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चित्त-समाधि : जैन योग
संज्ञीज्ञान कहलाता है । यह सामान्य ज्ञान का वाचक है, परन्तु सूत्र की संगति के लिए संज्ञीज्ञान को जातिस्मृति ज्ञान ही मानना होगा ।
जातिस्मृति से पूर्वभवों का ज्ञान होने पर व्यक्ति में संवेग की वृद्धि हो सकती है और उससे उसे चित्त-समाधि प्राप्त होती है।
४. देव दर्शन-यह भी समाधि का कारण बनता है। देव अमुक-अमुक साधक के गुणों से आकृष्ट होकर उसे दर्शन देते हैं, उसके सामने प्रकट होते हैं। वे अपनी दिव्य देवऋद्धि-मुख्य देव परिवार आदि को, दिव्य देवद्युति-विशिष्ट शरीर तथा आभूषणों आदि की दीप्ति को तथा दिव्य देवानुभाव-उत्कृष्ट वैक्रिय आदि करने के सामर्थ्य को उस साधक को दिखाने के लिए प्रगट होते हैं। उन देवों की ऋद्धि, द्युति और अनुभाव को देखकर साधक के मन में आगमों के प्रति दृढ़ श्रद्धा पैदा होती है और धर्म के प्रति बहुमान-आन्तरिक अनुराग उत्पन्न होता है। इससे चित्त को समाधान प्राप्त होता है ।
५-६-७. इसी प्रकार विशिष्ट अवधिज्ञान, अवधिदर्शन और मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होने पर उसका चित्त समाहित और शांत हो जाता है। विकल्प नष्ट हो जाते हैं।
८. केवलज्ञान-यह समाधि का ही एक भेद है। इसलिए इसे समाधि का हेतुभूत माना है । यहां केवली के चित्त का अर्थ है-चैतन्य । केवलज्ञान इन्द्रिय और मानसिक ज्ञान से अतीत होता है । वह निरपेक्ष ज्ञान है । वह चैतन्य का संपूर्ण जागरण है । वही चित्त-समाधि है। यहां कार्य में कारण का उपचार कर केवलज्ञान को चित्तसमाधि का हेतु माना है।
६. केवल-दर्शन ।
१०. केवलिमरण-यह सर्वोत्तम समाधि का स्थान है । केवलिमरण मरने वाला सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत हो जाता है ।
दशाश्रुतस्कंध (दशा ५) में दस चित्त-समाधि स्थानों का उल्लेख है। वहां संज्ञीजातिस्मरण दूसरा और स्वप्न-दर्शन तीसरा चित्तसमाधि-स्थान है ।
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