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उत्तरज्भयणाणि
कायोत्सर्ग का मुख्य उद्देश्य है प्रात्मा का काया से वियोजन। काया के साथ प्रात्मा का जो संयोग है, उसका मूल है प्रवृत्ति। जो इनका विसंयोग चाहता है अर्थात आत्मा के सान्निध्य में रहना चाहता है, वह स्थान, मौन और ध्यान के द्वारा 'स्व' का व्युत्सगं करता है।
स्थान-काया की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण-काय-गुप्ति । मौन-वाणी की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण-वाक्-गुप्ति । ध्यान—मन की प्रवृत्ति का एकाग्रीकरण-मनो-गुप्ति ।
कायोत्सर्ग में श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म प्रवृत्ति होती है, शेष प्रवृत्ति का निरोध किया जाता है। कायोत्सर्ग चार प्रकार का होता है
(१) उत्थित-उत्थित--जो खड़ा-खड़ा कायोत्सर्ग करता है और धर्म्य या शुक्लध्यान में लीन होता है, वह काया से भी उन्नत होता है और ध्यान से भी उन्नत होता है, इसलिए उसके कायोत्सर्ग को 'उत्थित-उत्थित' कहा जाता है ।
(२) उत्थित-उपविष्ट-जो खड़ा-खड़ा कायोत्सर्ग करता है, किन्तु प्रार्त या रौद्र ध्यान से अवनत होता है, इसलिये उसके ध्यान को 'उत्थित-उपविष्ट' कहा जाता है।
(३) उपविष्ट-उत्थित-जो बैठकर कायोत्सर्ग करता है और धर्म्य या शुक्ल-ध्यान में लीन होता है, वह काया से बैठा हुआ होता है और ध्यान से खड़ा होता है, इसलिए उसके कायोत्सर्ग को 'उपविष्ट-उत्थित' कहा जाता है।
(४) उपविष्ट-उपविष्ट–जो बैठकर कायोत्सर्ग करता है और आर्त या रौद्रध्यान में लीन होता है, वह काया और ध्यान दोनों से बैठा हुआ होता है, इसलिये उसके कायोत्सर्ग को 'उपविष्ट-उपविष्ट' कहा जाता है ।
इनमें प्रथम और तृतीय अंगीकरणीय हैं और शेष दो त्याज्य हैं।
प्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार कायोत्सर्ग खड़े, बैठे और सोते-इन तीनों अवस्थामों में किया जा सकता है। इस भाषा में 'कायोत्सर्ग' और 'स्थान' दोनों एक बन जाते हैं। प्रयोजन की दृष्टि से कायोत्सर्ग के दो प्रकार हैं
१. चेष्टा कायोत्सर्ग—अतिचार शुद्धि के लिये जो किया जाता है ।
२. अभिनव-कायोत्सर्ग-विशेष विशुद्धि या प्राप्त कष्ट को सहने के लिये जो किया जाता है।
चेष्टा-कायोत्सर्ग का काल उच्छवास पर आधृत है। विभिन्न प्रयोजनों से वह आठ, पच्चीस, सत्ताईस, तीन सौ, पाँच सौ और एक हजार पाठ उच्छ्वास तक किया जाता
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