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चित्त-समाधि : जैन योग
उतने ही अपराध होते हैं और जितने अपराध होने हैं, उतने ही उनके प्रायश्चित्त होने चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है । प्रायश्चित्त के जो प्रकार निर्दिष्ट हैं, वे व्यवहार नय की दृष्टि से पिंडरूप में निर्दिष्ट हैं ।
दिगम्बर परम्परानुसारी तत्त्वार्थसूत्र तथा उसकी व्याख्या -- तत्त्वार्थ वार्तिक में प्रायश्चित्त के नौ ही प्रकार निर्दिष्ट हैं - १. आलोचना, २ . प्रतिक्रमण, ३. तदुभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. परिहार, ६. उपस्थापना ।
इनमें दसवें प्रायश्चित्त- पारांचिक का उल्लेख नहीं है । मूल प्रायश्चित्त के स्थान पर 'उपस्थापना' का उल्लेख है । अर्थ एक ही है ।
तत्वार्थ वार्तिक में 'अनवस्थाप्य' का भी उल्लेख नहीं है, किन्तु उसमें 'परिहार' नामक प्रायश्चित्त का उल्लेख है, जो श्वेताम्बर परम्परा में प्राप्त नहीं हैं । इसका अर्थ है— पक्ष, मास श्रादि काल मर्यादा के अनुसार प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि को संघ से बाहर
रखना ।
अपकृष्ट आचार्य के पास प्रायश्चित्त ग्रहण करना अनुपस्थापन है और तीन प्राचार्यों तक, एक आचार्य से अन्य आचार्य के पास प्रायश्चित्त ग्रहण करने के लिये भेजना पारांचिक है ।
तत्त्वार्थवार्तिक में प्रायश्चित्त प्राप्ति का विवरण इस प्रकार है
१. विद्या और ध्यान के साधनों को ग्रहण करने आदि में विनय के बिना प्रवृत्ति करना दोष है, उसका प्रायश्चित्त है आलोचना |
२. देश और काल के नियम से अवश्य करणीय विधानों को धर्म - कथा आदि के कारण भूल जाने पर पुनः करने के समय प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त ।
३. भय, शीघ्रता, विस्मरण, अज्ञान, अशक्ति और आपत्ति आदि कारणों से महाव्रतों में प्रतिचार लग जाना ---इसके लिये छेद के पहले के छहों प्रायश्चित्त हैं ।
४. शक्ति का गोपन न कर प्रयत्न से परिहार करते हुए किसी कारणवश अप्रासुक के स्वयं ग्रहण करने या ग्रहण कराने में, व्यक्त प्रासुक का विस्मरण हो जाए और ग्रहण करने पर उसका स्मरण हो जाए तो पुनः उत्सर्ग (विवेक) करना ही प्रायश्चित्त है ।
५. दुःस्वप्न, दुश्चिन्ता, मलोत्सर्ग, मूत्र का प्रतिचार, महानदी और महाअटवी को पार करने में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है ।
६. बार-बार प्रमाद, बहु दृष्ट अपराध, प्राचार्य श्रादि के विरुद्ध वर्तन करना, सम्यग्दर्शन की विराधना होने पर क्रमश: छेद, मूल अनुपस्थापना और पारांचिक प्रायश्चित्त दिया जाता है ।
प्रायश्चित्त के निम्न निर्दिष्ट प्रयोजन हैं - १. प्रमादजनित दोषों का निराकरण । २. भावों की प्रसन्नता । ३. शल्य रहित होना । ४. अव्यवस्था का निवारण ।
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