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________________ ८० चित्त-समाधि : जैन योग और स्मृति की, तर्क व्याप्ति की, अनुमान हेतु की तथा आगम शब्द और संकेत आदि की अपेक्षा रखता है, इसलिए वह प्रस्पष्ट है। दूसरे शब्दों में जिसका ज्ञेय पदार्थ निर्णय काल में छिपा हुआ रहता है, उस ज्ञान को असष्ट या परोक्ष कहते हैं । जैसेस्मृति का बिषय स्मृतिकर्ता के सामने नहीं रहता। प्रत्यभिज्ञान का भी 'वह' इतना विषय अस्पष्ट रहता है । तर्क में त्रिकालकलित साध्य-साधन अर्थात् त्रिकालीन सर्व धूम और अग्नि प्रत्यक्ष नहीं रहते । अनुमान का विषय अग्निमान् प्रदेश सामने नहीं रहता। आगम के विषय मेरु आदि अस्पष्ट रहते हैं । __ अवग्रह प्रादि को प्रात्ममात्रापेक्ष न होने के कारण जहाँ परोक्ष माना जाता है, वहाँ उसके मति और श्रुत—ये दो भेद किए जाते हैं और जहाँ लोक-व्यवहार से अवग्रह आदि को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की कोटि में रखा जाता है, वहाँ परोक्ष के स्मृति आदि पांच भेद किये जाते हैं । १८. श्रुत-निश्रित- जो विषय पहले श्रुत शास्त्र के द्वारा ज्ञात हो, किंतु वर्तमान में श्रुत का आलम्बन लिये बिना ही उसे जानना श्रुत-निश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान है, जैसे किसी व्यक्ति ने आयुर्वेदशास्त्र का अध्ययन कर यह जाना कि त्रिफला से कोष्ठबद्धता दूर होती है। जब कभी वह कोष्ठबद्धता से ग्रस्त होता है, तब उसे त्रिफला-सेवन की बात सूझ जाती है। उसका यह ज्ञान श्रुत-निश्रित आभिनिबोधिकज्ञान है । अश्रुत-निश्रित-जो विषय श्रुत के द्वारा नहीं, किन्तु अपनी सहज विलक्षण-बुद्धि के द्वारा जाना जाए, वह अश्रुत-निश्रित प्राभिनिबोधिकज्ञान है। नंदी में जो ज्ञान का वर्गीकरण है, उसके अनुसार श्रुत-निश्रित प्राभिनिबोधिकज्ञान के २८ प्रकार हैं तथा अश्रुत-निश्रित आभिनिबोधिकज्ञान के ४ प्रकार हैं--प्रोत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी । १६. अवग्रह इन्द्रिय से होनेवाले ज्ञान-क्रम में पहला अंग है । अनिर्देश्य (जिसका निर्देश न किया जा सके) सामान्य धर्मात्मक अर्थ के प्रथम ग्रहण को अर्थावग्रह कहा जाता है। अर्थ शब्द के दो अर्थ हैं----द्रव्य और पर्याय अथवा सामान्य और विशेष । अर्थावग्रह का विषय किसी भी शब्द के द्वारा कहा नहीं जा सकता। इसमें केवल 'वस्तु है' का ज्ञान होता है । इससे वस्तु के स्वरूप, नाम, जाति, क्रिया आदि की शाब्दिक प्रतीति नहीं होती। उपकरण इन्द्रिय के द्वारा इन्द्रिय के विषयभूत द्रव्यों के ग्रहण को व्यञ्जनावग्रह कहा जाता है । क्रम की दृष्टि से पहले व्यञ्जनावग्रह, फिर अर्थावग्रह होता है । अर्थावग्रह सभी इन्द्रियों का होता है जबकि व्यञ्जनावग्रह चार इन्द्रियों का होता है। चक्षु और मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं होता। उत्तरवर्ती न्याय-ग्रन्थों में व्यञ्जनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह का उल्लेख किया गया है। नंदी तथा प्रस्तुत सूत्र से उसका व्युत्क्रम मिलता है। यह किस दृष्टि से किया गया, इस विषय में वृत्तिकार ने चर्चा नहीं की है. फिर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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