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________________ ठोण १०१ साधारण नियम के अनुसार प्रतिशायी ज्ञान-दर्शन की उपलब्धि उसी व्यक्ति को हो सकती है, जो दृढ़ शरीर और देहासक्ति से मुक्त होता है, किन्तु सामग्री भेद से इसमें परिवर्तन हो जाता है, जैसे-एक मनुष्य अस्वस्थ या तपस्वी होने के कारण शरीर से कुश है, किन्तु देहासक्त नहीं है, इसलिए वह प्रतिशायी ज्ञान दर्शन को प्राप्त हो जाता है । एक मनुष्य स्वस्थ होने के कारण दृढ़ है, किन्तु देहासक्त है, इसलिए वह प्रतिशायी ज्ञान-दर्शन को प्राप्त नहीं होता । एक मनुष्य स्वस्थ होने के कारण शरीर से दृढ है और देहासक्त भी नहीं है, इसलिए वह प्रतिशायी ज्ञान-दर्शन को प्राप्त होता है । एक मनुष्य अस्वस्थ होने के कारण शरीर से कृश है, किन्तु देहासक्त है, इसलिए वह प्रतिशायी ज्ञान दर्शन को प्राप्त नहीं होता । जिसमें देहाशक्ति नहीं होती, उसे प्रतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त हो जाता है, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ । जिसमें देहासक्ति होती है, उसे प्रतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त नहीं होता, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ | इसकी व्याख्या दूसरे नय से भी की जा सकती है। प्रथम व्याख्या में प्रत्येक भंग का दो-दो व्यक्तियों से सम्बन्ध है । इस व्याख्या में प्रत्येक भंग का संबंध एक व्यक्ति की दो अवस्थाओं से होगा, जैसे कोई व्यक्ति कृश शरीर होता है, तब उसमें मोह प्रबल नहीं होता, देहासक्ति दृढ़ नही होती, प्रमाद अल्प होता है, किन्तु जब वह दृढ़ शरीर होता है, तब मांस उपचित होने के कारण उसका मोह बढ़ जाता है, देहासक्ति प्रबल हो जाती है और प्रमाद बढ़ जाता है । इस कोटि के व्यक्ति के लिये प्रथम भंग है । कोई व्यक्ति दृढ़ शरीर होता है तब वह अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का ध्यान आदि साधना पक्षों में नियोजन करता है, मोह विलय के प्रति जागरूक रहता है, किन्तु जब वह कृश शरीर हो जाता है, तब अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का साघना पक्षों में वैसा नियोजन नहीं कर पाता । इस कोटि के व्यक्ति के लिये दूसरे भंग की रचना है । प्रथम कोटि के व्यक्ति के शरीर के कृश होने पर मनोबल दृढ़ होता है और शरीर के दृढ़ होने पर वह कृश हो जाता है । दूसरी कोटि के व्यक्ति का मनोबल शरीर के दृढ़ होने पर दृढ़ होता है और शरीर के कुश होने पर कृश हो जाता है | तीसरी कोटि के व्यक्ति का मनोबल दृढ़ ही रहता है, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ | चौथी कोटि के व्यक्ति का मनोबल कृश ही होता है, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ | ६०. प्रस्तुत सूत्र में अवधि-दर्शन के विचलित होने के पांच स्थानों का निर्देश है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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