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ठाणं
सिद्धसेनगणि ने औघज्ञान को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया है-बल्ली वृक्ष आदि पर आगेहण करती है। उसका यह प्रारोहणज्ञान न स्पर्शन इन्द्रिय से होता है और न मानसिक निमित्त से होता है । वह चेतना के अनावरण की एक स्वतन्त्र क्रिया है।
वर्तमान के वैज्ञानिक एक छठी इन्द्रिय की कल्पना कर रहे हैं। उसकी तुलना ओघसंज्ञा से की जा सकती है । उनकी कल्पना का विवरण इन शब्दों में है
सामान्यतया यह माना जाता है कि हमारे पाँच ज्ञानेन्द्रियां हैं-अांख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा। वैज्ञानिक अब यह मानने लगे हैं कि इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त एक छठी ज्ञानेन्द्रिय भी है। इसी छठी इन्द्रिय को अंग्रेजी में 'ई-एस.पी, (एक्स्ट्रासेन्सरी पर्सेप्शन) अथवा अतीन्द्रिय अन्तः करण कहते हैं। कई वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि प्रकृति ने यह इन्द्रिय बाकी पांचों ज्ञानेन्द्रियों से भी पहले मनुष्य को उसके पूर्वजों को तथा अनेक पशु-पक्षियों को प्रदान की थी। मनुष्य में तो यह शक्ति जब तब ही प्राकृतिक रूप में पाई जाती है, क्योंकि सभ्यता के विकास के साथ-साथ उसने इसका 'अभ्यास' त्याग दिया। अनेक पशु-पक्षियों में यह अब भी देखने में आती है। उदाहरणार्थ
१. भूकंप या तूफान आने से पहले पशु-पक्षी उसका आभास पाकर अपने बिलों, घोसलों या अन्य सुरक्षित स्थानों में पहुंच जाते हैं ।
२. कई मछलियां देख नहीं सकतीं, परन्तु सूक्ष्म विद्युत् धाराओं के जरिए पानी में उपस्थित रुकावटों से बचकर संचार करती हैं।
आधुनिक युग में आदिम जातियों के मनुष्यों में भी यह छठी इन्द्रिय काफी हद तक पायी जाती है । उदाहरणार्थ
१. आस्ट्रेलिया के आदिवासियों का कहना है कि वे धुएं के संकेत का प्रयोग तो केवल उद्दिष्ट व्यक्ति का ध्यान खींचने के लिये करते हैं और इसके बाद उन दोनों में विचारों का आदान-प्रदान मानसिक रूप से ही होता है ।
२. अमरीकी आदिवासियों में तो इस छठी इन्द्रिय के लिये एक विशिष्ट नाम का प्रयोग होता है और वह है 'शुम्फो' ।
लोकसंज्ञा-वृत्तिकार ने इसका अर्थ-विशेष अवबोध क्रिया, ज्ञानोपयोग और विशेष प्रवृत्ति—किया है।
प्रोघसंज्ञा के सन्दर्भ में इसका अर्थ विभागात्मक ज्ञान (इन्द्रियज्ञान और मानसज्ञान) किया जा सकता है ।
शीलांकसूरी ने प्राचारांग वृत्ति में लोकसंज्ञा का अर्थ लौकिक मान्यता किया है। किन्तु वह मूलस्पर्शी प्रतीत नहीं होता ।
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