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चित्त-समाधि : जैन योग ५५. निर्याणमार्ग-मृत्यु के समय जीव-प्रदेश शरीर के जिन मार्गों से निर्गमन करते हैं, उन्हें निर्याणमार्ग कहा जाता है। यहां उल्लिखित पांच निर्याणमार्गों तथा उनके फलों का निर्देश केवल व्यावहारिक प्रतीत होता है।
५६. अन्तक्रिया-मृत्युकाल में मनुष्य का स्थूलशरीर छूट जाता है। सूक्ष्मशरीर—तैजस और कार्मण उसके साथ लगे रहते हैं। कार्मणशरीर के द्वारा फिर स्थूलशरीर निष्पन्न हो जाता है। अतः स्थूलशरीर के छूट जाने पर भी सूक्ष्मशरीर की सत्ता में जन्म-मरण की परम्परा का अन्त नहीं होता। उसका अन्त सूक्ष्मशरीर का विसर्जन होने पर होता है। जो व्यक्ति कर्म-बन्धन को सर्वथा क्षीण कर देता है, उसके सूक्ष्मशरीर छूट जाते हैं । उनके छूट जाने का अर्थ है-अन्तक्रिया या जन्म-मरण की परम्परा का अन्त । इस अवस्था में प्रात्मा शरीर आदि से उत्पन्न क्रियाओं का अन्त कर अक्रिय हो जाता है।
५७. सर्वभावेन-नंदीसूत्र में केवलज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों का विषय समान बतलाया गया है। दोनों में अन्तर इतना सा है कि केवली प्रत्यक्षज्ञान से जानता है और श्रुतज्ञानी परोक्ष-ज्ञान से। केवनी द्रव्य को सब पर्यायों से जानता है और श्रुतकेवली कुछ एक पर्यायों से जानता है। जो 'सर्वभावेन' किसी एक वस्तु को जानता है, वह सब कुछ जान लेता है। प्राचारांग में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन इस प्रकार हुमा
'जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ ।
जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥ इसी आशय का एक श्लोक न्यायशास्त्र में उपलब्ध होता है'एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः ।
सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥ ५८. प्रस्तुत सूत्र में कुछ शब्द विवेचनीय हैंविवेक-शरीर और आत्मा का भेद-ज्ञान । व्युत्सर्ग-शरीर का स्थिरीकरण, कायोत्सर्ग-मुद्रा। उञ्छ-अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा लिया जाने वाला भक्त-पान ।
सामुदानिक --समुदान का अर्थ है-भिक्षा । उसमें प्राप्त होने वाले को सामुदानिक कहा जाता है।
५६. प्रस्तुत सूत्र में अतिशायी ज्ञान-दर्शन की उपलब्धि की योग्यता का निरूपण किया गया है। उसकी उपलब्धि के सहायक तत्त्व दो हैं-शारीरिक दृढ़ता और अनासक्ति। और उसके बाधक तत्त्व भी दो हैं-शारीरिक कृशता श्रीर आसक्ति । इसी के आधार पर प्रस्तुत चतुर्भङ्गी की रचना की गई है।
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