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पायारो
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वेदन नहीं करता। वह तितिक्षा को विकसित कर लेता है, इसलिए वह अपने ज्ञान को कष्ट के साथ नहीं जोड़ता। टिप्पण-५४
मुनि जीवन की साधना के लिए दो प्रारंभिक अनुबंध हैं१. सम्बन्ध का त्याग । २. इन्द्रिय और मन की उपशांति ।
इस स्थिति के प्राप्त होने पर वह साधना की तीन भूमिकाओं से गुजरता है । प्रथम भूमिका प्रवजित होने से लेकर अध्ययन काल तक की है। उसमें वह ध्यान का अल्प अभ्यास और श्रुत-अध्ययन के लिए आवश्यक तप करता है।
दूसरी भूमिका शिष्यों के अध्यापन और धर्म के प्रचार-प्रसार की है। इसमें ध्यान की प्रकृष्ट साधना और कुछ लम्बे उपवास करता है।
तीसरी भूमिका शरीर-त्याग की है। जब मुनि आत्म-हित के साथ-साथ संघहित कर चुकता है, तब वह समाधि-मरण के लिए शरीर-त्याग की तैयारी में लग जाता है। उस समय वह दीर्घकालीन ध्यान और दीर्घकालीन तप (पाक्षिक, मासिक आदि) की साधना करता है।
ध्यान व तप की साधना के औचित्य और क्षमता के अनुपात में ही स्थूल शरीर की आपीडन, प्रपीडन पीर निष्पीडन का निर्देश दिया गया है। कर्म-शरीर का पापीडन, प्रपीडन और निष्पीडन इसी के अनुरूप होगा। शरीर से चेतना के भेदकरण की भी ये तीन भूमिकाएं हैं। टिप्पण-५५
भगवान् महावीर ने जीवन-कालीन संयम का विधान किया था। रुचिकर विषयों को छोड़कर जीवन-पर्यन्त उनकी आकांक्षा न करना बहुत कठिन मार्ग है, इस पर चलना सरल नहीं है; अतः इसको दुरनुचर कहा है। टिप्पण-५६
मांस और रक्त का उपचय मैथुन संज्ञा उत्पन्न होने का एक कारण है। इसलिए मुनि को उनका उपचय नहीं करना चाहिए। प्रश्न होता है कि मांस और रक्त शरीर के आधारभूत तत्त्व हैं और शरीर धर्म का आधार है। फिर उनका अपचय क्यों करना चाहिए ? उनके अपचय का अर्थ अत्यन्त अल्पता नहीं है, किन्तु उपचय को कम करना है और उतना कम करना है कि जितना मांस और रक्त मोह की उत्पत्ति का हेतु न बने।
सार-रहित आहार करने से रक्त का उपचय नहीं होता। उसके बिना क्रमशः मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य का उपचय नहीं होता। इस प्रकार सहज ही प्रापी
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