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ठाणं
२. मिथ्यादर्शन - वस्तु सत्य के प्रति प्रयथार्थश्रद्धा ।
उत्पत्ति की दृष्टि से सम्यक्दर्शन दो प्रकार का होता है
१. निसर्गसम्यक्दर्शन - श्रात्मा की सहज निर्मलता से उत्पन्न होने वाला । २. अभिगमसम्यक्दर्शन - शास्त्र - अध्ययन अथवा उपदेश से उत्पन्न होने वाला ।
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ये दोनों प्रतिपाती और प्रतिपाती दोनों प्रकार के होते हैं । मिथ्यादर्शन भी दो प्रकार का होता है - १. श्राभिग्रहिक - प्राग्रहयुक्त, २. अनाभिग्रहिक —— सहज ।
कुछ व्यक्ति आग्रही होते हैं । वे जिस बात को पकड़ लेते हैं, उसे छोड़ना नहीं चाहते। कुछ व्यक्ति आग्रही नहीं होते, किन्तु अज्ञान के कारण किसी भी बात पर विश्वास कर लेते हैं । प्रथम प्रकार के व्यक्ति न केवल मिथ्यादर्शन वाले होते हैं, किन्तु उनमें यथार्थ के प्रति प्राग्रह भी उत्पन्न हो जाता है। उनकी सत्यशोध की दृष्टि विलुप्त हो जाती है । वे जो मानते हैं, उससे भिन्न सत्य हो सकता है, इस सम्भावना को वे स्वीकार नहीं करते ।
दूसरे प्रकार के व्यक्तियों में स्व. सिद्धान्त के प्रति आग्रह नहीं होता, इसलिये उनमें सत्य - शोध की दृष्टि शीघ्र विकसित हो सकती है ।
आग्रह और अज्ञान – ये दोनों काल-परिपाक और समुचित निमित्तों के मिलने पर दूर हो सकते हैं और उनके न मिलने पर वे दूर नहीं होते, इसीलिये उन्हें सपर्यवसित श्रौर पर्यवसित दोनों कहा गया है ।
निसर्गसम्यग्दर्शन जैसे सहज होता है, वसे अनाभिग्रहिकमिथ्यादर्शन भी सहज ही होता है । अभिगमसम्यग्दर्शन उपदेश या अध्ययन से प्राप्त होता है, वैसे ही प्राभिग्रहिकमिथ्यादर्शन भी उपदेश या अध्ययन से प्राप्त होता है । इन दोनों में स्वरूप भेद है, किन्तु उत्पन्न होने की प्रक्रिया दोनों की एक है ।
१७. प्रत्यक्ष-परोक्ष- इन्द्रिय प्रादि साधनों की सहायता के बिना जो ज्ञान केवल आत्ममात्रापेक्ष होता है, वह 'प्रत्यक्ष - ज्ञान' कहलाता है । अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान श्रौर केवलज्ञान - ये तीन प्रत्यक्ष ज्ञान हैं ।
इन्द्र और मन की सहायता से होनेवाला ज्ञान परोक्ष होता है । मति, श्रुत-ये दो ज्ञान परोक्ष हैं ।
स्वरूप की अपेक्षा सब ज्ञान स्पष्ट होते हैं । प्रमाण के स्पष्ट और अस्पष्ट ये लक्षण बाहरी पदार्थों की अपेक्षा से किए जाते हैं । बाह्य पदार्थों का निश्चय करने के लिये जिसे दूसरे ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती, वह ज्ञान स्पष्ट कहलाता है और जिसे ज्ञानान्तर की अपेक्षा रहती है, वह अस्पष्ट । परोक्ष प्रमाण में दूसरे ज्ञान की आवश्यकता रहती है । जैसे - स्मृतिज्ञान धारण की अपेक्षा रखता है, प्रत्यभिज्ञान अनुभव
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