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________________ १५८ चित्त-समाधि : जैन योग और चतुर्विध आहार का भी। इंगिनी और पादोपगमन इन दोनों में चतुर्विध पाहार का परित्याग किया जाता है। भक्त-प्रत्याख्यान अनशन करने वाला अपनी इच्छा के अनुसार प्रा-जा सकता है । इंगिनी अनशन करने वाला नियत प्रदेश में इधर-उधर आ-जा सकता है, किन्तु उससे बाहर नहीं जा सकता है । पादोपगमन अनशन करने वाला वृक्ष के समान निश्चेष्ट होकर लेटा रहता है या जिस आसन में अनशन प्रारम्भ करता है, उसी प्रासन में स्थिर रहता है-हलन-चलन नहीं करता। भक्त-प्रत्याख्यान अनशन करने वाला स्वयं भी अपनी शुश्रूषा करता है और दूसरों से भी करवाता है । इंगिनी अनशन करने वाला दूसरों से शुश्रूषा नहीं करवाता, किन्तु स्वयं अपनी शुश्रूषा कर सकता है। पादोपगमन अनशन करने वाला अपने शरीर की शुश्रूषा न स्वयं करता है और न किसी दूसरे से करवाता है। ___ शान्त्याचार्य ने निर्हारि और अनिर्हारि-ये दोनों पादोपगमन के प्रकार बतलाए हैं । किन्तु स्थानांग में ये दो प्रकार भक्त-प्रत्याख्यान के भी किये गए हैं । दिगम्बर प्राचार्य शिवकोटि और अनशन १. भक्त-प्रत्याख्यान उनके अनुसार भक्त-प्रत्याख्यान अनशन के दो प्रकार हैं-१. सविचार और २. अविचार। जो उत्साह-बलयुक्त है, जिसकी मृत्यु तत्काल होने वाली नहीं है, उस मुनि के भक्त-प्रत्याख्यान को 'सविचार-भक्त-प्रत्याख्यान' कहा जाता है। ___ मृत्यु की आकस्मिक संभावना होने पर जो भक्त-प्रत्याख्यान किया जाता है, उसे 'अविचार-भक्त-प्रत्याख्यान' कहा जाता है। उसके तीन प्रकार हैं-१. निरुद्ध : जो रोग और आतंक से पीड़ित हो, जिसका जंघाबल क्षीण हो और जो दूसरे गण में जाने में असमर्थ हो, उस मुनि के भक्त-प्रत्याख्यान को 'निरुद्ध अविचार भक्त-प्रत्याख्यान' कहा जाता है। जब तक उसमें बल-वीर्य होता है, तब तक अपना काम स्वयं करता है और जब वह असमर्थ हो जाता है, तब दूसरे मुनि उसकी परिचर्या करते हैं। जंघाबल क्षीण होने पर अन्य गण में जाने में असमर्थ होने के कारण जो मुनि अपने गण में ही निरुद्ध रहता है, उसके भक्त-प्रत्याख्यान को 'अनिर्हारि' भी कहा जाता है। इसमें अनियत विहार मादि की विधि नहीं होती, इसलिये उसे 'प्रविचार' कहा जाता है । निरुद्ध दो प्रकार का होता है-१. जन-ज्ञात और २. जन-अजात । २. निरुद्धतर : मृत्यु का तात्कालिक कारण (सर्प-दंश, अग्नि प्रादि) उपस्थित होने पर तत्काल भक्त-प्रत्याख्यान किया जाता है, उसका नाम निरुद्धतर है । बल-वीर्य की तत्काल हानि होने पर वह पर-गण में जाने में अत्यन्त असमर्थ होता है, इसलिये उसका मनशन 'निरुद्धतर' कहलाता है । यह अनिर्हारि होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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