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चित्त-समाधि : जैन योग
पादः" (३/८२)-ऐसे प्रयोग मिलते हैं ।
ऊर्ध्वस्थान मुख्यतः सर्वांगासन और गौणरूप में शीर्षासन, वृक्षासन आदि का सूचक है। इन आसनों से वासना-केन्द्र शांत होते हैं। उनके शांत होने से वासना भी शांत होती है। टिप्पण-३६
सुखशीलता की स्थिति में वासना उभरती है। ग्रामानुग्राम विहार श्रम या कष्टसहिष्णुता का अभ्यास है । इसलिए यह वासना-मुक्ति का सहज उपाय है ।
ग्रामानुग्राम विहार में 'गमन योग" सहज ही सध लाता है। ग्रामानुग्राम विहार करने वाला परिचय के बन्धन से भी सहज ही मुक्ति पा लेता
टिप्पण-४०
वासना-शमन के लिए एक उपवास से लेकर दीर्घकालीन तप अथवा आहार का जीवन-पर्यन्त-परित्याग भी विहित है । टिप्पण-४१
वासना को वातावरण उत्तेजित करता है, किन्तु उसे सर्वाधिक उत्तेजना देता है—संकल्प। इसलिए काम को संकल्प से उत्पन्न कहा जाता है ।
"काम ! जानामि ते मूलं, सकल्पात् किल जायसे ।
संकल्पं न करिष्यामि, तेन मे न भविष्यति ॥
काम ! मैं तुम्हारे मूल को जानता हूं। तूं संकल्प से उत्पन्न होता है। मैं संकल्प नहीं करूंगा। फलतः तू मेरे मन में उत्पन्न नहीं हो सकेगा।
७६ से ८४ तक के सूत्रों में वासना-शमन के ७ उपाय बतलाए हैं। उनमें तीन आहार से संबंधित तथा ऊर्ध्व-स्थान, शारीरिक क्रिया, ग्रामानुग्राम विहार, श्रम और संकल्प-त्याग मानसिक स्थिरता से संबंधित हैं। ये सभी उपाय हैं, किन्तु जिस व्यक्ति के लिए जो अनुकूल पड़े, उसके लिए वही सर्वाधिक अभ्यास करने योग्य है।
चूर्णिकार के मतानुसार यह मोह-चिकित्सा अबहुश्रुत के लिये है। बहुश्रुत की मोह-चिकित्सा उसे स्वाध्याय-अध्ययन-अध्यापन आदि में संलग्न कर करनी चाहिये । टिप्पण-४२
आम का फल जैसे आम कहलाता है, वैसे ही आम का बीज भी प्राम कहलाता है। इसी प्रकार प्रतिकूल संवेदन जैसे दु:ख कहलाता है, वैसे ही प्रतिकूल संवेदन का हेतुभूत कर्म भी दुःख कहलाता है। जो दार्शनिक कार्य और कारण को पृथक्-पृथक् देखते हैं, वे दुःख के मूल को समाप्त नहीं कर पाते। फलतः वह मूल बार-बार फलित
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