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प्रायारो
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से मान और ऋजुता से माया निरस्त हो जाती है, वैसे ही अलोभ निरस्त हो जाता है । जैसे आहार-परित्याग ज्वर वाले के लिए औषधि है, वैसे ही लोभ का परित्याग असंतोष की औषधि है
यथाहारपरित्यागः ज्वरतस्यौषधं तथा। लोभस्यैवं परित्यागः असंतोषस्य भेषजम् ॥
कुछ पुरुष लोभ-सहित दीक्षित होते हैं, किन्तु यदि वे अलोभ से लोभ को जीतने का प्रयत्न करते हैं, तो वे वस्तुतः साधक ही होंगे। जो पुरुष लोभ-रहित होकर दीक्षित होते हैं, वे ध्यान के द्वारा अथवा भरत चक्रवर्ती की भांति शीघ्र ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण से मुक्त होकर ज्ञाता और द्रष्टा बन जाते है। टिप्पण-३४
देखिये, टिप्पण क्रमांक-३३ टिप्पण-३५
इसकी तुलना आचार्य कुन्दकुन्द की इस गाथा से होती हैतिमिरहरा जई दिठ्ठी, जणस्स दीवेण णत्थि कादव्वं ।
तध सोक्खं सयमादा, विसया किं तत्थ कुव्वंति ।। जिसकी दृष्टि तिमिर को हरण करने वाली है, उसे दीप से क्या प्रयोजन ? आत्मा स्वयं सुख है. फिर विषयों से क्या प्रयोजन ? टिप्पण-३६
___ शक्ति युक्त भोजन करने से शरीर शक्तिशाली होता है। सशक्त शरीर में मोह को प्रबल होने का अवसर मिलता है। शक्तिहीन भोजन करने से शरीर की शक्ति घट जाती है। वैसे शरीर में मोह भी निर्बल हो जाता है। इसलिए वासना को शांत करने का पहला उपाय निर्बल आहार बतलाया गया है। टिप्पण–३७
अति आहार करने वाले को वासना अधिक सताती है। कम खाना वासना को शांत करता है।
टिप्पण-३८
ऊर्ध्वस्थान रात को अवश्य करना चाहिए। आवश्यकतानुसार दिन में भी किया जा सकता है। आवश्यकता के अनुसार एक, दो, तीन या चार प्रहर तक ऊर्ध्वस्थान करना वासना-शमन का असाधारण उपाय है। "ऊर्ध्वस्थान" शब्द भगवती सूत्र (१/६) में पाई हुई उड्ढजाणू, अहोसिरे "ऊर्ध्वजानुः अधःशिरा" इस मुद्रा का सूचक है । हठयोग प्रदीपिका में भी "ऊर्ध्वनाभिरधस्तालुः" (३/७६) और "अधः शिराश्चोर्ध्व
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