SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं पानी पर खींची रेखा के समान आदमी। भिक्षुओ! पत्थर पर खींची रेखा के समान आदमी कैसा होता है ? भिक्षुत्रो ! एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका वह क्रोध दीर्घकाल तक रहता है, जैसेभिक्षुओ ! पत्थर पर खींची रेखा शीघ्र नहीं मिटती, न हवा से न पानी से, चिरस्थायी होती है, इसी प्रकार भिक्षुप्रो ! यहाँ एक प्रादमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका वह क्रोध दीर्घकाल तक रहता है । भिक्षुप्रो ! ऐसा व्यक्ति 'पत्थर पर खींची रेखा के समान प्रादमी' कहलाता है। भिक्षुग्रो ! पृथ्वी पर खिची रेखा के समान आदमी कैसा होता है ? भिक्षुत्रो ! एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका वह क्रोध दीर्घकाल तक नहीं रहता, जैसेभिक्षुप्रो ! पृथ्वी पर खींची रेखा शीघ्र मिट जाती है। हवा से या पानी से चिरस्थायी नहीं होती। इसी प्रकार भिक्षुत्रो ! यहाँ एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका क्रोध दीर्घकाल तक नहीं रहता। भिक्षुग्रो ! ऐसा व्यक्ति पृथ्वी पर खिंची रेखा के समान आदमी' कहलाता है। भिक्षुनो ! पानी पर खिंची रेखा के समान आदमी कैसा होता है ? भिक्षुत्रो ! कोई-कोई आदमी ऐसा होता है कि यदि कडुग्रा भी बोला जाय, कठोर भी बोला जाय, अप्रिय भी बोला जाय तो भी वह जुड़ा ही रहता है, मिला ही रहता है, प्रसन्न ही रहता है। जिस प्रकार भिक्षुग्रो ! पानी पर खिची रेखा शीघ्र विलीन हो जाती है, चिरस्थायी नहीं होती, इसी प्रकार भिक्षुप्रो ! कोई-कोई प्रादमी ऐसा होता है, जिसे यदि कडुवा भी बोला जाय, कठोर भी बोला जाय, अप्रिय भी बोला जाय तो भी वह जुड़ा ही रहता है, मिला ही रहता है, प्रसन्न ही रहता है । ४. अनन्तानुबन्धी कषाय के उदयकाल में सम्यक्-दर्शन प्राप्त नहीं होता । अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में व्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में महाव्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती। संज्वलन कषाय के उदयकाल में वीतरागता उपलब्ध नहीं होती। अनन्तानुबन्धी लोभ की कृमिरागरक्त वस्त्र से तुलना की गई है। वृद्ध सम्प्रदाय के अनुसार कृमिराग का अर्थ इस प्रकार है। मनुष्य का रक्त लेकर उसमें कुछ दूसरी वस्तुएं मिलाकर एक बर्तन में रख दिया जाता है। कुछ समय बाद उसमें कृमि उत्पन्न हो जाते हैं। वे हवा की खोज में घूमते हुए, छेदों से बाहर आकर लार छोड़ते हैं । उन्हीं (लारों) को कृमि-सूत्र कहा जाता है । वे स्वभाव से ही लाल होते हैं। दूसरा अभिमत यह है-रुधिर में जो कृमि उत्पन्न होते हैं, उन्हें वहीं मसलकर कचरे को उतार दिया जाता है। उसमें कुछ दूसरी वस्तुएं मिला उसे रञ्जक-रस (कृमिराग) बना लिया जाता है। ५. प्रस्तुत सूत्र में भावों की लिप्तता-अलिप्तता तथा मलिनता-निर्मलता का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy