________________
२२
टिप्पण - ४६
१. जीवन की सुरक्षा के लिए मनुष्य विविध प्रौषधियों और रसायनों का सेवन करता है । "जीवो जीवस्य जीवनम् " यह मानकर अपने जीवन के लिये दूसरे जीवों का वध और शोषण करता है ।
२. प्रशंसा, प्रसिद्धि या कीर्ति के लिए मनुष्य मल्लयुद्ध, तराकी, पर्वतारोहण प्रदि अनेक प्रतियोगितात्मक प्रवृत्तियां करता करता है ।
३. सम्मान के लिए मनुष्य धन का अर्जन, बल का संग्रह आदि प्रवृत्तियां करता
है ।
४. पूजा पाने ( प्रतिदान ) के लिये मनुष्य युद्ध आदि विविध प्रवृत्तियां करता है । ५. जन्म : संतान की प्राप्ति तथा अपने भावी जन्म की चिन्ता से मनुष्य अनेक प्रकार की प्रवृत्तियां करता है ।
६. मरण : वैर-प्रतिशोध, पितृ-पिण्डदान आदि प्रवृत्तियां मनुष्य मृत्यु के परिपार्श्व में करता है ।
चित्त-समाधि : जैन योग
७. मुक्ति मुक्ति की प्ररणा से मनुष्य अनेक प्रकार की उपासना आदि प्रवृत्तियां करता है |
:
टिप्पण - ५०
देखिये टिप्पण क्रमाङ्क - ४८
टिप्पण - ५१
शरीर, श्राकृति, वर्ण, नाम, गोत्र, सुख-दुःख का अनुभव विविध योनियों में जन्म - ये सब प्रात्मा को विभक्त करते हैं इस विभाजन का हेतु कर्म है । कर्मबद्ध आत्मा नाना प्रकार के व्यवहारों (विभाजनों) और उपाधियों से युक्त होती है । कर्ममुक्त आत्मा के न कोई व्यवहार होता है और न कोई उपाधि ।
टिप्पण – ५२
शरीर अनित्य है, तब मुनि को आहार क्यों करना चाहिए ? यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है । इसके उत्तर में सूत्रकार ने बताया -कर्म-मुक्ति के लिए शरीर धारण आवश्यक है और शरीर धारण के लिए प्रहार आवश्यक है । अतः आहार का निषेध नहीं किया जा सकता है । किन्तु प्रहार करने में अहिंसा की अनिवार्यता बतलाई गई है ।
टिप्पण - ५३
कष्ट हर व्यक्ति के जीवन में आता है। वाले निर्ग्रन्थ के जीवन में प्राकृतिक कष्ट अधिक आते हैं ।
अज्ञानी मनुष्य कष्ट का वेदन करता है । ज्ञानी मनुष्य कष्ट को जानता है, उसका
Jain Education International
अहिंसा और अपरिग्रह का जीवन जीने
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org