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________________ १७६ चित्त-समाधि : जन योग (ख) विपरिणाम-अनुप्रेक्षा-----वस्तुओं के विविध परिणामों का चिन्तन करना। (ग) अशुभ-अनुप्रेक्षा-पदार्थों की अशुभता का चिन्तन करना। (घ) अपाय-अनुप्रेक्षा-दोषों का चिन्तन करना। ६२. श्लोक ३६ ___व्युत्सर्ग प्राभ्यन्तर-तप का छठा प्रकार है। भगवती (२५/७/८०२) और प्रोपपातिक (सूत्र २०) के अनुसार व्युत्सर्ग दो प्रकार का होता है १. द्रव्य-व्युत्सर्ग और २. भाव-व्युत्सर्ग । द्रव्य-व्युत्सर्ग के चार प्रकार ...... शारीरिक चंचलता का विसर्जन । .-विशिष्ट साधना के लिये गण का विसर्जन । (ग) उपधि-व्युत्म...वस्त्र प्रादि उपकरणों का विसर्जन । (घ) भक्त-पान-व्युत्सर्ग- भोजन और जल का विसर्जन । भाव-व्युत्सर्ग के तीन प्रकार (क) कषाय-व्युत्सर्ग-क्रोध आदि का विसर्जन । (ख) संसार व्युत्सर्ग --परिभ्रमण का विसर्जन । (ग) कर्म-व्युत्सर्ग-कर्म-पुद्गलों का विसर्जन । प्रस्तुत श्लोक में केवल काय-व्युत्सर्ग की परिभाषा की गई है। इसका दूसरा नाम 'कायोत्सर्ग' है । कायोत्सर्ग का अर्थ है 'काया का उत्सर्ग-त्याग'।। प्रश्न होता है कि प्रायु पूर्ण होने से पहले काया का उत्सर्ग कैसे हो सकता है ? यह सही है कि जब तक आयु शेष रहती है, तब तक काया का उत्सर्ग——त्याग नहीं किया जा सकता। किन्तु यह काया अशुचि है, अनित्य है, दोषपूर्ण है, असार है, दुःख-हेतु है, इसमें ममत्व रखना दुःख का मूल है—इस बोध से भेद-ज्ञान प्राप्त होता है। जिसे भेद-ज्ञान प्राप्त होता है, वह सोचता है कि यह शरीर मेरा नहीं है, मैं इसका नहीं हूं। मैं भिन्न हं, शरीर भिन्न है। इस प्रकार का संकल्प करने से शरीर के प्रति आदर घट जाता है। इस स्थिति का नाम है 'कायोत्सर्ग'। एक घर में रहने पर भी पति द्वारा अनादत पत्नी परित्यक्ता' कहलाती है। जिस वस्तु के प्रति जिस व्यक्ति के हृदय में अनादर-भाव होता है, वह उसके लिये परित्यक्त होती है। जब काया में ममत्व नहीं रहता, पादरभाव नहीं रहता, तब काया परित्यक्त हो जाती है। कायोत्सर्ग-विधि जो कायोत्सर्ग करना चाहे, वह काया से निस्पृह होकर खंभे की भांति सीधा खड़ा हो जाए। दोनों बांहों को घुटनों की ओर फैला दे, प्रशस्त-ध्यान में निमग्न हो जाए काया को न अकड़ा कर खड़ा हो और न झुकाकर भी। परीषह और उपसर्गों को सहन करे। जीव-जन्तु-रहित एकान्त स्थान में खड़ा रहे और कायोत्सर्ग मुक्ति के लिये करे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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