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________________ उत्तरज्झयणाणि १५६ ३. परमनिरुद्ध : सर्प-दंश आदि कारणों से जब वाणी रुक जाती है, उस स्थिति के भक्त-प्रत्याख्यान को 'परमनिरुद्ध' कहा जाता है । २. इंगिनी इस अनशन की अधिकांश विधि भक्त.प्रत्याख्यान के समान होती है । केवल इतना विशेष होता है कि इंगिनी अनशन करने वाला दूसरे मुनियों से सेवा नहीं लेता, अपन। काम स्वयं करता है । उपसर्ग होने पर भी निष्प्रति-कर्म होता है-प्रतिकार रहित सहता ३. प्रायोपगमन इसमें तृणसंस्तर (घास का बिछौना) नहीं किया जाता, स्वयं परिचर्या करना भी वजित होता है, यह सर्वथा अपरिकर्म होता है । भक्त-प्रत्याख्यान में शारीरिक परिचर्या स्वयं की जाती है, दूसरों से कराई भी जाती है। इंगिनी में वह स्वयं की जाती है, दूसरों से नहीं कराई जाती । प्रायोपगमन में वह न स्वयं की जाती है और न दूसरों से कराई जाती है । प्रायोपगमन अनशन करने वाला शरीर को इतना कृश कर लेता है कि उसके मलमूत्र आदि होते ही नहीं । वह अनशन करते समय जहां अपना शरीर टिका देता है, वहीं स्थिर-भाव से टिकाए रहता है। इस प्रकार वह निष्प्रति-कर्म होता है। वह अचल होता है, अनिहर्हार होता है। दूसरा कोई व्यक्ति उसे उठाकर किसी दूसरे स्थान में डाल देता तो पर-कृत चालन की अपेक्षा वह निहरि भी हो जाता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्परा में अनशन के तीनों प्रकार और अनेक नाम समान हैं । 'पामोअगमण' का संस्कृत रूप श्वेताम्बर प्राचार्यों ने पादपोपगमन' किया है, वहां दिगम्बर आचार्यों ने 'प्रायोपगमन' । अर्थ की दृष्टि से 'पादपोपगमन' अधिक उपयुक्त है, किन्तु छाया की दृष्टि से 'प्रायोपगमन' होना चाहिए। महाभारत में अनशनकर्ता के अर्थ में 'प्रायोपविष्ट' शब्द का प्रयोग मिलता है। कश्मीर में अनशन के प्रबन्ध के लिए एक पदाधिकारी नियुक्त था, जो 'प्रायोपवेश' कहलाता था। सविचार और अविचार, निर्हारि और अनिहारि-इनका अर्थ दोनों परम्पराओं में भिन्न हैश्वेताम्बर दिगम्बर १. सविचार-गमनागमन-सहित अर्ह, लिंग आदि विकल्प-सहित । २. अविचार—गमनागमन-रहित अर्ह, लिंग आदि विकल्प-रहित । ३. निर्दारि—उपाश्रय के एक देश में, स्व-गण का त्याग कर पर गण में जा जिससे मृत्यु के पश्चात् शरीर का सके, वह । निर्हरण किया जाए-बाहर ले जाया जाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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