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चित्त-समाधि : जैन योग
उतने समय तक अयोगी अवस्था रहती है । उस अवस्था में शुक्ल-ध्यान का चतुर्थ-चरण — 'समुच्छिन्न-क्रिय-अनि वृत्ति' नामक ध्यान होता है। वहां भवोपग्राही-कर्म एक साथ क्षीण हो जाते हैं । उसी समय औदारिक, तेजस और कार्मण शरीर को सर्वथा छोड़कर ऊर्ध्व-लोकान्त तक चला जाता है ।
___ गति दो प्रकार की होती है—१. ऋजु और २. वक्र। मुक्त-जीव का ऊर्ध्व-गमन ऋजु श्रेणी (ऋजु आकाश प्रदेश की पंक्ति) से होता है, इसलिए उसकी गति ऋजु होती है । वह एक क्षण में ही संपन्न हो जाती है।
गति के पाँच भेद बतलाए गए हैं-१. प्रयोग गति, २. तत गति, ३. बन्धनछेदन गति, ४. उपपात गति और ५. विहायो गति । विहायो-गति १७ प्रकार की होती है । उसके प्रथम दो प्रकार हैं- १. स्पृशद् गति और २. अर पेशद् गति । एक परमाणु पुद्गल दूसरे परमाणु पुद्गलों व स्कन्धों का स्पर्श करते हुए गति करता है, उस गति को स्पृशद् गति कहा जाता है। एक परमाणु दूसरे परमाणु पुद्गलों व स्कन्धों का पर्श करते हुए गति करता है, उस गति को 'अस्पृशद् गति' कहा जाता है ।
मुक्त-जीव अस्पृशद् गति से ऊपर जाता है । शन्त्यिाचार्य के अनुसार अस्पृशद् गति का अर्थ यह नहीं है कि वह अाकाश-प्रदेशों का स्पर्श नहीं करता, किन्तु उसका अर्थ यह है कि वह मुक्त जितने अाकाश-प्रदेशो में अवगाढ़ होता है, उतने ही अाकाश-प्रदेशों का मर्श करता है । उनसे अतिरिक्त प्रदेशों का नहीं, इसलिए उसे 'अर पृशद्-गति' कहा गया है।
अभयदेवसूरि के अनुसार मुक्त-जीव अन्तरालवर्ती अाकाश-प्रदेशों का स्पर्श किए बिना ही ऊपर चला जाता है । यदि अन्तरालवर्ती अाकाश-प्रदेशों का स्पर्श करता हुआ बह ऊपर जाए तो एक समय में वह वहां पहुंच ही नहीं सकता। इसके आधार पर अस्पृशद् गति का अर्थ होगा—'अन्तरालवर्ती आकाश-प्रदेशों का स्पर्श किए बिना मोक्ष तक पहुंचने वाला।'
पावश्यक चणि के अनुसार अस्पृशद् गति का अर्थ यह होगा कि मुक्त-जीव दूसरे समय का स्पर्श नहीं करता, वह एक समय में ही मोक्ष स्थान तक पहुंच जाता है । किन्तु 'एग समएणं अविग्गहेणं' पाठ की उपस्थिति में यह अर्थ यहां अभिप्रेत नहीं है।
___ शान्त्याचार्य और अभयदेवसूरि द्वारा कृत अर्थ इस प्रकार है --१. मुक्त-जीव स्वावगाढ़ आकाश-प्रदेशों से अतिरिक्त प्रदेशों का स्पर्श नहीं करता हुआ गति करता है और २. अन्तरालवर्ती प्राकाश-प्रदेशों का स्पर्श किए बिना ही गति करता है । ये दोनों ही अर्थ घटित हो सकते हैं ।
उपयोग दो प्रकार का होता है-१. साकार और २. अनाकार । जीव साकारउपयोग अर्थात् ज्ञान की धारा में ही मुक्त होता है।
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