राभृत । यह द्रव्य - वीर्य का कुछ विवरण है । इसी प्रकार क्षेत्र और काल वीर्य भी होता | क्षेत्रवीर्य जैसे देवगुरु आदि क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले सभी द्रव्य विशिष्ट शक्ति सम्पन्न होते हैं । काल की भी अनन्त शक्ति होती है । आयुर्वेद ग्रंथों में काल के प्रभाव से होने वाली गुणवृद्धि का स्पष्ट उल्लेख है— वर्षा ऋतु में नमक, शरद ऋतु में पानी, हेमन्त में गाय का दूध, शिशिर में आंवले का रस, वसन्त में घी और ग्रीष्म में गुड़ —ये अमृततुल्य हो जाते हैं । भाववीर्य - इसके तीन प्रकार हैं- औरस्य बल, इन्द्रिय बल और अध्यात्म २४२ बल । २५. ( सू० १1८1२) कर्मवीर्य-कर्म और क्रिया- दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । आगम में कर्म के अनेक पर्यायवाची शब्द मिलते हैं - उत्थान, कर्म, बल, वीर्य । इसका दूसरा अर्थ है - कर्मों के उदय से निष्पन्न शक्ति को कर्मवीर्य कहा जाता है । यह बालवीर्य है । अकर्मवीर्यवीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न सहनशक्ति को अकर्म वीर्य कहा जाता है । इसमें कर्म-बंध नहीं होता और न यह कर्मबन्ध में हेतुभूत ही होता है । यह पंडितवीर्य है । सुव्वया - चूर्णिकार ने 'सुव्रत' का अर्थ तीर्थंकर किया है । २६. ( सू० ११८१३) पमा कम्ममा हंसु - कर्मवीर्य को प्रमाद और अकर्मवीर्य को अप्रमाद कहा गया है | यह कथन कारण में कार्य का उपचार कर किया गया है । तब्भावदेसओ- - इसका अर्थ है - तद्भाव की अपेक्षा से । 'भाव' का अर्थ है-होने से और आदेश का अर्थ है-कथन, उपदेश । अर्थात् इन दोनों चरणों का अर्थ होगा - कर्मवीर्य के तद्भाव की अपेक्षा से मनुष्य बाल और अकर्मवीर्य के तद्भाव की अपेक्षा से मनुष्य पंडित कहलाता है । अभव्य प्राणियों का बालवीर्य अनादि - अपर्यवसित होता है और भव्य प्राणियों का बालवीर्य अनादि सपर्यवसित और सादि - सपर्यवसित- दोनों प्रकार का होता है । पंडित वीर्य सादि सपर्यवसित ही होता है । २७-२८. ( सू० १।८।२३, २४ ) साधना के क्षेत्र में दो प्रकार के पुरुष होते हैं १. अबुद्ध और असम्यक्त्वदर्शी । २. बुद्ध और सम्यक्त्वदर्शी । ये दोनों ही वीर होते हैं । अबुद्ध पुरुष सकर्मवीर्य में वर्तमान होते हैं और बुद्ध Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २४३ पुरुष अकर्मवीर्य में वर्तमान होते हैं । ये दोनों ही पराक्रम करते हैं । अबुद्ध पुरुष सकर्मवीर्य से भावित होकर पराक्रम करते हैं, इसलिये उनका पराक्रम अशुद्ध और सफलकर्मबंधयुक्त होता है । बुद्ध पुरुष अकर्मवीर्य से भावित होकर पराक्रम करते हैं, इसलिये उनका पराक्रम शुद्ध और अफलकर्मबंधमुक्त होता है । ये दोनों श्लोक सकर्मवीर्य और अकर्मवीर्य के उपसंहार-वाक्य हैं। इनमें यह प्रतिपादित किया गया है कि पराक्रम प्रत्येक मनुष्य करता है । अबुद्ध या अज्ञानी मनुष्य भी करता है तथा बुद्ध या ज्ञानी मनुष्य भी करता है। पराक्रम अपने में पराक्रम-मात्र है । उसमें कोई अन्तर नहीं होता। अन्तर डालने वाले दो तत्त्व हैं-ज्ञान और दृष्टि । अज्ञान और असम्यक्दृष्टि से भावित मनुष्य का पराक्रम अशुद्ध और सफल होता है । अशद्ध का अर्थ है कि वह शल्य.गौरव. कषाय आदि दोषों से यक्त होता है और सफल का अर्थ है कि वह शल्य आदि दोषों से मुक्त होने के कारण कर्मबंध का हेतु भी बनता है । ज्ञान और सम्यक्दृष्टि से भावित मनुष्य का पराक्रम शुद्ध और अफल होता है । शुद्ध का अर्थ है कि वह शल्य, गौरव, कषाय आदि दोषों से मुक्त होता है और अफल का अर्थ है कि वह शल्य आदि दोषों से मुक्त होने के कारण संयममय होता है। संयम का फल है-अनास्रव-कर्म बंध न होना। असम्यक्त्वदर्शी के पराक्रम को अशुद्ध और सफल कहने का तात्पर्य शल्य आदि दोषों से युक्त पराक्रम की, साधना की दृष्टि से अवांछनीयता प्रदर्शित करना है। प्रस्तुत सूत्र के दूसरे अध्ययन में इसका समर्थन सूत्र मिलता है"जइ वि य णिगिणे किसे चरे, जइ विय भुंजिय मासमंतसो। जे इइ मायादि मिज्जई, आगन्ता अब्भादणंतसो।।" यद्यपि कोई भिक्षु नग्न रहता है, देह को कृश करता है और मास-मास के अन्त में एक बार खाता है, फिर भी माया आदि से परिपूर्ण होने के कारण वह अनन्त बार जन्म-मरण करता है। चूणि के आधार पर इन दोनों श्लोकों का प्रतिपाद्य यह है-अबुद्ध और असम्यक्त्वदर्शी का पराक्रम कषाय आदि दोषों से युक्त होने के कारण अशुद्ध होता है। बुद्ध और सम्यक्त्वदर्शी का पराक्रम कषाय आदि दोषों से मुक्त होने के कारण शुद्ध होता है । समीक्षात्मक दृष्टि से यह कहना उचित होगा कि इहलौकिक और पारलौकिक सुखों की आकांक्षा तथा पूजा श्लाघा के लिये किया जाने वाला पराक्रम साधना की दृष्टि से अवांछनीय है और केवल निर्जरा के लिये किया जाने वाला पराक्रम वांछनीय है। असम्यक्त्वदर्शी निर्जरा के लिये कुछ भी नहीं करता और सम्यक्त्वदर्शी सब कुछ निर्जरा के लिये ही करता है, यह इसका प्रतिपाद्य नहीं है । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाओ बत्तीसं जोगसंगहा पण्णत्ता, तं जहा आलोयणा निरवलावे, आवईसु दढधम्मया । अणिस्सिओवहाणे य, सिक्खा निप्पडिकम्मया ।।१॥ अण्णातता अलोभे य, तितिक्खा अज्जवे सुती । सम्मदिट्टी समाही य, आयारे विणओवए ।।२।। धिईमई य संवेगे, पणिही सुविहि संवरे । अत्तदोसोवसंहारे, सव्व कामविरत्तया ॥३॥ पच्चक्खाणे विउस्सग्गे, अप्पमादे लवालवे । झाणसंवरजोगे य, उदए मारणंतिए ॥४॥ संगाणं च परिण्णा, पायच्छित्तकरणेत्ति य । आराहणा य मरणंते, बत्तीसं जोगसंगहा ।।५।। सम० ३२।१ बत्तीस योग-संग्रह जैन परम्परा में 'योग' शब्द मन, वचन और काया की प्रवृत्ति के लिए प्रयुक्त होता है । प्रस्तुत प्रसंग में 'योग' शब्द समाधि का वाचक है। यहां जिन बत्तीस योगों का संग्रहण किया है, वे सब समाधि के कारणभूत हैं। इसे हम 'समाधि सूत्र' भी कह सकते हैं। उत्तराध्ययन के उनतीसवें अध्ययन में इन में से अनेक सूत्रों का उल्लेख है, जैसे-संवेग, अनुप्रेक्षा, आलोचना, तितिक्षा, आर्जव, योग-प्रत्याख्यान, संवर, व्युत्सर्ग, अप्रमाद, अलोभ आदि सूत्र अर्थबोध तथा तात्पर्य की दृष्टि से अवश्य द्रष्टव्य हैं । बत्तीस योग-संग्रह ये हैं१. आलोचना-अपने प्रमाद का निवेदन करना। २. निरपलाप-आलोचित प्रमाद का अप्रकटीकरण ।। ३. आपत्काल में दृढ़धर्मता—किसी भी प्रकार की आपत्ति में दृढ़धर्मी बने रहना। ४. अनिश्रितोपधान-दूसरों की सहायता लिए बिना तपः कर्म करना । ५. शिक्षा-सूत्रार्थ का पठन-पाठन तथा क्रिया का आचरण । ६. निष्प्रतिकता-शरीर की सार-संभाल या चिकित्सा का वर्जन । ७. अज्ञातता-अज्ञात रूप में तप करना, उसका प्रदर्शन या प्रख्यापन नहीं करना। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाओ २४५ ८. अलोभ-निर्लोभता का अभ्यास करना । ६. तितिक्षा-कष्ट-सहिष्णुता, परीषहों पर विजय पाने का अभ्यास करना । १०. आर्जव-सरलता। ११. शुचि-पवित्रता, सत्य, संयम आदि का आचरण । १२. सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दर्शन की शुद्धि । १३. समाधि-चित्त-स्वास्थ्य । १४. आचार----आचार का सम्यक् प्रकार से पालन करना, उसमें माया न करना। १५. विनयोपग-विनम्र होना, अभिमान न करना । १६. धृतिमति-धैर्ययुक्त बुद्धि, अदीनता । १७. संवेग-संसार-वैराग्य अथवा मोक्ष की अभिलाषा । १८. प्रणिधि-अध्यवसाय की एकाग्रता । वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'मायाशल्य' किया है और उसका आचरण न करने का निर्देश दिया है । आवश्यकवृत्ति में भी 'पणिही' का अर्थ माया किया है और उसे न करने की बात कही है । किन्तु दशवैकालिक (८।१) के 'आयारपणिहिं लद्ध'-इस वाक्य के संदर्भ में 'पणिहि'-प्रणिधान का अर्थ चित्त की निर्मलता या समाधि होना चाहिए । अवधान, समाधान और प्रणिधान-ये तीनों समाधि के पर्यायवाची शब्द हैं। राग-द्वेष मुक्त भाव में चित्त को एकाग्र करने का अभ्यास प्रणिधि है । इसके दो भेद होते हैं-दुष्प्रणिधि और सुप्रणिधि । यहां सुप्रणिधि विवक्षित है । १६. सुविधि-सद् अनुष्ठान । २०. संवर-आस्रवों का निरोध । २१. आत्मदोषोपसंहार-अपने दोषों का उपसंहरण । २२. सर्वकामविरक्तता-समस्त विषयों से विमुखता । २३. प्रत्याख्यान-मूलगुण विषयक त्याग । २४. प्रत्याख्यान-उत्तरगुण विषयक त्याग । २५. व्युत्सर्ग-शरीर, भक्तपान, उपधि तथा कषाय का विसर्जन । २६. अप्रमाद-प्रमाद का वर्जन । २७. लवालव-सामाचारी के पालन में सतत जागरूक रहना । 'लव' शब्द कालवाची है । इसका अर्थ है-क्षण । 'लवालव' अर्थात् प्रतिक्षण अप्रमाद की साधना करना । यथालंदक मुनि निरंतर अप्रमाद की साधना करते हैं । वे क्षणभर के लिए भी प्रमाद नहीं करते और यदि कभी प्रमाद आ जाता है तो उसका तत्काल प्रायश्चित्त कर लेते हैं। २८. ध्यान संवर योग–महाप्राण ध्यान की साधना करना । आवश्यक नियुक्ति में 'झाणसंवर योग' का अर्थ 'सूक्ष्म ध्यान' किया है । अवचूर्णि Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ चित्त-समाधि : जैन योग कार ने इसको समझाने के लिए एक घटना का उल्लेख किया है - सिंबवर्धनपुर में मुडfor ( मुण्डिकामुक ) नाम का राजा राज्य करता था । आचार्य पुण्यभूति ने उसे श्रावक बनाया । उनका बहुश्रुत गीतार्थ शिष्य पुष्यमित्र खिन्न होकर कहीं अन्यत्र विहरण करने लगा । समीप आने वाले शिष्य अगीतार्थ थे । आचार्य ने एक बार पुष्यमित्र को बुला भेजा और सारी जानकारी दे 'सूक्ष्म ध्यान' की साधना में संलग्न हो गए । वे एक कमरे के भीतर निश्चेष्ट अवस्था में मृतवत् लेटे हुए थे । पुष्यमित्र द्वार पर बैठा रहता था । कमरे में प्रवेश निषिद्ध था । एक बार एक शिष्य ने छिपकर कमरे के भीतर झांका और उसने देखा कि आचार्य भूमि पर निश्चेष्ट पड़े हैं । उसने अन्य साधर्मिक साधुओं से कहा - आचार्य दिवंगत हो गए हैं । यह संवाद राजा तक जा पहुंचा। वह आचार्य का परम श्रद्धालु श्रावक था । उसने वहां आकर पूछताछ की। पुष्यमित्र ने सारी बात बताते हुए कहा कि आचार्य ध्यान-संलग्न हैं, मृत नहीं । किसी ने भी उसकी बात पर विश्वास नहीं किया । अनेक शिष्यों ने कहा - 'पुष्यमित्र सर्व - लक्षण - सम्पन्न आचार्य की देह से वेताल को साध रहा है । सबको यह बात यथार्थ लगी । आचार्य की मृत देह को श्मशान ले जाने के लिए शिविका तैयार की गई । पुष्यमित्र कमरे के भीतर गया और आचार्य के द्वारा पूर्व संकेतित अंगुष्ठ को दबाया । आचार्य सचेत हुए और बोले - 'आर्य ! तुमने मेरे ध्यान में व्याघात क्यों डाला ?' उसने शिष्यों द्वारा प्रचारित बात उन्हें कह सुनाई । २६. मारणांतिक उदय - मारणांतिक वेदना का उदय होने पर भी क्षुब्ध न होना, शांत और प्रसन्न रहना । ३०. संग- परिज्ञा — आसक्ति का त्याग । ३१. प्रायश्चित्तकरण-दोष - विशुद्धि का अनुष्ठान करना । ३२. मारणांतिक आराधना - मृत्युकाल में आराधना करना । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई आठ आत्मा कतिविहा णं भंते ! आया पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठविहा आया पण्णत्ता, तं जहा-दवियाया, कसायाया, जोगाया, उवओगाया, नाणाया, दंसणाया, चरित्ताया, वीरियाया। भगवई १२१२०० जीव के मध्य प्रदेश और बंध से किं तं पयोगबंधे ? पयोगबंधे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-अणादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए । तत्थ णं जे से अणादीए अपज्जवसिए से णं अट्ठण्हं जीवमझपएसाणं, तत्थ वि णं तिण्हं-तिण्हं अणादीए अपज्जवसिए, सेसाणं सादीए । तत्थ णं जे से सादीए अपज्जवसिए से णं सिद्धाणं । तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से णं चउविहे पण्णत्ते, तं जहाआलावणबंधे, अल्लियावणबंधे, सरीरबंधे, सरीरप्पयोगबंधे । ८।३५४ कति णं भंते ! जीवत्थिकायस्स मज्झपदेसा पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झपदेसा पण्णत्ता। २५।२४३ एए णं भंते ! अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झपदेसा कतिसु आगासपदेसेसु ओगाहंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कंसि वा दोहिं वा तीहिं वा चहि वा पंचहिं वा छट्टि वा, उक्कोसेणं अट्ठसु, नो चेव णं सत्तसु । २५।२४४ आत्मा और शरीर आया भंते ! काये ? अण्णे काये । गोयमा ! आया वि काये, अण्णे वि काये । रूविं भंते ! काये ? अरूवि काये ? गोयमा ! रूवि पि काये, अरूवि पि काये । सचित्ते भंते ! काये ? अचित्ते काये ? गोयमा ! सचित्ते वि काये, अचित्ते वि काये । जीवे भंते ! काये ? अजीवे काये ? गोयमा ! जीवे वि काये, अजीवे वि काये । जीवाणं भंते ! काये ? अजीवाणं काये ? गोयमा ! जीवाण वि काये, अजीवाण वि काये । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ चित्त-समाधि : जैन योग पुवि भंते ! काये ? कायिज्जमाणे काये ? कायसमयवीतिक्कते काये ? गोयमा ! पुवि पि काये, कायिज्जमाणे वि काये, कायसमयवीतिक्कते वि काये । पुवि भंते ! काये भिज्जति ? कायिज्जमाणे काये भिज्जति? कायसमयवीतिक्कते काये भिज्जति ? गोयमा ! पुवि पि काये भिज्जति, कायिज्जमाणे वि काये भिज्जति, कायसमयवीतिक्कते वि काये भिज्जति । १३।१२८ कतिविहे णं भंते ! काये पण्णत्ते ? गोयमा ! सत्तविहे काये पण्णत्ते, तं जहा-ओरालिए, ओरालियमीसए, वे उव्विए, वेउव्वियमीसए, आहारए, आहारगमीसए, कम्मए । १३११२६ आत्मा और भाषा रायगिहे जाव एवं वयासी-आया भंते ! भासा ? अण्णा भासा ? गोयमा ! नो आया भासा, अण्णा भासा । रूवि भंते ! भासा ? अरूवि भासा ? गोयमा ! रूवि भासा, नो अरूवि भासा । सचित्ता भंते ! भासा? अचित्ता भासा ? गोयमा ! नो सचित्ता भासा, अचित्ता भासा । जीवा भंते ! भासा ? अजीवा भासा ? गोयमा ! नो जीवा भासा, अजीवा भासा । जीवाणं भंते ! भासा ? अजीवाणं भासा ? गोयमा ! जीवाणं भासा, नो अजीवाणं भासा । पुव्वि भंते ! भासा ? भासिज्जमाणी भासा ? भासासमयवीतिक्कता भासा ? गोयमा ! नो पुवि भासा, भासिज्जमाणी भासा, नो भासासमयवीतिक्कंता भासा । वि भंते ! भासा भिज्जति ? भासिज्जमाणी भासा भिज्जति ? भासासमयवीतिक्कता भासा भिज्जति ? गोयमा ! नो पुवि भासा भिज्जति, भासिज्जमाणी भासा भिज्जति, नो भासासमयवीतिक्कता भासा भिज्जति । १३।१२४ आत्मा और मन आया भंते ! मणे ? अण्णे मणे ? गोयमा ! नो आया मणे, अण्णे मणे । रूवि भंते ! मणे ? अरूवि मणे ? गोयमा ! रूवि मणे, नो अरूवि मणे । सचित्ते भंते ! मणे ? अचित्ते मणे ? गोयमा ! नो सचित्ते मणे अचित्ते मणे । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई जीवे भंते ! मणे ? अजीवे मणे ? गोयमा ! नो जीवे मणे, अजीवे मणे | जीवाणं भंते ! मणे ? अजीवाणं मणे ? गोयमा ! जीवाणं मणे, तो अजीवाणं मणे । पुव्वि भंते ! मणे ? मणिज्जमाणे मणे ? मणसमयवीतिक्कंते मणे ? गोयमा ! नोपुव्वि मणे, मणिज्जमाणे मणे, नो मणसमयवीतिक्कंते मणे । पुव्वि भंते! मणे भिज्जति, मणिज्जमाणे मणे भिज्जति, मणसमयवी तिक्कंते मणे भिज्जति ? गोयमा ! तो पुव्वि मणे भिज्जति, मणिज्जमाणे मणे भिज्जति, नो मणसमयवीतिक्कंते मणे भिज्जति । १३।१२६ संज्ञा कति णं भंते ! सण्णाओ पण्णत्ताओ ? गोमा ! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं अहा - आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा, कोहसण्णा, माणसण्णा, मायासण्णा, लोगसण्णा, ओहसण्णा । ७।१६१ कामभोग रूवी भंते ! कामा ? अरूवी कामा ? गोयमा ! रूवी कामा, नो अरूवी कामा । सचित्ता भंते ! कामा ? अचित्ता कामा ? गोयमा ! सचित्ता वि कामा, अचित्ता विकामा ॥ जीवा भंते ! कामा ? अजीवा कामा ? २४६ गोयमा ! जीवा वि कामा, अजीवा विकामा ॥ जीवाणं भंते ! कामा ? अजीवाणं कामा ? गोयमा ! जीवणं कामा, नो अजीवाणं कामा ॥ कतिविहाणं भंते ! कामा पण्णत्ता ? गोमा ! दुविहा कामा पण्णत्ता, तं जहा - सद्दाय रूवाय ॥ रूवी भंते ! भोगा ? अरूवी भोगा ? गोयमा ! रूवी भोगा, तो अरूवी भोगा || सचित्ता भंते ! भोगा ? अचित्ता भोगा ? गोयमा ! सचित्ता वि भोगा, अचित्ता वि भोगा || जीवा भंते ! भोगा ? अजीवा भोगा ? गोयमा ! जीवा वि भोगा, अजीवा वि भोगा ॥ जीवाणं भंते ! भोगा ? अजीवाणं भोगा ? गोयमा ! जीवाणं भोगा, नो अजीवाणं भोगा || ७।१२७ ७। १२८ ७। १२६ ७।१३० ७।१३१ ७। १३२ ७। १३३ ७।१३४ ७/१३५ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० चित्त-समाधि : जैन योग कतिविहा णं भंते ! भोगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा भोगा पण्णत्ता, तं जहा-गंधा, रसा, फासा ॥ ७॥१३६ कतिविहा णं भंते ! कामभोगा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा काम-भोगा पण्णत्ता, तं जहा-सद्दा, रूवा, गंधा, रसा, फासा ॥ ७११३७ जीवा णं भंते ! कि कामी ? भोगी ? गोयमा ! जीवा कामी वि, भोगी वि ।। ७।१३८ से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जीवा कामी वि ? भोगी वि? गोयमा ! सोइंदिय-क्खिदियाइं पडुच्च कामी, घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियाई पडुच्च भोगी। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जीवा कामी वि, भोगी वि ।। ७।१३६ जरा और शोक रायगिहे जाव एवं वयासी-जीवाणं भंते ! कि जरा ? सोगे ? गोयमा ! जीवाणं जरा वि, सोगे वि ।। १६।२८ से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ~-जीवाणं जरा वि, सोगे वि ? गोयमा ! जे णं जीवा सारीरं वेदणं वेदेति तेसि णं जीवाणं जरा, जे णं जीवा माणसं वेदणं वेदेति तेसि णं जीवाणं सोगे । से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जीवाणं जरा वि, सोगे वि। १६।२६ वेदना और निर्जरा से नूणं भंते ! जे महावेदणे से महानिज्जरे ? जे महानिज्जरे से महावेदणे ? महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसत्थनिज्जराए ? हंता गोयमा ! जे महावेदणे से महानिज्जरे, जे महानिज्जरे से महावेदणे, महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसथनिज्जराए । छट्ठ-सत्तमासु णं भंते ! पुढवीसु नेरइया महावेदणा ? हंता महावेदणा ॥ ते णं भंते ! समणेहितो निग्गंथेहितो महानिज्जरतरा ? गोयमा ! नो इणठे समढें ॥ ६३ से केणं खाइ अठेणं भंते । एवं वुच्चइ-जे महावेदणे से महानिज्जरे ? जे महानिज्जरे से महावेदणे ? महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसत्थनिज्जराए ? गोयमा ! से जहानामए दुवे वत्था सिया--एगे वत्थे कद्दमरागरत्ते, एगे वत्थे खंजणरागरत्ते । एएसि णं गोयमा ! दोण्हं वत्थाणं कयरे वत्थे दुद्धोयतराए चेव, दुवामतराए चेव, दुपरिका तराए चेव; कयरे वा वत्थे सुद्धोयतराए चेव, सुवामतराए चेव, सुपरिकम्मतराए चेव; जे वा से वत्थे कद्दमरागरते ? जे वा से वत्थे खंजणरागरते ? भगवं ! तत्थ णं जे से कद्दमरागरते, से णं वत्थे दुद्धोयतराए चेव, दुवामतराए चेव, दुप्परिकम्मतराए चेव, एवा मेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माइं गाढीकयाइं, Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २५१ चिक्कणीकाई, सिलिट्ठीकयाई, खिलीभूताइं भवंति । संपगाढं पि य णं ते वेदणं वेदेमाणा नो महानिज्जरा, नो महापज्जवसाणा भवंति । से जहा वा केइ पुरिसे अहिगरण आउडेमाणे महया - महया सद्देणं, महया - महया घोसेणं, महया - महया परंपराघाएणं नो संचाएइ तीसे अहिगरणीए केइ अहाबायरे पोग्गले परिसाडित्तए, एवामेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई, चिक्कणीकयाई, सिलिटीकयाई, खिलीभूताइं भवंति । संपगाढं पि य णं ते वेदणं वेदेमाणा नो महानिज्जरा, नो महापज्जवसाणा भवंति । भगवं ! तत्थ जे से खंजणरागरत्ते, से णं वत्थे सुद्धोयतराए चेव, सुवामतराए चेव, सुपरिकम्मतराए चेव, एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहाबायराई कम्माई सिढिलीकयाई, निट्टियाई कयाई विष्परिणामियाई खिप्पामेव विद्वत्थाई भवंति । जावतियं तावतियं पिणं ते वेदणं वेदेमाणा महानिज्जरा, महापज्जवसाणा भवंति । से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जायतेयंसि पविखवेज्जा, से नूणं गोमा ! से मुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविज्जति ? हंता मसमसाविज्जति । वामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहाबायराई कम्माई, सिढिलीकयाई, निट्ठिया कथा, विपरिणामियाई खिप्पामेव विद्वत्थाइं भवंति । जावतियं तावतियं पिणं ते वेदणं वेदेमाणा महानिज्जरा, महापज्जवसाणा भवंति । तत्तंसि अयकवल्लंसि उदगबिंदु पक्खिवेज्जा से नृणं गोयमा ! कवल्लंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव विद्वंसमागच्छइ ? हंता विद्धसमागच्छइ । एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं महाबायराई कम्माई, सिढिलीकयाई, निट्टियाई कयाई, विप्परिणामियाई खिप्पामेव विद्धत्थाई भवंति । जावतियं तावतियं पिणं ते वेदणं वेदेमाणा महानिज्जरा, महापज्जवसाणा भवंति । से तेणट्ठेणं जे महावेद से महानिज्जरे, जे महानिज्जरे से महावेदणे, महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए जे सत्यनिज्जराए ॥ ६।४ सुप्त और जागृत से जहानामए केइ पुरिसे से उदगबिंदु तत्तंसि अय जीवा णं भंते! कि सुत्ता ? जागरा ? सुत्तजागरा ? गोमा ! जीवा सुत्ता वि, जागरा वि, सुत्तजागरा वि ॥ बद्ध अपौद्गलिक है अह भंते ! उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मया, पारिणामिया - एस णं कतिवण्णा जव कतिफासा पण्णत्ता ? गोयमा ! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पण्णत्ता ॥ १६।७८ १२/१०.६ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ चित्त-समाधि : जैन योग ___ अह भंते ! ओग्गहे, ईहा, अवाए, धारणा-एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पण्णत्ता ? गोयमा ! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पण्णत्ता ।। १२।११० आत्मशक्ति अपौद्गलिक है ___ अह भंते ! उट्टाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसक्कार-परक्कमे–एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? गोयमा ! अवणे, अगंधे, अरसे, अफासे पण्णत्ते ।। १२।१११ चंचलता कतिविहा णं भंते ? चलणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा चलणा पण्णत्ता, तं जहा–सरीरचलणा, इंदियचलणा, जोगचलणा।। १७।४३ सरीरचलणा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालियसरीरचलणा जाव कम्मगसरीरचलणा ॥ १७।४४ इंदियचलणा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-सोइंदिय चलणा जाव फासिदियचलणा ॥ १७४५ जोगचलणा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-मणजोगचलणा, वइजोगचलणा, कायजोगचलणा ।। १७१४६ किया और अक्रिया तए णं से तामली बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई सटुिं वाससहस्साइं परियागं पाउणित्ता, दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेदित्ता कालकासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे ईसाणवडेंसए विमाणे उवावायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए ईसाणदेविंदविरहियकालसमयंसि ईसाणदेविदत्ताए उववण्णे ॥ ३।४३ तए णं से ईसाणे देविंदे देवराया अहुणोववण्णे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ, (तं जहा-आहारपज्जत्तीए जाव भासा-मणपज्जत्तीए)। ३।४४ तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थ व्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिं बालतवम्सि कालगतं जाणित्ता, ईसाणे य कप्पे देविदत्ताए उववण्णं पासित्ता आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणा बलिचंचाए रायहाणीए मझमझेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव भारहे वासे जेणेव तामलित्ती नयरी जेणेव तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरए तेणेव उवागच्छंति, वामे पाए संबेण बंधंति Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २५३ तिक्खुत्तो मुहे निठुहंति, तामलित्तीए नगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुहमहापह-पहेसु ‘आकड्ड-विकड्डि' करेमाणा, महया-महया सद्देणं उग्रोसेमाणा एवं वयासीकेस णं भो ! से तामली बालतवस्सी रायंगहिय लिंगे पाणामाए पव्वज्जाए पच्वइए ? केस णं से ईसाणे कप्पे ईसाणे देविदे देवराया ?–ति कटु तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरयं हीलंति निदंति खिसंति गरहंति अवमण्णंति तज्जति तालेंति परिवहति पव्वहेंति, आकड्वविकड्डि करेंति, हीलेता निदित्ता खिसिता, गरहित्ता अवमणेत्ता तज्जेत्त। तालेता परिवहेत्ता पव्वहेत्ता आकड्ड-विकड्डि करेत्ता एगते एडंति, एडिता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया । ३।४५ तए णं ते ईसाणकप्पवासी बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य बलिचंचारायहाणिवत्थव्वएहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य तामलिस्स बालत वस्सिस्स सरीरयं हीलिज्जमाणं निदिज्जमाणं खिसिज्ज माणं गरहिज्जमाणं अवमण्णिज्जमाणं तज्जिज्जमाणं तालेज्जमाणं परिवहिज्जमाणं आकड्ड-विकड्डि कीरमाणं पासंति, पासित्ता आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव ईसाणे देविदे देवराधा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य देवाणुप्पिए कालगए जाणित्ता ईसाणे य कप्पे इंदत्ताए उववण्णे पासेत्ता आसुरुत्ता जाव एगते एडेंति, एडेता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया । ३।४६ शैलेशी सेलेसिं पडिवन्नए णं भंते ! अणगारे सया समियं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमति ? नो इणठे समठे, णण्णत्थेगेणं परप्पयोगेणं ।। १७।३७ सूर्यरश्मि तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं गोयमे अचिरुग्गयं बालसूरियं जासुमणाकुसुमपुंजप्पकासं लोहितगं पासइ, पासित्ता जायसड्ढे जाव समुप्पन्नकोउहल्ले जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता णच्चासण्णे णातिदूरे सुस्सूसमाणे नमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलियडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी-किमिदं भंते ! सूरिए ? किमिदं भंते ! सूरियस्स अट्ठे ? । गोयमा ! सुभे सूरिए, सुभे सूरियस्स अट्ठे ।। १४।१३२ किमिद भंते ! सूरिए ? किमिद भंते ! सूरियस्स पभा ? गोधमा ! सुभे सूरिए, सुभा सूरियस्स पभा ॥ १४११३३ किमिदं भंते ! सूरिए ? किमिदं भंते ! सूरियस्स छाया ? गोयमा ! सुभे सूरिए, सुभा सूरियस्स छाया ।। १४।१३४ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ चित्त-समाधि : जैन योग किमिदं भंते ! सूरिए ? किमिदं भंते ! सूरियस्स लेस्सा ? गोयमा ! सुभे सूरिए, सुभा सूरियस्स लेस्सा ।। १४।१३५ साधना और तेजोलेश्या जे इमे भंते ! अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति, ते णं कस्स तेयलेस्सं वीईवयंति ? गोयमा ! मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं वीइवयइ । दुमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । एवं एएणं अभिलावेणंतिमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरकुमाराणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। चउम्मासपरियाए समणे निग्गंथे गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। पंचमासपरियाए समणे निग्गंथे चदिम-सूरियाणं जोतिसिंदाणं जोतिसराईणं तेयलेस्सं वीईवयइ। छम्मासपरियाए समणे निग्गंथे सोहम्मीसाणाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । सत्तमासपरियाए समणे निग्गंथे सणंकुमार-माहिंदाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । अट्ठमासपरियाए समणे निग्गंथे बंभलोग-लंतगाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । नवमासपरियाए समणे निग्गंथे महासुक्क-सहस्साराणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । दसमासपरियाए समणे निग्गंथे आणय-पाणय-आरणच्चुयाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । एक्कारसमासपरियाए समणे निग्गंथे गेवेज्जगाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । बारसमासपरियाए समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । तेण परं सुक्के सुक्काभिजाए भवित्ता तओ पच्छा सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिनिव्वायति सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ॥ १४।१३६ चतुर्दशपूर्वी पभू णं भंते ! चोदसपुव्वी घडाओ घडसहस्सं, पडाओ पडसहस्सं, कडाओ कडसहस्सं, रहाओ रहसहस्सं, छत्ताओ छत्तसहस्सं, दंडाओ दंडसहस्सं अभिनिव्वदे॒त्ता उवदंसेत्तए ? हंता पभू ॥ ५।११२ से केणठेणं पभू चोद्दसपुवी जाव उवदंसेत्तए ? गोयमा ! चोद्दसपुव्विस्स णं अणंताई दवाइं उक्कारियाभेएणं भिज्जमाणाई लद्धाई पत्ताइं अभिसमण्णागयाइं भवति । से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-पभू णं चोद्दसपुव्वी घडाओ घडसहस्सं, पडाओ पडसहस्सं, कडाओ कडसहस्सं, रहाओ रहसहस्सं, छत्ताओ छत्तसहस्सं, दंडाओ दंडसहस्सं अभिनिव्वदे॒त्ता उवदंसेत्तए । ५।११३ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २५५ लब्धि और भावितात्मा रायगिहे जाव एवं वयासी–से जहानामए केइ पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा केयाघडियाकिच्चहत्थगएणं अप्पाणेणं उड्ढे वेहासं उप्पएज्जा ॥ १३।१४६ हंता उप्पएज्जा अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवतियाइं पभू केयाघडियाकिच्चहत्थगयाई रूवाई विउव्वित्तए ? गोयमा ! से जहानामए जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा वेउव्वियसमुग्घाएणं सभोहण्ण इ जाव पभू णं गोयमा ! अणगारे णं भाविअप्पा केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं इत्थिरूवेहि आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं संथडं फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए । एस णं गोयमा ! अणगारस्स भाविअप्पणो अयमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विउव्विसु वा विउव्वति वा विउव्विस्सति वा ।। १३।१५० से जहानामए केइ पुरिसे हिरण्णपेलं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा हिरण्णपेलहत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा ? सेसं तं चेव एवं सुवण्णपेलं, एवं रयणपेलं, वइरपेलं, वत्थपेलं, आभरणपेलं एवं वियलकडं, सुंबकडं, चम्मकडं, कंबलकडं, एवं अयभारं, तंबभारं, तउयभारं, सीसगभारं, हिरण्णभारं, सुवण्णभारं, वइरभारं ।। से जहानामए वग्गुली सिया, दो वि पाए उल्लंबिया-उल्लंबिया उड्ढंपादा अहोसिरा चिट्ठज्जा, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा वग्गुलीकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा ? एवं जणोवइयवत्तवा भाणियव्वा जाव विउव्विस्सति वा ॥ १३।१५२ से जहानामए जलोया सिया, उदगंसि कायं उव्वि हिया-उविहिया गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं जहा वग्गुलीए । १३।१५३ से जहानामए बीयंवीयगसउणे सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणे-समतुरंगेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं तं चेव ।। १३।१५४ से जहानामए पक्खिविरालए सिया, रुक्खाओ रुक्खं डेवेमाणे-डेवेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं तं चेव ॥ १३।१५५ से जहानामए जीवंजीवगस उणे सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणे-समतुरंगेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं तं चेव ।। १३।१५६ से जहानाभाए हंसे सिया, तीराओ तीरं अभिरममाणे-अभिरममाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा हंसकिच्च गएणं अप्पाणेणं, तं चेव ।। १३।१५७ से जहानामए समुद्दवायसए सिया, वीईओ वीइं डेवेमाणे-डेवेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव १३।१५१ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ चित्त-समाधि : जैन योग अणगारे, तहेव ।। १३।१५८ से जहानामए केइ पुरिसे चक्कं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा चक्कहत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं, सेसं जहा केयाघडियाए । एवं छत्तं, एवं चम्मं ।। १३।१५६ से जहानामए केइ पुरिसे रयणं गहाय गच्छेज्जा, एवं चेव । एवं वइरं, वेरुलियं जाव रिट्ठ । एवं उप्पलहत्थगं, एवं पउमहत्थगं, कुमुदहत्थगं, नलिणहत्थगं, सुभगहत्थगं, सुगंधियहत्थगं, पोंडरीयहत्थगं, महापोडरीयहत्थगं, सयपत्तहत्थगं, से जहानामए केइ पुरिसे सहस्सपत्तगं गहाय गच्छेज्जा, एवं चेव ।। १३।१६० ___ से जहानामए केइ पुरिसे भिसं अवदालिय-अवद्दालिय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भिसकिच्चगएणं अप्पाणेणं तं चेव ।। १३।१६१ से जहानामए मुणालिया सिया, उदगंसि कायं उम्मज्जिया-उम्मज्जिया चिठेज्जा, एवामेव, सेसं जहा वग्गुलीए । १३।१६२ से जहानामए वणसंडे सिया-किण्हे किण्होभासे जाव महामेहनिकुरबभूए पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा वणसंडकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा ? सेसं तं चेव ॥ १३।१६३ जे जहानामए पुक्खरणी सिया–चउक्कोणा, समतीरा, अणुपुव्व सुजायवप्पगंभीरसीयलजला जाव सदुन्नइयमहुरसरणादिया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा पोक्ख रणीकिच्चगएणं अप्पाणणं उड्व वेहासं उप्पएज्जा? हंता उप्पएज्जा ॥ १३।१६४ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा केवतियाइं पभू पोक्खरणीकिच्चगयाइं रूवाई विउव्वित्तए ? सेसं तं चेव जाव विउव्विस्सति वा ।। १३।१६५ से भंते ! कि मायी विउव्वति ? अमायी विउव्वति ? गोयमा ! मायी विउव्वति, नो अमायी विउव्वति । मायी णं तस्स ठाणस्स अणालोइय पडिक्कते कालं करेइ, नत्थि तस्स आराहण। । अमाथी णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ, अत्थि तस्स आराहणा। १३।१६६ रायगिहे जाव एवं वयासी--अणगारे णं भंते ! भावियप्पा असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेज्जा? हंता ओगाहेज्जा ।। से णं तत्थ छिज्जेज्ज वा भिज्जेज्ज वा ? नो इणठे समठे। नो खलु तत्थ सत्थं कमइ ॥ १८।१६१ अण गारे ण भंते ! भावियप्पा अगणिकायस्स मझमझेणं वीइवएज्जा ? हंता वीइवएज्जा ॥ से णं भंते । तत्थ झियाएज्जा ॥ गोयमा ! नो इणढे समठे । नो खलु तत्थ सत्थं कमइ ।। १८।१६२ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २५७ अणगारे णं भंते ! भावियप्पा पुक्खलसंवट्टगस्स महामेहस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ? हंता ! वीइवएज्जा ।। से णं भंते ! तत्थ उल्ले सिया ? गोयमा ! नो इणठे समढें । नो खलु तत्थ सत्थं कमइ ।। १८।१६३ अणगारे णं भंते ! भावियप्पा गंगाए महाणदीए पडिसोयं हव्वमागच्छेज्जा ? हंता हव्वमागच्छेज्जा ।। से णं भंते ! णत्थ विणिहायमावज्जेज्जा ? गोयमा ! नो इणठे समठे । नो खलु तत्थ सत्थं कमइ ।। १८।१६४ अणगारे णं भंते ! भावियप्पा उदगावत्तं वा उदगबिदुं वा ओगाहेज्जा ? हंता ओगाहेज्जा ॥ से णं भंते ! तत्थ परियावज्जेज्जा ? गोयमा ! नो इणठे समठे । नो खलु तत्थ सत्थं कमइ ।। १८११६५ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा देवं वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहयं जाणरूवेणं जामाणं जाणइ-पास इ ? गोयमा ! (१) अत्थेगइए देवं पासइ, नो जाणं पासइ । (२) अत्थेगइए जाणं पासइ, नो देवं पासइ । (३) अत्येगइए देवं पि पासइ, जाणं पि पासइ । (४) अत्थेगइए नो देवं पासइ, नो जाणं पासइ । ३।१५४ ___अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा देवि वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहयं जाणरूवेणं जामाणि जाणइ-पासइ ? गोयमा ! (१) अत्थेगइए देवि पासइ, नो जाणं पासइ । (२) अत्थेगइए जाणं पासइ, नो देवि पासइ । (३) अत्थेगइए देवि पि पासइ, जाणं पि पासइ । (४) अत्थेगइए नो देवि पासइ, नो जाणं पासइ ।। ३।१५५ अण नारे णं भंते ! भाविअप्पा देवं भदेवीअं वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहयं जाणरूवेणं जामाणं जाणइ-पासइ ? गोयमा ! (१) अत्थेगइए देवं सदेवीअं पासइ, नो जाणं पासइ । (२) अत्थेगइए जाणं पासइ, नो देवं सदेवीअं पास। (३) अत्थेगइए देवं सदेवीअं पि पासइ, जाणं पि पासइ । (४) अत्थेगइए नो देवं तदेवीअं पासइ, नो जाणं पासइ ॥ ३॥१५६ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा रुक्खस्स कि अंतो पासइ ? बाहिं पासइ ? गोयमा ! (१) अत्थेगइए रुक्खस्स अंतो पासइ, नो बाहिं पासइ। (२) अत्थेगइए रुक्खस्स बाहिं पासइ, नो अंतो पासइ । (३) अत्थेगइए रुक्खस्स अंतो पि पासइ, बाहिं पि पासइ । ४. अत्थेगइए रक्खस्स नो अंगो पासइ, नो बाहिं पासइ। ३।१५७ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा रुक्खस्स कि मूलं पासइ ? कंदं पासइ ? __ गोयमा ! (१) अत्थेगइए रक्खस्न मूलं पास, नो कदं पासइ । (२) अत्थेगइए रुक्खस्स कंदं पासइ, नो मूलं पासइ । (३) अत्थेगइए रुक्खस्स मूलं पि पासइ, कंद पि Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ चित्त-समाधि : जैन योग पासइ । (४) अत्थेगइए रुक्खस्स नो मूलं पासइ, नो कंदं पासइ । ३३१५८ मूलं पासइ ? खंधं पासइ ? चउभंगो ॥ ३।१५६ एवं मूलेणं (जाव ?) बीजं संजोएयव्वं ।। ३।१६० एवं कंदेणं वि समं संजोएयव्वं जाव बीयं ॥ ३।१६१ एवं जाव पुप्फेण समं बीयं संजोएयव्वं ।। ३।१६२ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा रुक्खस्स किं फलं पासड ? बीयं पासइ ? चउभंगो॥ ३६१६३ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा ? पल्लंघेत्तए वा ? गोयमा ! नो इणठे समठे ।। ३।१८६ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा ? पल्लंघेत्तए वा ? हंता पभू ॥ ३।१८७ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता जावइयाइं रायगिहे नगरे रूवांइ, एवइयाई विकुम्वित्ता वेभारं पव्वयं अंतो अणुप्पविसित्ता पभू समं वा विसमं करेत्तए ? विसमं वा समं करेत्तए ? गोयमा ! णो इणठे समठे ॥ ३।१८८ अणगारे णं भंते ! भावि अप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता जावइयाई रायगिहे नगरे रूवाइं, एवइयाइं विकुव्वित्ता वेभारं पव्वयं अंतो अणुप्पविसित्ता पभू समं वा विसमं करेत्तए ? विसमं वा समं करेत्तए ? हंता पभू ॥ ३।१८६ से भंते ! कि माई विकुव्वइ ? अमाई विकुम्वइ ? गोयमा ! माई विकुव्वइ, नो अमाई विकुव्वइ । ३।१६० से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-माई विकुव्वइ, नो अमाई विकुव्वइ ? गोयमा ! माई णं पणीयं पाण-भोयणं भोच्चा-भोच्चा वामेति । तस्स णं तेणं पणीएणं पाणभोयणेणं अट्ठि-अद्धिमिजा बहलीभवंति, पयणुए मंस-सोणिए भवति । जे वि य से अहाबायरा पोग्गला ते वि य परिणमंति, तं जहा-सोइंदियत्ताए चक्खिदियत्ताए पाणिदियत्ताए रसिदियत्ताए फासिं दियत्ताए, अट्ठि-अट्टिमिज-केस-मंसु-रोम-नहत्ताए, सुक्कत्ताए, सोणियत्ताए। अमाई णं लूहं पाण-भोयणं भोच्चा-भोच्चा णो वामेइ । तस्स णं तेणं लहेणं पाणभोयणेणं अद्वि-अट्ठिमिजा पयणूभवंति, बहले मंस-सोणिए । जे वि य से अहाबायरा पोग्गला ते वि य से परिणमंति, तं जहा-उच्चारत्ताए पासवणत्ताए खेलत्ताए सिंघाणताए वंतत्ताए पित्तत्ताए पूयत्ताए सोणियत्ताए । से तेण?णं भंते । एवं वुच्चइ---माई विकुव्वइ, नो अमाई विकुव्वइ ।। ३११६१ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २५६ माई णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ, नत्थि तस्स आराहणा । अमाई णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ, अत्थि तस्स आराहण ॥ ३॥१६२ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगं महं इत्थीरूवं वा जाव संदमाणियरूवं वा विउवित्तए ? नो इणठे समठे ।। ३।१६४ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगं महं इत्थीरूवं वा जाव संदमाणियरूवं वा विउवित्तए ? हंता पभू ।। ३।१६५ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा केवइआइं पभू इत्थिरूवाइं विउवित्तए ? गोयमा! से जहानामए-जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थंसि गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा वेउव्वियससमुग्घाएणं समोहण्णइ जाव पभू णं गोयमा ! अणगारे णं भाविअप्पा केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं इत्थिरूवेहिं आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं संथडं फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए । एस णं गोयमा ! अणगारस्स भाविअप्पणो अयमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विउव्विसु वा, विउव्वति वा, विउव्विस्सति वा । एवं परिवाडीए नेयव्वं जाव संदमाणिया ॥ ३।१६६ से जहानामए केइ पुरिसे असिचम्मपायं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा असिचम्मपायहत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा ? हंता उप्पएज्जा। ३॥१६७ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा केवइयाइं पभू असिचम्म (पाय ? )हत्थकिच्चगयाइं ख्वाइं विउवित्तए? ___ गोयमा ! से जहानामए-जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, तं चेव जाव विउव्विसु वा, विउव्वति वा, विउव्विस्सति वा ॥ ३।१६८ से जहानामए केइ पुरिसे एगओपडागं काउं गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा एगओपडागाहत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ड वेहासं उप्पएज्जा ? हंता उप्पएज्जा ॥ ३।१६६ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा केवइयाइं पभू एगओपडागाहत्थकिच्चगयाई रूवाई विकुवित्तए ? एवं चेव जाव विकुव्विसु वा, विकुव्वति वा, विकुव्विस्सति वा ॥ ३।२०० एवं दुहओपडागं पि। ३।२०१ से जहानामए केइ पुरिसे एगओजण्णोवइतं काउं गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा एगओजण्णोवइतकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ड वेहासं उप्पएज्जा ? हंता उप्पएज्जा ॥ ३।२०२ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा केवइयाई पभू एगओजण्णोवइतकिच्चगयाइं रूवाई Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० चित्त-समाधि : जैन योग विकुवित्तए ? तं चेव जाव विकुविसु वा, विकुव्वति वा, विकुव्विस्स ति वा ।। ३।२०३ एवं दुहओजण्णोवइयं पि ॥ ३।२०४ से जहानामए केइ पुरिसे एगओपल्हत्यियं काउं चिट्ठज्जा, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा एगओपल्हत्थिय किच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ड वेहासं उप्पएज्जा ? तं चेव जाव विकुव्विसु वा, विकुव्वति वा, विकुव्विस्सति वा । ३।२०५ एवं दुहओपल्हत्थियं पि ।। ३।२०६ से जहानामए केइ पुरिसे एगओपलियंक काउं चिट्ठज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा एगओपलियंककिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ड वेहासं उप्पएज्जा ? तं चेव जाव विकुव्विसु वा, विकुव्वति वा, विकुब्बिस्सति वा ।। ३।२०७ एवं दुहओपलियंकं पि । ३।२०८ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एग महं आसरूवं वा हत्थिरूवं वा सीहरूवं वा विग्घरूवं वा विगरूवं वा दीवियरूवं वा अच्छरूवं वा तरच्छरूवं वा परासर रूवं वा अभिजुजित्तए ? नो इणठे समठे ।। ३।२०६ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरिए पोग्गले परियाइत्ता पभू एग महं आसरूवं वा हत्थिरूवं वा सीहरूवं वा वग्घरूवं वा विगरूवं वा दीविय रूवं वा अच्छरूवं वा तरच्छरूवं वा परासररूवं वा अभिजुजित्तए ? हंता पभू ॥ ३।२१० अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा (पभू ?) एगं महं आसरूवं वा अभिजुजित्ता अणेगाई जोयणाई गमित्तए ? हंता पभू ॥ ३।२११ से भंते ! किं आइड्डीए गच्छइ ? परिड्डीए गच्छइ ? गोयमा ! आइड्डीए गच्छइ, नो परिड्डीए गच्छइ ।। ३।२१२ से भंते ! कि आयकम्मुणा गच्छइ ? परकम्मुणा गच्छइ ? गोयमा ! आयकम्मुणा गच्छइ, नो परकम्मुणा गच्छइ ।। ३।२१३ से भंते ! कि आयप्पयोगेणं गच्छइ ? परप्पयोगेणं गच्छइ ? गोयमा ! आयप्पयोगेणं गच्छद नो परप्पयोगेणं गच्छ५ ।। ३।२१४ से भंते ! कि ऊसिओदयं गच्छइ ? पतोदयं गच्छइ ? गोयमा ! ऊसिओदयं पि गच्छइ, पतोदयं पि गच्छड । ३।२१५ से णं भंते ! किं अणगारे ? आसे ? गोयमा ! अणगारे णं से, नो खलु से आसे ।। ३।२१६ एवं जाव परासररूवं वा ।। ३।२१७ से भंते ! कि मायी विकुव्वइ ? अमायी विकुव्वइ ? Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६१ ३१२१८ गोयमा ! मायी विकुव्वाइ, नो अमायी विकुब्वइ ॥ मायी णं भंते ! तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ, कहिं उववज्जइ ? गोमा ! अण्णयरेसु आभियोगिएसु देवलो गेसु देवत्ताए उववज्जइ ॥ ३।२१६ अमायी णं भंते ! तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं करेड़, कहि उववज्जइ ? गोमा ! अण्णयसु अणाभियोगिएसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जइ ॥ ३।२२० केवली केवली णं भंते! अस्ति समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओसाहित्ताणं चिट्ठति, पभू णं केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहित्ताणं चिट्ठित्तए ? गोयमा ! णो तिणट्ठे समट्ठे ॥ ५।११० से केणट्ठेणं भंते ! एवं वच्चइ - केवली णं अस्सि समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहित्ताणं चिट्ठति, णो णं पभू केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहित्ताणं णं चिट्ठित्तए ? गोयमा ! केवलिस्स णं वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए चलाई उवकरणाई भवंति | चलोवकरणट्टयाए य णं केवली अस्सि समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहित्ता णं चिट्ठति, णो णं पभु केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहित्ताणं चिट्टित्तए । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइइ - केवली णं अस्सि समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं गाहित्ताणं चिट्ठति णो णं पभू केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहित्ता णं चिट्टित्तए || ५।१११ केवली णं भंते ! आयाणेहि जाणइ - पासइ ? गोयमा ! णो तिट्ठे समट्ठे ॥ ५।१०८ से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ - केवली णं आयाणेहिं, ण जाणइ, ण पासइ ? गोयमा ! केवली णं पुरत्थिमे णं मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ । एवं दाहिणे णं, पच्चत्थिमे णं, उत्तरे णं, उड्ड, अहे मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ । सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली । सव्वओ जाणइ केवली, सव्वओ पासइ केवली । सव्वकालं जाणइ केवली, सव्वकालं पासइ केवली । सव्वभावे जाणइ केवली, सव्वभावे पासइ केवली । अणते ना केवलिम्स, अणते दंसणे केवलिस्स । निव्वुडे नाणे केवलिस्स निव्वुडे दंसणे केवलिस्स । से तेणटुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - केवली णं आयाणेहिं ण जाणइ, ण पासइ || ५।१०६ केवली णं भंते ! भासेज्ज वा ? वागरेज्ज वा ? हंता भासेज्ज वा, वागरेज्ज वा ॥ १४) १४२ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-समाधि : जैन योग जहा णं भंते! केवली भासेज्ज वा वागरेज्ज वा, तहा णं सिद्धे वि भासेज्ज वा वागरेज्ज वा ? २६२ नो इणट्ठे समट्ठे ।। १४ । १४३ से केणट्ठे णं भंते ! एवं बुच्चइ - - जहा णं केवली भासेज्ज वा वागरेज्ज वा नो तहा णं सिद्धे भासेज्ज वा वागरेज्ज वा ? गोमा ! केवली णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार - परक्कमे, सिद्धे अट्टा मे अबले अवीरिए अपुरिसक्कार - परक्कमे । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ – जहा णं केवली भासेज्ज वा वागरेज्ज वा नो तहा णं सिद्धे भासेज्ज वा वागरेज्ज १४ । १४४ वा ॥ केवली णं भंते ! उम्मिसेज्ज वा ? निम्मिसेज्ज वा ? हंता ! उम्मिसेज्ज वा निम्मिसेज्ज वा ॥ १४ । १४५ जहा णं भंते ! केवली उम्मिसेज्ज वा निम्मिसेज्ज वा, तहा णं सिद्धे वि उम्मिसेज्ज वा निम्मिसेज्ज वा ? नो इट्ठे सम । एवं चेव । एवं आउंटेज्ज वा पसारेज्ज वा, एवं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएज्जा | १४ । १४६ तेजोलेश्या अत्थि णं भंते ! अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासंति ? उज्जावेंति ? तवेंति ? भासेंति ? हंता अत्थि ॥ ७ २२६ कयरे णं भंते ! ते अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासंति ? उज्जावेंति ? तवेंति ? पभासेंति ? कालोदाई ! कुद्धस्स अणगारस्स तेय लेस्सा निसट्टा समाणी दूरं गता दूरं निपतति, देसं गता देसं निपतति, जहि-जहिं च णं सा निपतति तहिं तहिं च णं ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जावेंति, तवेंति, पभासेंति । एतेणं कालोदाई ! ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जावेंति, तवेंति, पभासेंति ॥ ७।२३० तए णं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धि जेणेव कुम्मग्गा मे नगरे तेणेव उवागच्छामि । तए णं तस्स कुम्मग्गामस्स नगरस्स बहिया वेसियायणे नामं बालतवस्सी छट्ठछट्टणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ड बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमु आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ । आइच्चतेयतवियाओ य से छप्पदीओ सव्वओ समंता अभिनिस्सर्वति पाण-भूय जीव सत्तदयट्टयाए च णं पडियाओ-पडियाओ 'तत्थेव - तत्थेव ' भुज्जो - भुज्जो पच्चोरुभे ॥ १५/६० तणं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतवस्सि पासइ, पासित्ता ममं अंतियाओ सनियं-सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोस विकत्ता, जेणेव वेसियायणे बालतवस्सी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वेसियायणं बालतवस्सि एवं वयासी - किं भवं मुणी ? मुणिए ? Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६३ उदाहु जूयासेज्जायरए ? १५।६१ तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयम8 नो आढाति, नो परियाणति, तुसिणीए संचिट्ठइ ।। १५।६२ तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतवस्सि दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी-किं भवं मुणी ? मुणिए ? उदाहु जूयासेज्जायराए ? १५।६३ तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते रुट्ठ कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ, पच्चोरुभित्ता तेयासमुग्घाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता सत्तट्ठपयाई पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता गोसालस्स मंलिपुत्तस्स वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरइ ।। १५॥६४ तए णं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अणुकंपणट्ठयाए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स उसिणतेयपडिसाहरणट्टयाए एत्थ णं अंतरा सीयलियं तेयलेस्सं निसिरामि, जाए सा ममं सीयलियाए तेयलेस्साए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स उसिणा तेयलेस्सा पडिहया ॥ १५।६५ तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी ममं सीयलियाए तेयलेस्साए साउसिणं तेयलेस्सं पडिहयं जाणित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकीरमाणं पासित्ता साउसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता ममं एवं वयासी–से गतमेयं भगवं! गत-गतमेयं भगवं ! १५॥६६ तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं अंतियाओ एयम8 सोच्चा निसम्म भीए तत्थे तसिए उव्विग्गे संजायभए ममं वंदइ-नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-कहण्णं भंते ! संखित्तविउलतेयलेस्से भवति ? १५१६६ तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-जेणं गोसाला ! एगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासएणं छठेंछठेणं अणि क्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्डे बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ। से णं अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से भवइ ।। १५७० Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण २५ भावना अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न व्याकरण अहिंसा तस्स इमा पंच भावणाओ पढमस्स वयस्स होंति पाणातिवायवेरमणपरिक्षणट्ठयाए॥ प्र० ६।१६ पढम-ठाणगमणगुणजोगजुजण-जुगंतरनिवातियाए दिट्ठीए इरियव्वं कीड-पयंग-तसथावर-दयावरेण निच्चं पुप्फ-फल-तय-पवाल-कद-मूल-दगमट्टिय-बीज-हरिय परिवज्जएण सम्म। एवं खु सव्वपाणा न हीलियव्वा, न निदियव्वा, न गरहियव्या, न हिंसियव्वा, न छिदियव्वा, न भिदियव्वा, न वहेयव्वा, न भयं दुक्खं च किंचि लब्भा पावेउं जे । ___ एवं इरियासमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठ-निव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू ।। प्र० ६.१७ बितियं च-मणेण पावएणं पावगं अहम्मिय दारुणं निस्संस वह-बंध-परिकिलेसबहलं भय-मरण-परिकिलेससंकिलिटुं न कयावि मणेण पावएण पावगं किंचि वि झायव । एवं मणसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, अस बलमसंकिलिट्ट-निव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू ॥ प्र० ६।१८ ततियं च-वतीते पावियाते पावगं न किंचि वि भासियव्वं । एवं वतिसमिति जोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, असबलमसंकिलिट्ठ-निव्वण चरित्तभावणाए अहिंसओ संजओ सुसाहू ।। प्र०६।१६ चउत्थं---आहारएसणाए सुद्धं उंछं गवेसियव्वं अण्णाए 'अगढिए अदुठे' अदीणे अविमणे अकलुणे अविसादी अपरितंतजोगी जयण-घडण-करण-चरिय-विणय-गुणजोगसंपउत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए जुत्ते समुदाणेऊण भिक्खचरियं उंछं घेत्तूण आगते गुरुजणस्स पासं, गमणागमणातिचार-पडिक्कमण-पडिक्कते, आलोयण-दायणं च दाऊण गुरुजणस्स जहोवएसं निरइयारं च अप्पमत्तो पुणरवि अणेसणाए पयतो पडिक्कमित्ता पसंतआसीण-सुहनिसणे, मुहुत्तमेत्तं च झाण-सुहजोग-नाण-सज्झाय-गोवियमणे धम्ममणे अविमणे सुहमणे अविग्गहमणे समाहिमणे सद्धासंवेगनिज्जरमणे पवयणवच्छल्लभावियमणे उठेऊण य पहट्टतुठे जहर।इणियं निमंतइत्ता य साहवे भावओ य, विइण्णे य गुरुजणेणं, उपविठे संपमज्जिऊण ससोसं कायं तहा करतलं, अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अगरहिए अणज्झोववण्णे अणाइले अलुद्धे अणत्तट्ठिते असुरसुरं अचवचवं अदुयमविलंबियं अपरिसाडि आलोयभायणे जयं पयत्तेणं ववगय संजोगमणिगालं च विगयधूम अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूयं संजमजायामायानिमित्तं संजयभारवहणट्ठयाए भुजेज्जा पाणधारणट्ठयाए Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ चित्त-समाधि : जैन योग संजए णं समियं । एवं आहारसमितिजोगेणं भाविओ भवति अंतरप्पा, असबलमसंकिलिट्ठ-निव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू ॥ प्र० ६।२० पंचमगं-पीठ-फलग-सिज्जा-संथारग-वत्थ-पत्त-कंबल-दंडग-रयहरण-चोलपट्टग-मुहपोत्तिग-पायपुंछणादी । एयंपि संजमस्स उवबूहणट्ठयाए वातातव-दंसमसग-सीय-परिरक्खणट्ठयाए उवगरणं रागदोसरहियं परिहरितव्वं संजतेणं णिच्चं पडिलेहण-पप्फोडण-पमज्जणाए अहो य राओ य अप्पमत्तेण होइ समयं निविखवियव्वं च गिहियव्वं च भायण-भंडोवहिउवगरण । एवं आयाणभंडनिक्खेवणासमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा, असबलमसंकि-लिट्ठ-निव्वण-चरित्तभावणाए अहिंसए संजते सुसाहू ॥ प्र० ७१२१ सत्य तस्स इमा पंच भावणाओ बितियस्स वयस्स अलियवयण-वेरमण-परिएक्खणट्टयाए । प्र० ७.१६ पढमं—सोऊणं संवरटें परमठें, सुठ्ठ जाणिऊण न वेगियं न तुरियं न चवलं न कडुयं न फरुसं न साहसं न य परस्स पीलाकरं सावज्जं, सच्चं च हियं च मियं च 'गाहकं च' सुद्धं संगयमकाहलं च समिक्खितं संजतेण कालम्मि य वत्तव्वं । एवं अणुवीइसमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा, संजय-कर-चरण-नयण-वयणो सूरो सच्चज्जवसंपण्णो । प्र०७।१७ बितियं-कोहो ण सेवियव्वो। कुद्धो चं डिक्किओ मणूसो अलियं भणेज्ज, पिसुणं भणेज्ज, फरुसं भणेज्ज, अलियं पिसुणं फरुसं भणेज्ज । कलह करेज्ज, वेरं करेज्ज, विकह करेज्ज, कलहं वेरं विकह करेज्ज । सच्चं हणेज्ज, सील हणेज्ज, विणयं हणेज्ज, सच्चं सीलं विणयं हणेज्ज । वेसो भवेज्ज, वत्थं भवेज्ज, गम्मो भवेज्ज, वेसो वत्थु गम्मो भवेज्ज । एयं अण्णं च एवमादियं भणेज्ज कोहग्गि-संपलित्तो, तम्हा कोहो न सेवियव्वो। एवं खंतीए भाविओ भवति अंतरप्पा, संजय-कर-चरण-नयण-वयणो सूरो सच्चज्जवसंपण्णो ॥ प्र० ७.१८ ततिय-लोभो न सेवियव्वो । लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं खेत्तस्स व वत्थुस्स व कतेण । लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं कित्तीए व लोभस्स व कएण । लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं इड्डीए व सोक्खस्स व कएण । लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं भत्तस्स व पाणस्स व कएण । लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं पीढस्स व फलगस्स व कएण । लूडो लोलो भणेज्ज अलियं सेज्जाए व संथारकस्स व कएण । लुतो लोलो भणेज्ज अलियं वत्थस्स व पत्तस्स व कएण। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण २६७ लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं कंबलस्स व पायपुंछणस्स व कएण । लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं सीसस्स व सिस्सिणीए व कएण । अण्णेसु य एवमादिएसु बहुसु कारणसतेसु लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं, तम्हा लोभो न सेवियवो। एवं मुत्तीए भाविओ भवति अंतरप्पा, संजय-कर-चरण-नयण-वयणो सूरो सच्चज्जवसंपण्णो ।। प्र० ७११६ ___ चउत्थं-न भाइयव्वं । भीतं खु भया अइंति लहुयं, भीतो अबितिज्जओ मणूसो, भीतो भूतेहिं व घेपेज्जा, भीतो अण्णं पि हु भेसेज्जा, भीतो तव-संजमं पि हु मुएज्जा, भीतो य भरं न नित्थरेज्जा, सप्पुरिसनिसेवियं च मग्गं भीतो न समत्थो अणुचरिउं । तम्हा न भाइयव्वं भयस्स वा वाहिस्स वा रोगस्स वा जराए वा मच्चुस्स वा अण्णस्स च एवमादियस्स। एवं धेज्जेण भाविओ भवति अंतरप्पा, संजय-कर-चरण-नयण-वयणो सूरो सच्चज्जवसंपण्णो ।। प्र० ७।२० पंचमक-हासं न सेवियव्वं । अलियाई असंतकाई जंपंति हासइत्ता। परपरिभवकारणं च हासं, परिपरिवायप्पियं च हासं, परपीलाकारगं च हासं, भेदविमुत्तिकारकं च हासं, अण्णोण्णजणियं च होज्ज हासं, अण्णोण्णगमणं च होज्ज मम्मं, अण्णोण्णगमणं च होज्ज कम्म, कंदप्पाभिओगगमणं च होज्ज हासं, आसुरियं किव्विसत्तं च जणेज्ज हासं, तम्हा हासं न सेवियव्वं । ____ एवं मोणेण भाविओ भवइ अंतरप्पा, संजय-कर-चरण-नयण-वयणो सूरो सच्चज्जवसंपण्णो । प्र० ७।२१ अस्तेय तस्स इमा पंच भावणा ततियस्स वतस्स होंति परदव्वहरणवेरमण-परिरक्खण?याए॥ प्र० ८१८ पढमं-देवकुल-सभ-प्पवा-आवसह-रुक्खमूल-आराम-कंदरा-आगर-गिरिगुह-'कम्मंतउज्जाण'-जाणसाल-कुवितसाल-मंडव-सुण्णघर-सुसाण-लेण-आवणे, अण्णंमि य एवमादियंमि दगमट्टिय-बीज-हरित-तसपाण-असंसत्ते अहाकडे फासुए विवित्ते पसत्थे उवस्सए होइ विहरियव्वं । आहाकम्म-बहुले य जे से आसित्त-संमज्जिओसित्त-सोहिय-छायण-दुमण-लिंपण-अणुलिंपण-जलण-भंडचालण अंतो बहिं च असंजमो जत्थ वट्टती, संजयाण अट्ठा 'वज्जेयव्वे हु उवस्सए' से तारिसए सुत्तपडिकुठे । एवं विवित्तवासवसहिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, निच्चं अहिकरणकरण-कारावण-पावकम्मविरते दत्ताणुण्णाय ओग्गहरुई ।। प्र० ८ बितियं-आरामुज्जाण-काणण-वणप्पदेसभागे जं किंचि इक्कडं व कढिणगं व जंतुगं व 'परा-मेरा'-कुच्च-कुस-डब्भ-पलाल-मूयग-वल्लय-पुष्प-फल-तय-प्पवाल-कंद-मूल-तण-कटू Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ चित्त-समाधि : जैन योग सक्कराइं गेण्हइ सेज्जोवहिस्स अट्ठा, न कप्पए ओग्गहे अदिण्णंमि गेण्हिउं जे। हणिहणि ओग्गहं अणुण्णविय गेण्हियव्वं । एवं ओग्गहसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, निच्चं अहिकरण-करणकारावण-पावकम्मविरते दत्ता गुण्णाय ओग्गहरुई ।। प्र०८/१० ततियं---पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगट्टयाए रुक्खा न छिदियव्वा, न य छेदणेण भेयणेण य सेज्जा कारेयव्वा । जस्सेव उवस्सए वसेज्ज सेज्जं तत्थेव गवेसेज्जा, न य विसमं समं करेज्जा, न निवाय-पवाय-उस्सुकत्तं, न डंसमसगेसु खुभियव्वं, अग्गी धूमो य न कायव्वो । एवं संजमबहुले संवरबहुले संवुडबहुले समःहिबहुले धीरे काएण फासयंते सययं अज्झप्पज्झाणजुत्ते समिए एगे चरेज्ज धम्म । ____ एवं सेज्जासमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, निच्चं अहिकरण-करणकारावण-पावकम्मविरते दत्ताणुण्णाय ओग्गहरुई ॥ प्र० ८।११ चउत्थं---साहारणपिंडपातलाभे भोत्तव्वं संजएण समियं, न सायसूयाहिकं, न खद्धं, न वेइयं, न तुरियं, न चवलं, न साहसं, न य परस्स पीलाकरं सावज्ज, तह भोत्तव्वं जह से ततियवयं न सीदति ।। साहारणपिंडवायलाभे सुहुमं 'अदिण्णादाणवय-नियम-वेरमणं'। एवं साहारणपिंडवायलाभे समिति जोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, निच्चं अहिकरणकरण-कारावण-पावकम्मविरते दत्ता गुण्णाय-ओग्गहरुती ।। प्र० ८।१२ पंचमगं----साहम्मिएसु विणओ पउजियव्यो, उवकारण-पारणासु विणओ पउंजियव्वो, वायण-परियट्टणासु विणओ पउंजियव्वो, दाण-गहण-पुच्छणासु विणओ पउंजियव्वो, निक्खमण-पवेसणासु विणाओ पउंजियव्वो, अण्णेसु य एवमाइएसु बहुसु कारणसएसु विणओ पउंजियव्वो। विणओ वि तवो तवो वि धम्मो, तम्हा विणओ पउंजियव्वो गुरूसु साहस तवस्सीसु य । एवं विणएण भाविओ भवति अंतरप्पा, णिच्चं अहिकरण-करण-कारावण-पावकम्मविरते दत्ताणुण्णाय-ओग्गहरुई ।। प्र० ८।१३ ब्रह्मचर्य तस्स इमा पंच भावणाओ चउत्थवयस्स होति अबंभचेरवेरमण-परिरक्खणट्टयाए । प्र०६।६ पढम-सयणासण-घरवारअंगण-आगास-गवक्ख-साल-अभिलोयण-पच्छवत्थूक-पसाहणकण्हाणिकावकासा, अवकासा जे य वेसियाणं, अच्छंति य जत्थ इथिकाओ अभिक्खणं मोह-दोस-रति-रागवड्डणीओ, कहिति य कहाओ बहुविहाओ, ते हु वज्ज णिज्जा । इत्थिसंसत्त-संकिलिट्ठा, अण्णे वि य एवमादी अवकासा ते हु वज्ज णिज्जा जत्थ मणोविन्भमो 'वा भंगो वा' भंसणावा अढें रुदं च होज्ज झाणं तं तं वज्जेज्ज वज्जभीरु अणायतणं अंतपंतवासी। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण २६६ एवमसंसत्तवासवसहीसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, आरतमणविरयगामधम्मे जितेंदिए बंभचेरगुत्ते ॥ प्र० ६७ बितियं-नारीजणस्स मज्झे न कहेयव्वा कहा-विचित्ता विब्बोय-विलास-संपउत्ता हास-सिंगार-लोइयकह व्व मोहजणणी, न आवाह-विवाह-वरकहा, इत्थीणं वा सुभगदुब्भग-कहा, चउसटुिं च महिला गुणा, न वण्ण-देस-जाति-कुल-रूव-नाम-नेवत्थ-परिजणकहव्व इत्थियाणं, अण्णा वि य एवमादियाओ कहाओ सिंगारकलुणाओ तव-संजमबंभचेर-धातोवघातियाओ अणुचरमाणेण बंभचेरं न कहेयव्वा न सुणेयव्वा, न चितेयव्वा । एवं इत्थीकहविरतिसमितिजोगेण भाविता भवति अंतरप्पा, आरतमणविरयगामधम्मे जितेंदिए बंभचेरगुत्ते ॥ प्र०६८ ततियं-नारीण-हसिय-भणिय-चेट्ठिय-विप्पेक्खिय-गइ-विलास-कीलियं, विब्बोइयनट्ट-गीत-वाइय-सरीरसंठाण-वण्ण-कर-चरण-नयण-लावण्ण-रूव-जोवण्ण-पयोहर-अधर-वत्थअलंकार-भूसणाणि य, गुज्झोकासियाई, अण्णाणि य एवमादियाइं तव-संजम-बंभचेरघातोवघातियाइं अणुचरमाणेण बंभचेरं न चक्खुसा न मणसा न वयसा पत्थेयव्वाइं पावकम्माइं। एवं इत्थीरूवविरतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, आरतमणविरयगामधम्मे जितेंदिए बंभचेरगुत्ते ।। प्र०६९ चउत्थं-पुव्वरय-पुव्वकीलिय-पुव्वसग्गंथ-गंथ-संथुया जे ते आवाह-विवाह-चोल्लकेसु य तिथिसु जण्णेसु उस्सवेसु य सिंगारागार-चारुवेसाहिं इत्थीहिं हाव-भाव-पललिय-विक्खेवविलास-सालिणीहिं अणुकूलपेम्मिकाहिं सद्धि अणुभूया सयण-संपओगा, उदुसुह-वरकुसुमसुरभिचंदण-सुगंधिवर-वास-धूव-सुहफरिस-वत्थ-भूसणगुणोववेया, रमणिज्जाओज्ज-गेज्जपउरनड-नट्टक- जल्ल-मल्ल-मुट्ठिक-वेलंबग-कहग-पवग-लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्लतुंबवीणिय-तालायर-पकरणाणि य बहूणि महुरसर-गीत सुस्सराई, अण्णाणि य एवमाइयाई तव-संजम-बंभचेर-घातोवघातियाई अणुचरमाणेण बंभचेरं न ताई समणेण लब्भा दट्ठ न कहेउं नवि सुमरिउं जे। एवं पुव्वरयपुव्वकीलियविरतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, आरयमणविरतगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते ॥ प्र० ६।१० पंचमगं-आहारपणीय-निद्धभोयण-विवज्जए संजते सुसाहू ववगयखीर-दहि-सप्पिनवनीय-तेल्ल-गुल-खंड-मच्छंडिक- महु- मज्ज- मंस- खज्जक- विगति- परिचत्त कयाहारे न दप्पणं न बहुसो न नितिकं न सायसूपाहिकं न खलु, तहा भोत्तव्वं जह से जायामाता य भवति, न य भवति विब्भमो भंसणा य धम्मस्स ।। __ एवं पणीयाहारविरतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा, आरयमण-विरतगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते ।। प्र० ६।११ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० चित्त-समाधि : जैन योग अपरिग्रह तस्स इमा पंचभावणाओ चरिमस्स वयस्स होति परिग्गहवेरमण-रक्खणट्टयाए । प्र० १०११३ पढम-सोइंदिएण सोच्चा सद्दाइं मणुण्ण-भद्दगाइं, किं ते ? वरमुरय-मुइंग-पणव-ददुर-कच्छभि-वीणा-विपंची वल्लयि-वद्धीसक-सुघोस - नंदिसूसरपरिवादिणी-वंस-तूणकपव्वक-तंती-तल-ताल-तुडियनिग्घोस-गीय वाइयाई, नड-नट्टकजल्ल-मल्ल-मुट्ठिक-लंबक-कहक-पवक-लासग-आइक्खक-लंख-मंख-तूणइल्ल - तुंबवीणियतालायर-पकरणाणि य, बहूणि महुरसर-गीत सुस्स राई, कंची-मेहला-कलाव-पतरक-पहेरकपायजालग-घंटिय-खिखिणि-रयणोरुजालय-छुद्दिय-नेउर-चलणमालिय-कणगनियल- जालगभूसणसद्दाणि, लीलचंकम्ममाणाणुदीरियाई, तरुणीजणहसिय-भणिय-कलरिभित-मंजुलाई, गुणवयणाणि य बहूणि महरजणभासियाई, अण्णेसु य एवमादिएसु सद्देसु मणुण्ण-भद्दएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं न रज्जियव्वं न गिभियव्वं न मुज्झियव्वं न विणिग्घायं आवज्जियव्वं न लुभियव्वं न तुसियव्वं न हसियव्वं न सइं च मई च तत्थ कुज्जा । पूणरवि सोइंदिएण सोच्चा सहाई अमणूण्ण-पावकाई, किं ते ? अक्कोस-फरुस-खिसण-अवमाणण-तज्जण-निब्भंछण-दित्तवयण- तासण - उक्कूजिय-रडिय-कंदिय-निग्घुट-रसिय-कलुणविलविवियाई, अण्णेसु य एवमादिएस सद्देसु अमणुण्ण-पावएसू न तेसु समणेण रूसियव्वं न हीलियव्वं न निदियव्वं न खिसियव्वं न छिदियव्वं न भिदियव्वं न वहेयव्वं न दुगुंछावत्तिया व लब्भा उप्पाएउ । एवं सोतिदियभावणा भावितो भवति अंतरप्पा, मणुण्णाऽमणुण्ण-सुब्भि-दुब्भिरागदोस-पणिहियप्पा साहू मण-वयण-कायगुत्ते संवुडे पणिहितिदिए चरेज्ज धम्मं ॥ प्र० १०।१४ बितियं-चक्खुइंदिएण पासिय रूवाणि मणुण्णाई भद्दकाई, सचित्ताऽचित्तमीसकाइंकढे पोत्थे य चित्तकम्मे लेप्पकम्मे सेले य दंतकम्मे य, पंचहि वण्णेहि अणेगसंठाण-संठियाई, गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघातिमाणि य मल्लाइं बहुविहाणि य अहियं नयण-मणसुहकराई, वणसंडे पव्वते य गामागरनगराणि य खुद्दिय-पुक्खरणि-वावी-दीहिय-गुंजालियसरसरपंतिय-सागर-बिलपंतिय-खातिय-नदि - सर-तलाग- वप्पिणी-फुल्लुप्पल-पउम-परिमंडियाभिरामे, अणेग सउणगण-मिहुण विचरिए, वरमंडव-विविहभवण-तोरण-चेतिय-देवकुलसभ-प्पवाहसह-सुकयसयणासण-सीय-रह-सगड-जाण-जुग्ग-संदण-नरनारिगणे य सोमपडिरूवदरिसणिज्जे, अलंकियविभूसिए, पुवकयतवप्पभावसोहग्गसंपउत्ते, नड-नगजल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंबग-कहक-पवग - लासग - आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुंबवीणियतालायर-पकरणाणि य बहूणि सुकरणाणि, अण्णेसु य एवमादिएसु रूवेसु मणुण्ण-भद्दएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं न रज्जियव्वं न गिझियव्वं न मुज्झियव्वं न विणिग्घायं आवज्जियव्वं न लुभियव्वं न तुसिय व्वं न हसियव्वं न सइं च मइं च तत्थ कुज्जा । पुणरवि चक्खिदिएण पासिय रुवाइं अमणुण्ण-पावकाइं, किं ते?-- गंडि-कोढिक-कुणि-उदरि कच्छुल्ल-पइल्ल-कुज्ज-पंगुल-वामण-अंधिल्लग-एगचक्खु Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण २७१ विणिहय-सप्पिसल्लग-वाहिरोगपीलियं, विगयाणि य मयककलेवराणि, सकिमिणकुहियं च दव्वरासिं, अण्णेसु य एवमादिएसु अमणुण्ण-पावतेसु न तेसु समणेण रूसियव्वं न हीलियव्वं न निदियव्वं न खिसियव्वं न छिदियव्वं न भिदियव्वं न वहेयव्वं न दुगुंछावत्तिया व लब्भा उप्पाते। एवं चक्खिदियभावणा भावितो भवति अंतरप्पा, मणुण्णाऽमणुण्ण-सुब्भि-दुब्भिरागदोस-पणिहियप्पा साहू मण-वयण-कायगुत्ते संवुडे पणिहितिदिए चरेज्ज धम्मं ॥ प्र० १०॥१५ ततियं-धाणिदिएण अग्धाइय गंधाति मणुण्ण भद्दगाई, किं ते ? जलय-थलय-सरसपुप्फफलपाणभोयण-कोट्ठ-तगर-पत्त-चोय - दमणक-मरुय-एला-रसपिक्कमंसि-गोसीस-सरसचंदण-कप्पूर-लवंग-अगरु-कुंकुम-कक्कोल-उसीर-सेयचंदण - सुगंधसारंगजुत्तिवरधूववासे उउय-पिडिम-णिहारिम-गंधिएसु, अण्णेसु य एवमादिएसु गंधेसु मणुण्ण-भद्दएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं न रज्जियव्वं न गिज्झियव्वं न मुज्झियव्वं न विणिग्घायं आवज्जियव्वं न लुभियव्वं न तुसियव्वं न हसियव्वं न सति च मई च तत्थ कुज्जा । पुणरवि घाणिदिएण अग्घाइय गंधाणि अमणुण्ण-पावकाइं कि ते ? अहिमड-अस्समड-हत्थिमड-गोमड-विग-सुणग-सियाल-मणुय- मज्जार-सीह-दीविय - मयकुहियविणट्ठकिविण- बहुदुरभि-गंधेसु, अण्णेसु य एवमादिएसु गंधेसु अमणुण्ण पावएसु न तेसु समणेण रूसियव्वं न हीलियव्वं न निदियव्वं न खिसियव्वं न छिदियव्वं न भिदियव्वं न वहेयव्वं न दुगुछा-वत्तिया व लब्भा उप्पाएउ । एवं घाणिदियभावणाभावितो भवति अंतरप्पा, मणुण्णाऽमणुण्णसुब्भि-दुब्भि-रागदोस-पणिहियप्पा साहू मण-बयण-कायगुत्ते संवुडे पणिहिइंदिए चरेज्ज धम्म । प्र० १०।१६ चउत्थं--जिभिदिएण साइय रसाणि उ मणुण्ण-भद्दकाइं, कि ते? --- उग्गाहिम-विविहपाण-भोयण-गुलकय-खंडकय-तेल्लघयकय-भक्खेसु बहुविहेसु लवणरससंजुत्तेसु महुमंस-बहुप्पगारमज्जिय-निट्ठाणग - दालियंब-सेहंब-दुद्ध-दहि- सरय - मज्जवरवारुणी - सीहु-काविसायणक-साकट्ठारस-बहुप्पगारेसु भोयणेसु य मणुण्णवण्ण-गंध-रसफास-बहुदव्व-संभितेसु, अण्णेसु य एवमादिएसु रसेसु मणुण्ण भद्दएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं न रज्जियव्वं न गिज्झियव्वं न मुज्झियव्वं न विणिग्घायं आवज्जियव्वं न लुभियव्वं न तुसियव्वं न हसियव्वं न सइं च मइं च तत्थ कुज्जा। पुणरवि जिभिदिएण साइय रसाति अमणुण्ण-पावगाई, किं ते ? अरस-विरस-सीय-लुक्ख-णिज्जप्प-पाण-भोयणाई दोसीण-वावण्ण-कुहिय-पूइय-अमगुण्ण-विणट्ठ-पसूय-बहुदुब्भिगंधियाइं तित्त-कडुय-कसाय-अंबिल-रस-लिंडनीरसाई, अण्णेसु य एवमाइएसु रसेसु अमणण्ण-पावएसु न तेसु समणेण रूसियव्वं न हीलियव्वं न निदियव्वं न खिसियव्वं न छिदियव्वं न भिदियव्वं न वहेयव्वं न दुगुंछावत्तिया न लब्भा उप्पाएउं । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ चित्त-समाधि : जैन योग एवं जिभिदियभावणाभावितो भवति अंतरप्पा, मणुण्णाऽमणुण्ण-सुब्भि-दुन्भि-रागदोस-पणिहियप्पा साहू मण-वयण-कायगुत्ते संवुडे पणिहितिदिए चरेज्ज धम्मं ॥ प्र.१०।१७ पंचमगं-फासिदिएण फासिय फासाइं मणुण्ण-भद्दकाइं, किं ते ? दगमंडव-हार-सेय-चंदण-सीयलविमलजल-विविहकुसुमसत्थर-ओसीर-मुत्तिय-मुणालदोसिणा पेहुणउक्खेवग-तालियंट-बीयणग-जणियसुहसीयले य पवणे गिम्हकाले, सुहफासाणि य बहूणि सयणाणि आसणाणि य, पाउरणगुणे य सिसिरकाले अंगार-पतावणा य आयवनिद्ध-मउय-सीय-उसिण-लहुया य जे उदुसुहफासा अंगसुह-निव्वुइकरा ते, अण्णेसु य एवमादिएसु फासेसु मणुण्ण भद्दएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं न रज्जियव्वं न गिज्झियव्वं न मूझियव्वं न विणिग्घायं आवज्जियव्वं न लुभियव्वं न अज्झोववज्जियव्वं न तुसियव्वं न हसियन्वं न सतिं च मतिं च तत्थ कुज्जा । पुणरवि फासिदिएण फासिय फासाति अमणुण्ण-पावकाई, किं ते? - अणेगबंध-वह-तालणंकण-अतिभारारोहणए, अंगभंजण-सूईनखप्पवेस-गाय-पच्छणणलक्खारस-खारतेल्ल-कलकलतउसीसक-काललोहसिंचण - हडिबंधण- रज्जु-निगल - संकलहत्थंडय-कुंभिपाक-दहण-सीहपुच्छण-उब्बंधण - मूलभेय-गयचलणमलण- करचरणकण्णनासोट्टसीसछेयण - जिब्भंछण-वसणनयणहिययंत-दंतभंजण-जोत्तलयकसप्पहार-पादपण्हिजाणुपत्थरनिवाय - पीलण - कविकच्छु-अगणि-विच्छुयडक्क-वायातवदंसमसकनिवाते, 'दुटुणिसेज्जा दुनिसीहिया' कक्खडगुरु-सीय-उसिण-लुक्खेसु बहुविहेसु, अण्णेसु य एवमाइएसुफासेसु अमणुण्ण-पावकेसु न तेसु समणेण रूसियव्वं न हीलियव्वं न निदियव्वं न गरहियव्वं न खिसियव्वं न छिदियव्वं न भिदियव्वं न वहेयव्वं न दुगुंछावत्तियं च लब्भा उप्पाएउं । एवं फासिदियभावणा भावितो भवति अंतरप्पा, मणुण्णामणुण्ण-सुब्भि-दुब्भि-रागदोस-पणिहियप्पा साहू मण-वयण-कायगुत्ते संवुडे पणिहिति दिए चरेज्ज धम्मं ।। प्र० १०॥१८ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कंध चित्त समाधि १. सुयं मे आउसं ! तेण भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस 'चित्तसमाहिठाणाइं पण्णत्ताई। दशा० ५।१ २. कतराई खलु ताई थेरेहिं भगवंतेहिं दस चित्तसमाहिठाणाइं पण्णत्ताइं ? द०५।२ इमाई खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस चित्तसमाहिठाणाई पण्णत्ताई, तं जहा–५।३ । तेण कालेणं तेण समएणं वाणियग्गामे नगरे होत्था। एत्थं नगरवण्णओ भाणियव्वो। ५।४ तस्स णं वाणियग्गामस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे दूतिपलासाए नामं चेइए होत्था । चेइयवण्णओ भाणियव्यो । ५५ जितसत्तू राया णं धारिणी देवी। एवं सव्वं समोसरणं भाणितव्वं जाव पुढवीसिलापट्टए, सामी समोसढे, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया। ॥६ ___अज्जो ! इति समणे भगवं महावीरे समणा निग्गंथा य निग्गंथीओ य आमंत्तेता एवं वयासी-इह खलु अज्जो ! निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इरियासमिताणं भासासमिताणं एसणास मिताणं आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिताणं उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिद्वावणितासमिताणं मणसमिताणं वयसमिताणं कायसमिताणं मणगुत्ताणं वयगुत्ताणं कायगुत्ताणं गुत्तिदियाणं गुत्तबंभयारीणं आयट्ठीणं आयहिताणं आयजोगीणं आयपरक्कमाणं पक्खियपोसहिएसु समाधिपत्ताणं झियायमाणाणं इमाई दस चित्तसमाहिट्ठाणाई असमुप्पन्नपुव्वाइं समुप्पज्जिज्जा, तं जहा—१. धम्मचिंता वा से असमुप्पन्नपुवा समुप्पज्जेज्जा सव्वं धम्म जाणित्तए । २. सण्णिणाणे वा से असमुप्पन्नपुत्वे समुप्पज्जेज्जा अहं सरामि । ३. सुमिणदंसणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा अहातच्चं सुमिणं पासित्तए । ४. देवदंसणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा दिव्वं देवढि दिव्वं देवजुइं दिव्वं देवाणुभावं पासित्तए । ५. ओहिनाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा ओहिणा लोयं जाणित्तए । ६. ओहिदसणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा ओहिणा लोयं पासित्तए । ६. ओहिदंसणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा ओहिणा लोयं पासित्तए । ७. मणपज्जवनाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा अंतो मणुस्सखेत्ते अड्डातिज्जेसु दीवसमुद्देसु सण्णीणं पंचेदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगते भावे जाणित्तए । ८. केवलनाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा 'केवलकप्पं लोयालोयं' जाणित्तए। ६. केवलदसणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा 'केवलकप्पलोयालोयं' पासित्तए । १०. 'केवलिमरणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा' सव्वदुक्खपहीणाए । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ चित्त-समाधि : जैन योग १. ओयं चित्तं समादाय, झाणं समणुपस्सति । धम्मे ठिओ अविमणो, निव्वाणम भिगच्छइ । २. ण इमं चित्तं समादाए, भुज्जो लोयंसि जायति । अप्पणो उत्तमं ठाणं, सण्णीनाणेण जाणइ ।। ३. अहातच्चं तु सुविणं, खिप्पं पासइ संवुडे । . सव्वं च ओहं तरती, दुक्खदो य विमुच्चइ ।। ४. पंताइ भयमाणस्स, विवित्तं सयणासणं । ___ अप्पाहारस्स दंतस्स, देवा दंसेंति ताविणो । ५. सव्वकामविरत्तस्स, खमतो भयभेरवं । तओ से तोधी भवति, संजतस्स तवस्सिणो । ६. तवसा अवहट्टलेसस्स, दंसणं परिसुज्झति । उड्डमहेतिरियं च, सव्वं समणुपस्सति ।। ७. सुसमाहडलेसस्स, अवितक्कस्स भिक्खुणो । __ सव्वओ विप्पमुक्कस्स, आया जाणति पज्जवे ।। ८. जदा से णाणावरणं, सव्वं होति खयं गयं । तदा लोगमलोगं च, जिणो जाणति केवली ॥ . ६. जदा से दंसणावरणं, सव्वं होइ खयं गयं । तदा लोगमलोग च, जिणो पासइ केवली ।। १०. पडिमाए विसुद्धाए, मोहणिज्जे खयं गते । असेसं लोगमलोगं च, पासंति सुसमाहिया ।। ११. जहा मत्थए सूईए, हताए हम्मती तले । एवं कम्माणि हम्मंति, मोहणिज्जे खयं गते ।। १२. सेणावतिम्मि णिहते, जधा सेणा पणस्सती। एवं कम्मा पणस्संति, मोहणिज्जे खयं गते ।। १३. धूमहीणे जधा अग्गी, खीयतासे निरिधणे । एवं कम्माणि खीयंति, मोहणिज्जे खयं गते ।। १४. सुक्कमूले जधा रुक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति । ___एवं कम्मा न रोहंति, मोहणिज्जे खयं गते । १५. जधा दड्डाण बीयाण, न जायंति पुणंकुस । कम्मबीएसु दड्ढेसु, न जायंति भवंकुरा ।। १६. चिच्चा ओरालियं बोंदि, नामगोत्तं च केवली । आउयं वेयणिज्ज च, च्छित्ता भवति नीरओ । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कंध २७५ १७. एवं अभिसमागम्म, चित्तमादाय आउसो । सेणिसोधिमुवागम्म, आत्तसोधिमुवेहइ.----त्ति बेमि ।। चित्तसमाधिस्थान-समाधि शब्द के अनेक अर्थ हैं। दशवैकालिक के वृत्तिकार हरिभद्रसूरी ने इसके तीन अर्थ किए हैं-हित, सुख और स्वास्थ्य । अगस्त्यसिंह स्थविर ने दशवकालिक चूर्णि में समाधि का अर्थ गुणों का स्थिरीकरण या स्थापन किया है। चित्त की समाधि का अर्थ है-मन की समाधि, मन का समाधान, मन की प्रशान्तता । स्थान शब्द के दो अर्थ हैं.-आश्रय अथवा भेद ।। प्रस्तुत आलापक में चित्त-समाधि के दस स्थान निर्दिष्ट किए हैं। उनमें कुछेक बहुत स्पष्ट हैं । जो अस्पष्ट हैं उनकी व्याख्या इस प्रकार है १. धर्मचिन्ता-समवायांग के वृत्तिकार ने इस पद के तीन अर्थ किए हैं १. पदार्थों के स्वभाव की अनुप्रेक्षा । २. सर्वज्ञभाषित धर्म ही प्रधान है, इस प्रकार का चिन्तन करना। ३. धर्म के ज्ञान का कारणभूत चिन्तन । असमुप्पण्णपुव्वा-जो अनादि-अतीत काल में कभी उत्पन्न नहीं हुई, वैसी धर्मचिन्ता के उत्पन्न होने पर अर्द्धपुद्गल परावर्त काल की सीमा में उस व्यक्ति का मोक्ष अवश्यंभावी हो जाता है । ऐसी धर्मचिन्ता से व्यक्ति का मन समाहित हो जाता है और वह जीव आदि के यथार्थ स्वरूप को जानकर, परिहीयकर्म का परिहार कर अपना कल्याण साध लेता है । २. स्वप्न दर्शन-इसका सामान्य अर्थ है-नींद में विभिन्न प्रकार के संवेदन करना । वही स्वप्न-दर्शन चित्त-समाधि का हेतु बनता है जो यथार्थग्राही होता है, जो कल्याण-प्रप्ति का सूचक होता है । जैसे भगवान महावीर को अस्थिकग्राम में स्वप्नदर्शन हुआ था। भगवान् वहां शूलपाणियक्ष के मन्दिर में रहे । शूलपाणियक्ष ने भगवान् को रात्रि के चारों प्रहर (कुछ समय तक) तक कष्ट दिए । रात्रि की अन्तिम बेला में भगवान् को कुछ नींद आई । तब उन्होंने दस स्वप्न देखे। वे दसों स्वप्न यथार्थ थे और भावी कल्याण के सूचक थे। इसी प्रकार जिस व्यक्ति को यथार्थ स्वप्न-दर्शन होता है वह भावी कल्याण की रेखाएं जानकर चित्त-समाधि को प्राप्त हो जाता है । ३. संज्ञीज्ञान-~-प्रस्तुत प्रकरण में इसका अर्थ है---जातिस्मृति, पूर्वजन्मज्ञान । संज्ञाओं के अनेक वर्गीकरण हैं । उनमें एक वर्गीकरण के अनुसार संज्ञाएं तीन हैं ... १. हेतुवादोपदेशिकी। २. दृष्टिवाद-सम्यक् दृष्टि । ३. दीर्घकालिकी। ये तीनों ज्ञानात्मक हैं । ये क्रमशः विकलेन्द्रिय जीवों के, सम्यग्दृष्टि वाले जीवों के तथा समनस्क जीवों के होती हैं। वृत्तिकार का अभिप्राय है कि प्रस्तुत प्रकरण में दीर्घकालिकी संज्ञा ही ग्राह्य है । वह जिसके होती है वह समनस्क होता है, उसका ज्ञान Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ चित्त-समाधि : जैन योग संज्ञीज्ञान कहलाता है । यह सामान्य ज्ञान का वाचक है, परन्तु सूत्र की संगति के लिए संज्ञीज्ञान को जातिस्मृति ज्ञान ही मानना होगा । जातिस्मृति से पूर्वभवों का ज्ञान होने पर व्यक्ति में संवेग की वृद्धि हो सकती है और उससे उसे चित्त-समाधि प्राप्त होती है। ४. देव दर्शन-यह भी समाधि का कारण बनता है। देव अमुक-अमुक साधक के गुणों से आकृष्ट होकर उसे दर्शन देते हैं, उसके सामने प्रकट होते हैं। वे अपनी दिव्य देवऋद्धि-मुख्य देव परिवार आदि को, दिव्य देवद्युति-विशिष्ट शरीर तथा आभूषणों आदि की दीप्ति को तथा दिव्य देवानुभाव-उत्कृष्ट वैक्रिय आदि करने के सामर्थ्य को उस साधक को दिखाने के लिए प्रगट होते हैं। उन देवों की ऋद्धि, द्युति और अनुभाव को देखकर साधक के मन में आगमों के प्रति दृढ़ श्रद्धा पैदा होती है और धर्म के प्रति बहुमान-आन्तरिक अनुराग उत्पन्न होता है। इससे चित्त को समाधान प्राप्त होता है । ५-६-७. इसी प्रकार विशिष्ट अवधिज्ञान, अवधिदर्शन और मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होने पर उसका चित्त समाहित और शांत हो जाता है। विकल्प नष्ट हो जाते हैं। ८. केवलज्ञान-यह समाधि का ही एक भेद है। इसलिए इसे समाधि का हेतुभूत माना है । यहां केवली के चित्त का अर्थ है-चैतन्य । केवलज्ञान इन्द्रिय और मानसिक ज्ञान से अतीत होता है । वह निरपेक्ष ज्ञान है । वह चैतन्य का संपूर्ण जागरण है । वही चित्त-समाधि है। यहां कार्य में कारण का उपचार कर केवलज्ञान को चित्तसमाधि का हेतु माना है। ६. केवल-दर्शन । १०. केवलिमरण-यह सर्वोत्तम समाधि का स्थान है । केवलिमरण मरने वाला सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत हो जाता है । दशाश्रुतस्कंध (दशा ५) में दस चित्त-समाधि स्थानों का उल्लेख है। वहां संज्ञीजातिस्मरण दूसरा और स्वप्न-दर्शन तीसरा चित्तसमाधि-स्थान है । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal use only