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चित्त-समाधि : जैन योग
प्रति अभिलाषा, २. उसको प्राप्त करने की चिन्ता, ३. उसका सतत स्मरण, ४. उसका उत्कीर्तन, ५. उद्वेग, ६. प्रलाप, ७. उन्माद, ८. व्याधि, ६. जड़ता, अकर्मण्यता, १०. मृत्यु । ये दोष एक के बाद एक आते रहते हैं ।
१३. काम का अर्थ है-अभिलाषा और गुण का अर्थ है-पुद्गल के धर्म । कामगुण के दो अर्थ हैं
१. मैथुन-इच्छा उत्पन्न करने वाले पुद्गल । २. इच्छा उत्पन्न करने वाले पुद्गल । १४. प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त कुछ विशेष शब्दों का विमर्श१. संघटना-चेष्टा-अप्राप्त की प्राप्ति । २. प्रयत्न—प्राप्त का संरक्षण । ३. पराक्रम-शक्ति-क्षय होने पर भी विशेष उत्साह बनाए रखना। ४. आचार-गोचर
१. साधु के प्राचार-गोचर (विषय) महाव्रत आदि ।
२. प्राचार-ज्ञान आदि पांच आचार । गोचर-भिक्षाचर्या । १५. प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैंअक्षम-असंगतता। अनानुगामिकता—अशुभ अनुबंध, अशुभ की शृंखला। शंकित-ध्येय या कर्त्तव्य के प्रति संशयशील । कांक्षित-ध्येय या कर्त्तव्य के प्रतिकूल सिद्धान्तों की आकांक्षा करने वाला।
विचिकित्सित-ध्येय या कर्तव्य से प्राप्त होनेवाले फल के प्रति संदेह करने वाला।
भेदसमापन्न ---संदेहशीलता के कारण ध्येय या कर्तव्य के प्रति जिसकी निष्ठा खंडित हो जाती है, वह भेदसमापन्न कहलाता है।
___ कलुशसमापन्न-संदेहशीलता के कारण ध्येय या कर्त्तव्य को अस्वीकार कर देता है, वह कलुषसमापन्न कहलाता है ।
१६. दर्शन का सामान्य अर्थ होता है—दृष्टि, देखना । उसके परिभाषिक अर्थ दो होते हैं-सामान्यग्राहीबोध और तत्त्वरुचि ।
बोध दो प्रकार का होता है---१. विशेषग्राही, २. सामान्यग्राही। विशेषग्राही को ज्ञान और सामान्य ग्राही को दर्शन कहा जाता है। प्रस्तुत प्रकरण में दर्शन शब्द तत्त्वरुचि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । दर्शन दो प्रकार का होता है
१. सम्यग्दर्शन-वस्तु-सत्य के प्रति यथार्थश्रद्धा ।
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