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________________ ठाणं १०५ बाह्यपुद्गलों के बिना गिरगिट अपने शरीर को नाना रंगमय बना लेता है तथा सर्प फणावस्था में अपनी अवस्था को विशिष्ट रूप दे देता है। ६६. प्रस्तुत सूत्र में गण धारण करनेवाले व्यक्ति के लिये छह कसौटियां निर्दिष्ट श्रद्धा-अश्रद्धावान् पुरुष मर्यादानिष्ठ नहीं हो सकता। जो स्वयं मर्यादानिष्ठ नहीं होता, वह दूसरों को मर्यादा में स्थापित नहीं कर सकता। इसलिये गणी की प्रथम योग्यता 'श्रद्धा'-मर्यादाओं के प्रति विश्वास है। सत्य-इसके दो अर्थ हैं—१. यथार्थवचन, २. प्रतिज्ञा के निर्वाह में समर्थ । यथार्थभाषी पुरुष ही यथार्थ का प्रतिपादन कर सकता है। जो की हुई प्रतिज्ञा के निर्वाह में समर्थ होता है, वही दूसरों में विश्वास उत्पन्न कर सकता है। गणी दूसरों के लिये विश्वस्त होना चाहिये । इसलिये उसकी दूसरी योग्यता 'सत्य' है। मेधा-पागम-साहित्य में मेधावी के दो अर्थ प्राप्त होते हैं-१. मर्यादावान्, २. श्रुतग्रहण करने की शक्ति से सम्पन्न । जो व्यक्ति स्वयं मर्यादावान् है, वही दूसरों को मर्यादा में रख सकता है और वही व्यक्ति अपने गण में मर्यादानों को अक्षुण्ण रख सकता है । जो व्यक्ति तीक्ष्ण बुद्धि से सम्पन्न होता है, वही श्रुतग्रहण करने में समर्थ होता है। ऐसा व्यक्ति ही दूसरों से श्रुतग्रहण कर अपने शिष्यों को उसका अध्यापन कराने में समर्थ हो सकता है। इस प्रकार वह स्वयं अनेक विषयों का ज्ञाता होकर अपने गण में शिष्यों को भी इसी ओर प्रेरित कर सकता है। इसलिए उसकी तीसरी योग्यता 'मेघा' बहुश्रुतता-जैन परम्परा में 'बहुश्रुत' व्यक्ति का बहुत समादर रहा है। उसे गण का एकमात्र उपष्टम्भ माना है। उत्तराध्ययन सूत्र में 'बहुस्सुयपूमा' नाम का ग्यारहवां अध्ययन है। उसमें बहुश्रुत की महिमा बतलाई गई है। उत्तरवर्ती व्याख्या प्रन्थों में भी बहुश्रुत व्यक्ति के लिये विशेष नियम उपलब्ध होते हैं। प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में बताया गया है कि जो गणनायक बहुश्रुत नहीं होता, वह गण का अनुपकारी होता है। वह अपने शिष्यों की ज्ञानसंपदा कैसे बढ़ा सकता है? जो गण या कुल अगीतार्थ (अबहुश्रुत) की निश्रा में रहता है, उसका विस्तार नहीं होता। प्रगीतार्थ व्यक्ति बालवृद्धाकुलगच्छ का सम्यक् प्रवर्तन नहीं कर पाता। इसलिये उसकी चौथी योग्यता 'बहुश्रुतता' है । शक्ति-गणनायक को शक्तिसंपन्न होना चाहिये । उसकी शक्तिसंपन्नता के चार अवयव हैं १. शरीर से स्वस्थ व दृढ़ संहनन वाला होना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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