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उत्तरज्मयणाणि
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४७. बाहिरब्भन्तरो
स्वरूप और सामग्री के आधार पर तप को दो भागों में विभक्त किया गया है१. बाह्य और २. प्राभ्यन्तर । बाह्य-तप-अनशन मादि-निम्न कारणों से बाह्य-तप कहलाते हैं :
१. इनमें बाहरी द्रव्यों की अपेक्षा होती है---प्रशन आदि द्रव्यों का त्याग होता
२. वे सर्व-साधारण के द्वारा तपस्या के रूप में स्वीकृत होते हैं । ३. उनका प्रत्यक्ष प्रभाव शरीर पर अधिक होता है। ४. वे मुक्ति के बहिरंग कारण होते हैं ।
मूलाराधना के अनुसार जिसके आचरण से मन दुष्कृत के प्रति प्रवृत्त न हो, प्रांतरिक-तप के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो और पूर्वगृहीत योगों (-स्वाध्याय आदि योगों या व्रत-विशेषों) की हानि न हो, वह बाह्य-तप होता है। प्राभ्यन्तर-तप-प्रायश्चित्त मादि-निम्न कारणों से ऐसे कहलाते हैं :
१. इनमें बाहरी द्रव्यों की अपेक्षा नहीं होती। २. वे विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा ही तप-रूप में स्वीकृत होते हैं । ३. उनका प्रत्यक्ष प्रभाव अन्तःकरण में होता है । ४. वे मुक्ति के अन्तरंग कारण होते हैं ।
महर्षि पतञ्जलि ने भी योग के अंगों को अन्तरंग और बहिरंग-इन दो भागों में विभक्त किया है। धारणा, ध्यान और समाधि-ये पूर्ववर्ती यम आदि पाँच साधनों की अपेक्षा अन्तरंग हैं। निर्बीज-योग की अपेक्षा वे बहिरंग भी हैं। इसका फलितार्थ यह है कि यम आदि पांच अंग बहिरंग हैं और धारणा आदि तीन अंग अन्तरंग और बहिरंग दोनों हैं । निर्बीज-योग केवल अन्तरंग है।
बाह्य-तप के छह प्रकार हैं- १. अनशन, २. अवमौदर्य, ३. वृत्ति-संक्षेप, ४. रसपरित्याग, ५. काय-क्लेश और ६. विविक्त-शय्या । बाह्य-तप के परिणाम
१. सुख की भावना स्वयं परिव्यक्त हो जाती है। २. शरीर कृश हो जाता है। ३. प्रात्मा संवेग में स्थापित होती है । ४. इन्द्रिय-दमन होता है। ५. समाधि-योग का स्पर्श होता है। ६. वीर्य-शक्ति का उपयोग होता है । ७. जीवन की तृष्णा विच्छिन्न होती है। क. संक्लेश-रहित दुःख भावना (कष्ट सहिष्णुता) का अभ्यास होता है।
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