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उत्तरायणाणि
१७६ पंच णमोक्कारो' सहित नौ पदों की तीन प्रावृत्तियां भी हो सकती हैं—प्रत्येक पद की एक-एक उच्छवास में आवृत्ति होने से सत्ताईस उच्छ्वास होते हैं । अमितगति ने एक दिन-रात के कायोत्सर्ग की सारी संख्या अट्ठाईस मानी है। जैसे-(१) स्वाध्याय काल में-१२, (२) वन्दनाकाल में-६, (३) प्रतिक्रमण काल में-८, (४) योगभक्ति-काल में-२=२८ ।
पांच महाव्रतों के अतिक्रमणों के लिए १०८ उच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना चाहिए । कायोत्सर्ग करते समय यदि उच्छ्वासों की संख्या विस्मृत हो जाए अथवा मन विचलित हो जाए तो आठ उच्छ्वास का अतिरिक्त कायोत्सर्ग करना चाहिए । कायोत्सर्ग के दोष प्रवचनसारोद्धार में १६, योगशास्त्र में २१, और विजयोदया में १६ बतलाए
६३. प्रच्चन्तकालस्स समूलगस्स
___'प्रच्चन्तकालस्स'--अनादिकालीन । अन्त का अर्थ है 'छोर' । वस्तु के दो छोर होते हैं—प्रारम्भ और समाप्ति । यहां प्रारम्भ क्षण का ग्रहण किया गया है। इसका शब्दार्य है-जिसका प्रारम्भ न हो वैसा काल अर्थात् अनादि-काल ।
_ 'समूलगस्स' -मूल-सहित । दुःख का मूल कषाय और अविरति है । इसीलिए उसे 'समूलक' अर्थात् कषाय-अविरति-मूलक कहा गया है। ६४. गुरुविद्ध
गुरु का अर्थ है 'शास्त्र को यथावत् बताने वाला' । वृद्ध तीन प्रकार के होते हैं१. श्रुत-वृद्ध, २. पर्याय-वृद्ध और ३. वयो-वृद्ध । ६५. श्लोक १०
इस श्लोक में बताया गया है कि ब्रह्मचारी को घी, दूध, दही आदि रसों का अतिमात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए। यहां रस-सेवन का आत्यन्तिक निषेध नहीं है, किन्तु अतिमात्रा में उनके सेवन का निषेध है । जैन-पागम भोजन के सम्बन्ध में ब्रह्मचारी को जो निर्देश देते हैं, उनमें दो ये हैं
(३) वह रसों को अतिमात्रा में न खाए और (२) वह रसों को बार-बार या प्रतिदिन न खाए।
इसका फलित यह है कि वह वायु आदि के क्षोभ का, निवारण करने के लिए रसों का सेवन कर सकता है। अकारण उनका सेवन नहीं कर सकता।
एक मुनि ने अपने प्रश्नकर्ता को यही बताया था-'मैं अति प्राहार नहीं करता हूं, अतिस्निग्ध पाहार से विषय उद्दीप्त होते हैं, इसलिए उनका भी सेवन नहीं करता हूं । संयमी-जीवन की यात्रा चलाने के लिए खाता हूं, वह भी अतिमात्रा में नहीं खाता।'
दूष प्रादि का सर्वथा सेवन न करने से शरीर शुष्क हो जाता है, बल घटता है
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