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________________ सूयगडो C. ( सू० १।२६ ) संकल्प से काम और बात से संस्तव ( गाढ़ परिचय ) उत्पन्न होता है । उससे कर्म का बंध होता है । मनुष्य जब मरता है तब कामनाएं और परिचित भोग उसके साथ नहीं जाते । वह उनके द्वारा अर्जित कर्म - बन्धनों के साथ परलोक में जाता है । स्वभावतः या किसी निमित्त से मृत्यु के आने पर मनुष्य का जीवन-सूत्र टूट जाता है । काम और परिचित भोग सामग्री यहां रह जाती है और वह कहीं अन्यत्र चला जाता है । संयोग का अन्त वियोग में और जीवन का अन्त मृत्यु में होता हैं, इसलिये मनुष्य को जागरण की दिशा में प्रमत्त नहीं होना चाहिये । १०. ( सू० १२१३९ ) ताइणो- त्राता तीन प्रकार के होते हैं १. आत्म- त्राता - जिनकल्पिक मुनि । -- २. पर त्राता - —अर्हत् । ३. उभय त्राता - गच्छवासी मुनि । आसणं - चूर्णिकार ने इसका अर्थ- आसन, पीठ, फलक आदि किया है और इसके द्वारा उपाश्रय का भी ग्रहण किया है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-- वसति किया है । ११. ( सू० १1१०1७ ) प्रथम दो चरणों का प्रतिपाद्य है- मध्यस्थ ही संपूर्ण समाधियुक्त होता है । चूहों को मारकर बिल्ली का पोषण करने वाला एक का प्रिय करता है तो दूसरे का अप्रिय करता है । यह प्रिय और अप्रिय संपादन का प्रसंग समाधि का विघ्न है, इसलिये समता अनुप्रेक्षी प्रिय और अप्रिय के झंझट में न जाए । २३५ १२. (सू० १1११1७ ) स्व पुढो सत्ता - जिनमें पृथक्-पृथक् सत्त्व-आत्मा हो उन्हें पृथक् सत्त्व कहा जाता है । प्रत्येक आत्मा का अस्तित्व स्वतंत्र होता है । जैन दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु- ये सभी पृथक् सत्त्व होते हैं, इनकी अवगाहना बहुत सूक्ष्म होती है । अंगुल के असंख्येय भाग मात्र में अनेक जीव समा जाते हैं । सब जीवों का तंत्र अस्तित्व होता है । वनस्पतिकाय के दो भेद हैं- साधारण वनस्पति और प्रत्येक वनस्पति । साधारण वनस्पति अपृथक् सत्त्ववाली होती है । उसमें एक शरीर में अनन्त जीवों का आश्रय होता है । प्रत्येक वनस्पति पृथक् सत्त्व वाली होती है । उसमें प्रत्येक जीव का शरीर भिन्न-भिन्न होता हैं । Jain Education International शब्द विशेष विवरण के लिये देखें – दसवेआलियं ( पृ० १२५,१२६ ) वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चरण में 'प्रयुक्त 'पुढो सत्ता' वनस्पति के दो भेद - साधारण और असाधारण ( प्रत्येक ) बतलाने के लिये है । साधारण वनस्पति अपृथक् सत्त्व वाली होती है । जो सूक्ष्म वनस्पति है, वह सब For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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