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उत्तरज्झयणाणि
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४ परिभोयंमि चउक्कं
इस चरण में यह बताया गया है कि मुनि परिभोग-एषणा में चार वस्तुओंपिंड, शय्या-वसति, वस्त्र और पात्र का विशोधन करे।
दशवकालिक (६/४७) में अकल्पनीय पिंड आदि चारों को लेने का निषेध किया गया है । प्रकारान्तर से चतुष्क के द्वारा संयोजना आदि दोषों का ग्रहण किया गया है। यद्यपि भोजन के संयोजना, अप्रमाण, अंगार, धूम, कारण आदि पांच दोष हैं, फिर भी शान्त्याचार्य ने अंगार और धूम दोनों को एक-कोटिक मान यहां इनकी संख्या चार मानी है। ५ मोहोवहोवग्गहियं भण्डगं
अोहोवहोवग्गहियं उपधि दो प्रकार की होती है- १. प्रोघ-उपधि और २. प्रौपग्रहिक-उपधि ।
जो स्थायी रूप से अपने पास रखा जाता है उसे 'अोघ-उपधि' और जो विशेष कारणवश रखा जाता है उसे 'प्रौपग्रहिक-उपधि' कहा जाता है । जिन-कल्पिक मुनियों के बारह, स्थविर-कल्पिक मुनियों के चौदह और साध्वियों के पच्चीस अोघ-उपधि होते हैं । इससे अधिक उपधि रखे जाते हैं, वे सब प्रौपग्रहिक होते हैं। ____ 'भण्डगं' का अर्थ 'उपकरण' है। प्रोधनियुक्ति के अनुसार उपधि, उपग्रह, संग्रह, प्रग्रह, अवग्रह, भण्डक, उपकरण और करण—ये सब पर्यायवाची हैं। ६ श्लोक १६ से १८ ____ इन श्लोकों में परिष्ठान-विधि का समुचित निर्देश हुआ है। मुनि कहां और कैसे परिष्ठान करे, इसकी विधि बतलाते हुए कहा है कि-गांव और उद्यानों से दूरवर्ती स्थानों में, कुछ समय पूर्व दग्ध स्थानों में मल आदि का विसर्जन करे, क्योंकि स्वल्पकाल पूर्व के दग्ध-स्थान ही सर्वथा अचित्त होते हैं। जो चिरकाल दग्ध होते हैं, वहां पृथ्वीकाय आदि के जीव पुनः उत्पन्न हो जाते हैं। पन्द्रह कर्मादानों में 'दव-दाह' एक प्रकार है । इसके दो भेद हैं- १. व्यसन से--अर्थात् फल की अपेक्षा किए बिना ही वनों को अग्नि से जला डालना । २. पुण्य बुद्धि से--अर्थात् कोई व्यक्ति मरते समय यह कह कर मरे कि मेरे मरने के बाद इतने धर्म-दीपोत्सव अवश्य करना । ऐसी स्थिति में भी वन आदि जलाये जाते थे। अथवा धान्य आदि की समृद्धि के लिए खेतों में उगे हुए तृण आदि जलाये जाते थे । उपर्युक्त प्रवृत्तियां उस समय प्रचलित थीं, अत: मुनियों को दग्ध-स्थान मिल जाते थे। ७ संवेगेणं...निव्वेएणं
सम्यग् दर्शन के पांच लक्षणों में संवेग दूसरा और निर्वेद तीसरा है। संवेग का अर्थ है 'मोक्ष की अभिलाषा' और निर्वेद का अर्थ है-संसार-त्याग की भावना या काम-भोगों के प्रति उदासीन-भाव । श्रुतसागर सूरि ने निर्वेद के तीन अर्थ किये हैं-१. संसार-वैराग्य, २. शरीर वैराग्य और ३. भोग-वैराग्य ।
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