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________________ ठाणं १०७ वैसे ही श्रुतज्ञानी भी पालोचक के राग-द्वेषात्मक अध्यवसायों को जानकर उनके अनुरूप न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देता है। शिष्य ने पुनः प्रश्न किया-प्रत्यक्षज्ञानी आलोचना करने वाले व्यक्ति के भावों को साक्षात् जान लेते हैं; किन्तु परोक्षज्ञानी ऐसा नहीं कर सकते, अतः न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देने का उनका आधार क्या है ? प्राचार्य ने कहा- "वत्स ! नालिका से गिरने वाले पानी के द्वारा समय जाना जाता है। वहाँ का अधिकारी व्यक्ति समय को जानकर, दूसरों को उसकी अवगति देने के लिये, समय-समय पर शंख बजाता है । शंख के शब्द को सुनकर दूसरे लोग समय का ज्ञान कर लेते हैं । इसी प्रकार श्रुतज्ञानी भी आलोचना तथा शुद्धि करने वाले व्यक्ति की भावनाओं को सुनकर यथार्थ स्थिति का ज्ञान कर लेते हैं। फिर उसके अनुसार उसे प्रायश्चित्त देते हैं। यदि वे यह जान लेते हैं कि अमुक व्यक्ति ने सम्यग् रूप से पालोचना नहीं की है तो वे उसे अन्यत्र जाकर शोधि करने की बात कहते हैं। प्रागम व्यवहारी के लक्षण-प्राचार्य के आठ प्रकार का संपदा होती हैप्राचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोगमति और संग्रहपरिज्ञा। इनके प्रत्येक के चार-चार प्रकार हैं । इस प्रकार इसके ३२ प्रकार हैं। चार विनयप्रतिपत्तियां हैं१. आचार विनय-आचार विषयक विनय सिखाना। २. श्रुत विनय-सूत्र और अर्थ की वाचना देना। ३. विक्षेपणा विनय-जो धर्म से दूर हैं, उन्हें धर्म में स्थापित करना; जो स्थित हैं, उन्हें प्रवजित करना; जो च्युतधर्मा हैं, उन्हें पुनः धर्मनिष्ठ बनाना और उनके लिये हित-संपादन करना। - ४. दोष निर्घात विनय-क्रोध-विनयन, दोष-विनयन तथा कांक्षा-विनयन के लिये प्रयत्न करना। जो इन ३६ गुणों में कुशल, आचार आदि आलोचनार्ह आठ गुणों से युक्त, अठारह वर्णनीय स्थानों का ज्ञाता, दस प्रकार के प्रायश्चित्तों को जानने वाला, आलोचना के दस दोषों का विज्ञाता, व्रत षट्क और काय षट्क को जानने वाला तथा जो जाति संपन्न आदि दस गुणों से युक्त है—वह आगमव्यवहारी होता है। शिष्य ने पूछा--'भंते ! वर्तमान काल में इस भरतक्षेत्र में आगम-व्यवहारी का विच्छेद हो चुका है। अतः यथार्थ शुद्धिदायक न रहने के कारण तथा दोषों की यथार्थ शुद्धि न होने के कारण वर्तमान में चारित्र की विशुद्धि नहीं है। न कोई आज मासिक या पाक्षिक प्रायश्चित्त ही देता है और न कोई उसे ग्रहण करता है। इसलिये वर्तमान में तीर्थ केवल ज्ञान-दर्शनमय है, चारित्रमय नहीं। केवली का व्यवच्छेद होने के बाद थोड़े समय में ही चौदह पूर्वधरों का भी व्यवच्छेद हो जाता है। अतः विशुद्धि कराने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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