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आयारो
होता है—मनुष्य को मुढ़ बनाता है । टिप्पण-४३
जैसे सांसारिक मनुष्य के मन में परिग्रह की सुरक्षा का भय बना रहता है, वैसे ही वस्तु के प्रति मूर्छा रखने वाले साधक के मन में भी उसकी सुरक्षा का भय बना रहता
टिप्पण-४४
ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हो सकते हैं-बस्ति-संयम, गुरुकुलवास और प्राचार । शरीर भी परिग्रह है। जिसकी शरीर में आसक्ति होती है, वह बस्ति-संयम नहीं कर सकता। जिसकी शरीर और वस्तुओं में आसक्ति होती है, वह न गुरुकुलवास (साधुसंघ) में रह सकता है और न अहिंसा आदि चारित्र-धर्म का पालन भी कर सकता। यहां से तीनों अर्थ घटित हो सकते हैं। फिर भी, तीसरा अर्थ अधिक संभावित है। टिप्पण–४५
भगवान् महावीर प्रात्मतुलावाद के प्ररूपक थे। प्रस्तुत सूत्र में प्रात्मा की एकता का प्रतिपादन है । इसका प्रयोजन दो भिन्न आत्माओं की अनुभूति की एकरूपता सिद्ध करना है । “जिसे तू हन्तव्य मानता है, वह तू ही है"- इसका तात्पर्य है-दूसरे के द्वारा पाहत होने पर जैसी अनुभूति तुझे होती है, वैसे ही अनुभूति उसे होती है, जिसे तू आहत करता है। टिप्पण-४६
स्वाद्य, सुख, अभय शौर परिनिर्वाण-ये सुख के पर्यायवाची हैं। अस्वाद्य, दुःख महाभय और अपरिनिर्वाण-ये दुःख के पर्यायवाची हैं ।
सब प्राणियों को शांति प्रिय है और अशांति अप्रिय है। जो पुरुष इस शाश्वत सत्य को जानता-देखता है, वही अहिंसक हो सकता है । टिप्पण-४७
देखिये, टिप्पण क्रमाङ्क-४६ टिप्पण-४८
भगवान् महावीर के दर्शन का संक्षिप्त सार यह है--
क्रिया (प्रास्रव) अनुसंचरण का और प्रक्रिया (संवर) उसके निरोध का हेतु है । उत्तरवर्ती प्राचार्यों ने इस तथ्य को निम्न श्लोक में प्रकट किया है
प्रास्रवो भवहेतुः स्यात्, संवरो मोक्षकारणम् ।
इतीयमार्हती दृष्टिरन्यदस्या: प्रपंचनम् ।। ___ आस्रव संसार का हेतु है और संवर मोक्ष का। महावीर की मूल दृष्टि इतनी ही है, शेष सब उसका विस्तार है।
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