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________________ उत्तरज्झयणाणि राग और द्वेष । उनसे वैर-विरोध बढ़ता है। वैर-विरोव होने पर प्रात्मा की सहज प्रसन्नता नष्ट हो जाती है । सब जीवों के साथ मैत्री-भाव नहीं रहता । मन भय से भर जाता है । इस प्रकार व्यक्ति सत्य से दूर हो जाता है। जो सत्य को पाना चाहता है, उसके मन में राग-द्वेष की गांठ तीव्र नहीं होती। वह सबके साथ मैत्री-भाव रखता है । उसकी प्रात्मा सहज प्रसन्नता से परिपूर्ण होती है। उससे प्रमादवश कोई अनुचित व्यवहार हो जाता है तो वह तुरन्त उसके लिए अनुताप प्रकट कर देता है.--क्षमा मांग लेता है। जिस व्यक्ति में अपनी भूल के लिए अनुताप व्यक्त करने की क्षमता होती है, उसी में सहज प्रसन्नता, मैत्री और अभय-ये सभी विकसित होते हैं। १८ सज्झाएण स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं१. वाचना-अध्यापन करना । २. प्रतिपृच्छा-अज्ञात-विषय को जानकारी या ज्ञात-विषय की जानकारी के लिए प्रश्न करना। ३. परिवर्तना–परिचित-विषय को स्थिर रखने के लिए बार-बार दोहराना । ४. अनुप्रेक्षा-परिचित और स्थिर विषय पर चिंतन करना । ५. धर्मकथा—स्थिरीकृत और चिंतित-विषय का उपदेश करना । १६ तित्थधम्म अवलम्बइ शान्त्याचार्य ने तीर्थ के दो प्रर्य किये हैं-१. गणधर और २. प्रवचन । भगवती में चतुर्विध संघ को 'तीर्थ' कहा गया है । गौतम ने पूछा-"भंते ! तीर्थ को तीर्थ कहा जाता है या तीर्थङ्कर को तीर्थ कहा जाता है ? भगवान् ने कहा- "गौतम ! अर्हत् तीर्थ नहीं होते, वे तीर्थङ्कर होते हैं । चतुर्वर्ण श्रमण-संघ–साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकानों का संघ तीर्थ कहलाता है। प्रावश्यक नियुक्ति में प्रवचन का एक नाम तीर्थ है। इस प्रकार तीर्थ के तीन अर्थ हुए । इनके आधार पर तीर्थ-धर्म के तीन अर्थ होते हैं १, गणधर का धर्म-शास्त्र-परम्परा को अविच्छिन्न रखना। २. प्रवचन का धर्म-स्वाध्याय करना । ३. श्रमण-संघ का धर्म । २० कंखामोहणिज्जं कम्म शान्त्याचार्य ने काङ्क्षा-मोहनीय का अर्थ 'प्रनाभिग्रहिक-मिथ्यात्व' किया है। अभयदेव सूरि के अनुसार इसका अर्थ है --मिथ्यात्व मोहनीय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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