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________________ चित्त-समाधि : जन योग 1 २. मंत्र के विधि-विधानों का ज्ञाता तथा अनेक मंत्रों की सिद्धियों से संपन्न । ३. तंत्र की सिद्धियों से संपन्न। ४. परिवार से संपन्न अर्थात् विशिष्ट शिष्यसंपदा से युक्त; विविध विषयों में निष्णात शिष्यों से परिवृत । इसलिये उसकी पांचवी योग्यता 'शक्ति' है । अल्पाधिकरणता- अधिकरण का अर्थ है- कलह या विग्रह । जो पुरुष स्वपक्ष या परपक्ष के साथ कलह करता रहता है, उसका गौरव नहीं बढ़ता। जिसके प्रति गुरुत्व की भावना नहीं होती, वह गण को लाभान्वित नहीं कर सकता। इसलिये गणी की छठी योग्यता 'अकलह' (प्रशान्त भाव) है। ६७. प्रस्तुत सूत्र के दृष्टांत में माधुर्य की तरतमता बतलाई गई है। प्रांवला ईषत् मधुर, द्राक्षा बहुमधुर, दुग्ध बहुतर मधुर और शर्करा बहुमत मधुर होती है।। प्राचार्यों के उपशम आदि प्रशान्त गुणों की माधुर्य के साथ तुलना की गई है। माधुर्य की भांति उपशम आदि में भी तरतमता होती है। किसी का उपशम (शांति) ईषत्, किसी का बहु, किसी का बहुतर और किसी का बहुतम होता है । ६८. पांच व्यवहार- भगवान् महावीर तथा उत्तरवर्ती प्राचार्यों ने संघ-व्यवस्था की दृष्टि से एक प्राचार-संहिता का निर्माण किया। उसमें मुनि के कर्तव्य और अकर्तव्य या प्रवृत्ति और निवृत्ति के निर्देश हैं। उसकी आगमिक संज्ञा 'व्यवहार' है। जिनसे यह व्यवहार संचालित होता है, वे व्यक्ति भी कार्य-कारण की अभेद दृष्टि से 'व्यवहार' कहलाते हैं। प्रस्तुत सूत्र में व्यवहार संचालन में अधिकृत व्यक्तियों की ज्ञानात्मक क्षमता के अाधार पर प्राथमिकता बतलाई गई है। व्यवहार संचालन में पहला स्थान प्रागमपुरुष का है। उसकी अनुपस्थिति में व्यवहार का प्रवर्तन श्रुतपुरुष करता है। उसकी अनुपस्थिति में आज्ञापुरुष, उसकी अनुपस्थिति में धारणापुरुष और उसकी अनुपस्थिति में जीतपुरुष करता है। १. पागम व्यवहार-इसके दो प्रकार हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं- १. अवधिप्रत्यक्ष, २, मनःपर्यवप्रत्यक्ष, ३. केवलज्ञानप्रत्यक्ष। परोक्ष के तीन प्रकार हैं-१. चतुर्दशपूर्वधर, २. दशपूर्वघर, ३. नौपूर्वधर । शिष्य ने यहां यह प्रश्न उपस्थित किया कि परोक्षज्ञानी साक्षात् रूप से श्रुत से व्यवहार करते हैं तो भला वे आगम व्यवहारी कैसे कहे जा सकते हैं ? आचार्य ने कहा-"जैसे केवलज्ञानी अपने अप्रतिहत ज्ञानबल से पदार्थों को सर्वरूपेण जानता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी श्रुतबल से जान लेता है।" जिस प्रकार प्रत्यक्षज्ञानी भी समान अपराध में न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देता है, 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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