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________________ २३४ चित्त-समाधि : जैन योग जो साधक भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करता है, वह विच्छिन्न विशुद्ध ध्यान के क्रम को पुनः साध लेता है । विशेष विवरण के लिये देखें-१. 'उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन', पृष्ठ १३७-१४२, २. 'उत्तरज्झयणाणि', भाग २ पृ० २६७-२६८ । चूर्णिकार ने भावना और योग को भिन्न-भिन्न मानकर, जिसकी आत्मा भावना और योग से विशुद्ध है उसे 'भावनायोगशुद्धात्मा' माना है । अथवा भावना और योग में जिसकी आत्मा विशुद्ध है-वह भावना योग शद्धात्मा है। वृत्तिकार ने इसे एक शब्द मानकर व्याख्या की है। जैनयोग की अनेक शाखाएं हैं :-दर्शनयोग, ज्ञानयोग, चरित्रयोग, तपोयोग, स्वाध्याययोग, ध्यानयोग, भावनायोग, स्थानयोग, गमन योग और आतापनायोग । जले णावा व आहिया-जैसे जल में चलती हुई या ठहरी हुई नौका नहीं डूबती, वैसे ही जिसकी आत्मा भावनायोग से विशुद्ध है, वह भी संसार में नहीं डूबता। वह संसार में रहता हुआ भी संसार में लिप्त नहीं होता, नौका की तरह जल से ऊपर रहता है। णावा व...."तिउदृति-नौका में नाविक है, अनुकूल पवन बह रहा है, किसी भी प्रकार की बाधा नहीं है, वह नौका सहजता से तीर को प्राप्त कर लेती है। वैसे ही विशुद्ध चरित्रवाला यह जीवरूपी पोत, आगम रूपी कर्णधार से अधिष्ठित होकर तप रूपी पवन से प्रेरित होता हुआ, सर्व दुःखात्मक संसार से पार चला जाता है और समस्त द्वन्द्वों से रहित मोक्ष रूपी तीर को पा लेता है। ७. (सू० १।२।२) जागना दुर्लभ है--यही प्रस्तुत श्लोक का हार्द है । जो वर्तमान क्षण में जागृत नहीं होता, समय की प्रतीक्षा में रहता है, वह जाग नहीं पाता । कोई भी व्यक्ति युवा होकर पुनः शिशु नहीं होता और वृद्ध होकर पुनः युवा नहीं होता । शैशव और यौवन की जो रात्रियां बीत जाती हैं वे फिर लौटकर नहीं आतीं । जीवन को बढ़ाया नहीं जा सकता, इसलिये जागृति के लिये वर्तमान क्षण ही सबसे उपयुक्त है । जो मनुष्य भविष्य में जागृत होने की बात सोचते हैं, वे अपने आपको आत्म-प्रवंचना में डाल देते हैं। ८. (सू० ११२१५) मनुष्य अपने मोह के कारण अनित्य को नित्य मानकर उसमें आसक्त हो जाता है। उसकी आसक्ति जागृति में बाधा बनती है । अनित्यता का बोध उस बाधा के व्यूह को तोड़ता है। देव और मनुष्य के भोग अनित्य हैं । उनका जीवन ही अनित्य है तब उनके भोग नित्य कैसे हो सकते हैं ? इस सत्य का बोध हो जाने पर मनुष्य जागृति के लिये प्रयत्नशील हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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