SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरज्झयणाणि १५१ होते हैं। चरम समय में जो क्षीण होता है वह सूत्र में प्रतिपादित है, जैसे-पंचविघ, ज्ञानावरणीय, नव-विध दर्शनावरणीय और पंचविध अन्तराय-ये सारे एक ही साथ क्षीण होते हैं । इस प्रकार चारों घाति-कर्मों के क्षीण होते ही निरावरण ज्ञान—केवलज्ञान और केवल दर्शन का उदय हो जाता है। केवली होने के पश्चात् भवोपग्राही (जीवन धारण के हेतुभूत) कर्म शेष रहते हैं, तब तक वह इस संसार में रहता है। इसकी काल मर्यादा जघन्यतः अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्टतः देश-ऊन (नौ वर्ष कम) करोड़ पूर्व की है। इस अवधि में केवली जब तक सयोगी (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति युक्त) रहता है, तब तक उसके ईपिथिककर्म का बन्ध होता है । उसकी स्थिति दो समय की होती है। उसका बन्ध गाढ़ नहीं होता—निधत्त और निकाचित अवस्थाएं नहीं होतीं। इसीलिये उसे 'बद्ध और स्पृष्ट' कहा है। जिस प्रकार घड़ा आकाश से स्पृष्ट होता है, उसी प्रकार ईपिथिक कर्म केवली की आत्मा से बद्ध-स्पृष्ट होता है। जिस प्रकार चिकनी भित्ति पर फेंकी हुई धूलि उससे स्पष्ट मात्र होती है इसी प्रकार ईर्यापथिक कर्म केवली की आत्मा से बद्ध-स्पष्ट होती है, उसी प्रकार ईर्यापथिक-कर्म के वली की प्रात्मा से स्पृष्ट मात्र होता है । प्रथम समय में वह बद्ध-स्पृष्ट होता है और दूसरे समय में वह उदीरित-उदय-प्राप्त और वेदित-अनुभव प्राप्त होता है। तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो जाता है और चौथे समय में वह अकर्म बन जाता है—फिर उस जीव के कर्मरूप में परिणत नहीं होता। ४६. सूत्र ७३-७४ ___ केवली का जीवन-काल जब अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है, तब वह योग-निरोध (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध) करता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है -शुक्ल-ध्यान के तृतीय चरण (सूक्ष्म-क्रिय-अप्रतिपाति) में वर्तता हुआ वह सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करता है। प्रतिसमय मन के पुद्गल और व्यापार का निरोध करते करते असंख्य समयों में उसका पूर्ण निरोध कर पाता है। फिर वचन-योग का निरोध करता है। प्रति समय वचन के पुद्गल और व्यापार का निरोध करते-करते असंख्य समयों में उसका पूर्ण निरोध कर पाता है। फिर उच्छ्वास-निश्वास का निरोध करता है। प्रति समय काय-योग के पुद्गल और व्यापार का निरोध करतेकरते असंख्य समयों में उसका पूर्ण (उच्छ्वास-निश्वास सहित) निरोध कर पाता है । प्रोपपातिक में उच्छ्वास-निश्वास-निरोध के स्थान पर काय-योग के निरोध का उल्लेख है। मुक्त होनेवाला जीव शरीर की अवगाहना का तीसरा भाग जो पोला होता है, उसे पूरित कर देता है और प्रात्मा की शेष दो भाग जितनी अवगाहना रह जाती है । यह क्रिया काय-योग-निरोध के अन्तराल में ही निष्पन्न होती है। योग-निरोध होते ही अयोगी या शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है । उसे 'अयोगी गुणस्थान' भी कहा जाता है। न विलम्ब से और न शीघ्रता से, किन्तु मध्यम भाव से पाँच ह्रस्व-अक्षरों (अ, इ, उ, ऋ, लु) का उच्चारण करने में जितना समय लगता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy