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ठाणे
५. मर्यादा का पालन । ६. संयम की दृढ़ता । ७. आराधना ।
प्रायश्चित्त एक प्रकार की चिकित्सा है। चिकित्सा रोगी को कष्ट देने के लिये नहीं की जाती, किन्तु रोग निवारण के लिये की जाती है। इसी प्रकार प्रायश्चित्त भी राग आदि अपराधों के उपशमन के लिये दिया जाता है।
निशीथभाष्यकार ने तीर्थंकर की धनवंतरी से, प्रायश्चित्त प्राप्त साधु की रोगी से, अपराधों की रोगों से और प्रायश्चित्त की औषध से तुलना की है।
४२. विनय-विनय का एक अर्थ है-कर्मपुद्गलों का विनयन-विनाश करने वाला प्रयत्न। इस परिभाषा के अनुसार ज्ञान, दर्शन आदि को विनय कहा गया है, क्योंकि उनके द्वारा कर्मपुद्गलों का विनयन होता है । विनय का दूसरा अर्थ हैभक्ति-बहुमान आदि करना। इस परिभाषा के अनुसार ज्ञान-विनय का अर्थ हैज्ञान की भक्ति-बहुमान करना। तपस्या का पूर्णांग एवं व्यवस्थित निरूपण औपपातिक में मिलता है।
४३. दो सूत्रों में दस प्रकार के वैयावृत्त्य निर्दिष्ट हैं। वैयावृत्त्य का अर्थ हैसेवा करना, कार्य में प्रवृत्त होना। अग्लानभाव से किया जाने वाला वैयावृत्त्य महानिर्जरा-बहुत कर्मों का क्षय करने वाला तथा महापर्यवसान-जन्म-मरण का आत्यन्तिक उच्छेद करने वाला होता है। अग्लान भाव का अर्थ है- अखिन्नता, बहुमान ।
दस प्रकार ये हैं१. प्राचार्य-ये पांच प्रकार के होते हैं--प्रव्राजनाचार्य, दिगाचार्य, उद्देसनाचार्य,
समुद्देशनाचार्य और वाचनाचार्य । २. उपाध्याय—सूत्र की वाचना देने वाला । ३. स्थविर-धर्म में स्थिर करने वाले । ये तीन प्रकार के होते है
जातिस्थविर—जिसकी आयु ६० वर्ष से अधिक है। पर्यायस्थविरजिसका पर्यायकाल २० वर्ष या अधिक है।
ज्ञानस्थविर-स्थानांग तथा समवायांग का धारक । ४. तपस्वी—मासक्षपण आदि बड़ी तपस्या करने वाला। ५. ग्लान-रोग आदि से प्रसक्त, खिन्न । ६. शैक्ष-शिक्षा ग्रहण करने वाला, नवदीक्षित । ७. कुल—एक प्राचार्य के शिष्यों का समुदाय । ८. गण—कुलों का समुदाय । ६. संघ—गणों का समुदाय । १०. सार्मिक-वेष और मान्यता में समानधर्मा ।
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