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चित्त-समाधि : जैन योग
प्राचारांग नियुक्ति में संज्ञा के चौदह प्रकार मिलते हैं-१. आहारसंज्ञा, २. भयसंज्ञा, ३. परिग्रहसंज्ञा, ४. मैथुनसंज्ञा, ५. सुख-दुखसंज्ञा, ६. मोहसंज्ञा, ७. विचिकित्सासंज्ञा, ८. क्रोधसंज्ञा, ६. मानसंज्ञा, १०. मायासंज्ञा, ११. लोभसंज्ञा, १२. शोकसंज्ञा, १३. लोकसंज्ञा, १४. धर्मसंज्ञा।
प्रस्तुत प्रसंग में कुछ मनोवैज्ञानिक तथ्य भी ज्ञातव्य हैं। मनोविज्ञान ने मानसिक प्रतिक्रियाओं के दो रूप माने हैं--भाव (Feeling) और संवेग (Emotion) भाव सरल और प्राथमिक मानसिक प्रतिक्रिया है । संवेग जटिल प्रतिक्रिया है ।
भय, क्रोध, प्रेम, उल्लास, ह्रास, ईर्ष्या आदि को संवेग कहा जाता है। उसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक परिस्थिति में होती है और वह शारीरिक और मानसिक यंत्र को प्रभावित करता है।
संवेग के कारण बाह्य और प्रान्तरिक परिवर्तन होते हैं। बाह्य परिवर्तनों में ये तीन मुख्य हैं-१. मुखाकृति अभिव्यंजन, २. स्वाराभिव्यंजन, ३. शारीरिक-स्थिति ।
प्रान्तरिक परिवर्तन-१. श्वास की गति में परिवर्तन, २. हृदय की गति में परिवर्तन, ३. रक्तचाप में परिवर्तन, ४. पाचनक्रिया में परिवर्तन, ५. रक्त में रासायनिक परिवर्तन, ६. त्वक् प्रतिक्रियाओं तथा मानस-तरंगों में परिवर्तन, ७. ग्रन्थियों की क्रियाओं में परिवर्तन ।
मनोविज्ञान के अनुसार संवेग का उद्गम स्थान हाइपोथेलेमस माना जाता है । यह मस्तिष्क के मध्य भाग में होता है । यही संवेग का संचालन और नियन्त्रण करता है। यदि इसको काट दिया जाए तो सारे संवेग नष्ट हो जाते हैं ।
भाव रागात्मक होता है। उसके दो प्रकार हैं-सुखद और दुःखद । उसकी उत्पत्ति के लिये बाह्य उत्तेजना आवश्यक नहीं होती। ८. सरागसंयम-व्यक्ति-भेद से दो प्रकार का होता है
सरागसंयम-कषाययुक्त मुनि का संयम । वीतरागसंयम-उपशान्त या क्षीणकषाय वाले मुनि का
संयम। वीतरागसंयमी के आयुष्य का बंध नहीं होता। इसीलिये यहाँ सरागसंयम (सकषायचारित्र) को देवायु के बंध का कारण बतलाया गया है ।
संयमासंयम अांशिक रूप से व्रत स्वीकार करने वाले गृहस्थ के जीवन में संयम और असंयम दोनों होते हैं, इसलिये उसका संयम संयमासंयम कहलाता है।
बालतप : कर्म-मिथ्यादृष्टि का तपश्चरण ।
अकामनिर्जरा-निर्जरा की अभिलाषा के बिना कर्मनिर्भरण का हेतुभूत प्राचरण ।
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