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उत्तरज्झयणाणि
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४३. सूत्र ५७-५६
इन तीन सूत्रों में समाधारणा का निरूपण है। समाधारणा का अर्थ है-सम्यग् व्यवस्थापन या सम्यग-नियोजन । उसके तीन प्रकार है-१. मनः समाधारणता—मन का
व्यवस्थापन या नियोजन, २. ववः समाधारणता--वचन का स्वाध्याय में व्यवस्थापन या नियोजन और ३. काय-समाधारणता-काया का चारित्र की आराधना में व्यवस्थापन या नियोजन ।
मन को ज्ञान में लीन करने से एकाग्रता उत्पन्न होती है। उससे ज्ञानपर्यव (ज्ञान के सूक्ष्म-सूक्ष्मतर रूप) उदित होते हैं। उन ज्ञान-पर्यवों के उदय से सम्यग् दृष्टिकोण प्राप्त होता है और मिथ्या दृष्टिकोण समाप्त होता है । वचन को स्वाध्याय (शब्दोपासना) में लगाने से प्रज्ञापनीय दर्शन पर्यव विशुद्ध बनते हैं, अन्यथा निरूपण नहीं हो पाता। दर्शन की विशुद्धि ज्ञान-पर्यवों के उदय से हो जाती है। इसीलिये यहां वाकसाधारण अर्थात् वचन के द्वारा प्रतिपादनीय-दर्शन-पर्यवों की विशुद्धि ही अभिप्रेत है। वाक्-साधारण दर्शन-पर्यवों की विशुद्धि से सुलभ-बोविता प्राप्त और दुर्लभ-बोधिता क्षीण होती है।
___ काया को संयम की विविध प्रवृत्तियों (चारित्रोपासना) में लगाने से चारित्र के पर्यव विशुद्ध होते हैं। उनकी विशुद्धि होते-होते वीतराग-चारित्र प्राप्त होता है और अन्त में मुक्ति । ४४. सूत्र ६०-६२
पूर्ववर्ती तीन सूत्रों में ज्ञान-दर्शन और चारित्र के पर्यवों की शुद्धि की समाधारणा का परिणाम बतलाया गया है और इन तीन सूत्रों में ज्ञान, दर्शन और चारित्र सम्पन्न होने का परिणाम बतलाया गया है ।
ज्ञान-सम्पन्नता–यहां ज्ञान का अर्थ 'श्रुत (शास्त्रीय) ज्ञान' है। श्रुत-ज्ञान से सब भावों का अधिगम (ज्ञान) होता है । इसका समर्थन नंदी से भी होता है।
__ 'संघायणिज्जे'—जो श्रुत-ज्ञान-सम्पन्न होता है, उसके पास स्व-समय और परसमय के विद्वान् व्यक्ति प्राते हैं और उससे प्रश्न पूछकर अपने संशय उच्छिन्न करते हैं। इसी दृष्टि से श्रुत-ज्ञानी को 'संघातनीय'-जन-मिलन का केन्द्र कहा गया है । _ शैलेशी-शैलेशी शब्द शिला और शील इन दो रूपों से व्युत्पन्न होता है।
१. 'शिला' से शैल और 'शैल+ईश' से शैलेश होता है। शैलेश अर्थात् मेरु-पर्वत । शैलेश की भांति अत्यन्न स्थिर अवस्था को शैलेशी कहा जाता है । 'सेलेसी' का एक संस्कृत रूप शैलर्षि किया गया है । जो ऋषि शैल की तरह सुस्थिर होता है, वह शैलर्षि कहलाता है।
२. 'शील' का अर्थ समाधान है । जिस व्यक्ति को पूर्ण समाधान मिल जाता हैपूर्ण संवर की उपलब्धि हो जाती, वह 'शील का ईश' होता है । 'शील+ईश' =
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