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ठाणं
योगदर्शन के अनुसार वितर्क का अर्थ स्थूलभूतों का साक्षात्कार और विचार का अर्थ सूक्ष्मभूतों और तन्मात्राओं का साक्षात्कार है।
बौद्धदर्शन के पनुसार वितर्क का अर्थ आलम्बन में स्थिर होना और विकल्प का अर्थ उस (आलम्बन) में एकरस हो जाना। इन तीनों परम्पराओं में शब्द-साम्य होने पर भी उनके संदर्भ पृथक् हैं ।।
आचार्य अकलंक ने ध्यान के परिकर्म (तैयारी) का बहुत सुन्दर वर्णन किया है । उन्होंने लिखा है- 'उत्तमशरीरसंहनन होकर भी परीषहों के सहने की क्षमता का आत्मविश्वास हुए बिना ध्यान-साधना नहीं हो सकती। परीषहों की बाधा सहकर ही ध्यान प्रारंभ किया जा सकता है । पर्वत, गुफा, वृक्ष की खोह, नदी, तट, पुल, श्मशान, जीर्णउद्यान और शून्यागार प्रादि किसी स्थान में व्याघ्र-सिंह, मृग, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि के अगोचर, निर्जन्तु, समशीतोष्ण, अतिवायुरहित, वर्षा, आतप आदि से रहित, तात्पर्य यह है कि सब तरफ से बाह्य-प्राभ्यन्तर बाधाओं से शून्य और पवित्र भूमि पर सुखपूर्वक पल्यङ्कासन में बैठना चाहिये। उस समय शरीर को सम, ऋजु और निश्चल रखना चाहिये। बाएं हाथ पर दाहिना हाथ रखकर न खुले हुए और न बन्द, किन्तु कुछ खुले हुए दांतों पर दांतों को रखकर, कुछ ऊपर किये हुए, सीधी कमर और गंभीर गर्दन किये हुए, प्रसन्न मुख और अनिमिष स्थिर सौम्यदृष्टि होकर निद्रा, आलस्य, कामराग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदि को छोड़कर मन्द-मन्द श्वासोच्छ्वास लेने वाला साधु ध्यान की तैयारी करता है। वह नाभि के ऊपर हृदय, मस्तक या और कहीं अभ्यासानुसार चित्तवृत्ति को स्थिर रखने का प्रयत्न करता है। इस तरह एकाग्रचित्त होकर, राग, द्वेष, मोह का उपशम कर कुशलता से शरीर-क्रियाओं का निग्रह कर मन्द श्वासोच्छ्वास लेता हुअा निश्चित लक्ष्य और क्षमाशील हो बाह्यमाभ्यन्तर द्रव्य-पर्यायों का ध्यान करता हुप्रा वितर्क की सामर्थ्य से युक्त हो अर्थ और व्यञ्जन तथा मन, वचन, काय की पृथक्-पृथक् संक्रान्ति करता है । फिर शक्ति की कमी से योग से योगान्तर और व्यञ्जनान्तर में संक्रमण करता है।" धर्म्यध्यान की विशेष जानकारी के लिये देखें-'अतीत का अनावरण' (पृ० ७६-८६) ध्यान का प्रथम सोपान-धर्म्यध्यान नामक लेख ।
४६. प्रस्तुत सूत्र में धर्म के तीन अंगों-अध्ययन, ध्यान और तपस्या का निर्देश है । इनमें पौर्वापर्य का संबंध है। अध्ययन के बिना ध्यान और ध्यान के बिना तपस्या नहीं हो सकती। पहले हम किसी बात को अध्ययन के द्वारा जानते हैं, फिर उसके प्राशय का ध्यान करते हैं । चिंतन, मनन और अनुप्रेक्षा करते हैं। फिर उसका आचरण करते हैं । स्वाख्यात' धर्म का यही क्रम है । भगवान् महावीर ने इसी क्रम का प्रतिपादन किया था। दूसरे स्थान में धर्म के दो प्रकार बतलाए गए हैं—श्रुतधर्म और चारित्रधर्म । यहाँ निर्दिष्ट तीन प्रकारों में से सु-अधीत और सु-ध्यात-श्रुतधर्म के प्रकार हैं और सु-तपस्थित चरित्र धर्म का प्रकार है।
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