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________________ १८० चित्त-समाधि : जैन योग और ज्ञान, ध्यान या स्वाध्याय की यथेष्ट प्रवृत्ति नहीं हो सकती । उनका प्रतिदिन व अतिमात्रा में सेवन करने से विषय की वृद्धि होती है, इसलिये प्राचार्य को चाहिये कि वह अपने शिष्यों को कभी स्निग्ध और कभी रूखा आहार दे । ६६. मिगे 'मृग' शब्द के अनेक अर्थ हैं—पशु, मृगशीर्ष नक्षत्र, हाथी की एक जाति, कुरंग आदि । यहां मृग का अर्थ 'पशु' है । ६७. ससंकप्प-विकप्पणासुं 'संकल्प'में कल्प शब्द का अर्थ 'अध्यवसाय' है और 'विकल्प' में कल्प शब्द का अर्थ 'छेदन' है । कल्प शब्द के अनेक अर्थ हैं—सामर्थ्य, वर्णन, छेदन, करण, प्रौपम्य पौर अधिवास । ६८. समयं समता का अर्थ है-'मध्यस्थ भाव' अथवा 'ऐसी अवस्था जिसमें अध्यवसायों की तुल्यता रहती हो'। साथ-साथ इसके दो अर्थ और हैं-'समक'--एक साथ, 'समय'-सिद्धान्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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