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________________ १०२ चित्त-समाधि : जैन योग विचलन का मूल कारण है-मोह की चतुर्विध परिणति-विस्मय, दया, लोभ और भय का आकस्मिक प्रादुर्भाव । जो दृश्य पहले नहीं देखा था, उसको देखते ही व्यक्ति का मन विस्मय से भर जाता है, जीवमय पृथ्वी को देख वह दया से पूर्ण हो जाता है तथा विपुल धन, ऐश्वर्य आदि देखकर वह लोभ से प्राकुन और अदृष्टपूर्व सर्पो को देखकर वह भयाक्रान्त हो जाता है । अत: विस्मय, दया, लोभ और भय भी उसके विचलन के कारण बनते हैं। इस सूत्र के कुछ विशेष शब्दों की मीमांसा १. पृथ्वी को छोटा सा-वृत्तिकार ने इसके दो प्रर्थ किये हैं-१. थोड़े जीवों वाली पृथ्वी और २. छोटी पृथ्वी । अवधिज्ञान उत्पन्न होने से पूर्व साधक के मन में कल्पना होती है कि पृथ्वी बड़ी तथा बहुत जीवों वाली है, पर जब वह उसे प्रपनी कल्पना से विपरीत पाता है, तब उसका अवधिदर्शन क्षुब्ध हो जाता है । १. शृंगाटक-तीन मार्गों का मध्य भाग । इसका आकार होगा> । २. तिराहा—जहाँ तीन मार्ग मिलते हों । इसका आकार यह होगा। । चौक-चार मार्गों का मध्य भाग। चतुष्कोण भूभाग । चौराहा–जहाँ चार मार्ग मिलते हों। इसका प्राकार + होगा। भिन्न-भिन्न व्याख्या ग्रन्थों में इसके अनेक अर्थ मिलते हैं -१. सीमाचतुष्क । २. त्रिपथभेदी। ३. बहुतर रथ्यात्रों का मिलन-स्थान । ४. चार मार्गों का समागम । ५. छह मार्गों का समागम । स्थानांग वृत्तिकार ने इसका अर्थ पाठ-स्थानों का मध्य किया है । चतुर्मुख-देवकुल आदि का मार्ग । देवकुलों के चारों ओर दरवाजे होते हैं । महापथ-राजमार्ग । पथ-सामान्य मार्ग । नगर निर्द्ध मन—नगर के नाले । शाँतिगृह-जहाँ राजा आदि के लिये शांतिकर्म - होम, यज्ञ आदि किया जाता शैलगृह-पर्वत को कुरेदकर बनाया हुप्रा मकान । उपस्थानगृह–सभामण्डप । भवनगृह-कुटुम्बीजन (घरेलू नौकर) के रहने का मकान । भवन और गृह का अर्थ पृथक् रूप में भी किया जा सकता है। जिसमें चार शालाएं होती हैं, उसे भवन और जिसमें कमरे (अपवरक) होते हैं वह गृह कहलाता है । ६१. प्रस्तुत सूत्र में केवलज्ञान-दर्शन के विचलित न होने के पाँच स्थानों का निर्देश है । अविचलन के हेतु ये हैं-१. यथार्थ वस्तुदर्शन, २. मोहनीय कर्म की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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