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उत्तरज्झयणाणि
(ख) लगडं शयन-चक्र काष्ठ की भांति एड़ियों और शिर को भूमि से सटाकर शेष शरीर को ऊपर उठा कर सोना अथवा पीठ को भूमि से सटाकर शेष शरीर को उठाकर सोना।
(ग) उत्तान शयन .. सीधा लेटना। (घ) अवमस्तक शयन-ौंधा लेटना । (ङ) एक पार्श्व शयन-दाईं या बाईं करवट लेना। (च) मृतक शयन---शवासन । (५) अपरिकर्म योग (क) अभ्रावकाश शयन-खुले आकाश में सोना । (ख) अनिष्ठीवन --नहीं थूकना । (ग) अकण्डूयन-नहीं खुजलाना।
(घ) तृण-फलक-शिला-भूमि-शय्या-घास, काठ के फलक, शिला और भूमि पर सोना।
(ङ) केश-लोच-बालों को हाथ से नोंचना । (च) अभ्युत्थान-रात में जागना। (छ) प्रस्नान-स्नान नहीं करना । (ज) अदन्त-धावन—दातौन नहीं करना ।
(झ) शीत-उष्ण, आतापना, गर्मी और धूप सहन करना। ५६. श्लोक २८
इस श्लोक में छठे बाह्य-तप की परिभाषा की गई है। आठवें श्लोक में बाह्य-तप का छठा प्रकार 'संलीनता' बतलाया गया है और इस श्लोक में उसका नाम "विविक्त-शयनासन' है। भगवती में (२५/७/८०२) छठा प्रकार प्रतिसंलीनता' है। तात्पर्य सूत्र (६-१६) में विविक्त शयनासन बाह्य-तप का पांचवां प्रकार है । मलाराधना (३/२०८) में विविक्त-शय्या बाह्य-तप का छठा प्रकार है। इस प्रकार कुछ ग्रन्थों में संलीनता या प्रतिसंलीनता और कुछ ग्रन्थों में विविक्त-शय्यासन या विविक्त-शय्या का प्रयोग मिलता है। किन्तु प्रोपपातिक के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मूल शब्द 'प्रतिसंलीनता' है। विविक्त-शयनासन' उसी का एक अवान्तर भेद है। प्रतिसंलीनता चार प्रकार की होती है--१. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता, २. कषाय-प्रतिसंलीनता, ३. योग-प्रतिसंलीनता और ४. विविक्त-शयनासन-सेवन । . प्रस्तुत अध्ययन में संलीनता की परिभाषा केवल विविक्त-शयनासन के रूप में की गई, यह आश्चर्य का विषय है। हो सकता है सूत्रकार इसी को महत्त्व देना चाहते
तत्त्वार्थ सूत्र आदि उत्तरवर्ती-ग्रन्थों में इसी का अनुसरण हुआ है। मूलाराषना के अनुसार शब्द, रस, गन्ध और स्पर्श के द्वारा चित्त-विक्षेप नहीं होता, स्वाध्याय और
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