SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० चित्त-समाधि : जन योग शीलेश । शीलेश की अवस्था को शैलेशी कहा जाता है। ४५. सूत्र ७२ इस सूत्र के अनुसार ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विराधना राग-द्वेष और मिथ्या-दर्शन से होती है। इन पर विजय प्राप्त करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना स्वयं प्राप्त हो जाती है । जो व्यक्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करता है, वह आठ कर्मों में जो कर्म-ग्रन्थि घाति-कर्म का समुदय है, उसे तोड़ डालता है। वह सर्वप्रथम मोहनीय-कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों को क्षीण करता है । क्षीण करने का क्रम इस प्रकार है-वह सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ के बहुल भाग को अन्तर्मुहूर्त में एक साथ क्षीण करता है और उसके अनन्तवें भाग को मिथ्यात्व के पुद्गलों में प्रक्षिप्त कर देता है। फिर उन प्रक्षिप्त पुद्गलों के साथ मिथ्यात्व के बहुल भाग को क्षीण करता है और उसके अंश को सम्यग्-मिथ्यात्व में प्रक्षिप्त कर देता है। फिर उन प्रक्षिप्त पुद्गलों के साथ सम्यक्-मिथ्यात्व को क्षीण करता है। इसी प्रकार सम्यग्-मिथ्यात्व के अंश सहित सम्यक्त्व-मोह के पुद्गलों को क्षीण करता है । तत्पश्चात् सम्यक्त्व-मोह के अवशिष्ट पुद्गलों सहित अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) को क्षीण करना शुरु कर देता है । उसके क्षय-काल में वह दो गति (नरक गति और तिर्यंच गति), दो आनुपूर्वी (नरकानुपूर्वी और तिर्यंचानुपूर्वी), जाति-चतुष्क (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) पातप, उद्योत, स्थावर नाम, सूक्ष्म नाम, साधारण, अपर्याप्त, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानद्धि को क्षीण करता है। फिर इनके अवशेष को नपुंसक-वेद में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण करता है। उसके अवशेष को स्त्रीवेद में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण करता है। उसके अवशिष्ट अंश को हास्यादि-षट्क (हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा) में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण करता है। मोहनीय-कर्म को क्षीण करने वाला यदि वह पुरुष होता है तो पुरुष-भेद के दो खंडों को और यदि स्त्री या नपुंसक होता है तो वह अपनेअपने वेद के दो-दो खंडों को हास्यादि षट्क के अवशिष्ट अंश सहित क्षीण करता है । फिर वेद के तृतीय खंड सहित संज्वलन क्रोध को क्षीण करता है। इसी प्रकार पूर्वांश सहित संज्वलन मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। संज्वलन लोभ के फिर संख्येय खंड किये जाते हैं। उनमें से प्रत्येक खंड को एकएक अन्तर्मुहुर्त में क्षीण किया जाता है। उसका क्षय होते-होते उनमें से जो चरम खंड बचता है उसके फिर असंख्य सूक्ष्म खंड होते हैं। उनमें से प्रत्येक खंड को एक-एक समय में क्षीण किया जाता है। उनका चरम खंड भी फिर असंख्य सूक्ष्म खंडों की रचना करता है। उनमें से प्रत्येक खंड को एक-एक समय में क्षीण किया जाता है। इस प्रकार मोहनीय-कर्म सर्वथा क्षीण हो जाता है । उसके क्षीण होने पर यथाख्यात या वीतराग-चारित्र की प्राप्ति होती है। वह अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। उसके अन्तिम दो समय जब शेष होते हैं, तब पहले समय में निद्रा, प्रचला, देव-गति, प्रानुपूर्वी, वैक्रिय-शरीर, वज्र-ऋषभ को छोड़कर शेष सब संहनन, संस्थान, तीर्थङ्कर-नाम कर्म और पाहारक-नाम कर्म क्षीण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy