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चित्त-समाधि : जैन योग
टिप्पण-२६
___ काम और भूख-ये दोनों मौलिक मनोवृत्तियां हैं। मनुष्य इनकी संतुष्टि के लिए दूसरों पर अधिकार करना चाहता है । भौतिकशास्त्र इनकी संतुष्टि करने का उपाय बताता है । अध्यात्म-शास्त्र इन्हें सहने की शक्ति के विकास का उपाय बतलाता है । एक अध्यात्म-शास्त्री की वाणी में उस उपाय का निर्देश इस प्रकार मिलता है
"शिश्नोदरकृते पार्थ ! पृथिवीं जेतुमिच्छसि । जय शिश्नोदरं पार्थ ! ततस्ते पृथिवी जिता ॥"
"राजन् ! काम और भूख की संतुष्टि के लिए तुम पृथ्वी को जीतना चाहते हो । तुम काम और भूख को ही जीत लो। पृथ्वी अपने आप विजित हो जाएगी।
भगवान् ने कहा- "काम और भूख की संतुष्टि के लिए दूसरों पर अधिकार करने वाला बैर-विरोधों की शृंखला को बढ़ाता है । सबके साथ मैत्री चाहने वाला ऐसा नहीं करता।" टिप्पण-३०
राजगृह में मगधसेना नाम की गणिका थी। वहां धन नाम का सार्थवाह पाया। वह बहुत बड़ा धनी था। उसके रूप, यौवन और धन से आकृष्ट होकर मगधसेना उसके पास गई । वह आय और व्यय का लेखा करने में तन्मय हो रहा था। उसने मगधसेना को देखा तक नहीं। उसके अहं को चोट लगी । वह बहुत उदास हो गई।
मगध-सम्राट जरासन्ध ने पूछा-तुम उदास क्यों हो ? किसके पास बैठने पर तुम पर उदासी छा गई ?"
गणिका ने कहा- 'अमर के पास बैठने से।" "अमर कौन ?” सम्राट ने पूछा।
गणिका ने कहा- 'धन सार्थवाह। जिसे धन की ही चिन्ता है । उसे मेरी उपस्थिति का भी बोध नहीं हुआ, तब मरने का बोध कैसे होता होगा ?"
यह सही है कि अर्थलोलुप व्यक्ति मृत्यु को नहीं देखता और जो मृत्यु को देखता है, वह अर्थलोलुप नहीं हो सकता। टिप्पण-३१ ___संग्रह-वृत्ति वाला मनुष्य अर्थ प्राप्त न होने पर आकांक्षा से क्रन्दन करता है और उसके नष्ट होने पर शोक से क्रन्दन करता है । टिप्पण-३२
_देखिये, टिप्पण क्रमाङ्क-२ टिप्पण-३३
अलोभ को लोभ से जीतना—यह प्रतिपक्ष का सिद्धांत है। शांति से क्रोध, मदुता
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