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दशाश्रुतस्कंध
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१७. एवं अभिसमागम्म, चित्तमादाय आउसो ।
सेणिसोधिमुवागम्म, आत्तसोधिमुवेहइ.----त्ति बेमि ।। चित्तसमाधिस्थान-समाधि शब्द के अनेक अर्थ हैं। दशवैकालिक के वृत्तिकार हरिभद्रसूरी ने इसके तीन अर्थ किए हैं-हित, सुख और स्वास्थ्य । अगस्त्यसिंह स्थविर ने दशवकालिक चूर्णि में समाधि का अर्थ गुणों का स्थिरीकरण या स्थापन किया है।
चित्त की समाधि का अर्थ है-मन की समाधि, मन का समाधान, मन की प्रशान्तता । स्थान शब्द के दो अर्थ हैं.-आश्रय अथवा भेद ।।
प्रस्तुत आलापक में चित्त-समाधि के दस स्थान निर्दिष्ट किए हैं। उनमें कुछेक बहुत स्पष्ट हैं । जो अस्पष्ट हैं उनकी व्याख्या इस प्रकार है
१. धर्मचिन्ता-समवायांग के वृत्तिकार ने इस पद के तीन अर्थ किए हैं
१. पदार्थों के स्वभाव की अनुप्रेक्षा । २. सर्वज्ञभाषित धर्म ही प्रधान है, इस प्रकार का चिन्तन करना।
३. धर्म के ज्ञान का कारणभूत चिन्तन ।
असमुप्पण्णपुव्वा-जो अनादि-अतीत काल में कभी उत्पन्न नहीं हुई, वैसी धर्मचिन्ता के उत्पन्न होने पर अर्द्धपुद्गल परावर्त काल की सीमा में उस व्यक्ति का मोक्ष अवश्यंभावी हो जाता है । ऐसी धर्मचिन्ता से व्यक्ति का मन समाहित हो जाता है और वह जीव आदि के यथार्थ स्वरूप को जानकर, परिहीयकर्म का परिहार कर अपना कल्याण साध लेता है ।
२. स्वप्न दर्शन-इसका सामान्य अर्थ है-नींद में विभिन्न प्रकार के संवेदन करना । वही स्वप्न-दर्शन चित्त-समाधि का हेतु बनता है जो यथार्थग्राही होता है, जो कल्याण-प्रप्ति का सूचक होता है । जैसे भगवान महावीर को अस्थिकग्राम में स्वप्नदर्शन हुआ था। भगवान् वहां शूलपाणियक्ष के मन्दिर में रहे । शूलपाणियक्ष ने भगवान् को रात्रि के चारों प्रहर (कुछ समय तक) तक कष्ट दिए । रात्रि की अन्तिम बेला में भगवान् को कुछ नींद आई । तब उन्होंने दस स्वप्न देखे। वे दसों स्वप्न यथार्थ थे और भावी कल्याण के सूचक थे। इसी प्रकार जिस व्यक्ति को यथार्थ स्वप्न-दर्शन होता है वह भावी कल्याण की रेखाएं जानकर चित्त-समाधि को प्राप्त हो जाता है ।
३. संज्ञीज्ञान-~-प्रस्तुत प्रकरण में इसका अर्थ है---जातिस्मृति, पूर्वजन्मज्ञान । संज्ञाओं के अनेक वर्गीकरण हैं । उनमें एक वर्गीकरण के अनुसार संज्ञाएं तीन हैं ...
१. हेतुवादोपदेशिकी। २. दृष्टिवाद-सम्यक् दृष्टि ।
३. दीर्घकालिकी। ये तीनों ज्ञानात्मक हैं । ये क्रमशः विकलेन्द्रिय जीवों के, सम्यग्दृष्टि वाले जीवों के तथा समनस्क जीवों के होती हैं। वृत्तिकार का अभिप्राय है कि प्रस्तुत प्रकरण में दीर्घकालिकी संज्ञा ही ग्राह्य है । वह जिसके होती है वह समनस्क होता है, उसका ज्ञान
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