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उत्तरज्झयणाणि
६. आयामौदन-जिसमें थोड़ा जल और अधिक अन्न-भाग हो, ऐसा आहार
अथवा ओसामण-सहित भात । ७. विकरौदन-बहुत पका हुआ भात अथवा गर्म-जल मिला हुआ भात ।
जो रस-परित्याग करता है, उसके तीन बाते फलित होती हैं—१. संतोष की भावना, २. ब्रह्मचर्य की आराधना, ३. वैराग्य । ५५. श्लोक २७ _ 'काय-क्लेश' बाह्य-तप का पांचवां प्रकार है। प्रस्तुत अध्ययन में काय-क्लेश का अर्थ 'वीरासन आदि कठोर प्रासन करना' किया है। स्थानांग में काय-क्लेश के सात प्रकार निर्दिष्ट हैं-- १. स्थान-कायोत्सर्ग, २. ऊकडू प्रासन, ३. प्रतिमा प्रासन, ४. वीरासन, ५. निषद्या, ६. दण्डायत प्रासन और ७. लगण्ड-शयनासन। इनकी सूचना 'वीरासणाईया' इस वाक्यांश में है।
प्रौपपातिक में काय-क्लेश के दस प्रकार बतलाए गए हैं--१. स्थान कायोत्सर्ग, २. ऊकडू प्रासन, ३. प्रतिमा श्रासन, ४. वीरासन, ५. निषद्या, ६. आतापना, ७. वस्त्रत्याग, ८. अकण्डूयन-खाज न करना, ६. अनिष्ठीवन----थूकने का त्याग और १०. सर्व गात्र परिकर्म विभूषा का वर्जन--देह परिकर्म की उपेक्षा।
प्राचार्य वसुनन्दि के अनुसार प्राचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, उपवास, बेला आदि के द्वारा शरीर को कृश करना 'काय-क्लेश' है ।
यह व्याख्या उक्त व्याख्याओं से भिन्न है। वैसे तो उपवास प्रादि करने में काया को क्लेश होता है, किन्तु भोजन से सम्बन्धित---अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति-संक्षेप और रसपरित्याग--चारों बाह्य-तपों से काय-क्लेश का लक्षण भिन्न होना चाहिये। इस दृष्टि से काय-क्लेश की व्याख्या उपवास-प्रधान न होकर अनासक्ति-प्रधान होनी चाहिये । शरीर के प्रति निर्ममत्व-भाव रखना तथा उसे प्राप्त करने के लिये प्रासन आदि साधना, उसको संवारने से उदासीन रहना ---यह काय-क्लेश का मूलस्पर्शी अर्थ होना चाहिये ।
कायक्लेश स्वयं इच्छानुसार किया जाता है और परीषह समागत कष्ट है। श्रुतसागर गणि के अनुसार ग्रीष्म ऋतु में धूप में, शीत ऋतु में खुले स्थान में और वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे सोना, नाना प्रकार की प्रतिमाएं और प्रासन करना 'काय-क्लेश'
मूलाराधना में 'काय-क्लेश' के पांच विभाग किये गये हैं(१) गमन योग
(क) अनुसूर्य गमन---कड़ी धूप में पूर्व से पश्चिम की ओर जाना। (ख) प्रतिसूर्य गमन-पश्चिम से पूर्व की ओर जाना। (ग) ऊर्ध्व सूर्य गमन – मध्याह्न सूर्य में गमन करना । (घ) तिर्यक्सूर्य गमन--सूर्य तिरछा हो तब गमन करना ।
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