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चित्त-समाधि : जैन योग
ध्यान में व्याघात नहीं होता, वह 'विविक्त-शय्या' है। जहाँ स्त्री-पुरुष और नपुंसक न हों, वह विविक्त-शय्या है। भले ही फिर उसके द्वार खुले हों या बन्द, उसका प्रांगण सम हो या विषम. वह गांव के बाह्य-भाग में हो या मध्य भाग में, शीत हो या ऊष्ण।
विविक्त-शय्या के कुछ प्रकार ये हैं- शुन्य-गृह, गिरि-गुफा, वृक्ष-मूल, आगन्तुकप्रागार (विश्राम-गृह), देव-कुल, अकृत्रिम-शिला-गृह और कूट गृह ।
विविक्त-शय्या में रहने से इतने दोषों से सहज ही बचाव हो जाता है--१. कलह, २. बोल (शब्द बहुलता), ३. मंझा (संक्लेश), ४. व्यामोह. ५. सांकर्य (असंयमियों के साथ मिश्रण), ६. ममत्व और ७. ध्यान तथा स्वाध्याय का व्याघात । ५७. श्लोक ३१
प्रायश्चित्त प्राभ्यान्तर-तप का पहला प्रकार है। उसके दस प्रकार हैं१. पालोचना-योग्य-गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना ।
२. प्रतिक्रमण-योग्य–किये हुये पापों से निवृत्त होने के लिये 'मिथ्या मे दुष्कृतम्' 'मेरे सब पाप निष्फल हों'---ऐसा कहना, कायोत्सर्ग करना तथा भविष्य में पाप-कार्यों से दूर रहने के लिये सावधान रहना ।
३. तदुभय-योग्य—पाप से निवृत्त होने के लिये आलोचना, प्रतिक्रमण-दोनों करना।
४. विवेक-योग्य-अाए हुए अशुद्ध-पाहार आदि का उत्सर्ग करना । ५. व्युत्सर्ग-योग्य---चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति के साथ कायोत्सर्ग करना। ६. तप-योग्य-उपवास, बेला प्रादि करना। ७. छेद-योग्य-पाप-निवृत्ति के लिये संयम-काल को छेदकर कम कर देना। ८. मूल-योग्य—पुनः व्रतों में आरोपित करना-नई दीक्षा देना। ६. अनवस्थापना-योग्य तपस्यापूर्वक नई दीक्षा देना। १०. पारांचिक-योग्य-भर्त्सना एवं अवहेलना पूर्वक नई दीक्षा देना।
तत्त्वार्थ सूत्र (६/२२) में प्रायश्चित्त के ६ प्रकार ही बतलाए गए हैं। पाराँचिक का उल्लेख नहीं है। ५८. श्लोक ३२
विनय माभ्यन्तर-तप का दूसरा प्रकार है। प्रस्तुत श्लोक में उसके प्रकारों का निर्देश नहीं है। स्थानांग (७/५८५), भगवती (२५/७/८०२), और भोपपातिक (सूत्र २०) में विनय के ७ प्रकार बतलाए गए हैं
१. ज्ञान-विनय-ज्ञान के प्रति भक्ति, बहुमान आदि करना। २. दर्शन-विनय-गुरु की शुश्रूषा करना, पाशातना न करना ।
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