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चित्त-समाधि : जैन योग
(ङ) उद्भ्रमक गमन - अवस्थित ग्राम से भिक्षा के लिये दूसरे गांव में
जाना ।
(च) प्रत्यागमन - - दूसरे गांव जाकर पुनः अवस्थित गांव में लौट श्राना । (२) स्थान योग
श्वेताम्बर साहित्य में 'ठाणाइय' पाठ मिलता है और कहीं-कहीं 'ठाणायत' । 'ठाणायत' की अपेक्षा 'ठाणाइय' अधिक अर्थसूचक है ।
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श्रीपपातिक में भी तप के प्रकरण में 'ठाणाइय' है । मूलाराधना को देखने से सहज ही यह प्राप्त होता है कि आदि शब्द स्थान के प्रकारों का संग्राहक है । उसके अनुसार स्थान या ऊर्ध्वस्थान के सात प्रकार हैं
(क) साधारण स्तम्भ या भित्ति का सहारा लेकर खड़े होना ।
(ख) सविचार - पूर्वावस्थित स्थान से दूसरे स्थान में जाकर प्रहर दिवस प्रादि तक खड़े रहना ।
(ग) सनिरुद्ध -- स्व. स्थान में खड़े रहना ।
(घ) व्युत्सर्ग— कायोत्सर्ग करना ।
(ड) समपाद - पैरों को सटा कर खड़े रहना ।
(च) एकपाद - एक पैर से खड़े रहना ।
(छ) गृद्धोड्डीन - श्राकाश में उड़ते समय गीध जैसे अपने पंख फैलाता है, वैसे अपनी बाहों को फैलाकर खड़े रहना ।
(३) श्रासन योग
(क) पर्यंक -- दोनों जंघाओं के अधोभाग को दोनों पैरों पर टिकाकर बैठना । (ख) निषद्या - विशेष प्रकार से बैठना ।
(ग) समपाद - जंघा और कटि भाग को समान कर बैठना ।
(घ) गोदोहिका - गाय को दुहते समय जिस आसन में बैठते हैं, उस श्रासन में
बैठना ।
(ङ) उत्कटिका - ऊकडू बैठना - एड़ी और पुतों को ऊंचा रखकर बैठना । (च) मकरमुख - मगर के मुंह के समान पांवों की प्राकृति बनाकर बैठना । (छ) हस्तिगुंडि - हाथी की सूंड की भांति एक पैर को फैलाकर बैठना । (ज) गो-निषद्या - दोनों जंघाओं को सिकोड़कर गाय की तरह बठना । (झ) अर्धपर्यंक --- एक जंघा के अधोभाग को एक पैर पर टिकाकर बैठना । (ञ) वीरासन -- दोनों जंघात्रों को अन्तर से फैलाकर बैठना । (ट) दण्डायत -- दण्ड की तरह पैरों को फैलाकर बैठना । (४) शयन योग
( क ) ऊध्वंशयन - ऊंचा होकर सोना ।
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