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चित्त-समाधि : जैन योग
तारतम्य उदक के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। कर्दम के चिमटने पर उसे उतारना कष्टसाध्य होता है। खंजन को उतारना उससे अल्प कष्टसाध्य होता है। बालुका लगने पर जल के सूखते ही वह सरलता से उतर जाता है। शैल (प्रस्तरखंड) का लेप लगता ही नहीं। इसी प्रकार मनुष्य के कुछ भाव कष्टसाध्य लेप उत्पन्न करते हैं, कुछ अल्प कष्टसाध्य, कुछ सुसाध्य और कुछ लेप उत्पन्न नहीं करते।।
कर्दमजल की अपेक्षा खंजनजल अल्प मलिन, खंजनजल की अपेक्षा बालुकाजल निर्मल और बालुकाजल की अपेक्षा शैलजल अधिक निर्मल होता है। इसी प्रकार मनुष्य के भाव भी मलिनतर, मलिन, निर्मल और निर्मलतर होते हैं।
६. इस सूत्र में सूत्रकार ने एक मनोवैज्ञानिक रहस्य का उद्घाटन किया है। एक समस्या दीर्घकाल से उपस्थित होती रही है कि क्रोध का सम्बन्ध मनुष्य के अपने मस्तिष्क से ही है या बाह्य परिस्थितियों से भी है। वर्तमान के वैज्ञानिक भी इस शोध में लगे हुये हैं। उन्होंने मस्तिष्क के वे बिन्दु खोज निकाले हैं, जहाँ क्रोध का जन्म होता है । डाक्टर जोस० एम० आर० डेलगाडो ने अपने परीक्षणों द्वारा दूर शान्त बैठे बंदरों के विद्युत्-धारा से उन विशेष बिन्दुओं को छूकर लड़वा दिया। यह विद्युत्-धारा के द्वारा मस्तिष्क के विशेष बिन्दु की उत्तेजना से उत्पन्न क्रोध है। इसी प्रकार अन्य बाह्यनिमित्तों से भी मस्तिष्क का क्रोध-बिन्दु उत्तेजित होता है और क्रोध उत्पन्न हो जाता है। यह पर-प्रतिष्ठित क्रोध है। आत्म-प्रतिष्ठित क्रोध अपने ही आन्तरिक निमित्तों से उत्पन्न होता है।
७. प्रस्तुत प्रकरण में संज्ञा के दो अर्थ किये गये हैं—प्राभोग (संवेगात्मक-ज्ञान या स्मृति) और मनोविज्ञान । संज्ञा के दस प्रकार निर्दिष्ट हैं। उनमें प्रथम आठ प्रकार संवेगात्मक तथा अंतिम दो प्रकार ज्ञानात्मक हैं। इनकी उत्पत्ति बाह्य और प्रान्तरिक उत्तेजना से होती है । आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञानों की उत्पत्ति के चार-चार कारण चतुर्थ स्थान में निर्दिष्ट हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ-इन चार संज्ञाओं की उत्पत्ति के कारण स्थानांग (४/८०-८३) में प्राप्त होते हैं।
प्रोघसंज्ञा-वृत्तिकार ने इसका अर्थ—सामान्य अवबोध क्रिया, दर्शनोपयोग या सामान्य प्रवृत्ति किया है । तत्त्वार्थ भाष्यकार ने ज्ञान के दो निमित्तों का निर्देश किया है। इन्द्रिय के निमित्त से होने वाला ज्ञान और अनिन्द्रिय के निमित्त से होने वाला ज्ञान । स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द का ज्ञान स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्रइन्द्रिय से होता है। यह इन्द्रिय-निमित्त से होने वाला ज्ञान है । प्रनिन्द्रिय के निमित्त से होने वाले ज्ञान के दो प्रकार हैं-मानसिकज्ञान और प्रोघज्ञान । इन्द्रियज्ञान विभागात्मक होता है, जैसे-नाक से गंध का ज्ञान होता है, चक्षु से रूप का ज्ञान होता है । प्रोघज्ञान निविभाग होता है। वह किसी इन्द्रिय या मन से नहीं होता। किन्तु वह चेतना की, इन्द्रिय और मन से पृथक्, एक स्वतंत्र क्रिया है ।
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