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पायारो
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एक मिट्टी का घड़ा अशुचि से भरा है। वह अशुचि झर कर बाहर आ रही है। वह भीतर से अपवित्र है और बाहर से भी अपवित्र हो रहा है।
यह शरीर-घट भीतर से अशुचि है। इसके निरन्तर झरते हुए स्रोतों से बाहरी भाग भी अशुचि हो जाता है ।
यहां रुधिर है, यहां मांस है, यहां मेद है, यहां अस्थि है, यहां मज्जा है, यहां शुक्र है । साधक गहराई में पैठकर इन्हें देखता है ।
देहान्तर--अन्तर का अर्थ है--विवर । साधक अन्तरों को देखता है। वह पेट के अन्तर (नाभि), कान के अन्तर (छेद), दाएं हाथ और पार्श्व के अन्तर तथा बाएं हाथ और पार्श्व के अन्तर. रोम-कपों तथा अन्य अन्तरों को देखता है। इस अन्तर-दर्शन और विवर-दर्शन से उसे शरीर का वास्तविक रूप ज्ञात हो जाता है। उसकी कामना शांत हो जाती है।
___ बौद्ध भिक्षु भी इन अशुभ निमित्तों और प्रालंबनों का प्रयोग करते थे। देखेंविशुद्धिमग्ग, भाग १, पृ० १६४-१६५. टिप्पण-२७
देखिये, टिप्पण क्रमाङ्क-२६ टिप्पण-२८
जो व्यक्ति किंकर्तव्यता (अब यह करना है, अब यह करना है, इस चिंता) से पाकुल होता है, वह मूढ़ कहलाता है ।
मूढ़ व्यक्ति सुख का अर्थी होने पर भी दुःख पाता है। प्राकुलतावश शयनकाल में शयन, स्नान-काल में स्नान और भोजन-काल में भोजन नहीं कर पाता
सोउं सोवणकाले, मज्जणकाले य मज्जि लोलो। जेमेउं च वरामो, जेमणकाले न चाएइ ॥
मूढ़ व्यक्ति स्वप्निल जीवन जीता है। वह काल्पनिक समस्याओं में इतना उलझ जाता है कि वास्तविक समस्याओं की ओर ध्यान ही नहीं दे पाता। एक भिखारी था। उसने एक दिन भैस की रखवाली की। भैंस के मालिक ने प्रसन्न हो उसे दूध दिया। उसने दूध को जमा दही बना लिया। दही के पात्र को सिर पर रख कर चला । वह चलते-चलते सोचने लगा-"इसे मथकर घी निकालूंगा। उसे बेचकर व्यापार करूंगा। व्यापार में पैसे कमाकर ब्याह करूंगा। फिर लड़का होगा। फिर मैं भैस लाऊंगा । मेरी पत्नी बिलौनी करेगी। मैं उसे पानी लाने को कहूंगा। वह उठेगी नहीं, तब मैं क्रोध में प्राकर एड़ी के प्रहार से बिलौने को फोड़ डालूंगा। दही ढुल जाएगा।" वह कल्पना में इतना तन्मय हो गया कि उसने ढुले हुए दही को साफ करने के लिए अपने सिर पर से कपड़ा खींचा। सिर पर रखा हुआ दही-पात्र गिर गया। उसके स्वप्नों की सृष्टि विलीन हो गई।
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