SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ चित्त-समाधि : जैन योग देशेन और सर्वेण का अर्थ इन्द्रियों की नियतार्थ ग्रहण-शक्ति और संभिन्नश्रोतोल ब्धि के आधार पर भी किया जा सकता है। सामान्यत: इन्द्रियों का काम निश्चित होता है। सुनना श्रोत्रेन्द्रिय का कार्य है। देखना चक्षु-इन्द्रिय का कार्य है । सूघना घ्राण-इन्द्रिय का कार्य है। स्वाद लेना रसनेन्द्रिय का कार्य है और स्पर्श-ज्ञान करना स्पर्शनेन्द्रिय का कार्य है। जिसे संभिन्नश्रोतोलब्धि प्राप्त होती है, उसके लिए इन्द्रियों की अर्थग्रहण की प्रतिनियतता नहीं रहती। वह एक इन्द्रिय से सब इन्द्रियों का कार्य कर सकता है-अांखों से सुन सकता है, कान से देख सकता है, स्पर्श से सुन सकता है, देख सकता है, संघ सकता है, एक इन्द्रिय से पाँचों इन्द्रियों का कार्य कर सकता है । अावश्यकचूर्णिकार ने लिखा है कि—संभिन्नश्रोतोलब्धि सम्पन्न व्यक्ति शरीर के एक देश से पांचों इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण कर लेता है। उन्होंने दूसरे स्थान पर यह लिखा है कि संभिन्नश्रोतोल ब्धि संपन्न व्यक्ति शरीर के किसी भी अंगोपांग से सब विषयों को ग्रहण कर सकता है । विषय की दृष्टि से देशेन सुनने का अर्थ है-श्रव्य शब्दों में से अपूर्ण शब्दों को सुनना और सर्वेण सुनने का अर्थ है-श्रव्य शब्दों में से सब शब्दों को सुनना। यहां दोनों अर्थ घटित हो सकते हैं, फिर भी सूत्र का प्रतिपाद्य संभिन्नश्रोतोलब्धि की जानकारी देना प्रतीत होता है। ६५. विक्रिया-विक्रिया का अर्थ है-विविध रूपों का निर्माण या विविध प्रकार की क्रियाओं का सम्पादन । वह दो प्रकार की होती है—भवधारणीय (जन्म के समय होनेवाली) और उत्तरकालीन । प्रस्तुत सूत्र में विक्रिया के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं—१. पर्यादाय, २. अपर्यादाय, ३. पर्यादाय-अपर्यादाय । भवधारणीय शरीर से अतिरिक्त रूपों का निर्माण (उत्तरकालीन-विक्रिया) बाह्यपुद्गलों का ग्रहण कर की जाती है, इसलिये उसकी संज्ञा पर्यादाय विक्रिया है। भवधारणीय विक्रिया बाह्यपुद्गलों को ग्रहण किये बिना होती है, इसलिये उसकी संज्ञा अपर्यादाय विक्रिया है। ___ भवधारणीय शरीर का कुछ विशेष संस्कार करने के लिये जो विक्रिया की जाती है, उसमें बाह्यपुद्गलों का ग्रहण और अग्रहण-दोनों होते हैं, इसलिये उसकी संज्ञा पर्यादाय-अपर्यादाय विक्रिया है। वत्तिकार ने विक्रिया का दूसरा अर्थ किया है—भूषित करना। बाह्यपुद्गल ग्राभरण आदि लेकर शरीर को विभूषित करना पर्यादाय विक्रिया होती है और बाह्यपुद्गलों का ग्रहण न करके केश, नख आदि को संवारना अपर्यादाय विक्रिया कहलाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy