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१०६. स तो जाणइ पासए य, अमोहणे होइ निरंतराए । अणासवे झाणसमाहिजुत्ते, प्राउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्धे || ११०. सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को, जं बाहई सययं जंतुमेयं । farat सत्थो, तो होइ प्रच्चंत सुही कयत्थो ॥ १११. अणाइकालप्पभवस्स एसो, सव्वस्स दुक्खस्स मोक्खमग्गो । वियाहियो जं समुविच्च सत्ता, कमेण प्रच्चंतसुही भवंति ॥
चित्त-समाधि : जैन योग
टिप्पण
१ श्रट्ट पवयणमायाश्रो
पांच समितियों और तीन गुप्तियों- इन प्राठों में सारा प्रवचन समा जाता है, इसलिए इन्हें 'प्रवचन-माता' कहा जाता है । इन प्राठों से प्रवचन का प्रसव होता है, इसलिए इन्हें 'प्रवचन - माता' कहा जाता है। पहले में समाने का अर्थ है और दूसरे माँ का |
२ समिश्र
इसमें समितियां प्राठ बतलाई गई हैं। प्रश्न होता है कि समितियां पांच ही हैं तो यहां आठ का कथन क्यों ?
टीकाकार ने इसका समाधान करते हुए कहा है कि 'गुप्तियां' केवल निवृत्त्यात्मक ही नहीं होतीं, किन्तु प्रवृत्त्यात्मक भी होती हैं, इसी अपेक्षा से उन्हें समिति कहा गया है । जो समित होता है वह नियमतः गुप्त होता है और जो गुप्त होता है वह समित होता भी है और नहीं भी ।
३ जुगमित्तं
'युग' का अर्थ है शरीर या गाड़ी का जुम्रा । चलते समय साधु की दृष्टि युग-मात्र होनी चाहिए, अर्थात् शरीर या गाड़ी के जुए जितनी लम्बी होनी चाहिए । जुम्रा जैसे प्रारंभ में संकड़ा और आगे से विस्तृत होता है वैसे ही साधु की दृष्टि होनी चाहिये । युग-मात्र का दूसरा अर्थ है - 'चार हाथ प्रमाण' । इसका तात्पर्य है कि मुनि चार हाथ प्रमाण भूमि को देखता हुप्रा चले । विशुद्धि-मार्ग में भी भिक्षु को युगमात्रदर्शी कहा गया है । इसलिए लोलुप स्वभाव को त्याग, प्रांखें नीची किए, युगमात्रदर्शी चार हाथ तक देखने वाला हो । धीर ( भिक्षु) संसार में इच्छानुरूप विचरने का इच्छुक सपदानचारी बने |
कहीं-कहीं 'युग' के स्थान पर 'कुक्कुट के उड़ान की दूरी जितनी भूमि पर दृष्टि डालकर चलने की बात मिलती है। इस प्रकार चलने वाले भिक्षु 'कौक्केटिक' कहलाते थे ।
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