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________________ ठाणं वृत्ति से यह फलित होता है कि अर्थावग्रह प्रत्यक्ष को मुख्य मानकर सूत्रकार ने उसे प्रथम स्थान दिया है। नंदी के अनुसार अवग्रह आदि केवल श्रुत-निश्रित मति के ही प्रकार हैं । स्थानांग के अनुसार अवग्रह दोनों (श्रुत-निश्रित और अश्रुत-निश्रित) का होता है । वृत्तिकार ने अश्रुत-निश्रित मति के दो प्रकार बतलाए हैं-१. श्रोत्र आदि इन्द्रियों से उत्पन्न और २. प्रौत्पत्तिकी आदि बुद्धि-चतुष्टय । प्रथम प्रकार में अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह दोनों होते हैं । दूसरे प्रकार में केवल अर्थावग्रह होता है, क्योंकि व्यञ्जनावग्रह इन्द्रिय-आश्रित होता है। बुद्धि-चतुष्टय मानस ज्ञान है, इसलिये वहाँ व्यञ्जनावग्रह नहीं होता। व्यञ्जनावग्रह की इस अध्यापकता और गौणता को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने प्राथमिकता अर्थावग्रह को दी, ऐसी सम्भावना की जा सकती है। ____ अर्थावग्रह निर्णयोन्मुख होता है, तब यह प्रमाण माना जाता है और जब निर्णयोन्मुख नहीं होता तब वह अनध्यवसाय—अनिर्णायक ज्ञान कहलाता है। अर्थावग्रह के दो भेद और हैं-नैश्चयिक और व्यावहारिक । नैश्चयिक अर्थावग्रह का कालमान एक समय और व्यावहारिक-अर्थावग्रह का कालमान अन्तर्मुहूर्त माना गया है। अर्थावग्रह के छः प्रकार होते हैं । २०. सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान के चार प्रकार हैं--प्रवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। प्रस्तुत चार सूत्रों (६/६१-६४) में एक-एक के छह-छह प्रकार बतलाए हैं, किन्तु उनके प्रतिपक्षी विकल्पों का उल्लेख नहीं है । धारणा के छह प्रकारों में क्षिप्र' और 'ध्रुव' के स्थान पर 'पुराण' और 'दुर्धर' का उल्लेख है । तत्त्वार्थसूत्र की श्वेताम्बरीय भाष्यानुसारिणी टीका में अवग्रह आदि के बारहबारह प्रकार किये गये हैं। इस प्रकार उन चारों के ४८ प्रकार हैं। १. क्षिप्र-शीघ्रता से जानना । २. बहु--अनेक पदार्थों को एक-एक कर जानना। व्यवहारभाष्य के अनुसार इसका अर्थ है--पांच, छह अथवा सात सौ ग्रन्थों (श्लोकों) को एक बार में ही ग्रहण कर लेना। ३. बहुविध-अनेक पदार्थों के अनेक पर्यायों को जानना। व्यवहारभाष्य के अनुसार इसका अर्थ है-प्रनेक प्रकार से अवग्रहण करना। जैसे--स्वयं कुछ लिख रहा है; साथ-साथ दूसरे द्वारा कथित वचनों का अवधारण भी कर रहा है तथा वस्तुओं को गिन रहा है और साथ-साथ प्रवचन भी कर रहा है। ये सभी प्रवृत्तियां एक साथ चल रही हैं। इसका दूसरा अर्थ है-अनेक लोगों द्वारा उच्चारित तथा अनेक वाद्यों द्वारा वादित अनेक प्रकार के शब्दों को भिन्न-भिन्न रूप से ग्रहण करना । वर्तमान में सप्तसंधान नामक अवधान किया जाता है। उसमें अवधानकार के समक्ष तीन व्यक्ति तथा दो व्यक्ति दोनों पावों में और दो व्यक्ति पीछे खड़े होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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